बुधवार, 22 जून 2011

अब्दुर्रहीम खानखाना (रहीम) की कविताएं



02, 2011


रहीम के दोहे

|| 1 ||
एकै साधे सब सधैं, सब साधे सब जाय ।
रहिमन मूलहि सींचिबो, फूलै फलै अघाय ।।

|| 2 ||
कह रहीम कैसे निभे, बेर केर का संग ।
यै डोलत रस आपने, उनके फाटत अंग ।।

|| 3 ||
खीरा सिर ते काटिए, मलियत लौन लगाय ।
रहिमन करुए मुखन को, चहियत इहै सजाय ।।

|| 4 ||
छिमा बड़ेन को चाहिए, छोटन को उत्पात ।
का रहीम हरि को घटयौ, जो भृगु मारी लात ।।

|| 5 ||
जे गरीब सो हित करै, धनि रहीम वे लोग ।
कहा सुदामा बापुरो, कृष्ण मिताइ जोग ।।

|| 6 ||
जे अंचल दीपक दुरयौ, हन्यौ सो ताही गात ।
रहिमन असमय के परे, मित्र शत्रु हवै जात ।।

|| 7 ||
जो रहीम गति दीप की, कुल कपूत गति सोय ।
बारे उजियारे लगे, बढ़े अँधेरो होय ।।

|| 8 ||
टूटे सुजन मनाइये, जो टुटे सौ बार ।
रहिमन फिरि-फिरि पोइए, टुटे मुक्ताहार ।।

|| 9 ||
रहिमन देख बड़ेन को, लघु न दीजै डारि ।
जहाँ काम आवे सुई, कहा करै तरवारि ।।

|| 10 ||
बड़े बड़ाई नहिं करैं, बड़े न बोलें बोल ।
रहिमन हिरा कब कहै, लाख टका मेरो मोल ।।

|| 11 ||
बसि कुसंग चाहत कुसल, यह रहीम जिय सोस ।
महिमा घटि समुद्र की, रावन बसयौ परोस ।।

|| 12 ||
तरुवर फल नहिं खात है, सरवर पियहि न पान ।
कहि रहीम परकाज हित, संपति सँचहि सुजान ।।

|| 13 ||
रहिमन याचकता गहे, बड़े छोट हवै जात ।
नारायन हूँ को भयौ, बावन अँगुर गात ।।

|| 14 ||
कह रहीम संपति सगे बनत बहुत बहु रीत ।
बिपत-कसौटी जो कसे, तेई साँचे मीत ।।

|| 15 ||
जो बड़ेन को लघु कहे, नहिं रहीम घटि जांहि ।
गिरिधर मुरलीधर कहे, कुछ दुख मानत नांहि ।।

|| 16 ||
धनि रहीम जल पंक को, लघु जिय पियत अघाय ।
उदधि बड़ाई कौन है, जगत पियासो जाय ।।

|| 17 ||
तैं रहीम मन आपुनो, कीन्हो चारु चकोर ।
निसि बासर लाग्यौ रहे, कृष्णचंद्र की ओर ।।

|| 18 ||
रहिमन यहि संसार में, सब सो मिलिए धाइ ।
ना जाने केहि रूप में, नारायण मिलि जाइ ।।

|| 19 ||
दुरदिन परे रहीम कहि, दुरथल जैयत भागि ।
ठाढ़े हूजत घूर पर, जब घर लागति आगि ।।

|| 20 ||
अब रहीम मुसकिल परी, गाढ़े दोऊ काम ।
साँचे ते तो जग नहीं, झूठे मिलैं न राम ।।

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