स्कंद पुराण की सनत्कुमार संहिता में श्री शिवपुराण का श्रवण व्रत करनेवालों यानी सुननेवालों के लिये विधि-निषेध, मने सुनते समय क्या करें क्या न करें ? - का वर्णन किया गया है -
वक्ता का मुख उत्तर दिशा की ओर हो और मुख्य श्रोता - सुनने वाले का मुँह पूर्व की ओर हो,
उदङ्मुखो भवेद्वक्ता श्रोता प्राग्वदनस्तथा ६.२०
काहे भाई ?
बोले - माइक का युग था नहीं, और यदि सुनने के लिए बैठे हो तो कान में वाणी पड़े इसका क्या उपाय है ?
मने वक्ता की सुन्दरता गौण है,
मंच की सुन्दरता मुख्य नहीं है,
मुख्य है - भगवान की कथा का कान में पड़ना
सावन यानी श्रावण
भगवान की कथा-श्रवण- सुनने का महीना
...
स्रवन सुजस सुनि आयउँ ...
✍🏻सोमदत्त द्विवेदी
दृश्य का दृष्टिसम्पात....!
अभी वैदिक शुक्र और शुचि ने अपनी पीठ घुमाई है। आषाढ़ की क्रीड़ा अभी थकी नहीं है। नभ और नभस्य का आगमन हो चुका है। छिटपुट बादल डोलते रहते हैं। यदाकदा सूरज को छाप लेते हैं। पुरवाई उन्हें धकियाती हुई लिवा जाती है। अभी ताप की तपस्या शिखर पर है। हवा धूप को और चमका जाती है। सूरज का स्वच्छ चेहरा धरती के दर्पण में दीखता है।
पूर्वाषाढ़ नक्षत्र के स्वामी शुक्र हैं जबकि उत्तराषाढ़ा के सूर्य।श्रवण के स्वामी चंद्रमा हैं। ये तारा-समूह चन्द्रपथ पर चलते हुए कितना कुछ करा जाते हैं। धरती आकाश से दूर नहीं अपितु आकाश में ही स्थित है। यहाँ कुछ भी अपनेआप नहीं होता किन्तु कारणों और कारकों के लिए जो कुछ भी होता होगा, वह अपनेआप में अपनेआप जैसा ही लगता है।
सावन मेघों का होनहार है। हवा इसकी रथ है। बादलों की यात्रा घुमड़ती हुई है। वे चलते हुए ठहरते हैं और बरस जाते हैं। मेह गिरता है। तलैया चल पड़ती है। बन्धे टूटने लगते हैं। दादुर पीठ के सङ्गी पा जाते हैं। मेड़ बरोबर हो जाते हैं। सीमाएँ टूटती है। आम चूने लगते हैं। ध्वनियाँ कुछ और गाढ़ी हो जाती हैं। रेंवा गीतने लगते हैं। लोक गाता है:-
कवने करनवा तरइया ई घूमे
बरखा झूमि झूमि आवै
साधो की संगति, साधो की महिमा
साधो से नखत ई अँखिया मिलावे
कि बरखा झूमि झूमि आवै
प्रकृति श्रृंगार रचती है। छाया, प्रतिछाया, वर्ण, विवर्ण,उदय, अस्त, इसमें डोलते रहते हैं। इसकी लीला के हम लीलाचर हैं। हमारी गति इसकी इच्छा है। हमारा गन्तव्य इसका आँचल। यह सबकुछ समेट लेती हैं। सहज मानवीय संदर्भों के तल की हमारी यह समझ वह कहाँ समझ पाती है, जो इस अनन्त का सहज व्यवहार है।
हम इसके सिद्धान्त को सीखते हैं। ज्ञान का अर्थ ही प्रकृति के व्यवहार को समझ लेना है। इससे हमारी किन्हीं क्षणों में युति हो जाती है। हम कुछ सार्वभौमिक नियमों से परिचित हो जाते हैं। किन्तु अन्तिम नियम से परिचय नहीं हो पाता। उसे बचा लिया जाता है। सम्भवतः यहीं लीला है।
देह के भिन्न आयाम हैं। मन की अपनी गति है। आश्चर्य कि यह प्रकाश से भी तीव्र है। किन्तु इसकी सीमा है। यह अज्ञात में गति नहीं कर सकता। किन्तु इसके भीतर आई सभी बातें सम्भव होती हैं। और प्रकाश तो इसके भी परे है। अतएव प्रकाश की गति इससे सदा से अधिक रही है और रहेगी।
आखिर अन्धकार को कैसे महसूसा जाता है! आँख सूचित भले कर दे, किन्तु आँखों तक यह सूचना पहुँचने के लिए भी एक आश्रय तो चाहिए ही। यह आश्रय इसे कौन देता है। जब कुछ देखने के लिए होवे ही न, तब क्या देखा जाएगा भला। और सूर बिन आँख के भी क्या कह जाते हैं:-
काहू के मन को कोउ न जानत¸ लोगन के मन हांसी
सूरदास प्रभु तुम्हरे दरस कौ¸ करवत लैहौं कासी
यह दृष्टि, यह दृष्टिसार, यह दृष्टिसंभेद, यह दृश्येतर, और इसकी पिछाई, अनुगमन और वृहत्तर होतीं रहस्य की इतनीं सीमाएँ। आदमी कितना जाये। कितना पाये। कहाँ से चले और कहाँ ठहर जाये। भौतिक पदार्थों का एक बिन्दु में यह संचयन इतना कुछ कर गया। परमशून्य की ऐसी गति। बुद्ध इसीलिए कह गये कि वहाँ न आनन्द है और न ही दुःख। वहाँ कुछ है ही नहीं। किन्तु यह 'कुछ नहीं' सदा से मुझे कुछ होने की खबर देता रहता है।
यहाँ प्रत्यक्ष में भी रहस्य उत्कीर्ण है। अवगुण्ठन है। पेड़ में ही डाली सूख जाती है। पेड़ उसे छोड़ देता है। धरती ही पेड़ है। मिटती हुई चीज़ें किसमें मिटती हैं किसे पता। पदार्थ की गति अपदार्थ में और यह सतत क्रम।
सावन अपने सङ्ग बरखा लाता है। आषाढ़ मात्र सूचना है। जैसे किसी आने वाले की गन्ध उसके पहले चली आती है। चित्त में उसकी पूर्वउपस्थिति निर्मित हो जाती है। ठीक वैसे ही आषाढ़ भी हरबार अपने ढंग से सावन का सन्देशवाहक बनकर आता है। किन्तु उसका सन्देश किसी आदेश से मुक्त है।
पीठ घूमता रहता है। चेहरे पाछिल होते रहते हैं। ऋतुओं का आपस में स्नात होता रहता है। निरन्तरता कभी नहीं टूटती। और न ही टूटता है अस्तित्व का यह ध्यानपर। सुन्दरदास कहते हैं :-
भारी अचरज होइ, जरै लकरी अरु घासा
अग्नि जरत सब कहैं, होइ यह बडा तमासा
और अन्त में---
हम सभी में भीतर का दृश्य उतर जाय, इसी शुभेच्छा के साथ...
✍🏻कृष्ण के त्रिपाठी
सुखों का सावन...
🌿
सावन सृजन का सुंदर समय है। बारहमासा में सावन मास की महत्ता सुंदर स्वरूप में सुलभ होती है। पांचवां महीना, पंचम भाव, स्वर, स्थान, स्वाद और स्वभाव वाला! हर सोमवार सुखी वार, श्रवण, स्वाति, उत्तराषाढ़ जैसे नक्षत्र और सरिता संगम, शिवालय, स्तुति और माहात्म्य परायण! लुभावनी धुन सुनाने और रेशमी धागों को गुनगुनाने वाला सावन!
सावन वनस्पति के अंकुरण, पल्लवन, फूलन और फलन का अवसर है और जो जातक सावन वाले हों, वे वनस्पति की तरह ही सबके प्रिय, खर्चा करने वाले, छाया, आश्रय देने वाले और मित्रों, प्रियजनों के धनी होते हैं...
और क्या - क्या?
सभी मित्रों को सावन की शुभ कामनाएं...
✍🏻डॉ श्रीकृष्ण जुगनु
'श्रावण शुक्ला सप्तमी, उगत दिखे जो भान, या जल मिलिहैं कूप में या गंगा स्नान।'
यानि सावन माह की शुक्ल पक्ष की सप्तमी को प्रात: सूर्य का उगना दिखे तो घाघ के अनुसार निश्चित रूप से सूखा पड़ेगा।
'श्रावण शुक्ला सप्तमी, डूब के उगे भान, तब ले देव बरिसिहैं, जब सो देव उठान।' सावन शुक्ल सप्तमी को यदि सूर्य बदली में डूब कर उगे तो कार्तिक माह में देवोत्थान एकादशी तक अवश्य वर्षा होती है।
अथ मयूर चित्रके...
#यथा_वृष्टिविज्ञानम्
श्रवण नक्षत्र युक्त सावनी पूर्णिमा को यदि वर्षा होती है तो उस क्षेत्र में सुभिक्ष जानना चाहिए। पृथ्वी बहुत अन्न उपजाती है :
श्रावणेर्क्षे पूर्णिमायां यदि मेघ: प्रवर्षति।
तस्मिन्काले सुभिक्षं स्याद्धरित्री चान्न संकुला।। 7।।
जो सावन शुक्ला 7 को बारिश हो तो लोक में आनंद होता है, धरती पर धन धान्य की वृद्धि होती है :
श्रावणे शुक्लसप्तम्यां यदि मेघ: प्रवर्षति।
तदा प्रजाभि नन्दति धनधान्याकुला धरा:।। 1।।
श्रावण में कृतिका नक्षत्र के दिन वर्षा होती है तो भरपूर वर्षा होनी चाहिए और धरती सागर सी तथा अन्न धन से पूर्ण होती है :
श्रावणे कृतिकायाञ्च यदि मेघ: प्रवर्षति।
तदात्वेकार्णवा पृथ्वी धनधान्य कुला प्रजा:।। 2।।
( मयूरचित्रकम् : नारद मुनि कृत, संपादन : डॉ. श्रीकृष्ण जुगनू, अनुभूति चौहान, परिमल पब्लिकेशन, दिल्ली, 2004, सप्तम अध्याय)
यदि नारद के इस ग्रंथ को प्रमाण माना जाए तो उक्त दिनों की बारिश शुभ बता रही है।
श्रवण नक्षत्र भगवान् विष्णु का प्रिय नक्षत्र है। इस नक्षत्र में ३ तारे हैं, तीनों तारे पद(पैर का पञ्जा) की आकृति बनाते हैं, इसे विष्णुपद कहा जाता है।
नियम है कि पूर्णमासी का चन्द्रमा जिस नक्षत्र के निकट होता है उसी नक्षत्र के नाम से उस मास को पुकारते हैं। इस पूर्णिमा को चन्द्रमा श्रवण नक्षत्र में रहेगा , अतः मास श्रावण मास ही है और श्रावण कहा जायेगा।
ऋतुचक्र इन्हीं नक्षत्रों में घूमता रहता है। महाभारत के आश्वमेधिक पर्व में कहा गया है,
श्रवणादीनि ऋक्षाणि ऋतवः शिशिरादयः।।
अर्थात् शिशिर ऋतु का आरम्भ सूर्य के श्रवण नक्षत्र में रहने पर होता है। हम जानते हैं कि शिशिरारम्भ का किसी नक्षत्र से स्थायी सम्बन्ध नहीं है, यह प्रत्येक सहस्र वर्ष में एक नक्षत्र पीछे सरक जाया करता है।
वर्षाकाल ४ मास का व्यवहृत है, जबकि वर्षा ऋतु ऋतुमान के अनुसार केवल २ मास की कही जायेगी
वेदपाठ वर्षाकाल में अर्थात् चातुर्मास में ही किया जाता रहा है, इसी से सम्बन्धित प्रत्येक वेद के अनुयायियों द्वारा स्व स्व वेदानुसार उपाकर्म सम्पन्न किया जाता रहा, ऋग्वेदी श्रावण पूर्णिमा को जबकि सामवेदी भाद्र तृतीया को अपना उपाकर्म करते हैं।
श्रावण मास तथा भाद्रपद मास वर्षा के मास हैं।
राखी बांधने बंधवाने की परम्परा का निर्वहन श्रावणी पूर्णिमा को ही होता है।
वैदिकों में रक्षासूत्रबन्धन उपाकर्म दिवस को ही होता है।
✍🏻अत्रि विक्रमार्क अन्तर्वेदी
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