ख़ामोश हूँ सदा
मैं चलती-फिरती मूरत
संस्कृति का प्रतीक है मेरा चाल-चलन
सर पर है पल्लू का बोझ
मन में बगावत की आग
पर चेहरे पर मौन की काली छाया
कज़रारी आँखें बड़ी-बड़ी
मासूम सी मैं मृगनयनी
ग्रहिणी हूँ
नया संसार बसाकर
पर भय है मेरी आँखों में
शराबी ससुर से
सास की आँखों से
देवर के ऐंठन से
ननद के ताने से
पर आशा है
मुझे पति के क्षणिक प्यार से
जो कभी-कभी मिलती है ख़ैरात में
प्यार की भीख
संभाल कर रखती हूँ दिल में
ताकती रहती पति नयन में अनवरत
शायद मिलेगी ही निरंतर जलती आग को
क्षण भर की ठंडक
कभी-कभी अकेले में सोचती
कर दूँ आज बगावत
मिटा दूँ अबला होने का शक O
जी लूँगी ज़िन्दगी अकेले
बेहतर है कहीं अकेलापन
उस दरिन्दगी से
जो मुझे न जलाते है
न ही बुझाते है
उन्हें शौक है सिर्फ़
धूं-धूं कर जलाना
मिलता है अति आनंद उन्हें
मेरी ख़ामोशी भरी तडप से
सोचती हूँ आज मचा दूं तहलका
पर पल में ही सोचती हूँ
शायद जाग्रत ज्वालामुखी की ख़ामोशी
बेहद पसंद है मेरे माँ-बाप को
जो सर उठा कर जीते हैं संसार में
बन कोल्हू का बैल
बाँध आँखों में काली पट्टी
नाचती है अथक
खाती है
तन पर डंडे ,कोड़े-लप्पड़-थप्पड़
गाली, गलौज, कटुता, ओताने
बार-बार मेरे कानों में गूंजते हैं
मेरे माँ-बाप भाई के नपुंसकता भरे शब्द
फट जाते है मेरे कान के परदे
जो हथौड़े-सी चोट पहुँचाते दिल पर
कि बेटी दोनों कुल का मान बढ़ाती है
जिस घर में बेटी की डोली जाती है
उसी घर से बेटी की अर्थी निकलती है
क्या फ़र्क़ है ?
मेरे नपुंसक भाई-पिता को
खुश होंगे वे
जब ससुराल से अर्थी मेरी निकलेगी
गायेंगे झूठी शान गर्व भरी गाथा
मेरी लाडली रही सदा सुहागन,मरी-भी सुहागन
पर उन्हें क्या मतलब ?
की कैसे मरूँगी तिल-तिलकर
क्या फ़र्क़ होगा ?
मृत शरीर विष से नीली है
या फंदे से कसी हुई ?
सिर्फ़ खोखला गर्व होगा उन्हें
लाडली मरी ससुराल में
दोनों कुलों का मान बढ़ाकर
अर्थी निकली उसकी
ससुराल में जाकर
न हूँ मैं घर की ना घाट की
शायद यही है मेरे जीवन का निष्कर्ष
तभी तो लाचार, कायर, निट्ठाली हूँ
अबला बन कर
कर समझौता ख़ामोशी से
कर समझौता ख़ामोशी से
- धर्मवीर भारती
मो.न. - 7070886737
Email-drdharmveerfilm@gmail.com
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें