तुम्हीं से मोहब्बत, तुम्हीं से लड़ाई
अजीब रिश्ता रहा नंदकिशोर नवल से . वे हमारे अध्यापक भी थे और वरिष्ठ सहकर्मी भी. उनसे वैचारिक- साहित्यिक हमारी लड़ाइयाँ भी ख़ूब हुईं और हमने एक- दूसरे से बेपनाह मोहब्बत भी की. लगभग चार दशकों के संग- साथ में अनेक चढ़ाव- उतार आए. हम एक- दूसरे को कभी पसंद ,कभी नापसंद करते रहे. एक- दूसरे की रूचियों को सराहते रहे और मजाक़ उड़ाते रहे. अब जब कि वे नहीं हैं तो लगता है कि पटना से लगाव का एक बड़ा आधार ख़िसक गया. वह पटना जिसे वे बेहिसाब प्यार करते थे और मेरे लिए जो कभी ‘सिटी ऑफ़ जॉय’ था. हमारे बहुत ही बेतकल्लुफ़ गुरु और साथी थे नंदकिशोर नवल, जिन्हें याद करता हूँ तो अपने जीवन का धड़कता हुआ अध्याय खुलने लगता है.
1990 और 1998 के बीच की कोई तारीख थी. इतना ही याद है कि नवल जी तब विश्वविद्यालय की सेवा में थे. यह भी याद है कि अप्रैल महीने का कोई गर्म दिन था. रात के क़रीब आठ बजे मैं और तरुण कुमार नवल जी के साथ आरा रेलवे स्टेशन के प्लेटफार्म पर खड़े थे. हम एक सेमिनार से निकले थे और हमें पटना के लिए ट्रेन पकड़नी थी. ट्रेन के आने में एक घंटे की देर थी. गर्मी से ऊपर का ए स्बेसटस और प्लेटफ़ॉर्म तप रहे थे. ट्रेन की प्रतीक्षा और ऊपर से गर्मी . हम परेशान हो उठे. तभी नवल जी ने एक ऐसी बात कही जिसके कारण हम दोनों अपनी परेशानी भूल गए. उन्होंने कहा: “आप लोगों को एक बात बताना चाहता हूँ. ‘निराला रचनावली’ के संपादन के दौरान मुझे कई शहरों की यात्रा करनी पड़ी. कई बार इसी तरह के तपते हुए प्लेटफॉर्म पर रात में गमछा बिछाकर सोना पड़ा. लगता था कि मेरी पीठ जल गयी हो. जो रचनावली हिंदी संसार के सामने है उसके संपादन में जितने कष्ट झेलने पड़े उनमें से एक इस तरह के प्लेटफॉर्म पर गमछा बिछाकर सोना भी था’’.
‘निराला रचनावली’ के संपादन में नवल जी ने बहुत मिहनत की. प्रायः सभी रचनाओं के प्रकाशन के संदर्भ और समय का उल्लेख किया. रचनाओं के क्रम-निर्धारण का काम भी सावधानी के साथ किया. निराला-साहित्य के परिप्रेक्ष्य को ठीक से हिंदी संसार के सामने रखने के लिए रचनावली की लम्बी भूमिका लिखी. मैं कह सकता हूँ कि हिंदी में जो सुसंपादित रचनावलियाँ हैं उनमें ‘निराला रचनावली’ का ऊँचा स्थान है. नेमिचंद्र जैन के संपादन में तब ‘मुक्तिबोध रचनावली’ निकल चुकी थी. वह भी सुसंपादित रचनावली है. नवल जी के सामने संभव है कि वह आदर्श उदहारण के रूप में रही हो. बाद के दिनों में विजय बहादुर सिंह ने ‘नंद दुलारे वाजपेयी रचनावली’, ओमप्रकाश सिंह ने ‘रामचंद्र शुक्ल रचनावली’, और मस्तराम कपूर ने ‘राममनोहर लोहिया रचनावली’ के संपादन द्वारा आदर्श उदहारण पेश किए . इस क्रम में सुसंपादित अन्य रचनावलियों का भी नाम लिया जा सकता है. लेकिन हिंदी में निकली सभी रचनावलियों को आदर्श के रूप में नहीं याद किया जा सकता. बहरहाल, नवल जी ने रचनावली के साथ कई पुस्तकों के संपादन में इसी आदर्श का निर्वाह किया. वे मानते थे कि मिहनत का कोई विकल्प नहीं है. संपादन का उद्देश्य और उसके पीछे काम करने वाली दृष्टि स्पष्ट होनी चाहिए. शायद यही कारण था कि मेरे द्वारा संपादित दो किताबें- ‘भक्ति आंदोलन के सामाजिक आधार’ और ‘कल्पना का उर्वशी विवाद’ उन्हें ख़ूब पसंद आयीं.
उनकी संपादन- कला उनके द्वारा संपादित पत्रिकाओं में भी देखी गई. पत्रिका निकालना उनका प्रिय काम था. अपने युवा काल में अपने कुछ साथियों के साथ मिलकर उन्होंने ‘ध्वजभंग’ नाम से एक पत्रिका निकाली थी. तब उन पर राजकमल चौधरी की संगति का असर था. भूखी पीढ़ी, नंगी पीढ़ी आदि का भी कुछ असर होगा. पटना में राजकमल के घर पर नंदकिशोर नवल, कुलानंद मिश्र, सिद्धिनाथ मिश्र और शिव वचन सिंह की बैठक हुई और एक पत्रिका निकालने का निर्णय लिया गया. राजकमल ने पत्रिका का नाम सुझाया- ‘प्रचोदयात’. राजकमल ने कहा कि गायत्री मंत्र का यह शब्द है जिसका अर्थ होता है- प्रेरित करना, आगे बढ़ाना आदि. लेकिन नवल जी और उनके साथी राजकमल जैसे साहसी नहीं थे. उनकी राय थी कि ‘ध्वजभंग’ नाम से पत्रिका निकले. तब नवल जी विश्वविद्यालय के शोध छात्र थे. अपने शोध के सिलसिले में वे कुछ हफ़्तों के लिए पटना से बाहर गए. इसी बीच राजकमल चौधरी का असामयिक निधन हो गया. यह 1967 के आसपास की बात है. बाद में ‘ध्वजभंग’ नाम से ही पत्रिका निकली. तीन-चार अंक निकलने के बाद पत्रिका बंद हो गई. ‘ ध्वजभंग’ गढ़ा हुआ नाम था, इससे कई अर्थ निकलते थे. एक अर्थ अकवितावादी संस्कार का भी था. बाद के वर्षों में ‘सिर्फ’, ‘धरातल’, और ‘उत्तरशती’ का उन्होंने संपादन किया. नामवर सिंह के साथ सह संपादक के रूप में वे ‘आलोचना’ से भी जुड़े. अवकाश ग्रहण के बाद उन्होंने ‘कसौटी’ के पंद्रह अंक निकाले.
कुल मिलाकर यह कि पत्रिका निकालना नवल जी का प्रिय शौक़ था. अपने इस शौक़ को वे बहुत जतन से निभाते थे. रचनाओं के संपादन से लेकर प्रूफ़ रीडिंग तक का काम वे स्वयं करते थे. एक- एक शब्द की जाँच-परख करते थे. अपना बहुत-सा समय और पैसा उन्होंने पत्रिका निकालने में ख़र्च किया. क्यों किया? मुझे लगता है कि पत्रिका के जरिए नए रचनाकारों से जीवंत संवाद का आकर्षण उनके भीतर प्रबल था. वे हमेशा नये रचनाकारों का संग- साथ पसंद करते थे. वे गुरुडम के शिकार नहीं थे. उसी आदमी ने दो साल पहले एक ऐसी बात कही जो मुझे झकझोर गयी. उन्होंने पूछा कि अब आपका रिटायर्मेंट करीब आ रहा है तो क्या करने की योजना है? मैंने कहा कि सोचा नहीं है, मन हुआ तो कोई पत्रिका निकालूँगा. उन्होंने कहा कि अपनी पसंद के विषय पर क़िताब लिखिए. किसी कवि-कथाकार या आलोचक पर एकाग्र होकर काम कीजिए. अब तक यह काम आपने नहीं किया है. फुटकल लेख लिखने से कोई आलोचक नहीं बनता. पत्रिका हर्गिज मत निकालिए. यह ‘थैंकलेस जॉब’ है. होशियार लेखक कभी पत्रिका नहीं निकालते हैं, जैसे ज्ञानेंद्रपति, आलोकधन्वा और अरूण कमल. इसी के साथ यह भी कहा कि दूसरों की रचनाओं को सुधारते रहने से अच्छा है कि आदमी अपने मन का पढ़े-लिखे. मैं चकित हुआ कि यह बात वह आदमी कह रहा है जिसने जीवन भर पत्रिकाएँ निकाली हैं. वे मुझसे , तरुण कुमार और अपूर्वानंद से उम्मीद करते थे कि हम ख़ूब लिखें, लेकिन जब हम उनकी उम्मीदों पर खरे उतरते नहीं नहीं दिखे तो हमारी हल्की- सी आत्मीय शिकायत भी करने लगे. कहते कि बाबू साहेब को गप, अड्डेबाजी और भाषण से फ़ुर्सत नहीं है, तरुण जी लिखने में आलसी हैं और अपूर्वानंद की दिलचस्पी का क्षेत्र साहित्य नहीं, राजनीति है.( वे अक्सर मुझे ‘बाबू साहेब’ कहते थे. उनकी देखा- देखी तरुण कुमार, अपूर्वानंद, सत्येन्द्र सिंहा आदि भी कभी- कभी ‘बाबू साहेब’ कहते थे.)
बहरहाल, नवल जी जितने समर्पित और मिहनती संपादक थे उससे अधिक मिहनती और समर्पित शिक्षक थे. समय से कक्षा में आना और निर्धारित विषय पर पूरे समय केन्द्रित होकर ठहर-ठहर कर बोलना उनकी आदत थी. वे हमें निराला और मुक्तिबोध की कविताएँ पढ़ाते थे. एक-एक शब्द की व्याख्या के साथ कविता को पूरे विस्तार से खोलते थे. कविता का सामाजिक संदर्भ भी बतलाते थे पर सबसे पहले कविता के धरातल पर हमें ले जाते थे. छुट्टी पर जाने वाले अध्यापक की जगह पर भी वे अक्सर आ जाते थे. पटना विश्वविद्यालय में तब कोई कक्षा ख़ाली नहीं जाती थी. हम जब उस खाली पीरियड का आनंद उठाना चाहते, तभी नवल जी कक्षा में हाज़िर. हम तब उन्हें ‘फिल अप द ब्लैंक’ के नाम से याद करते. हमारे हाव-भाव से वे समझ जाते कि हम कोई गंभीर व्याख्यान सुनने के मूड में नहीं हैं. तब वे किसी दिलचस्प साहित्यिक विषय पर बातचीत करते. एक दिन उन्होंने यह बताया कि किस लेखक-कवि का असली नाम क्या है; जैसे सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ का मूल नाम सूर्य कुमार तिवारी, सुमित्रानंदन पंत का गुसाईं दत्त पंत, शांतिप्रिय द्विवेदी का मूंछन दुबे, जैनेंद्र कुमार का आनंदी लाल, मलयज का भरतजी लाल श्रीवास्तव आदि-आदि. यह सब वे बता रहे थे तभी एक शरारती छात्र ने पूछा: “ सर, आपका मूल नाम?’’ वे मुस्कुराए. लेकिन इत्मीनान से जवाब दिया: “नंदकिशोर सिंह. लेकिन मैंने मैट्रिक का फॉर्म भरते समय अपने नाम से ‘सिंह’ हटाकर ‘नवल’ लगा लिया.’’ हमारे साथी ने रचनात्मक सवाल किया: ‘तख़ल्लुस तो कवि लगाते हैं. आप ठहरे प्रगतिशील आलोचक?’ इस बार उन्होंने उस शरारती छात्र को ठहर कर देखा और कहा: “पहले मैं कवि था. मेरा एक काव्य संग्रह छप चुका है.’ उस छात्र ने कहा: “ओह, आप कवि थे! तभी तो!’’ नवल जी ने यह नहीं पूछा कि ‘क्या तभी तो’, लेकिन यह समझ गए कि छात्र पढ़ने के मूड में नहीं हैं. फिर भी पढ़ाते रहे. बाद के दिनों में भी वे आते और किसी दिलचस्प साहित्यिक विषय पर चर्चा करते. हमने भी मान लिया था कि गुरूजी लोग बिना पढाये नहीं मानेंगे, सो मन मारकर पढ़ने लगे. लेकिन जहाँ चाह, वहाँ राह जैसी कहावत छात्रों ने सुन रखी थी.
असल में ख़ाली पीरियड कम मिलते थे. दस बजे से दो बजे तक लगातार चार पीरियड होते थे. ख़ाली पीरियड में लडके अपनी कक्षा की लड़कियों से बात करना चाहते थे जिनकी संख्या लड़कों के बराबर ही थी. दो बजे के बाद सभी लड़कियाँ घर में अच्छी बनी रहने के लिए जल्दी घर भाग जाती थीं . देर से पहुँचने पर माता-पिता की डांट सुननी पड़ती. छुट्टी के दिन मिलने का तो सवाल ही नहीं था. सो, लड़कों के पास अपना ख़ाली पीरियड ही होता लड़कियों को प्रभावित करने के लिए. लेकिन नवल जी की अधिक तत्परता हमें भारी पड़ने लगी. लड़कों ने तय किया कि ख़ाली पीरियड में हम लोग गंगा किनारे बैठेंगे जो विभाग के पीछे ही था. लेकिन एक भक्त किस्म के छात्र ने उन्हें इसकी सूचना दे दी. ग़नीमत रही कि उन्होंने इस पर ध्यान न दिया. मामले की नजाकत शायद वे समझ गए थे.
मैं जब वहीं अध्यापक हो गया तो वे मुझे भी तैयार होकर कक्षा में जाने के लिए प्रेरित करते थे. थोड़ी भी देर होती तो वे हमें टोकते थे. कहते थे कि शिक्षक को कक्षा में समय से जाना चाहिए और निर्धारित समय और निर्धारित विषय पर बोलना चाहिए. वे यह भी बताते थे कि जो विषय अगले दिन पढ़ाना है उसकी तैयारी एक दिन पूर्व कर लेनी चाहिए. वे यह भी कहते थे कि अपने व्याख्यान का आदि और अंत बिलकुल सुचिंतित होना चाहिए. यह सब मैंने कितना सीखा यह तो नहीं कह सकता , लेकिन यह कह सकता हूँ कि नवल जी इसका पालन जीवन भर करते रहे. वे कक्षा को जितनी गंभीरता से लेते थे उतनी ही गंभीरता से साहित्यिक आयोजनों को भी. विभाग में जब भी वे आयोजन करते उसकी पूरी रूपरेखा गंभीर होती. विश्वविद्यालय के बाहर प्रगतिशील लेखक संघ के बैनर तले या व्यक्तिगत रूप से भी उन्होंने जो विचार गोष्ठियाँ पटना में आयोजित कीं, उनकी बड़ी भूमिका नगर के युवाओं को प्रशिक्षित करने में रही. उन्हीं के जरिए उन आयोजनों में हमने नामवर सिंह के ऐतिहासिक भाषण सुनें. हमने केदारनाथ अग्रवाल, शमशेर बहादुर सिंह, नागार्जुन, त्रिलोचन, अमृतलाल नागर, रघुवीर सहाय, आदि को सुना और अपने को समृद्ध किया. मैं कह सकता हूँ कि नंदकिशोर नवल जैसा सुरुचि सम्पन्न आयोजक मैंने कम देखा है.
लेकिन इसी के साथ मैं यह भी कहना चाहता हूँ कि नंदकिशोर नवल पर प्रगतिशील लेखक संघ और कम्युनिस्ट पार्टी का ऐसा असर था कि वे अपने से भिन्न मत के विरोधियों को बर्दाश्त नहीं कर पाते थे. एक बार पटना विश्वविद्यालय की ओर से सात दिनों का सेमिनार हुआ. विषय था ‘लोक चेतना और हिन्दी साहित्य’. हिन्दी के तमाम छोटे-बड़े लेखक-विद्वान उसमें आमंत्रित हुए. डॉ. नगेन्द्र ने उद्घाटन किया और समापन डॉ. नामवर सिंह ने. रमेश कुंतल मेघ, शिव कुमार मिश्र, विष्णुकांत शास्त्री, मैनेजर पाण्डेय, मधुरेश, सुरेंद्र चौधरी, आदि की याद मुझे है, जिन्होंने वक्ता के रूप में शिरकत की थी. ढाई-तीन सौ लोग सुबह दस बजे से शाम पाँच बजे तक वक्ताओं को सुनते थे. बीच में लंच की व्यवस्था नहीं थी. तब भी श्रोता सुनने के लिए डटे रहते. इससे इस सेमिनार की बौद्धिक गुणवत्ता का अंदाजा किया जा सकता है. लेकिन अचानक एक ऐसा दृश्य उपस्थित हुआ जिसकी कल्पना किसी को नहीं थी. विष्णुकांत शास्त्री जब लोक चेतना की आस्थामूलक व्याख्या कर रहे थे तो नवल जी का धैर्य जवाब दे गया. वे उठे और शास्त्री जी को टोकते हुए उन्होने कहा कि यह संघ का मंच नहीं है और हम संघ के कार्यकर्ता भी नहीं हैं, यहाँ पढे-लिखे लोग बैठे हैं,आदि . इसके बाद वह सत्र बाधित हो गया. बहुतों को नवल जी की यह हरकत अच्छी नहीं लगी. इसका बदला दक्षिण पंथी सोच के विभागाध्यक्ष राम खेलावन राय ने अगले सत्र में लिया. रमेश कुंतलमेघ जब बोल रहे थे तो लोक चेतना की उनकी जनवादी व्याख्या को राम खेलावन राय ने बीच में टोककर चुनौती दी और कहा कि यह कम्युनिस्ट पार्टी का मंच नहीं है. इसके बाद हंगामा हुआ और वह सत्र भी नष्ट हो गया. इसी तरह फिर एक बार रघुवीर सहाय का व्याख्यान पटना प्रगतिशील लेखक संघ ने कराया. रघुवीर सहाय किस विषय पर बोले यह तो याद नहीं है लेकिन यह याद है कि उन्होंने कहा था कि प्रगतिशील लेखक संघ एक सांप्रदायिक संगठन है. सांप्रदायिक संगठन से उनका आशय यह था कि जैसे पहले साधु-संतों के संप्रदाय हुआ करते थे वैसा ही यह संगठन है. उनका आशय यह भी था कि संगठन की प्रगतिशीलता संबंधी समझ संकीर्ण है. नवल जी से रघुवीर सहाय की अपने संगठन की यह आलोचना बर्दाश्त नहीं हुई. धन्यवाद ज्ञापन में उन्होंने रघुवीर सहाय की ‘भूरी-भूरी निंदा’ की. रघुवीर चुपचाप सुनते रहे. इसे श्रोताओं ने अच्छा नहीं माना.
कुल मिलाकर नंदकिशोर नवल जितने अच्छे अध्यापक, संपादक और आयोजक थे उतने ही ‘अच्छे’ असहिष्णु मनुष्य थे. जितने लोगों से उनकी पटती थी उससे अधिक लोगों से उनकी खटपट रहती थी. नवल जी लिख कर और बातचीत की अपनी टिप्पणियों से अपने दुश्मन स्वयं बनाते थे. नगर के जो भी कवि –लेखक थे उनमें कइयों से उनके सम्बन्ध शिथिल थे. कुमारेंद्र पारसनाथ सिंह, ज्ञानेंद्रपति, आलोकधन्वा, प्रेम कुमार मणि, नचिकेता, जितेन्द्र राठौर आदि से अबोला जैसा था. वे तब अरुण कमल की कविता पसंद करते थे और उन्हें साथ लेकर घूमते थे. उस समय एक चतुष्पदी पटना के साहित्यिक हलके में सुनी-सुनाई जाती थी-
आलोचना की नवल शैली चली है
कुछ लोचनों को रचना खली है
कुछ पालतू हैं, बाकी फालतू हैं
भले हैं वे जिनकी दाल गली है.
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