शनिवार, 25 जून 2011

कबीर साहब

साम्प्रदायिक सद्भाव के आदर्श सदगुरू कबीर साहब / डा.नजीर मुहम्मद

रचनाकार: डा.नजीर मुहम्मद                 


वर्तमान साम्प्रदायिक संकीर्णता के विषम वातावरण में संत-साहित्य की उपादेयता बहुत है। संतों में शिरोमणि कबीर दास भारतीय धर्म निरपेक्षता के आधार पुरुष हैं। संत कबीर एक सफल साधक प्रभावशाली उपदेशक, महान नेता और युग-दृष्टा थे। उनका समस्त काव्य विचारों की भव्यता और हृदय की तन्मयता तथा औदार्य से परिपूर्ण है। उन्होंने कविता के सहारे अपने विचारों को भारतीय धर्म निरपेक्षता के आधार को युग-युगान्तर के लिए अमरता प्रदान की। कबीर ने धर्म को मानव धर्म के रूप में देखा था। सत्य के समर्थक कबीर हृदय में विचार-सागर और वाणी में अभूतपूर्व शक्ति लेकर अवतरित हुए थे। उन्होंने लोक-कल्याण कामना से प्रेरित होकर स्वानुभूति के सहारे काव्य-रचना की। वे पाठशाला या मकतब की देहरी से दूर जीवन के विद्यालय में मसि कागद छुयो नहि की दशा में जीकर सत्य, ईश्वर विश्वास, प्रेम, अहिंसा, धर्म-निरपेक्षता और सहानुभूति का पाठ पढ़ाकर अनुभूति मूलक ज्ञान का प्रसार कर रहे थे। कबीर ने समाज में फैले हुए मिथ्याचारों और कुत्सित भावनाओं की धज्जियाँ उड़ा दीं। स्वकीय भोगी हुई वेदनाओं को आक्रोश से भरकर समाज में फैले हुए ढोंग और ढकोसलों, कुत्सित विचारधाराओं के प्रति दो टूक शब्दों में जो बातें कहीं उससे समाज की आँखें फटी की फटी रह गयीं और साधारण जनता उनकी वाणियों से चेतना प्राप्त कर उनकी अनुगामिनी बनने को बाध्य हो उठी।
देश की सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक सभी प्रकार की समस्याओं का समाधान वैयक्तिक जीवन के माध्यम से प्रस्तुत करने का प्रयत्न संत कबीर ने किया। उन्होंने बाँह उठाकर बलपूर्वक कहा--
कबिरा खड़ा बाजार में, लिए लुकाठी हाथ।
जो घर जारे आपना, चले हमारे साथ॥
धार्मिक आडम्बरों और विषमताओं का उन्होंने खुलकर विरोध किया। बाह्याडम्बरों का त्याग तथा सदाचारी सत्य जीवन उनके पथ का सम्बल था वह धर्म निरपेक्षता के प्रबल समर्थक थे।
आज से लगभग छः सौ साल पूर्व संत कबीर ने साम्प्रदायिकता की जिस समस्या की ओर ध्यान दिलाया था, वह आज भी प्रसुप्त ज्वालामुखी की भाँति भयंकर बनकर देश के वातावरण को विदग्ध करती रहती है। देश का यह बड़ा दुर्भाग्य है कि यहाँ जाति, धर्म, भाषागत, ईर्ष्या, द्वेष, बैर-विरोध की भावना समय-असमय भयंकर ज्वालामुखी के रूप में भड़क उठती है। दस बीस हताहत होते हैं, लाखों-करोड़ों की सम्पत्ति नष्ट हो जाती है। भय, त्रास और अशांति का प्रकोप होता है। विकास की गति अवरूद्ध हो जाती है।
कबीर हिन्दू-मुसलमान में, जाति-जाति में शारीरिक दृष्टि से कोई भेद नहीं मानते। भेद केवल विचारों और भावों का है। इन विचारों और भावों के भेद को बल धार्मिक कट्टरता और साम्प्रदायिकता से मिलता है। हृदय की चरमानुभूति की दशा में राम और रहीम में कोई अंतर नहीं। अन्तर केवल उन माध्यमों में है जिनके द्वारा वहाँ तक पहुँचने का प्रयत्न किया जाता है। इसीलिए कबीर साहब ने उन माध्यमों-पूजा-नमाज, व्रत, रोजा आदि का विरोध किया। अल्लाह, भगवान, कृष्ण, करीम, खुदा, राम आदि जन-प्रचलित ईश्वर वाचक सब शब्दों का अपनी वाणियों में प्रयोग करके सबका ईश्वर एक है, यह दिखाने का प्रयत्न किया--
कहै कबीर मैं हरि गुन गाऊँ,
हिन्दू तुरक दोउ समझाऊँ।


हिन्दू तुरक का करता एकै,
ता गति लखी न जाई॥
समाज में एकरूपता तभी संभव है जबकि जाति, वर्ण, वर्ग, भेद न्यून से न्यून हो। संतों ने मंदिर-मस्जिद, जाति-पाँति के भेद में विश्वास नहीं रखा। सदाचार ही संतों के लिए महत्त्वपूर्ण है। कबीर ने समाज में व्याप्त बाह्याडम्बरों का कड़ा विरोध किया और समाज में एकता, समानता तथा धर्म निरपेक्षता की भावनाओं का प्रचार-प्रसार किया। उन्होंने धर्म के नाम पर होने वाले व्यर्थ के झगड़ों और हिन्दू-मुसलमानों की परस्पर विरोधी भावनाओं का खुलकर विरोध करते हुए कहा--
हिन्दू कहे मोहि राम पियारा, तुरक कहै रहमाना।
आपस में दोउ लरि लरि मुए, मरम न काहू जाना॥
कबीर ने सामाजिक व्यवस्था को विकृत करने वाली रूढ़ियों, पाखण्ड, रीति-रिवाजों और मिथ्याचार के विरूद्ध जनता में विद्रोह की भावना उत्पन्न कर दी। संत कबीर ने हिन्दू तुरक का करता एकै और राम-रहीम सबनु में दीठा कहकर हिन्दू- मुसलमान के भेद को मिटाने तथा दोनों को समीप लाने का प्रयास किया। कबीर ने अनेक व्यावहारिक उदाहरण समाज के सम्मुख प्रस्तुत कर भजन-पूजन, नमाज, रोजा आदि साधनों की अनेकता और साध्य की एकता का महत्त्व प्रतिपादित करते हुए धर्म निरपेक्षता को आधार प्रदान करते हुए कहा है--
पूरब दिशा हरी को बासा, पश्चिम अल्लह मुकामा।
दिल में खोजि दिलहि मा खोजो, इहै करीमा रामा॥
कबीर विश्व-धर्म-मानवता के समर्थक थे। वे ज्ञान-भक्ति, वैराग्य, एकता तथा मानव धर्म के प्रेरक थे। अपने-अपने अहं में डूबे हुए एक-दूसरे के धर्मों को बुरा बताने वाले हिन्दू-मुसलमानों से उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा--
अव्वल अलह नूर उपाया, कुदरत के सब बन्दे।
एक नूर ते सब जग उपज्या कौन भले को मन्दे॥
संतों ने विविध धर्मों को ईश्वर तक पहुँचाने के विभिन्न मार्ग बताया-नारायण औ नगर के रज्जन पंथ अनेक/कोऊ आवै केहि दिसि आगे स्थल एक। सच्चा धार्मिक कभी सम्प्रदायवादी नहीं हो सकता। उसकी दृष्टि में तो विश्व विशम्भर का ही रूप है।
कबीर के काल में जितना भयंकर हिन्दू-मुसलमान का भेद था, उतना ही भयंकर ब्राह्मण और शूद्र का भी भेदभाव था। भारतवर्ष में वर्णव्यवस्था, जाति-प्रथा और ऊँच-नीच की भावना प्राचीनकाल से चली आ रही है। हिन्दू विचारों में उदार लेकिन व्यवहार में कट्टर रहे, वसुधैव कुटुम्बकम्‌ की दुहाई देकर भी आठ कनौजिया नौ चूल्हे बनाये रहने का व्यवहार रहा। ज्यों कला के पात में पात, पात में पात, त्यों हिन्दुन की जात में जात, जात में जात का प्रचलन रहा। यह देश की बड़ी विडम्बना है कि किसी जाति में जन्म लेने से कितने भी उच्च आचरण करने वाले व्यक्ति को केवल जन्म के कारण इतना नीच समझा जाये कि उनके छूने मात्र से छूत लगने और पापी बनने का भय हो। इस घातक प्रभाव को कबीर की आँखें बड़ी करूणा और क्षोभ से देख रही थीं। उन्होंने अहंकारी ब्राह्मण को फटकारा और हीनता की भावना से पराभूत शूद्र को झकझोर कर जगाते हुए कहा--
काहे को कीजै पांडे छोत विचारा।
छोत ही से उपजा सब संसारा॥
हमारे कैसे लोहू तुम्हारे कैसे दूध।
तुम कैसे ब्राह्मण पांडे हम कैसे सूद॥
संत प्रवर सद्गुरु कबीर की विवेकधारा के समक्ष तात्कालिक सम्पूर्ण ज्ञान दंभी समाज निरूत्साहित सा जान पड़ता है। उन्होंने सबकी उत्पत्ति को समान बताते हुए उसमें ईश्वरीय सत्ता का आभास कराते हुए कहा है--
एक बूँद एकै मल मूतर, एक चाम एक गूदा।
एक जोति थे सब जग उतपना, को ब्राह्मन को सूदा॥
तथा उच्च स्वर से उद्घोषित किया--
ऊँचे कुल का जनमियाँ, करनी ऊँच न होय।
सुवरन कलस सुरा भरा, साधू निन्दा सोय॥
पहले वर्ण व्यवस्था केवल कामों का बँटवारा थी। वर्ण को लेकर आपस में छूआछूत और ऊँच-नीच का भाव न था। जबसे वर्ण व्यवस्था उत्तरोत्तर कठोर होती गयी और मोटा काम करने के प्रति तथा कथित उच्च वर्ण वालों के मन में घृणा पनपती गयी। तब से मोटा काम करने वालों के प्रति अछूत होने की भावना बढ़ती गयी। मोटा काम करने वाले कर्मकारों के कर्मफलों का समाज ने भरपूर उपयोग किया, लाभ उठाया, पर इन मोटे कामों के करने वालों को अछूत समझा, हेय माना कपड़ा, ठाठ से पहनकर कपास पैदा करने वाले किसान, रूई धुनने वाले धुना, कपड़ा बुनने वाले कोली या जुलाहा, रंगने वाले रंगरेज, सीने वाले सूजी या दर्जी, धोने वाले, धोबी सभी तो निम्न जाति जन्मा है अछूत हैं। सब्जी उगाने वाले, फल-फूल उगाने वाले, तेल तैयार करने वाले, बर्तन बनाने वाले, सफाई करने वाले, चमड़े का काम करने वाले, मकान बनाने वाले सभी निम्न जन्मा अछूत हैं। कर्मकार जिनके परिश्रम से समाज सुखी है, उन्हीं को हमने घृणा की दृष्टि से देखा। संत कबीर ने इन त्रुटियों को परखकर कर्मकारों की पक्षधरता की। कबीर ने कर्मकार ज्ञानियों की विशाल वाहिनी का सूत्रापात किया। जिनमें सदन कसाई, धना जाट, नानक खत्री, दादू धुनियाँ, रैदास, चरनदास, पीपा, सेन, गुलाल साहब आदि निर्गुणियाँ संतों की धारा ही चल पड़ी।
इन निर्गुणियाँ संतों ने अपने हाथों से अपना काम करके जीविकोपार्जन को ही श्रेष्ठ समझा। मन से वैरागी होते हुए भी उन्होंने किसी मठ-मंदिर का सहारा लेकर जीवन यापन नहीं किया। वे समाज के कांधों पर बोझा कभी नहीं बने। कपड़ा बुनने, मजदूरी करने और जूते गाँठने में भी उन्होंने बुरा नहीं माना। ईमानदारी के साथ किसी भी कार्य को करना ही उन्होंने श्रेष्ठ बताया। कबीर साहब ने कहा--
कोई धंधा कीजै। चौखो काज करीजै॥
कर्मों के प्रति निष्ठा एवं सामंजस्य बिठाकर कबीर ने सम्पूर्ण मानव जाति के प्रति आदर और प्रेम-भाव के साथ ही व्यक्ति, समाज एवं देश में धर्म निरपेक्षता की स्रोतास्विनी प्रवाहित की। हम सभी मानव हैं और मूलतः एक हैं। मानव की केवल एक ही जाति है और परिश्रम ही उन्नति का पथ है। प्रेम ही महान धर्म है यह महामंत्र सदगुरु कबीर साहब ने समाज में फूँका। उन्होंने तत्कालीन उपेक्षित समाज, शोषित दलित जनमानस के दुःख को अपने काव्य का आलम्बन बनाया। उन्होंने प्रगतिशीलता परिवर्तन, परिवर्द्धन, विकास रिनेसाँ ही उपस्थित कर दिया। समाज में जाति-पांति की पूछताछ अधिक होने के कारण ही उन्होंने झुँझलाकर कहा--
जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजियो ग्यान।
मोल करो तलवार का, पड़ी रहन दो म्यान॥
संत कबीर के इस प्रयत्न से दो स्वतः संभव लाभ हुए। एक-अभिजात वर्ग का अहंकार दमित हुआ, दूसरे पतित समाज में सांस्कृतिक चेतना और क्रांति उपस्थित हुई। जिससे धार्मिक एकता का सूत्रपात हुआ। कबीर साहब ने धार्मिक और सामाजिक वैमनस्य के उस संक्रामक युग में दृढ़ता के साथ मनुष्य-मनुष्य के बीच समानता की घोषणा करके एकता और भ्रातृत्व भावना का प्रसार किया।
कबीर कभी किसी धर्म विशेष से बँधकर नहीं रहे। वे प्रेम का ढाई आखर पढ़ाकर मानव को मानव के सन्निकट लाना चाहते हैं। सच्चे मानव धर्म का प्रसार करना चाहते हैं।
भारत जैसे कृषि प्रधान देश में आय का मुख्य साधन कृषि ही रहा है। यहाँ की आर्थिक विषमता का एक मुख्य कारण भूमि का असमान वितरण भी रहा है। जागीरदार और बड़े किसानों के पास अधिक भूमि रही और छोटे किसान तथा मजदूर भूमि के छोटे-छोटे टुकड़ों पर ही गुजारा करने को मजबूर रहे। बड़े किसान छोटे किसानों को हड़पने में मत्स्य न्याय चलाते रहे। भूमि वितरण की इस असमान पद्धति और उससे उत्पन्न समस्याओं की ओर आज के कुछ सच्चे समाज सेवकों का ध्यान गया। सौभाग्य से वे भी संत ही थे-संत बिनोवा भावे। इस दुर्दशा की ओर आज से लगभग छः सौ साल पहले संत कबीर का ध्यान गया। उन्होंने सशक्त शब्दों में कहा कि भूमि का वितरण व्यक्तियों की संख्या और आवश्यकता के आधार पर होना चाहिए - जेते जिब तेजी भुइ दीजै।
इस प्रकार समस्त अभावों के मध्य जीवन व्यतीत करने वाले कबीर ने कार्ल मार्क्स से लगभग चार सौ साल पहले भारतवर्ष में समानता और समाजवाद के भावों की बुनियाद डालने का स्तुल्य प्रयत्न किया। जहाँ सभी धर्मावलम्बियों के पास समान साधन तथा भूमि होती तो धर्म निरपेक्षता और एकता की भावना को पर्याप्त बल मिलता। कबीर का समाजवाद वसुधैव कुटुम्बकम्‌ की भावना से ओत-प्रोत था। जिसमें ईश्वर में आस्था, शांति, सत्य, धर्म निरपेक्षता और सरलता का रसामृत भरा हुआ था। उनके द्वारा बताये गये कुछ आदर्श आज भारत में ही नहीं अपितु विश्व में भी अपनाये जा रहे है। कबीर साहब ने व्यावहारिक योग साधना पर बल दिया। आज योगा विश्व प्रसिद्ध हो गया है।
इस प्रकार संत कबीर दास के द्वारा स्थापित किये गये एकता, समता धर्म निरपेक्षता के आधार पर देश के भव्य भवन का निर्माण कार्य अब होने लगा है। डॉक्टर अम्बेडकर ने छूत-अछूत के भेद-भाव को मिटाकर सबको समान स्थान दिलाने का प्रयत्न किया था। हम देखते हैं कि देश में छूत-अछूत की भावना का ह्रास हुआ है। समाज में अब स्पृश्य-अस्पृश्य की भावना उतनी नहीं रहीं। संत विनोवा भावे ने भूमिहीन कृषकों को भू-वितरण कराने के लिए भू-दान यज्ञ चलाया था। उनका यह मिशन अधूरा ही रहा। महात्मा गाँधी ने धर्म निरपेक्षता और हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए जीवन उत्सर्ग कर दिया। लेकिन यह एकता कायम न हो सकी। बड़े दुख के साथ कहना पड़ता है कि यह फूट देश को बर्बाद कर रही है। बुद्धिजीवियों का परम कर्तव्य है कि एकता, समानता, धर्म निरपेक्षता और भ्रातृत्व भावना का समाज में अधिकाधिक प्रचार-प्रसार करें। मौलाना रूमी ने फरमाया था--
तू बराये बस्ल करदन आमदी।
ने बराये फस्द करदन आमदी॥
ऐ इन्सान! तू संसार में प्रेम मुहब्बत का प्रसार करने के लिए आया है। झगड़ा और फसाद फैलाने के लिए नहीं। धर्म निरपेक्षता के प्रतीक नजीर अकबराबादी ने हिन्दू-मुस्लिम एकता स्थापित करने के लिए कहा है कि--
झगड़ा न करें मिल्लतो मजहब का कोई याँ।
जिस राह में जो आन पड़े खुश रहे वो वाँ॥
जुन्नार गले या कि बगल बीच हो कुरआँ।
आशिक तो कलन्दर है न हिन्दू न मुसल्माँ॥
आज मानवीय मूल्य एवं विश्व मान्यताएँ परवर्तित हो रही हैं। देश से देश की दूरियाँ कम होती जा रही हैं। और विश्व के सभी मानव एक दूसरे के अति समीप आते जा रहे हैं। आज दिल से दिल की दूरियाँ समाप्त कर मानव-धर्म अपनाने और समस्त विश्व को एक परिवार के रूप में लाने की आवश्यकता है--
मेरे विचार से शांति, समन्वय, सामंजस्य का, एक सुखी संसार बने।
मानव सब सदस्य हों इसके, विश्व एक परिवार बनें॥
कबीर साहब महान हैं। उनकी विचारधारा महान है। महानता के सर्वोच्च शिखर पर पहुँचकर कबीर साहब ईर्ष्या, द्वेष, निजत्व, परत्व, छूत-अछूत, ऊँच-नीच की संकीर्ण भावनाओं से दूर होकर भारतीय धर्म निरपेक्षता के प्रतीक बनकर उच्चादर्श तक पहुँच जाते हैं। साम्प्रदायिक सद्भाव के स्वरूप बन जाते हैं--
सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामया।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चिद् दुःख भाग भवेत्‌॥
इसलिए वे शांत भाव से कहते हैं--
कबिरा खड़ा बाजार में, सबकी माँगे खैर।
ना काहू सों दोसती, ना काहू से बैर॥

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