बुधवार, 22 जून 2011

लघुकथा में संवाद

लघुकथा में संवाद :डॉ नागेन्द्र प्रसाद सिंह


लघुकथा में एकबीजीय कथानक  (कथावस्तु) वर्गीय प्रतिनिधित्व करते हुए न्यूनतम पात्र (चरित्र) व्यंजक संक्षिप्त संवाद, वर्णित परिवेश की संकेतात्मकता, प्रतीकात्मकता, परिस्थिति                                                         क विशेषता ,सरल -सहज बोलचाल का भाषिक कलेवर,उद्देश्योन्मुखी परिणति , सुलभ कथ्य, कथारस-स्रंवण उसकी तात्त्विक विशेषता के रूप में स्वीकृत हो चुके  हैं।
आधुनिक युग में आम चेतना और परिस्थितिगत यथार्थ लघुकथा के अत्यन्त अनुकूल है; इसीलिए हिन्दी–भाषा–भूभाग में लघुकथा का विकास और उसकी लोकप्रियता उत्तरोत्तर गतिमान है। पिछले पचास वर्षों में हिन्दी–लघुकथा ने न केवल अपने परिमाण का विस्तार किया है, बल्कि समर्पित एवं सचेत प्रतिभसम्पन्न लघुकथाकारों ने लघुकथा की गुणात्मक संवृद्धि का भी परिदर्शन कराया है। इस अवधि में सैंकड़ों लेखकों  के एकल संग्रह,दर्जनों लघुकथाकारों के संपादित प्रतिनिधि संग्रह पुस्तकाकार प्रकाशित हुए हैं। विभिन्न दैनिक, साप्ताहिक, मासिक एवं अनियतकालीन पत्र–पत्रिकाओं में लघुकथा के प्रकाशन पर्याप्त संख्या में हो रहे हैं। विभिन्न एकल संग्रहों के लघुकथाकारों के प्राक्कथन–लेखकों एवं संकलित संकलनों के सुधी संपादकों ने लघुकथा के साहित्यशास्त्र के निर्माण में मह्त्त्वपूर्ण काम किया है। ‘अखिल भारतीय प्रगतिशील लघुकथा मंच’ के पिछले सम्मेलनों के अवसर पर सैद्धान्तिक आलेखों एवं व्यावहारिक समीक्षाओं तथा विभिन्न लघुकथा–संकलनों पर आयोजित विचार–गोष्ठियों ने लघुकथा के ऐतिहासिक विकास एवं सैद्धांतिक पक्षों पर प्रकाश डाला। कुछ पुस्तकें भी प्रकाशित हुई हैं। कुछ विश्वविद्यालयों में हिन्दी–लघुकथा पर पी–एच.डी, उपाधि एवं एस.फिल. के लिए महत्त्वपूर्ण शोध–कार्य भी हुए हैं। साहित्य–विधा के रूप में अपनी स्वीकृति के उपरांत आज लघुकथा का संघर्ष साहित्य की केन्द्रीय विधा के रूप में अपनी स्वीकृति के लिए अघोषित रूप से चल रहा है। इस सम्मेलन के माध्यम से हमारी अपील है कि सभी लघुकथाकार, लघुकथा के सुधी संपादक, चिन्तक एवं समीक्षक लघुकथा के इस संघर्ष में अपनी योग्यता, क्षमता एवं निष्ठा के साथ योगदान दें; क्योंकि यह अस्तित्व का नियामक संघर्ष है।
साहित्य की अन्य विधाओं की तरह ही लघुकथा में अपने पाठकों, श्रोताओं और सामान्यत: समाज के साथ संवाद है। लघुकथाकार अपनी लघुकथा के माध्यम से अपने पाठकों एवं श्रोताओं से कुछ कहना चाहता है। यह भिन्न बात है कि वह अपनी लघुकथा के माध्यम से क्या, कितना और कितने घनत्व के साथ कह पाता है। और उनमें कितनी प्रतिक्रिया (रिसपॉन्स) का सृजन कर पाता है। किसी वस्तुगत एवं व्यावहारिक माध्यम, प्रतिमान एवं प्रक्रिया के अभाव में उसका निर्धारण करना फिलहाल कठिन कार्य है। ऐसी स्थिति में केवल प्रतिवेदन (वर्बल पिरोर्टिंकग) से ही संतोष करना पड़ता है।
लघुकथा की विभिन्न तात्त्विक अवधारणाओं में आन्तरिक संवाद–योजना का महत्त्ववपूर्ण स्थान है। लघुकथा में चयनित कथानक को प्रस्तुत करने के लिए चरित्र (रिसपॉन्स) का भी सृजन किया जाता है और उनके बीच जो परस्पर संवाद होते हैं, उससे कला का विकास होता है।
लघुकथा के संवाद में सृजित पात्रों की उन चारित्रिक विशेषताओं के दिग्दर्शक होते हैं, जिस वर्ग का वे सामान्यत: प्रतिनिधित्व करते हैं। पात्रों के पारस्परिक संवाद से उनके व्यक्तिगत स्वभाव, सामाजिक स्थिति एवं राग–द्वेष तथा अभिरुचियों आदि का भी ज्ञान हो जाता है। लघुकथाकार को उनके विषय में बहुत कुछ स्वयं कहने की आवश्यकता नहीं होती।
लघुकथा के संवादों से कभी–कभी वातावरण एवं परिस्थितियों का भी ज्ञान लघुकथा के पाठकों एवं श्रोताओं को हो जाता है।
वास्तव में लघुकथा एक ओर नाटक तथा एकांकी एवं दूसरी ओर उपन्यास एवं कहानी (लघु कहानी सहित) जैसी कथा–विधा की मध्यवर्ती विधा है। नाटक एवं एकांकी मुख्यत: संवादों पर आश्रित रहते हैं, वहीं उपन्यासों, कहानियों एवं लघु कहानियों में संवादों की कालावधि तथा विस्तार का पर्याप्त अवसर होता है। लघुकथा में यह अवसर बहुत संकुचित, संक्षिप्त, संकेन्द्रित, व्यंजक, सांकेतिक, प्रतीकात्मक, ध्वन्यात्मक एवं प्रभावपूर्ण होता है। इसलिए संवाद–संरचना की दृष्टि से लघुकथा में संवादों का विशिष्ट महत्व होता है।
लघुकथा के संवाद अधिकतर दैनन्दिन, आम बोलचाल की भाषा में होते हैं। यह लघुकथाकार की भाषा–क्षमता की बात है कि वह उसे कितना समर्थ बना पाता है, जिससे वह पाठकों एवं श्रोताओं पर अपना प्रभाव छोड़े और दूसरी ओर वह भाषा–विशेष की विकसित उपलब्धि–क्षमता का परिचय दें।
सटीक संवाद लघुकथा के प्रभाव में वृद्धि करते हैं और लापरवाह संवाद–योजना प्रभाव की मात्रा को क्षतिग्रस्त करते हैं।
संवाद लघुकथाकार को बहुत सारे विवरणों (नरेशन्स) को स्वयं कहने से बचाते हैं, जिससे लघुकथाकार की व्यक्तिगत उपस्थिति तथा कथा–विकास में लेखकीय हस्तक्षेप घटाता है, जो लघुकथाकार को श्रेष्ठतर सिद्ध करने में सहायक होता है।
अपनी उपरिलिखित महत्त्ववपूर्ण भूमिका के कारण संवाद–योजना की उपादेयता लघुकथा में साहित्य की अन्य कथा–विधाओं से सर्वाधिक है। इसलिए आवश्यक है कि लघुकथा में संवाद–योजना की विशेषताओं पर संक्षेप में चर्चा का श्रीगणेश किया जाए; यथा–
(क) कथाविकासोन्मुखता
लघुकथा के कथा–विकास में कथाकार के प्रत्यक्ष एवं उसकी उपस्थिति को यथासाध्य न्यूनतम करने में कथाकार कथा–पात्रों के बीच जो संवाद–संयोजित करता है, उससे कथ्य का सहज स्वाभाविक विकास होता है। कथा–विकास को गतिशील, तीव्र एवं प्रभावी करना संवाद की विशेषता है। संघर्ष तथा तर्क–वितर्क की स्थितियों को छोड़कर शेष सभी स्थितियों में संवाद कथा को विकसित करता है। लम्बे, अनावश्यक, फालतू व्याख्यात्मक तथा दुहरानेवाले संवाद के लिए लघुकथा में कोई स्थान नहीं है।
(ख) संक्षिप्तता
लघुकथा में लम्बे, विस्तारित, व्याख्यात्मक तथा अति अलंकृत संवादों के लिए अवसर नहीं होता। इसीलिए लघुकथा के संवाद यथासाध्य संक्षिप्त, संश्लिष्ट, सटीक, सुगठित और सार्थक होते हैं। इस संक्षेपीकरण में यद्यपि संक्षेपीकरण के लगभग सभी नियम लागू होते हैं; किन्तु वे सभी इसकी अर्थ–गर्भिता, भाव–सम्प्रेषणीयता तथा प्रतीकात्मकता की रक्षा करते रहते हैं।
(ग) पात्रों की चारित्रिक–प्रतिनिधित्व–सूचकता– अन्य कथा–विधा की भांति लघुकथा में भी सामाजिक–आर्थिक वर्गों का प्रतिनिधित्व करते लघुकथा के पात्र भी दिखते हैं। इसलिए जब वे कोई संवाद करते हैं, तो वे अपनी वर्गीय विशेषताओं से बहुत हद तक सम्पन्न होते हैं। इसकी पहचान उनके संवादों की वाक्य–रचना, प्रयुक्त शब्दावली, भाषित ध्वनि, भाषा–भंगिमा तथा अलंकरण अथवा स्लैंग के प्रयोग से लगता है। इसलिए यदि लघुकथा के संवाद लघुकथाकार द्वारा थोड़ी सावधानी से संयस्त किए जाएँ, तो वे कथा–पात्रों की चारित्रिक, वर्गीय, परिचयात्मक विवरणी देने से बहुत दूर तक बचाव हो जाता है और कथा–यष्टि में कसाव, गठीलापन तथा संतुलन बढ़ता है।
(घ) कथापरिवेश एवं कथात्मक परिस्थिति
सामान्यत: लघुकथा में कथा का विस्तृत परिवेश एवं बदलती परिस्थितियों का विस्तृत विवरण देना संभव नहीं होता। इसके लिए लघुकथाकार जिन विभिन्न कौशलों का उपयोग करता है, उसमें संवाद–प्रायण का महत्त्वपूर्ण योगदान है। यदि लघुकथा के संवाद कथा के परिवेश को तथा बदलती कथात्मक परिस्थितियों के द्योतक तथ्यों को संकेतात्मक या प्रतीकात्मक रूप में समाहित करते हैं, तो वे लघुकथाकार को बहुत सारे विवरणों को देने से बचाते हैं और लघुकथा की गुणवत्ता बढ़ाने में सहायक होते हैं।
(ङ) कथारससम्पोषकता
 प्रत्येक लघुकथा को कथा–रस का अपने पाठकों, श्रोताओं को आस्वादन करना चाहिए। इसके लिए रस–सिद्धांतकारों द्वारा निर्धारित भाव, विभाव, अनुभाव  या संचारी भावों के द्वारा रस–प्रवाह बनना होता है। विभिन्न कौशलों के द्वारा कथाकार इनका सृजन करता है, जिसमें संवाद–योजना की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। जिस अभीप्सित रस का सृजन लघुकथा–विशेष में होता है, उस के संवादों की संरचना ऐसी होती है, जो उस रस के उद्दीपन, आलम्बन एवं संचारियों को सृजित कर रस की सिद्धि के प्रयास में रचित लघुकथा में शांत रस या रौद्र के संवाहक अनुभावों एवं संचारी भावों के सूचक संवाद ही रसाभाव/रस–दोष उत्पन्न कर देते हैं। यदि अभिप्रेत रस के अनुकूल संवाद संवाद हों, तो वे विशिष्ट बन जाते हैं।
(च) भाषिकविकास की दिग्दर्शिता
भाषा –विकास का परिचय अन्याय माध्यमों के अतिरिक्त उस भाषा में सृजित साहित्य–भाषा से भी दिग्दर्शित होता है। साहित्य विधा के रूप में लघुकथा के संवादों की भाषिक संरचना के भाषिक–विकास का परिचय मिल सकता है। वास्तव में भाषा–विकास की दो धाराएँ हैं–जन–भाषा एवं परिनिष्ठित भाषा। लघुकथा की भाषा जिसमें सरलता, सहजता, बोधगम्यता, दैनन्दिन व्यावहारिकता और क्षिप्रता होती है। ध्वन्यात्मकता एवं त्वरा भाषा की अतिरिक्त विशेषताएँ हैं। लघुकथा के संवाद यदि इन गुणों से मण्डित हैं, तो निश्चय ही वे लघुकथा की गुणवत्ता में वृद्धि करेंगे। भाषा का अपना देश–काल भी होता है, जिसका लघुकथा के संवादों में विशेष सावधानी से समुचित प्रयोग प्रभविष्णुता बढ़ाता है।
इन विशेषताओं से समन्वित लघुकथा–संयोजन के लिए लघुकथाकार को कुछ लेखकीय कौशल (क्राफ्ट) के प्रति सावधान होना चाहिए। वास्तव में कुछ गिनती के सिद्ध लघुकथाकारों को छोड़कर 95 प्रतिशत लघुकथाकारों को अपनी लघुकथा को एकाधिक बार लिखने,परखने, संशोधित करने तथा परिवर्द्धित रूप में प्रस्तुत करने की चेष्टा करनी चाहिए। प्रकाशित हो जाने के बाद लघुकथा पर केवल लघुकथाकार का स्वामित्व नहीं रह जाता है, वरन् वह आम जनता की सांस्कृतिक सम्पदा बन जाती है। इसीलिए प्रकाशन–पूर्व कुछ व्यायाम लघुकथाकार तथा उस लघुकथा के स्वास्थ्य के लिए हितकर हो सकता है। इस लेखकीय संपादन–कार्य के लिए अधोलिखित कुछ प्रश्न लघुकथाकार के लिए हैं और वह अपनी लघुकथा के सामने लिखकर स्वयं से प्रश्न क्रम में पूछे और लघुकथा का संशोधन–संपादन स्वयं करे। उदीयमान लघुकथाकार के लिए यह अधिक आवश्यक है।
1.जो संवाद लघुकथा में आए हैं, क्या वे आवश्यक हैं? क्या उनमें से किसी को पूर्णता: या अंशत: हटाया जा सकता है!?
2.क्या लघुकथा–संवादों में कोई ऐसा भी संवाद है, जो लघुकथा के विकास में प्रतिरोधक/भ्रामक/अस्पष्टतापूर्ण है, जिसे हटाना या बदलना आवश्यक है।
3.क्या लघुकथा–संवाद में सृजित पात्रों की सामाजिक–आर्थिक चारित्रिक विशेषताओं को व्यक्त करने में समर्थ है?
4.क्या लघुकथा में आए संवाद उस लघुकथा के लिखने के अन्त: निर्धारित उद्देश्यों की पूर्ति करते हैं?
5.क्या लघुकथा के संवाद की भाषा सरल, सहज, बोधगम्य, सांकेतिक, प्रतीकात्मक, व्यञ्जक तथा देश–काल के अनुकूल,संक्षिप्त एवं प्रभविष्णु हैं?
6.क्या लघुकथा के संवाद कथा–रस को सम्पुष्ट करने का सामर्थ्य रखते हैं?
लघुकथाकारों, विशेषत: उदीयमान कथाकारों तथा लघुकथा–समीक्षकों से विनम्र अनुरोध है कि इस आलेख में प्रस्तावित विषयों पर विचार करने की कृपा करें तथा आवश्यक संशोधन का प्रस्ताव दें।

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