गुरुवार, 21 जुलाई 2022

आनंद बक्शी सा कोई नहीं / सुनील दत्ता = कबीर

 आज जन्मदिन है 


'ज़िक्र होता है जब क़यामत का तेरे जलवों की बात होती है

तू जो चाहे तो दिन निकलता है तू जो चाहे तो रात होती है ''


'' धरती तेरे लिए , तू है धरती के लिए 

धरती के लाल तू न कर इतना मलाल .

 तू नही है कंगाल .तेरी दौलत है तेरे हौसले ''

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आज जिनका जन्मदिन है ==== आनन्द बख्शी


आंतरिक मन जब अपने कल्पनाओं को उड़ान देता है तो हृदय के समुद्र में ज्वार - भाटे आते रहते है | और यह सुकोमल मन अपने हृदय रूपी समुद्र से अनेक सीपियो को चुनकर उनमे से मोतियों के शब्दों को कागज के कैनवास पर शब्दों के विभिन्न रंगों से सजाकर एक मोतियों की माला बनाता है उसकी श्रृखला तैयार करता है 

तब जाकर वह गीत असंख्य मानव तक पहुचती है | ऐसा ही एक सृजनशील व्यक्तित्व पाकिस्तान के रावलपिंडी शहर में 21 जुलाई सन 1930 को गीतों का कोहिनूर बन कर जन्म लेता है और अपने शब्दों की सृजन शीलता से पूरी दुनिया के लोगो के दिलो पर राज करता है | 

ऐसे गीतों के चितेरा को लोग आनन्द बख्शी के नाम से जानते | आनन्द जी को परिवार के लोग नन्दू कहकर बुलाते थे और नन्दू बचपन से ही अपनी दुनिया में मस्त रहकर एक नई दुनिया के सपने गढ़ता था वो भी ऐसे एहसासों के सपने जो देश , काल , परिस्थितियों का ताना बना बुनता हो |

आनन्द बख्शी ने अपनी शिक्षा अधूरी छोड़कर 14 वर्ष की ही उम्र में वो बम्बई आ गये यहाँ आकर उन्होंने रायल इन्डियन नेवी में एक कैडेट के तौर पर दो वर्ष नौकरी की किन्ही विवादों के चलते उन्हें यह नौकरी छोडनी पड़ी इसके बाद 1947 से 1956 तक इन्होने भारतीय सेना में नौकरी की | 

एक संवेदनशील आदमी के हाथ में बंदूक भाति नही है कयोकी उसकी दुनिया तो अलग है जहा बारिश की बूंदों का एहसास तितलियों j मचलना ,फूलो का मुस्कुराना और आम आदमी के दुःख - दर्द की पिधा का समावेश होता है | ऐसे में आनन्द बख्शी ने फ़ौज की नौकरी छोड़ दी और अपने कल्पनाओं को साकार रूप देने के लिए उन्होंने फ़िल्मी दुनिया की राह पकड़ी ऐसे में उन्हें उस जमाने के मशहूर अभिनेता भगवान दादा से मुलाक़ात हुई | शायद नियति ने पहले से ही यह तय कर रखा था की उन्हें गीतकार बनना है |


बम्बई जाकर अन्होंने ठोकरों के अलावा कुछ नहीं मिला, न जाने यह क्यों हो रहा था? पर कहते हैं न कि जो होता है भले के लिए होता है। फिर वह दिल्ली तो आ गये और EME नाम की एक कम्पनी में मोटर मकैनिक की नौकरी भी करने लगे, लेकिन दीवाने के दिल को चैन नहीं आया और फिर वह भाग्य आज़माने बम्बई लौट गये। इस बार बार उनकी मुलाक़ात भगवान दादा से हुई जो फिल्म 'बड़ा आदमी(1956)' के लिए गीतकार ढूँढ़ रहे थे और उन्होंने आनन्द बक्षी से कहा कि वह उनकी फिल्म के लिए गीत लिख दें, इसके लिए वह उनको रुपये भी देने को तैयार हैं। पर कहते हैं न बुरे समय की काली छाया आसानी से साथ नहीं छोड़ती सो उन्हें तब तक गीतकार के रूप में संघर्ष करना पड़ा |


आनन्द बख्शी फिल्मो के कैनवास का वह नाम है जिसके बिना आज तक बनी हुई बड़ी से बड़ी म्यूजिकल फिल्मे शायद वह सफलता हासिल न कर पाती जिसको बनाने वाले आज गर्व से सर उंचा करते है | '' प्रेम हो या जीवन दर्शन - इनकी सभी व्याख्याए बस एक धुधली सी आकृति उकेरने की कोशिश करती है यह समझने की कोशिश है की जीवन में जो हो रहा है उसकी अंतर्धारा मनुष्यता को किस और ले जाता है |

प्रेम की महीन अभिव्यक्तिया जीवन के समस्त आयामों को पार करती निरंतर नये रूप में धरती को सृजित करती है |


प्रेम शाश्वत होते हुए भी अपनी अभिव्यक्ति में बहुरुपिया होता है | पल -- पल रूप बदलने वाला | ऐसे में प्रेम की भाषा को न्य स्वरूप दिया आनन्द बख्शी ने 

जब तक सूरज प्रकाश की फिल्म 'मेहदी लगी मेरे हाथ(1962)' और 'जब-जब फूल खिले(1965)' पर्दे पर नहीं आयी। अब भाग्य ने उनका साथ देना शुरु कर दिया था या यूँ कहिए उनकी मेहनत रंग ला रही थी |


जब आनन्द बख्शी ममता के प्यार को समझते है तो अन्यास ही यह बाते नही कहते 

''बड़ा नटखट है रे कृष्ण\-कन्हैया

का करे यशोदा मैय्या, हाँ ... बड़ा नटखट है रे


ढूँढे री अंखियाँ उसे चारों ओर

जाने कहाँ छुप गया नंदकिशोर

ढूँढे री अंखियाँ उसे चारों ओर

जाने कहाँ छुप गया नंदकिशोर

उड़ गया ऐसे जैसे पुरवय्या

का करे यशोदा मैय्या, हाँ ... बड़ा नटखट है रे '''


इनके गीतों में अथाह प्यार की अभिव्यक्ति नजर आती है | जब बंजारों के दर्शन की बात करते है तो कह पड़ते है

'' एक बंजारा गाए, जीवन के गीत सुनाए

हम सब जीने वालों को जीने की राह बताए ''


और जब वो किसी अल्हड युवती के सम्वेदनाओ को देखते है तो एक मीठी प्यार का एहसास कराते है 

'' अब के बरस भी बीत न जाये

ये सावन की रातें

देख ले मेरी ये बेचैनी

और लिख दे दो बातें ...


खत लिख दे सांवरिया के नाम बाबू

कोरे कागज़ पे लिख दे सलाम बाबू '' 

और जब दर्द की पराकाष्ठा को उकेरते है तो अन्यास ही नही निकलते यह शब्द असीम दर्द की गहराइयो से ये शब्द मुखरित होता है |सुपर स्टार राजेश खन्ना के कैरियर को ऊँचाइयोंतक पहुचने में आनन्द बख्शी के गीतों का बहुत बड़ा योगदान है '' अम्र प्रेम की वो व्यथा -----


''चिंगारी कोई भड़के, तो सावन उसे बुझाये

सावन जो अगन लगाये, उसे कौन बुझाये,

ओ... उसे कौन बुझाये


पतझड़ जो बाग उजाड़े, वो बाग बहार खिलाये

जो बाग बहार में उजड़े, उसे कौन खिलाये

ओ... उसे कौन खिलाये ----


आनन्द बख्शी को मिले सम्मानों को देखा जाये तो उन्होंने अपने गीतों के लिए चालीस बार फिल्म फेयर एवार्ड के लिए नामित किया गया था लेकिन इस सम्मान के के हकदार वो सिर्फ चार बार बने | आनन्द बख्शी ने अपने साइन कैरियर में दो पीढ़ी के संगीतकारों के साथ काम किया है जिनमे सचिन देव बर्मन , राहुल देव बर्मन , चित्रगुप्त , आनन्द मिलिंद , कल्याण जी आनन्द जी , विजू शाह ,रौशन और राजेश रौशन जैसे संगीतकार शामिल है |

फिल्म इंडस्ट्रीज में बतौर गीतकार स्थापित होने के बाद भी पाशर्व गायक बनने की इच्छा हमेशा बनी रही वैसे उन्होंने वर्ष 1970 में बनी फिल्म '' मैं ढूढ़ रहा था सपनो में '' और '' बागो में बहार आई '' में दो गीत गाये है | चार दशको तक फील्मी गीतों के बेताज बादशाह रहे आनन्द बख्शी ने 550 से भी ज्यादा फिल्मो में लगभग 4000 हजार गीत लिखे | अपने गीतों से लगभग चार दशक तक लोगो के दिलो पर हुकूमत किया 30 मार्च 2002 को को वो इस दुनिया से यह कहते हुए अलविदा किया |


'' नफ़रत की दुनिया को छोड़ के, प्यार की दुनिया में

खुश रहना मेरे यार

इस झूठ की नगरी को छोड़ के, गाता जा प्यारे

अमर रहे तेरा प्यार '' 

आज हमारे बीच गीतों के चितेरा नही है पर उनके लिखे गीत आज भी हमे महसूस कराते है वो कही हमारे आसपास ही मौजूद है ऐसे गीतों के चितेरा को शत शत नमन उनके जन्म दिन पर


''ज़िक्र होता है जब क़यामत का तेरे जलवों की बात होती है

तू जो चाहे तो दिन निकलता है तू जो चाहे तो रात होती है ''


सुनील दत्ता = कबीर

 स्वतंत्र पत्रकार व दस्तावेजी प्रेस छायाकार

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