उगने छिपने वाले इस काम तलक़ जाते जाते
सूरज बुढिया जाता है शाम तलक़ जाते जाते ।
यूँ तो इश्क़ उन्हें इकदूजे से है परले दर्जे का
ज़ात बीच मे आ जाती है नाम तलक़ जाते जाते ।
शुरु करी तूने लेकिन सब बेकाबू हो जायेंगी
इतनी बिगड़ेंगी बातें अंज़ाम तलक़ जाते जाते ।
आग लगाने निकले थे कि राख करेंगे पलभर में
नीयत बदली बस्ती-ए- बदनाम तलक़ जाते जाते ।
भाईचारा पलभर में ही दंगे में तब्दील हुआ
अल्लाहु अकबर से लेकर राम तलक जाते जाते ।
साधू बनकर बैठे थे वो ज्ञानपीठ के आसन पर
साधू से शैतान हुये हैं धाम तलक जाते जाते ।
प्यास सहारा बनती तो है जीने का लेकिन 'सागर'
दमघोटू हो जायेगी ये बाम तलक़ जाते जाते ।
🖋️साभार
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