रिश्ता चाक और मिट्टी का
आलोक यात्री
मैं परम सौभाग्यशाली हूं कि गुरुवर डॉ. बेचैन का सानिध्य मुझे बचपन से ही हासिल हो गया था।जो जीवनपर्यंत चला। बचपन में वह मेरे लिए एक पड़ोसी थे। मेरे किशोरावस्था तक पहुंचने तक उनसे मेरा साक्षात्कार बतौर गीतकार के रूप में हुआ। वह अपनी नवप्रकाशित पुस्तक देने पिताश्री के पास आते थे। उनका संभवतः पहला संग्रह "पिन बहुत सारे" था
जिस समय वह पुस्तक आई उस समय मैं दस ग्यारह साल का रहा होऊंगा। लेकिन पुस्तकों से मेरा नाता तब तक काफ़ी मज़बूत हो गया था। चंदामामा, इंद्रजाल कॉमिक्स, नंदन, चंपक, पराग की दुनिया में विचरण करने वाले बालक के हाथ में पहली किताब "डेविड कॉपरफील्ड" डॉ. बेचैन ने ही थमाई थी। उस समय शाय मैं चौथी क्लॉस में पढ़ता था। चार्ल्स डिकेंस के इस उपन्यास को पढ़ते हुए बार-बार हिचकियों के साथ रोना आ जाता था। कोई रोना देख न ले इसलिए डेविड कॉपरफील्ड छिप-छिप कर पढ़ी जाती थी।
बाल पत्रिकाओं से निकलने की उम्र और किशोरावस्था तक पहुंचने के बीच हाथ में डॉ. बेचैन की पुस्तक "पिन बहुत सारे" आ गई।
इस पुस्तक का कवर आज भी ज़ेहन में महफूज़ है। संग्रह की कुछ कविताएं भी स्मृति में होंगी।
हाई स्कूल तक आते-आते डॉ. बेचैन का पड़ोस तो छूट गया लेकिन उनके घर आगमन का सिलसिला निरंतर जारी रहा।और... हम सब का उन्हें मंत्रमुग्ध होकर सुनना। सच कहूं तो मुझे उनके गीतों से इश्क हो गया था।
उसी दौरान आई "भीतर सांकल, बाहर सांकल"। क्या बताऊं...? कितनी बार पढ़ी होगी "भीतर सांकल बाहर सांकल"। एक-एक गीत, एक-एक कविता कंठस्थ थी उस समय। गुरुदेव के गीतों का खुमार सिर चढ़कर बोलता था।
कह सकता हूं कि वह मेरा कविता से रोमांस का स्वर्णिम काल था।उसी समय नीरज जी के "कारवां गुज़र गया..." ने दिल की सांकल खटखटा दी। ऊपर से कविता से हमारे रोमांस पर गुरुदेव के गीतों का मुलम्मा।
इसी दौरान मैंने साइंस साइड से इंटर कर लिया और बीएससी में एडमिशन लेने के लिए एम. एम. एच. कॉलेज के चक्कर लगा रहा था। आप पूछ सकते हैं कि एडमिशन के लिए चक्कर लगाने की क्या ज़रूरत थी? असल में हुआ यूं था कि उसी साल बी.एस.सी. का पाठ्यक्रम तीन साल का हो गया, जिसके विरोध में विश्व विद्यालय स्तर पर छात्र आंदोलन पर उतर आए थे।
कॉलेज परिसर में गुरुदेव से मुलाकात हुई तो गुरुवर ने समझाया "अव्वल तो सरकार झुकेगी नहीं, झुकेगी तो छात्रों का एक साल बर्बाद होना तय है, लिहाजा बीए में एडमिशन ले लो"।
सलाह तो ठीक थी लेकिन सब्जेक्ट...?
गुरुवर ने सुझाया "हिंदी, इंग्लिश लिटरेचर के अलावा दर्शनशास्त्र ले सकते हो..."
एडमिशन काउंटर पर पहुंच कर वहां बैठे इंचार्ज प्रोफेसर से मंशा जता दी। उन्होंने साथ बैठे क्लर्क से मेरा फार्म भरवा कर फीस जमाकर रसीद मेरे हाथ में थमा दी।चार-पांच दिन बाद क्लासेज शुरू हो गईं। हिंदी की क्लास में पहले ही दिन गुरुवर हमारे हीरो होने के साथ-साथ रोल मॉडल भी बन गए।
एक दो-दिन बाद दर्शनशास्र की क्लॉस में पहुंचे तो प्रोफेसर फतेह सिंह जी ने बताया कि बी.ए. दर्शनशास्र में दो ही छात्रों ने एडमिशन लिया है। दोनों ही मेरे मौहल्ले के थे। लिस्ट में अपना नाम क्यों नहीं है? पता किया तो पता चला काउंटर पर बैठे क्लर्क ने फार्म में साइक्योलॉजी की जगह सिस्योलॉजी भर दिया था। खैर... वहां भी एक पड़ोसी प्रोफेसर डॉ. जे. एल. रैना जी का भरपूर आशीर्वाद मिला।
गुरुवर की क्लॉस अद्भुत होती थी। पीरियड खत्म होने के घंटे से ही तंद्रा भंग होती थी। क्लाॅस में हर दिन एक नए कुंअर बेचैन से साक्षात्कार होता था और हम अपने इर्दगिर्द हर दिन गीत, कविताओं के नए-नए "शामियाने" खड़े करते या फिर कविता की "महावर" रचते रहते थे। कह सकते हैं कि व्यस्क होने के साथ हम न सिर्फ कुंअर बेचैन के गीतों के इश्क में पागल थे, बल्कि एक तरह से उन्हें ही ओढ़ते-बिछाते थे।
खैर... गुरुवर की इस तस्वीर से तमाम लोग वाक़िफ होंगे, लेकिन मैं आता हूं अब दूसरी बात पर...।
हमारे सिलेबस में कहानी और उपन्यास भी शामिल थे। एक दिन गुरुवर ने सिलेबस में लगी एक कहानी पढ़ कर आने को कहा।
घर पहुंचकर कहानी कई बार पढ़ी। हर बार सिर के ऊपर से गुज़र गई।
अगले दिन गुरुवर ने क्लास में उस कहानी पर चर्चा शुरू की। असल में वह "अकहानी" थी। तब तक मैं लगभग एक हजार से अधिक कहानियां और तीन सौ से अधिक उपन्यास पढ़ चुका था। काफ्का, निर्मल वर्मा, अज्ञेय और ज्यां पॉल सात्र से भी पाला पड़ चुका था। लेकिन "अकहानी" से मेरी वह पहली मुठभेड़ थी।
गुरुदेव ने "अकहानी" के संदर्भ में जिस तरह से बताया वह किसी टॉनिक की तरह भीतर उतरता चला गया। गुरुवर तो टॉनिक पिला कर मुक्त हो गए लेकिन "अकहानी" दीमाग में अटक गई। देह ने गर्भ धारण कर लिया था। प्रसव पीड़ा भयंकर रूप धारण कर चुकी थी।
"चौराहे पर मौत" के साथ मैं प्रसव पीड़ा से मुक्त हुआ। कहानी लिखने की यह मेरी पहली कोशिश थी।
सोचा इस कहानी को पिताश्री का आशीर्वाद दिला दूं, लेकिन यह पता न होने के कारण कि कहानी लिखी कैसे जाती है, उनसे बात करने का साहस नहीं हुआ। कोई और ज़रिया न देखते हुए नवजात "चौराहे पर मौत" को गुरुवर की झोली में डाल आया। गुरुवर ने नवजात को यथावत दुलारा-पुचकारा। और... बी.ए. के एक जाहिल से छात्र की कहानी "चौराहे पर मौत" उसी साल "सारिका" में छप गई। कहानी भले ही मैंने लिखी थी लेकिन द्रोणाचार्य के रूप में गुरुवर ही थे।
नवजात को देश भर में आशीर्वाद मिला। दर्जनों ख़त आए, सराहना भी मिली, गुरुवर का प्रोत्साहन भी,
गुरुवर की छाया में कविता लिखने वाला मैं अकिंचन अचानक कहानी की पगडंडी पर निकल गया। उन दिनों विश्वविद्यालय स्तर पर "मोदी कला भारती" द्वारा कहानी, कविता और लेख पर पुरस्कार दिए जाते थे। गुरुवर के प्रोत्साहन से एक और कहानी "आवाज़ों का सैलाब" मोदी कला भारती में बाज़ी मार ले गई।
गुरुवर से बहुत लंबा नाता रहा।
"ग़ज़ल का व्याकरण" लिखते हुए उनके सामने बैठ कर ग़ज़ल के क्षेत्र में भी खूब कूद-फांद की गई। लेकिन गुरुवर की बदौलत "अकहानी" से हुआ इश्क मुझे आज भी खुमार में रखे हुए है। मेरा और गुरुवर का रिश्ता मिट्टी और कुम्हार का सा है। कहानी की पगडंडी से मैं हाइवे पर तो नहीं पहुंच सका, लेकिन इस मार्ग पर मुझे अग्रसर करने के लिए परम आदरणीय गुरुवर डॉ. कुंअर बेचैन का आजीवन ऋणी रहुंगा।
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