बुधवार, 15 जून 2011

पत्रिकाओं के लंबे इतिहास का मूल्यांकन



विचारों की ‘परिक्रमा’

हिंदी में पत्रिकाओं का बेहद लंबा इतिहास रहा है. उन्नीसवीं सदी को हिंदी भाषा और साहित्य में नवजागरण का काल माना जाता है. यह भी तथ्य है कि हिंदी के पहले समाचारपत्र उदंत मार्तंड के प्रकाशन की शुरुआत 30 मई, 1826 को कलकत्ता से हुई थी, जिसके प्रथम संपादक बाबू जुगुल किशोर सुकुल थे. लेकिन हिंदी की पहली साहित्यिक पत्रिका कवि वचन सुधा थी, जिसके संपादक भारतेंदु हरिश्चंद्र थे. भारतेंदु ने जब इस पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया, उसके बाद से हिंदी में कई साहित्यिक पत्रिकाओं का प्रकाशन प्रारंभ हो गया. भारतेंदु युग में साहित्यिक पत्रिका के दो प्रमुख केंद्र बनारस और पटना थे. भारतेंदु युग के बाद जब साहित्यिक पत्रिका का प्रसार और विकास हुआ तो न केवल कलकत्ता, बल्कि इलाहाबाद भी पत्रिकाओं का नया केंद्र बना, जहां से कई कालजयी पत्रिकाओं का प्रकाशन प्रारंभ हुआ, जो बाद में हिंदी की थाती बनीं. बिहार में हिंदी पत्रकारिता की शुरुआत का बेहद दिलचस्प इतिहास है. बिहार में माना जाता है कि हिंदी पत्रकारिता की शुरुआत 1874 में हुई, जिसके जनक पंडित केशवराम भट्ट थे. पंडित केशवराम भट्ट ने 1872 में कलकत्ता से बिहार बंधु का प्रकाशन शुरू किया था. तब उस पत्रिका को कलकत्ता से प्रकाशित करने की वजह बिहार में हिंदी छापाखाना न होना था. उस दौर में बिहार में स़िर्फ उर्दू प्रेस हुआ करते थे, जिसकी वजह से पंडित केशवराम भट्ट को कलकत्ता से बिहार बंधु का प्रकाशन प्रारंभ करना पड़ा था, लेकिन उससे भी दिलचस्प कहानी इस पत्रिका के बिहार लौटने की है. दो साल तक कलकत्ता से प्रकाशन होने के बाद जब पंडित भट्ट को यह महसूस हुआ कि कलकत्ता में हिंदी के प्रूफ रीडर नहीं मिल रहे तो उन्होंने यह तय किया कि अब बिहार की राजधानी पटना से ही उसका प्रकाशन किया जाए. इस निर्णय के बाद 1874 से पटना से बिहार बंधु का प्रकाशन शुरू हुआ. ख़ैर, यह एक अवांतर प्रसंग है, जिस पर कभी विस्तार से बात होगी. हम बात हिंदी में साहित्यिक पत्रिकाओं की कर रहे हैं. भारतेंदु युग से द्विवेदी युग तक देश में हिंदी साहित्यिक पत्रिकाओं के चार केंद्र विकसित हो चुके थे. इसके बाद देश के अन्य इलाक़ों से भी साहित्यिक पत्रिकाओं की शुरुआत हुई. लेकिन बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में जब हिंदी में लघु पत्रिकाओं की शुरुआत हुई तो 1957 में बनारस से विष्णु चंद्र शर्मा ने कवि का प्रकाशन शुरू किया.
दिल्ली से अप्रैल 2008 में हिंदी में एक ऐसी पत्रिका की शुरुआत हुई, जिसने वैचारिक पत्रिका की उस कमी को पूरा किया और तबसे लेकर अब तक यह पत्रिका लगातार निकल रही है. इस पत्रिका का नाम है विचार परिक्रमा (इ-1/4 पांडव नगर, पटपड़गंज, मदर डेयरी के सामने, दिल्ली 110092) और इसके संपादक हैं शरद गोयल. पत्रिका ने पूर्व में कई अंक विषय विशेष पर फोकस किए, जिनमें मीडिया और विकलांगों पर निकले विशेषांक की खासी चर्चा हुई. पत्रिका का ताजा अंक किन्नरों पर केंद्रित है. किन्नर हमारे समाज के ही अंग हैं, लेकिन समाज से मिल रही उपेक्षा की उनकी जो पीड़ा है, उसे इस अंक में सामने लाने की कोशिश की गई है.
कालांतर में हिंदी में कई पत्रिकाओं का प्रकाशन शुरू हुआ, जिन्होंने हिंदी साहित्य को समृद्ध किया, जिनमें आलोचना, पहल, स़िर्फ, ध्वजभंग, दस्तावेज़, समीक्षा एवं तद्भव आदि प्रमुख हैं. जैसे-जैसे समय बीतता गया, साहित्यिक पत्रिकाओं का केंद्र भी देश की राजधानी दिल्ली की ओर बढ़ने लगा. जब 1986 में राजेंद्र यादव ने दिल्ली से हंस का पुनर्प्रकाशन शुरू किया तो साहित्यिक पत्रकारिता के केंद्र में दिल्ली का स्थान अहम हो गया. हंस ने नई कहानी आंदोलन के अवांगार्द राजेंद्र यादव के संपादन में साहित्यिक पत्रकारिता को एक नई धार और तेवर दोनों दिए. पिछले ढाई दशक में हंस ने न केवल हिंदी की सबसे अच्छी कहानियां छापीं, बल्कि दलित और स्त्री विमर्श के साथ अपने समय के प्रासंगिक मुद्दों और बहसों को उठाकर हिंदी साहित्यिक पत्रकारिता का एक नया इतिहास रच दिया. हंस और उसके संपादक से तमाम असहमतियों के बावजूद यह कहा जा सकता है कि आप उसे पसंद न करें, लेकिन आप उसे नज़रअंदाज नहीं कर सकते. दूसरी एक पत्रिका जिससे उम्मीद जगी थी, वह थी समयांतर, जिसके यशस्वी संपादक पंकज बिष्ट हैं. पंकज बिष्ट के लेखन में एक आग है, लेकिन बाद के दिनों में पंकज जी ने व्यक्तिगत राग-द्वेष को अपने संपादकीय का विषय बना दिया. नतीजा यह हुआ कि जो एक पूरी पीढ़ी पंकज जी की ओर उम्मीद भरी दृष्टि लगाए बैठी थी, उसका मोहभंग हुआ. और अब तो दरबारी लाल की वजह से समयांतर की यह हालत हो गई है जैसी कि अभिनेताओं के बीच राजू श्रीवास्तव की है.
साहित्यिक पत्रिकाओं की इस भीड़ में एक बात और दबकर रह गई. हुआ यह कि कहानी, कविता और आलोचना की आंधी में वैचारिक लेख और साहित्येतर विषय इन पत्रिकाओं से ग़ायब होते चले गए. हिंदी में गंभीर वैचारिक पत्रिका की कमी अखरने लगी. साहित्येतर विषयों पर केंद्रित होने या फिर उन विषयों पर विचार-विमर्श का मंच देने वाली पत्रिका नहीं रहीं. हिंदी के गंभीर पाठकों को हमेशा से लगता रहा कि उनकी भाषा में भी मेनस्ट्रीम या फिर सेमिनार जैसी पत्रिकाओं का प्रकाशन शुरू हो. कई बार कोशिश भी हुई, लेकिन वह परवान नहीं चढ़ सकी. पहले तो वैचारिक पत्रिका के दावे किए गए, लेकिन बाद में वह समाचार पत्रिका में तब्दील हो गई या फिर एक-दो अंकों के बाद अनियतकालीन हो गई. यहां मैं जानबूझ कर उन पत्रिकाओं के नाम नहीं दे रहा और उनको अनियतकालीन इस वजह से कह रहा हूं, क्योंकि उनके बंद होने का औपचारिक ऐलान नहीं हुआ.
लेकिन दिल्ली से अप्रैल 2008 में हिंदी में एक ऐसी पत्रिका की शुरुआत हुई, जिसने वैचारिक पत्रिका की उस कमी को पूरा किया और तबसे लेकर अब तक यह पत्रिका लगातार निकल रही है. इस पत्रिका का नाम है विचार परिक्रमा (इ-1/4 पांडव नगर, पटपड़गंज, मदर डेयरी के सामने, दिल्ली 110092) और इसके संपादक हैं शरद गोयल. पत्रिका ने पूर्व में कई अंक विषय विशेष पर फोकस किए, जिनमें मीडिया और विकलांगों पर निकले विशेषांक की खासी चर्चा हुई. पत्रिका का ताजा अंक किन्नरों पर केंद्रित है. किन्नर हमारे समाज के ही अंग हैं, लेकिन समाज से मिल रही उपेक्षा की उनकी जो पीड़ा है, उसे इस अंक में सामने लाने की कोशिश की गई है. किन्नरों को हमारे समाज में किसी तरह के कोई अधिकार नहीं प्राप्त हैं. आमतौर पर उनको या तो अपराधी या फिर सेक्स ट्रेड में लिप्त समझ कर हेय दृष्टि से देखा जाता है. उनको छक्का कहकर उनका मज़ाक उड़ाया जाता है. मज़ाक उड़ाने वाले उनकी पीड़ा को नहीं समझ सकते. ये वे लोग हैं, जो अपने ही समाज के बीच उपेक्षा का दंश झेलने को अभिशप्त हैं. लेकिन हमारे समाज में कहीं-कहीं किन्नरों को ख़ुशी के मौक़े पर शुभ मानकर उनका आशीर्वाद भी लिया जाता है. बच्चों के जन्म या फिर नए घर में प्रवेश के व़क्त किन्नरों का गाया गीत बेहद शुभ माना जाता है. पिछले दिनों कई किन्नरों ने समाज के कई क्षेत्रों में अपना एक मुक़ाम हासिल कर यह साबित कर दिया कि उनको अगर मौक़ा मिले और उनमें हौसला हो तो वे भी किसी तरह की ऊंचाई हासिल कर सकते हैं. चाहे वह शबनम मौसी हों या फिर टेलीविज़न शो में सलमान के साथ ठुमके लगा रही लक्ष्मी हों. ज्योति और शशिकांत के लेख ख़ास तौर पर विचार परिक्रमा के इस अंक की उपलब्धि हैं. इसके अलावा भी कई विचारोत्तेजक लेख इस पत्रिका में हैं, जो हमारे समाज के इस उपेक्षित समुदाय के दर्द को उजागर करते हैं. उम्मीद की जानी चाहिए कि यह पत्रिका इसी तरह से निकलती रहे और हिंदी में वैचारिक लेखन में जो एक वैक्यूम आ गया था, उसे सफलतापूर्वक भरती रहे. लेकिन इस बात की भी ज़रूरत है कि इस पत्रिका को हिंदी के गंभीर पाठकों तक पहुंचाने की और बेहतर कोशिश की जानी चाहिए, ताकि एक विशाल पाठक वर्ग को इसका लाभ मिल सके.

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