*_जय श्री महाकाल_* 🙏/ प्रस्तुति -- कृष्ण मेहता
*एक राह पर चलते -चलते दो व्यक्तियों की मुलाकात हुई । दोनों का गंतव्य एक था, तो दोनों यात्रा में साथ हो चले । सात दिन बाद दोनों के अलग होने का समय आया तो एक ने कहा- भाई साहब ! एक सप्ताह तक हम दोनों साथ रहे, क्या आपने मुझे पहचाना ?*
*दूसरे ने कहा:- नहीं, मैंने तो नहीं पहचाना।*
*पहला यात्री बोला:- महोदय, मैं एक नामी ठग हूँ , परन्तु आप तो महाठग हैं । आप मेरे भी गुरू निकले ।*
*दूसरा यात्री बोला:- कैसे ?*
*पहला यात्री- कुछ पाने की आशा में मैंने निरंतर सात दिन तक आपकी तलाशी ली, मुझे कुछ भी नहीं मिला । इतनी बड़ी यात्रा पर निकले हैं तो क्या आपके पास कुछ भी नहीं है ? बिल्कुल खाली हाथ हैं ।*
*दूसरा यात्री:- मेरे पास एक बहुमूल्य हीरा है और थोड़ी-सी रजत मुद्राएं भी हैं ।*
*पहला यात्री बोला:- तो फिर इतने प्रयत्न के बावजूद वह मुझे मिले क्यों नहीं ?*
*दूसरा यात्री- मैं जब भी बाहर जाता, वह हीरा और मुद्राएं तुम्हारी पोटली में रख देता था और तुम सात दिन तक मेरी झोली टटोलते रहे । अपनी पोटली सँभालने की जरूरत ही नहीं समझी । तो फिर तुम्हें कुछ मिलता कहाँ से ?*
*यही समस्या हर इंसान की है । आज का इंसान अपने सुख से सुखी नहीं है । दूसरे के सुख से दुखी है, क्योंकि निगाह सदैव दूसरे की गठरी पर होती है !!*
*ईश्वर नित नई खुशियाँ हमारी झोली में डालता है, परन्तु हमें अपनी गठरी पर निगाह डालने की फुर्सत ही नहीं है । यही सबकी मूलभूत समस्या है । जिस दिन से इंसान दूसरे की ताकझांक बंद कर देगा उस क्षण सारी समस्या का समाधान हो जाऐगा !!*
*"अपनी गठरी ही टटोलें।" जीवन में सबसे बड़ा गूढ़ मंत्र है । स्वयं को टटोले और जीवन-पथ पर आगे बढ़े …सफलतायें आप की प्रतीक्षा में हैं !*
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