गुरुवार, 23 जून 2011


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एक विश्‍लेषण : कालजयी पत्रकार प्रेमचंद (एक)

Sunday, 19 June 2011 13:06 अनामी शरण बबल कहिन -
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अनामी शरणपत्रकार प्रेमचंद। क्या प्रेमचंद को पत्रकार कहना, कोई गुनाह है? यदि नहीं तो फिर हिन्दी साहित्य के कथा सम्राट और महान उपन्यासकार प्रेमचंद को पत्रकार कहने पर बहुतों को आपत्ति क्यों होने लगती है? प्रेमचंद के नाम पर वे लोग हैं जिन्होंने आजतक प्रेमचंद की महानता का बखान करते-करते प्रेमचंद के साहित्य के अलावा उनके अन्य लेखन को कभी प्रकाश में लाने की पहल ही नहीं की। शोध और मूल्यांकन के नाम पर संपूर्ण रचनात्मकता को ही गलत सांचे में ढालने का काम किया है। शायद इसे एक गंभीर अपराध की श्रेणी में भी रखा जाए तो किसी को आज आपत्ति नहीं होगी।
शोध और आलोचना की गलत अवधारणा की वजह से ही प्रेमचंद जैसे समर्थ और कालजयी पत्रकार को आज तक एक पत्रकार और उनकी पत्रकारिता में किए योगदान का समग्र विश्लेषण को लेकर तथाकथित आलोचकों, विद्वानों, शोधाथिर्यों समेत समीक्षकों में पता नहीं वह कौन सी गलत धारणा इस तरह पैठ गई कि प्रेमचंद को एक पत्रकार की तरह देखने की कभी किसी ने कोई पहल ही नहीं की। यहां पर यह सवाल भी जरूर उठना चाहिए कि हिन्दी के तथाकथित विद्वानों ने प्रेमचंद को एक पत्रकार की तरह भी देखने का साहस या प्रयास क्यों नहीं किया?
मैं प्रेमचंद का मात्र एक पाठक होने से ज्यादा और कोई दावा नहीं कर सकता। एकदम सामान्य सा पाठक और राजधानी के भागमभाग वाले माहौल में सब कुछ जल्दी-जल्दी देखने और फौरन धारणा बना लेने की मानसिकता के बीच पत्रकार प्रेमचंद को विहंगम नजरिए से देखने के बाद यही महसूस किया कि पत्रकार प्रेमचंद न केवल सजग, समर्थ, सक्रिय और बेहद सक्षम पत्रकार थे, अपितु साहित्य सत्ता, स्वाधीनता संग्राम के हाल को बेहद गंभीरता के साथ देखते हुए उसे प्रभावशाली तरीके से पाठकों के सामने रखने का महत्वपूर्ण काम किया। एक तरह से प्रेमचंद ने तमाम हालात पर अपनी कलम चलाकर स्वाधीनता संग्राम के उस पहलू को मानवीय और रचनात्मक तरह से देखा है, जिस पर आज तक किसी साहित्यकार, इतिहासकार या शोधार्थियों ने नजर भी नहीं डाली है। इस लिहाज से प्रेमचंद की पत्रकारिता को देखना ही उचित होगा, क्योंकि प्रेमचंद की नजर से देखते हुए सम सामयिक हालात की फिर से मूल्यांकन की आवश्यकता हो सकती है। इसी बहाने सवाधीनता संग्राम पर शोध की जरूरत को भी नकारा नहीं जा सकता है।
एक पत्रकार के रूप में प्रेमचंद में वरिष्ठता का कोई गरूर नहीं था। यही कारण था कि प्रेमचंद की कलम खासकर देश दुनिया, समाज, साहित्य, सत्ता, स्वाधीनता संग्राम, आर्थिक संवैधानिक हलचलों से लेकर स्थानीय निकायों की हालत और जन समस्याओं को भी पूरी शिद्दत के साथ सामने रखा। स्थानीय निकाय चुनाव से लेकर राष्ट्रीय राजनीति समेत लोकल स्तर की जनसभाओं के सार को भी वे काफी सार्थक तरीके से प्रस्तुत करते थे। वे गुलाम भारत में सत्ता-संघर्ष-स्वाधीनता संग्राम से लेकर हर तरह की सामाजिक विषमता और भेदभाव को एक साक्षी की तरह सामने रखते थे। विराट सामाजिक परख के साथ गहरी और पैनी नजर रखने वाले एक समर्थ पत्रकार प्रेमचंद की यही सबसे बड़ी विशेषता थी, जो उन्हें समकालीन तमाम पत्रकारों से अलग करके उन्हें खास जगह प्रदान करती है।
पत्रकार प्रेमचंद को पढ़ते हुए बार-बार और हर बार मुझे यही लगता है कि प्रेमचंद के नाम पर साहित्य की अपनी दुकान चलाने वाले विद्वानों, लेखकों, समीक्षकों ने अब तक प्रेमचंद के पत्रकार वाली छवि को सामने लाने की पहल आखिरकार क्यों नहीं की? प्रेमचंद साहित्य के विद्वानों की दृष्टि और साहित्यिक समाज पर मुझे तरस के साथ-साथ दया आती है। करीब 50 साल पहले मुंशी प्रेमचंद के पुत्र अमृतराय जी ने जब पत्रकार प्रेमचंद की पत्रकारिता को सामने लाते हुए प्रेमचंद की सैकडों आलेख, टिप्पणी, नोट्स और रिपोर्ताज को सामने लाने का दुर्लभ और महान काम कर दिया था।, इसके बावजूद पत्रकार प्रेमचंद द्वारा पत्रकारिता के क्षेत्र में किए गए अनमोल और दुर्लभ योगदान की अब तक क्यों उपेक्षा की गयी। हालांकि पत्रकार प्रेमचंद की पत्रकारिता की हो रही उपेक्षा के पीछे के मकसद को जान पाना अब संभव है। मगर सूरज की तरह तेजस्वी रचनाकार और पत्रकार प्रेमचंद को गुमनाम बनाकर अंधेरे में रखना क्या कभी संभव हो पाता? प्रेमचंद की पत्रकारिता को आंशिक तौर पर ही सही देखकर मेरी इस धारणा को लगातार बल मिलता रहा है कि पत्रकार प्रेमचंद के मूल्याकंन में बरती गयी लापरवाही को भले ही कोई साजिश न माना जाए, मगर जाने-अनजाने में ही प्रेमचंद से ज्यादा हिन्दी साहित्य और पत्रकारिता के साथ गंभीर खिलवाड़ किया गया, और इसकी भरपाई करना शायद मुमकिन नहीं है। हालांकि ऐसा नहीं है कि पत्रकार प्रेमचंद पर कोई काम नहीं हुआ। प्रेमचंद को एक पत्रकार प्रेमचंद के रूप में देखने और प्रेमचंद की पत्रकारिता के महत्व पर काशी नागरी प्रचारिणी सभा ने सार्थक काम किया है। मगर पत्रकार प्रेमचंद की पत्रकारिता पर स्वनाम धन्य रत्नाकर पांडेय का सारा काम हंस और साहित्यिक पत्रकारिता के इर्द-गिर्द ही सिमटी रही। करीब-50 साल पहले प्रकाशित रत्नाकरजी की इस पुस्तक में पत्रकार प्रेमचंद की झलक तो मिलती है, मगर पत्रकार प्रेमचंद के महत्व को पूरी तरह प्रस्तुत नहीं किया गया है। पत्रकार के रूप में उनके योगदान की भी झलक नही मिलती है।
आम पाठकों की तरह मैं भी प्रेमचंद को एक साहित्यकार की तरह ही देखता और मानता आ रहा था। मेरे निजी पुस्तकालय में भी प्रेमचंद के कई उपन्यास और कथा समग्र सुरक्षित हैं। जिसे यदा-कदा फिर से पढ़ने-देखने का लोभ आज तक नहीं रोक पाता। प्रेमचंद को लेकर अक्सर उठते और उठाये जाने वाले विवादों के बाद जब प्रेमचंद पर दोबारा नजर डालता हूँ तो कभी दलित विरोधी प्रेमचंद तो कभी महाजनों के मुंशी आदि तगमों से नवाजे गए तोहमतों को देखकर तथाकथित प्रेमचंद विरोधी विद्वानों पर तरस आता है। दरअसल इस तरह के तोहमत से प्रेमचंद की छवि, महानता, रचनात्मक महत्व और प्रसंगिकता पर तो कोई असर ना पड़ा है और ना कभी पड़ेगा। इन आरोपों से तो लगता है मानो इस तरह की मुहिम चलाने- और लगाने वाले लोग ही खुद को मुख्यधारा में बनाए रखने के लिए ही ऐसे आरोपों का सहारा लेते हैं। प्रेमचंद का साहित्य किताबों से ज्यादा पाठकों के दिल में अंकित है। जिस तरह सूर, तुलसी, कबीर, रहीम, मीरा, जायसी का पुतला जलाकर भी उनके साहित्य को कभी खारिज नहीं किया जा सकता, उसी प्रकार प्रेमचंद के खिलाफ मुहिम चलाकर भी प्रेमचंद को खारिज नहीं किया जा सकता। हैरानी तो यह है कि जिस लेखक की एक-एक पंक्तियों पर अलग-अलग तरीके से सैकड़ों विद्वानों और छात्रों ने मूल्यांकन और शोध किया हो। इसके बावजूद प्रेमचंद की पत्रकारिता के हजारों पृष्ठ को कभी महत्व के लायक भी नहीं माना गया। पत्रकार प्रेमचंद पर क्यों नहीं दिया गया ध्यान यह एक अबूझ पहेली है?
मेरे पास पत्रकार प्रेमचंद की पुस्तक 'विविध प्रसंग' भाग-2 है। जिस पर 11 अगस्त 1997 की तिथि अंकित है। इस पुस्तक को कब, कहां कैसे, किससे खरीदा था, इसकी याद नहीं है। करीब 14 साल पहले इस पुस्तक को देखा, पढ़ा और सामान्य तरीके से अपने पुस्तकालय में सहेज कर रख दिया। सक्रिय पत्रकारिता में व्यस्त रहने के बावजूद इस पुस्तक को पिछले 14 साल के दौरान सैकड़ों बार उलटने-पलटने का मौका मिला। साल 2000 में कहीं पत्रकार प्रेमचंद को लेकर हो रही चर्चा के बाद एकाएक इस पुस्तक के महत्व का बोध हुआ। और पत्रकार प्रेमचंद को और ज्यादा जानने की ललक मन में पैदा हुई। प्रेमचंद की पत्रकारिता के प्रति एकाएक मेरी लालसा बढ़ती ही चली गयी। विविध प्रसंग भाग-2 के अलावा भाग एक और तीन को पाने की ललक जागी। इसकी खोज में दिल्ली के कई दुकानों समेत दर्जनों बार दरियागंज पुस्तक बाजार का चक्कर काटा। मगर विविध प्रसंग के भाग एक और तीन को पाने में विफल रहा। नयी दिल्ली विश्व पुस्तक मेलों में भी इसे पाने की मेरी हर चेष्टा के बाद भी इस पुस्तक से मेरी दूरी बनीं रही।
एक पत्रकार होने के नाते प्रेमचंद को पत्रकार प्रेमचंद की पत्रकारिता को सामने लाने की लालसा मन में लगातार बनी रही। इसी दौरान रत्नाकर पांडेय जी की पुस्तक को देखकर मेरे उद्वेलित मन को काफी शांति मिली। पांडेय जी के प्रति मन नतमस्तक हो गया। मेरे मन में पांडेय जी के अधूरे काम को और आगे बढ़ाने की ललक और प्रबल हो गयी। एक पत्रकार का काम महत्वपूर्ण होने के बावजूद उसकी क्षणिक प्रासंगिकता अंततः मिट ही जाती है। पत्रकारिता में रोजाना के जीवन का हाल जानना ही नया और रोमांचक सा होता है। हमेशा पुराना होकर कबाड़ी में बिक जाना ही हर अखबार की नियति होती है। इसके बावजूद पत्रकारिता में रोजाना के इसी संघर्ष को सामने लाना एक पत्रकार का शगल और सनक होता है। विषम हालात में पत्रकार प्रेमचंद के काम को भी मुख्यधारा में लाने की लालसा मन में बनीं रहीं। कहानीकार और उपन्यासकार की तरह ही वे एक समर्थ पत्रकार थे। उनकी क्षमता को नकारना कभी संभव नहीं हो सकता, मगर उनके दिवंगत होने के 75 साल बाद भी पत्रकार प्रेमचंद अपनी पहचान के लिए संघर्ष कर रहा है। क्योंकि इसका अभी मूल्यांकन होना बाकी है।
दिल्ली में आयोजित विश्व पुस्तक मेला 2010 में अंततः विविध प्रसंग को प्रेमचंद के विचार के नाम से पाने का सुअवसर मिला। किताब पाने की तड़प और बेकली तो खत्म हो गयी। तीनों खंडों को गंभीरता से देखा और मेरी यह धारणा यकीन में बदल गयी कि पत्रकार प्रेमचंद ना केवल एक बड़े पत्रकार थे। मेरी यह धारणा और पुख्ता हो गई कि यदि वे कथाकार या उपन्यासकार होने की बजाय केवल पत्रकार भी होते तो भी प्रेमचंद आज तक हमारे बीच एक बेहद महत्वपूर्ण और जागरूक पत्रकार की तरह निश्चित तौर पर रहते। अपने समकालीन कालजयी पत्रकारों में पराड़कर, गणेश शंकर विद्यार्थी, बनारसी दास चतुर्वेदी जैसे पत्रकारों की श्रेणी में गिने और माने जाते। हालांकि प्रेमचंद की पत्रकारिता को नकारने या महत्वहीन करार देने वालों में अमृतलाल नागर भी हैं, जो एक साहित्यकार के रूप में साहित्यकार प्रेमचंद की तो भूरि-भूरि सराहना करते हुए कभी नहीं थकते हैं। मगर पत्रकार प्रेमचंद को पहचानने में भूल की।
कथाकार और उपन्यासकार प्रेमचंद की विराट पहचान से अलग अब एक पत्रकार प्रेमचंद को देखने की आवश्यकता है। पत्रकार प्रेमचंद यदि आज हमारे बीच जीवित है तो इसके लिए अमृतराय से भी ज्यादा उन लोगों के प्रति हमें कृतज्ञ होना चाहिए, जिन्होंने पत्रकार प्रेमचंद की ख्याति और रचनात्मक थाती को संभालकर सालों तक सुरक्षित रखा। अमृतरायजी ने लिखा भी है कि ''मुंशी जी''  के इस खजाने की तरफ किसी का भी ध्यान नही गया था, और शायद मेरा भी ध्यान इस ओर कभी नहीं जाता। अगर मुंशी जी की प्रामाणिक जीवनी लिखने के तकाजों ने उसे मजबूर नहीं किया होता। उन सब चीजों की छानबीन की। जिसे मुंशी जी ने जब-तब और जहां-तहां लिखी। पुरातत्व विभाग की इसी खुदाई में ही यह खजाना हाथ लगा। यह लगभग 1600 पृष्ठों की सामग्री थी। अमृतराय ने पत्रकार प्रेमचंद की लगभग लुप्त और दफन हो गयी इन रचनाओं को सहेजने और सुरक्षित रखने का श्रेय लखनऊ और अलीगढ़ विश्वविद्यालय को दिया है।
उर्दू के मशहूर आलोचक प्रो. एहतेशाम हुसैन और डाक्टर कमर रईस को दिया है। मौलाना मोहम्मद अली, इम्तयाज अली ताज के और हमदर्द पत्रिका के प्रति भी आभार जताया है। इन लोगों के सार्थक प्रयासों से ही प्रेमचंद की अधिकांश रचनाएं करीब 25-28 साल के बाद भी सुरक्षित मिली। हिन्दी में लिखी रचनाएं पंडित विनोद शंकर व्यास जी के जरिये ही प्राप्त हो सकी। व्यास जी के काम और संरक्षण से अभिभूत अमृतराय जी ने लिखा भी हैं, कि उनके सहयोग और सविनय से ही प्रेमचंद का यह तेजस्वी पत्रकार का रूप हिन्दी संसार के सामने प्रस्तुत करना संभव हो पाया। पत्रकार प्रेमचंद को सामने लाने के पीछे महादेव साहा और कोलकाता में गहन खोज बीन और तलाश के बाद दर्जनों रचनाएं उपलब्ध कराने वाले श्री नाथ पांडेय जी के प्रति भी अमृत राय ने भाव विभोर होकर आभार जताया है।
आज से करीब 50 साल पहले प्रकाशित विविध प्रसंग में सक्रिय भूमिका निभाने वाले लोगों में शायद ही कोई आज हमारे बीच जीवित होंगे। मैं भी श्री अमृतराय जी समेत उन तमाम लोगों के प्रति भी हृदय से कृतज्ञता प्रकट करके सम्मान देना अपना धर्म समझता हूँ कि सभी ने पत्रकार प्रेमचंद को पहचान दिलाने की पहल की। इन सभी के काम के सामने सही मायने में मेरे काम का तो कोई महत्व ही नहीं है। इस पुस्तक के प्रकाशन के 50 साल हो जाने के बाद भी पत्रकार प्रेमचंद के महत्व को बड़े फलक पर नये तरीके से सामने लाना ही मेरा एकमात्र उद्देश्य है। ताकि मीडिया के सौजन्य से पत्रकार प्रेमचंद को पढ़ने के बहाने हर भारतीय नागरिकों को गुलाम भारत की असली तस्वीर को जानने का एक सुअवसर भी मिल सके।
प्रेमचंद के दिवंगत होने के 75 साल के बाद उनका महत्व तब और ज्यादा बढ़ जाता है जब आज के ग्लैमर युग में टेलीविजन का खबरिया चैनल फाइव सी यानी क्राइम, सेलेब्रिटी, कॉमेडी, सिनेमा और क्लास के इर्द-गिर्द ही घूमते हुए पत्रकारिता को जनसरोकार से जोड़ने की बजाय मीडिया से विमुख कर रहा है। प्रेमचंद के तमाम विद्वानों, समीक्षकों, शोधकर्ताओं, से मेरा यह निवेदन है कि वे पत्रकार प्रेमचंद के तेजस्वी स्वरूप को सामने लाने की पहल को आगे ले जाए। इसके लिए प्रेमचंद की प्राथमिकताओं को नए सिरे से मूल्यांकन की जरूरत है। यह हम सबके लिए सबसे दुःखद पहलू है कि प्रेमचंद की पत्रकारिता की जो सामग्री हमारे बीच है, शायद उससे भी ज्यादा सामग्री नष्ट हो चुकी है। जिसे गहन खोजबीन के बावजूद प्राप्त नहीं किया जा सका है।
खैर, हमारे बीच प्रेमचंद की जो रचनायें उपलब्ध हैं, उससे ही यह दावा और पुख्ता होता है कि वे काफी समर्थ पत्रकार थे। एक पत्रकार के रूप में प्रेमचंद के काम को कभी महत्व के लायक समझा ही नहीं गया। यही लापरवाही हम सबकी सबसे बड़ी पीड़ा है। विद्वानों आलोचकों की तमाम ख्यालों के विपरीत मेरा यह दावा है कि पत्रकार प्रेमचंद की छवि, किसी भी मायने में कमतर नहीं है। इस पुस्तक के पीछे मेरी मेहनत से ज्यादा मेरी बेबसी को देखकर कभी नाराज तो कभी उत्साहित होने वालों की एक लंबी सूची है। मेरे माता-पिता राजेन्द्र प्रसाद सिन्हा और मां उषा रानी सिन्हा और सास माँ रेणु दत्ता के अलावा मेरी पत्नी डा. ममता शरण और बेटी कृति शरण ने मेरे प्रेमचंद प्रेम को देखकर ही प्रेमचंद को पढ़ना चालू किया। हंसराज पाटिल सुमन और सरिता पाटिल सुमन के प्रति आभार नहीं जताना एक अपराध सा होगा। इससे पहले भी प्रकाशित किताबों के प्रकाशन का यह सिलसिला हंसराजजी के सहयोग से ही आरंभ हुआ। प्रेमचंद को लेकर किस्तों में दर्जनों बार हंसराजजी से मशविरा करने का संयोग बना। खासकर दुर्गेश कुमार द्विवेदी और देवेश श्रीवास्तव समेत शिशिर शुक्ला के प्रति भी आभार जताना मेरा फर्ज है, क्योंकि मैंने जिस अधिकार के साथ रचना संकलन, संपादन और सामग्री चयन के मामले में इन लोगों का समय जाया किया, इसके बावजूद पत्रकारिता के इन नवांकुरों ने कभी शिकायत ना करके हमेशा पूरे उत्साह के साथ मेरे आदेश का पालन किया। मैं इन तीनों उत्साही पत्रकारों के उज्ज्‍वल भविष्य की कामना करता हूं। और भी काफी लोग है, जिन्होंने पत्रकार प्रेमचंद के प्रति अपनी दिलचस्पी जाहिर की।
खंड एक में शामिल सभी लेखकों के प्रति भी मैं आभार प्रकट करता हूं, जिनकी वजह से ही मुझे इस पुस्तक को साकार करने में काफी मदद मिली है। शायद यह कहना ज्यादा बेहतर होगा कि इन रचनाओं के बगैर इस पुस्तक की कल्पना कर पाना मेरे लिए लगभग नामुमकिन सा था।
जारी....



एक विश्‍लेषण : कालजयी पत्रकार प्रेमचंद (दो)

एक विश्‍लेषण : कालजयी पत्रकार प्रेमचंद (दो)

Thursday, 23 June 2011 12:16 अनामी शरण बबल कहिन -
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अनामी शरणकथा सम्राट प्रेमचंद की कहानियों के बारे में टिप्पणी करते हुए मशहूर कथाकार मार्कण्डेय ने लिखा है कि जब हम एक बार लौटकर हिन्दी कहानी की यात्रा पर दृष्टि डालते हैं, और पिछले 70-80 वर्षों की सामाजिक विकास की व्याख्या करते हैं, तो बहुत सुविधा पूर्ण तरीके से कह सकते हैं कि कहानी अब तक प्रेमचंद से चलकर प्रेमचंद तक ही पहुंची है। अर्थात सिर्फ प्रेमचंद के भीतर ही हिन्दी कहानियों के इस लंबे समय का पूरा सामाजिक वृतांत समाहित है। समय की अर्थवत्ता जो सामाजिक संदर्भों के विकास से बनती है, वह बहुत मामूली परिवर्तनों के साथ आज भी जस की तस बनीं हुई है। यहां पर एक सवाल हो सकता है कि क्या प्रेमचंद के बाद का समय जहां का तहां ही टिका रह गया है? क्या समय का यह कोई नया स्वभाव है? नहीं ऐसा नहीं है।
फिर भी संदर्भों के विकास की प्रक्रिया जो सम स्थानिक परिवर्तन से रेखांकित होती है, और समय ही उसका कारक होता है। वह नहीं के बराबर हुई है। आधार भूत सामाजिक बदलाव नहीं है। इस लंबे काल में नया समाज नहीं बन पाया है। धार्मिक अंधविश्वासों और पारम्परिक कुंठाए जैसी की तैसी ही बनीं हुई है। भूमि संबंध नहीं बदले हैं। अशिक्षा सामाजिक कुरीतियों का अंधकार लगातार छाया ही हुआ है। अपने समय और समाज का ऐतिहासिक संदर्भ तो जैसे प्रेमचंद की कहानियों को समस्त भारतीय साहित्य में अमर बना देता है। विख्यात कथाकार मार्कण्डेय की 1995 में की गयी यह टिप्पणी पिछले 16 साल में भी अपनी सार्थकता के साथ तेजी से बदलते समाज में जस की तस ही टिका हुआ है। इसकी प्रासंगिकता आज भी बरकरार है। मार्कण्डेय की उपरोक्त टिप्पणी आज प्रेमचंद के दिवंगत होने के 75 साल के बाद तो मानो और अधिक सटीक सी हो गई है।
प्रेमचंद की कहानियों को पढ़ते हुए लगता है कि भारत आज भी नहीं बदला है। और भारत को यानी असली भारत को प्रेमचंद के चश्मे के बगैर देखा और समझा भी नहीं जा सकता है। पत्रकार प्रेमचंद को पढ़ते हुए खासकर अंतरराष्ट्रीय खबरों को देखकर हैरानी होती है। आज से 80-85 साल पहले जब संसार में रेडियो नामक यंत्र का अविष्कार नहीं हुआ था, और खबरों की पहुंच दूर-दूर तक नहीं थी। हर तरह के साधनों की कमी के बावजूद खासकर विदेशी खबरों और सामयिक हलचलों पर निगरानी रखने की कल्पना कर पाना भी आसान नहीं था। एक पत्रकार के रूप में प्रेमचंद ना केवल औरों से ज्यादा सतर्क थे बल्कि दूर-दूर की नजर भी रखते थे। छोटी छोटी घटनाओं को अपनी कलम और व्याख्या से सारगर्भित बनाने की कला तो आज के पत्रकारों को भी प्रेमचंद को पढ़कर सीखना चाहिए। प्रेमचंद की भाषा को एक मानक बनकर आज के पत्रकारों को यह बताती है कि रिपोर्ट किसे कहते हैं। लिखने और प्रस्तुत करने के मामले में तो प्रेमचंद का कोई जोड़ ही नहीं है।
परिवर्तन ही समय का विधान है। पिछले 100 साल में काफी बदलाव हुए हैं। गुलाम भारत में दिवंगत हुए प्रेमचंद को हम आजाद भारत के सातवें दशक में याद कर रहे हैं। आजादी के सातवें दशक में भी प्रेमचंद के समय के भारत और समकालीन भारत की तुलना करें तो दोनों को एक समान ही पाते हैं। 1947 में आजादी के समय भारत का सैद्वांतिक तौर पर धरती का बंटवारा हुआ था। देश के नक्शों में बदलाव आया था। मगर आजादी के सातवें दशक के आते-आते बगैर किसी विभाजन के ही भारत के दो टुकड़े हो चुके हैं। भारत यानी इंडिया बनाम भारत। अमीरों, लोगों के इंडिया में अरबपतियों खरबपतियों से लेकर घोटालेबाजों की कोई कमी नहीं है। अमीरों के इसी भारत को आज इंडिया कहा जाता है, जिसमें काले अंग्रेजों की भरमार है। रहने को वे भले ही इंडिया में हैं, मगर उनकी बातों में स्वप्न में भारत को छोड़ पूरा संसार ही समाहित है। अमीर भारत और गरीब भारत में विभाजित भारत के दो हिस्से हो चुके हैं। अमीर भारत में अब करोड़पतियों की नई पीढ़ी है। चर्चा अब अरबपतियों-खरबपतियों की होने लगी है और इनकी तादात भी लाखों में है।
इण्डिया में मॉल्स, मैट्रो, मोबाइल्स, मल्टीनेशनल्स, मल्टीस्टोरी अपार्टमेंटस और मोटर वाहनों का चस्का लग गया है। भारत देश का इंडिया आज झूम रहा है। इंडिया और भारत के बीच की दूरी लगातार चौड़ी हो रही है। इंडिया में बेशुमार घोटालों और एक से बढ़कर एक निराले मतवाले और बड़े बड़े बेशरम धाकड़ घोटालेबाजों की कतार लगी है। और घोटाले भी ऐसे होने लगे हैं कि हजारों करोड़ के घोटालेबाजों को भी अब शर्म आने की बजाय पछतावा होने लगा है कि हाय हमने घोटाले भी किया तो मात्रा हजारों करोड़ का ही घोटाला क्यों किया? इन घोटालेबाजों को लगता है मानों और बड़ा घोटाला क्यों नहीं किया? केंद्रीय मंत्री ए. राजा जैसे घोटालेबाजों के राजा के सामने तो बोफर्स, चारा आदि घोटाले के महान घोटालेबाज अब साधु-संत से शरीफ से दिखने लगे हैं।
अब हालत यह है कि गरीब भारत से गरीबी को हटाने की बात करते-करते ज्यादातर नेता अपनी कंगाली से मालामाल हो गये। हमारे ज्यादातर नेताओं की औकात एक कबाड़ी से करोड़ों-अरबों की हो गई है। घोड़ा रेसर कबाड़ीबाज हसन अली जैसा एक गुमनाम शाही रईस एकाएक प्रकट हुआ है, जिस पर 50 हजार करोड़ रुपए बाकायदा केवल आयकर का बकाया है। गरीब भारत के संसद में अमीर और अपराधी-माफिया नेताओं का जलवा लगातार बढ़ता ही जा रहा है। इंडिया में रहने वाले 10-15 प्रतिशत नवधनिक मालदार (जिसमें ज्यादातरों के अमीर बनने की कहानी परियों की कहानी सी है) लोगों की वजह से ही इंडिया एक ग्लोबल मनी पावर की तरह देखा (माना भले ही ना जाए) जाने लगा है।
बेशुमार (बेरोकटोक) आबादी की वजह से दुनिया का सबसे बड़ा बाजार भी इंडिया बन चुका है। एक तरफ बेशुमार धन दौलत की काली कमाई से लोग अघा से गए हैं। बोरियों में नोटों की गड्डियां रखी जा रही हैं, तो देश की 80 फीसदी आबादी आज भी दस हजार रुपया महीना कमा नहीं कमा पा रहा है। सारा जलवा 10-15 फीसदी नये कुबेरों का जलवा है। जहां पर प्रेमचंद नहीं खुशवंत सिंहशोभा डे या इसी प्रकार के सेक्स प्रधान दर्जनों लेखकों की धूम है, जिनके लिए बेटी और 18 साल की कोई भी लड़की बस बिस्तर की तकिया सी दिखती है। क्राइम, कॉमेडी, सिनेमा, सेलीब्रिटी के न्यू रीच क्लास के इर्द-गिर्द घूम रहे इंडिया के न्यूज चौनलों में भारत का हंसता-खेलता खुशहाल चेहरा ही प्रकट होकर दिखता है। फैशन और समय की डिमांड पर नशा से लेकर शराब-सुरा का धंधा परवान पर है। इंडिया में मनीपावर के सामने आदर्श, नैतिकता, कल्चर, और शरम हया की बातें बेमानी सी हो गई हैं। समय के साथ कहें या उससे भी तेजी से मॉर्डन हो रही युवा पीढ़ी तो फैशन के नाम पर कपडों से ही परहेज करने लगी हैं। भारी भरकम और पारम्परिक कपड़ों के बोझ को कम करने पर तुली हैं। तो ठीक दूसरी तरफ कपड़ों के अभाव में ज्यादातर गरीब घरों की लड़कियों का शरीर ठीक से नहीं छिप पा रहा है। बदतर, बेहाल, और कंगाल सरीखे दिख रहे भारत में कंगालों की फौज लगातार बढ़ रही है।
अपनी ईमानदार के लिए मशहूर पीएम का पूरा शासन ही करप्शन का राज बन चुका है। रोजाना घोटाले हो रहे हैं। फिर भी सत्ता की चौकड़ी और करप्शन धमाल के बीच ईमानदारी का (बैंड बजाकर) सरकार के दाग-ए-दामन धोए जा रहे हैं। पंजा हो या कमलसाईकिल हो या लालटेनहाथी हो या कोई और भी चुनावी चिन्ह चारों तरफ दाग ही दाग नजर आने लगे हैं। करप्शन और घोटाले के बीच कोई बेदाग नहीं दिख रहा। ऐसा लग रहा है मानो पूरा भारत ही अपनी तमाम पुरानी (कथित दकियानूसी) सभ्यता, संस्कार को भूलकर भ्रष्टाचार के दलदल में स्नान कर रहा हो। भारत में कंगाली से उबकर महाराष्ट्र का विदर्भ इलाका आज आत्महत्याओं के लिए विख्यात हो गया है। पिछले एक दशक में 15 हजार से ज्यादा किसानों ने आत्महत्या की है। कृषि प्रधान भारत के कृषि मंत्री पूरे देश में क्रिकेट की सौदेबाजी कराने में व्यस्त हैं। अनाज और फल सब्जियों की मंड़ी भले ही वीरान पड़े हों, मगर पवार के पावर से क्रिकेट की मंड़ी में मस्ती ही मस्ती है। भारत में किसानों की हालत का अंदाजा लगाने के लिए और को क्या कहा जा सकता है?
अलग राज्य की मांग कर रहे बुंदेलखंड के किसान और गरीब भी अकाल की मार से बेहाल हैं। अपने बच्चों को बेचने के लिए विवश बुंदेलखंड भी भारत का एक काला सच और बदनाम चेहरा है। भूखमरी के लिए पूरी दुनियां में बदनाम कालाहांडी की किस्मत आज भी नहीं बदली है। अलबत्ता, राशन और राहत पहुंचाने के नाम पर नेता, नौकरशाहों और दलालों की मंडली बेशक करोड़पतियों की हो गई है। झारखंड के कालाहांडी के रूप में बदनाम पलामू की तस्वीर भी आज विदर्भ और कालाहांड़ी से खास अलग नहीं है। यहां के सैकड़ों किसानों ने राष्ट्रपति को पत्र लिखकर सामूहिक आत्महत्या की अनुमति मांगी है। सरकार द्वारा इन्हें राहत देने की बजाय सरकार और निष्ठुर प्रशासन की तरफ से राष्ट्रपति को पत्रा लिखने वालों की तलाश की जा रही है, ताकि उन्हें सच बोलने की सजा दी जा सके। इसके बावजूद इंडिया की ईमानदार सरकार के संवेदनशील राष्ट्रपति से लेकर पीएम का दिल विह्नल नहीं होता। दिल्ली में बैठी केंद्र सरकार के ठीक नाक के नीचे हरियाणा का मेवात इलाका भी गरीबी, भूखमरी, अशिक्षा, बदहाली के लिए भारत का एक बदनाम चेहरा है। उत्तर भारत के कालाहांडी के रूप में बदनाम, बेहाल हरियाणा का मेवात इलाका किसी भी सभ्य समाज की संवेदनशील और ईमानदार सरकार के चेहरे पर कालिख पोत देती है। मगर आजादी के सातवें दशक में भी ईमानदार पीएम या दलितों के सबसे बड़े हमदर्द दिखने के दिखावे में लगे युवराज को भी इन बेहाल इलाकों की सूरत बदलने की पीड़ा आहत नहीं करती।
भारत का इसे असली चेहरा कहें या इंडिया में असली भारत की असली तस्वीर। बक्सर से बिजनौर, बीकानेर तक, गंगानगर से लेकर मुजफ्फरनगर या मुजफ्फरपुर तक राजस्थान से लेकर हरियाणा, वेस्ट यूपी, बंगाल, झारखंड, उड़ीसा, मध्यप्रदेश समेत छतीसगढ़ तक लड़कियों से धंधा कराने, बेचने, या द्रौपदी बनाकर कई भाईयों के लिए एक ही रखैल (पत्नी) रखने या शादी के लिए लड़कियों की कमी को पूरा करने के लिए लड़की खरीदने की कुप्रथा भी अब सामाजिक प्रथा सी बन गई है। प्रेम विवाह आज भी भारत के ज्यादातर हिस्सों में मौत का फरमान ही बन जाती है। कहीं दास प्रथा के नाम पर मंदिर में दलितों और महिलाओं के प्रवेश पर रोक है। आधुनिक हो रहे इसी भारत में महिला शोषण के नाम पर सदियों से चली आ रही रखैल प्रथा को आज लिव इन रिलेशन के नाम पर महिमामंड़ित किया जा रहा है। विमेन फ्रीडम, या नारी आजादी के नाम पर ज्यादातर माडर्न विमेन इतरा रही है। मानो लिव इन रिलेशन के नाम पर इन्हें न जाने क्या और कौन सी आजादी या कारू का खजाना मिल गया है?
लगभग यही हाल समलैंगिकों-लेस्बियनों का है। अपने सेक्स संबंधों को नेचुरल रिलेशन का ठप्पा दिलाने (लगवाने) के लिए इनकी टोली अक्सर दिल्ली में धमाल मचाती फिर रही है। इन संबंधों के समर्थन हजारों लोग हमेशा कहीं ना कहीं मदमस्त कार्यक्रम कर रहे है। समाज में सेक्स को लेकर तमाम तरह की वर्जनाएं हैं। जिससे मुक्ति की चाहत के लिए देश के ज्यादातर इलाकों में संघर्ष बदस्तबर जारी है। कोई देहव्यापार को मान्यता दिलाने की वकालत कर रहा है, तो कोई चकलाघरों की चक्करघिन्नी के खात्मे को लेकर संघर्ष कर रहा है। रेडलाइट एरिया का धंधा मंदा क्या पड़ गया मानो बड़े शहरों से लेकर मंझोले और छोटे शहरों में कालगर्ल के नाम पर देह के लाखों दुकान खुल गए। पैसे के लिए सबकुछ जायज मान लिए गए इंडिया में एवरी थिंग इज राइट का नया मुहावरा सब कुछ मान्य और सामान्य सा (सारे हालात को) कर रहा है। भारत में प्रेमचंद का  असली भारत तो बेहाल सा है, मगर इस समय इंडिया के निवासी मौज मस्ती और धन के नशे में चूर है।
भारत बनाम इंडिया के ग्रामीण भारत में आज भी प्रेमचंद की कहानियों के ही गांवों की कहानी है। प्रेमचंद के पात्र ही नाम बदल -बदल कर जिन्दा घूम टहल रहे हैं। प्रेमचंद को पढ़ना ना केवल उनके साहित्य को पढ़ना है, बल्कि एक सौ साल पहले लिखी गई भारत यानी असली भारत की जीवंत कहानी को आज भी देखना और महसूस करने के बराबर है। प्रेमचंद की कहानियां को यों कहें कि पूरा साहित्य में मानो, आज समय के साथ खत्म होने की बजाय इंडिया के लगातार पावरफुल होते समय में भारत के साढ़े छह लाख से भी ज़्यादा गांवों की सरकारी (नौकरशाही) उपेक्षा का एक श्वेतपत्र बन गयी है। जिसमे सरकारी उपेक्षा और सरकारी विकास के नाम पर गांधी और ना जाने किन किन के नाम पर अरबों खरबों की बंदरबांट के बाद भी इन योजनाओं से गांव, गरीबी और गरीबों को ही खत्म करने की बू आने लगी है। जल, जंगल और जमीन से हमेशा के लिए बेदखल कर दिए जाने वालों के वास्ते सरकार और गैरसरकारी संगठनों द्वारा पुर्नवास के नाम पर तोहफों की बारिश तो जरूर की जाती है, मगर पूरे देश में एक नहीं हजारों क्षेत्रों से अब तक उजाड़े गए करोड़ों लोगों की यह पीड़ा खत्म नहीं हुई। पिछले 65 सालों में और गहरी ही हुई है कि एक बार उजड़ने वालों का पुर्नवास आज तक फिर दोबारा कभी नहीं हो पाया। अलबता, उजड़ने वालों को बसाने के नाम पर लगे लोग इस कदर आबाद जरूर हो गए और देखते ही देखते करप्ट लोगों का यह सफेदपोशों, नौकरशाहों, ठेकेदारों और बाबू क्लास तो भारत को छोड़कर इंडिया में जा बसा। जहां से वह और उसके लोग भारत को गालियां देते हुए यहां के गरीबों को कोसते फिर रहे हैं।
सचमुच, आज जो कुछ भी कहीं भारत या इंडिया में हो रहा है वह करीब 100 साल पहले ही भांप चुके प्रेमचंद की नजर से बाकी नहीं रहा था, मगर इतने बुरे हाल की कल्पना तो शायद हमारे प्रेमचंद ने भी नहीं की थी, कि अपना भारत यानी इंडिया इतना महान निकलेगा। उन्होंने उन तमाम संकटों, समस्याओं के प्रति हमें आगाह भी किया था। एक पत्रकार के संदर्भ में देखें तो सामाजिक भेदभाव, छुआछूत, जातिवाद, दहेज, अशिक्षा मंदिर में दलित प्रवेश आदि पर तो वे एक सौ साल जो पहले लिखा था। बस समय, समाज, संदर्भ और इलाके के नाम भर बदलकर हमारे सामने इस तरह की घटनाएं हमेशा सामने आ रही हैं। विख्यात साहित्यकार दिवंगत अमृतलाल नागर ने प्रेमचंद के बारे में लिखा भी है कि प्रेमचंद से पहले तक सदा राजे महाराजे राजकुमार, जमींदार और कुलीनों से नीचे वाला कोई पात्रा कथानायक के सिंहासन पर कभी नहीं बैठ पाया था। भारतीय समाज में पहली बार प्रेमचंद के सूरे, घीसू, होरी, सिलिया, पठानी, या गबन का नायक चुंगी क्लर्क जैसे सामान्य से सामान्य पात्र ही कथानायक बनकर उभरे। नागर कहते हैं कि जीवन के जिस यथार्थ को प्रेमचंद ने पहचाना और साहित्य एवं पत्रकारिता में स्थापित किया, वह एक तरह से उनका समाज में अनेक प्रकार से भोगा गया अपना यथार्थ था। निम्न मध्यवर्ग के ग्रेजुएट प्रेमचंद खेती क्लर्की प्रधान हिन्दी भाषी इलाके का सबसे सटीक प्रतीक बन गया। साहित्य पर प्रेमचंद के प्रभाव ने यह सिद्ध किया है कि जबतक भारत देश संपंन्न नहीं हो जाता, तब तक उनके साहित्य का नायकत्व दीनहीन, दलित, और संघर्षशील नर नारी के हाथों में ही रहेगा।
प्रेमचंद ने अपने देशनायकों को पहचाना और उसके सबसे बड़े चितेरे बन गए। प्रेमचंद की पत्रकारिता का मूल स्वर भी सामाजिक सरोकारों से लबरेज है। दिवंगत नागर लिखते भी है कि प्रेमचंद लोकमानस के अनोखे पारखी थे। वे हमारी वह निधि हैं, जिस पर हम हमेशा गर्व करते रहेंगे। यही हाल यही व्याख्या एक पत्रकार प्रेमचंद की भी होनी चाहिए, क्योंकि पत्रकार प्रेमचमद ने साहित्य से इतर पत्रकारिता में जो नयी शैली और नजरिया आरंभ किया था उसकी आज सबसे ज्यादा आवश्यकता है। प्रेमचंद को एक पत्रकार की तरह देखना मेरा कोई धर्म नही है। बस आज के समय में प्रेमचंद का मूल्यांकन एक पत्रकार के रूप में भी होना चाहिए यही मेरा मूल मकसद है। इस काम में तमाम मित्रों और लोगों ने जो मदद की है, उसके लिए आभार जताना केवल दिखावा होगा। मैं सबों के प्रति तहे दिल से आभारी हूं। खासकर प्रकाशक राघव के प्रति तो खासकर जिनकी उम्मीदों पर मैं कभी खरा नहीं उतर सका। एक सप्ताह के लिए वादा करके पांडुलिपि को साथ लाता और दो एक माह तक लापता हो जाता। मेरी तमाम लापरवाहियों का वे खामियाजा उठाते रहे, लिहाजा राघवजी के इंतजार के बगैर इसे साकार करना नामुमकिन था। पाठको से यह महज औपचारिकता नहीं सही मायने में कह रहा हूं कि इसमें जो भी त्रुटियां रह गई हो तो वे इस ओर मेरा ध्यान जरूर दिलाने का कष्ट करेंगे, ताकि बाद के संस्करणों में इसे सुधारा जा सके।


पत्रकार अनामी शरण बबल ने मशहूर कथाकार और उपन्यासकार प्रेमचंद को एक पत्रकार के रूप में स्थापित करते हुए तीन खंडों में ''प्रेमचंद की पत्रकारिता'' पुस्तक का संपादन किया है। इस पुस्तक के दो खंडों में अनामी ने जो भूमिका लिखी है, उसे भडास4मीडिया के पाठकों के लिए खासतौर पर प्रस्तुत किया गया है.
एक विश्‍लेषण : कालजयी पत्रकार प्रेमचंद (तीन)

एक विश्‍लेषण : कालजयी पत्रकार प्रेमचंद (तीन)

Thursday, 23 June 2011 12:54 अनामी शरण बबल कहिन -
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अनामी शरण24 मार्च को हमारे प्रकाशक... (पूरा नाम.. .राघव जी ) का फोन आया कि प्रेमचंद की पत्रकारिता 1200 पेज से ज्यादा हो गया है, लिहाजा आप आकर इसे देखें और इसे या तो 900 पृष्ठों में समेटे या दो खंड को तीन खंड़ों में करें। सारा मैटर लगभग पूरी तरह तैयार है, बस आप कोई फैसला करके इसे फौरन फाइनल करें। मेरे लिए बड़ी दुविधा आ खड़ी हो गई। मुझे एक सप्ताह के लिए बाहर जाना है, मगर राघवजी कोई बहाना मानने को राजी नहीं थे। वे खुद पिछले सात माह से इस किताब को लेकर परेशान है। पहले इसे आठ अक्टूबर 2010 को प्रेमचंद के निधन के 75 साल पूरा होने के अवसर पर लाना चाह रहे थे, जो किसी कारणवश साकार नहीं हो पाया। वाकई प्रेमचंद की रचनाओं के साथ रहते हुए काम करना बेहद कठिन सा है। प्रकाशक के फोन आने के बाद एक बार फिर उसी रचना संसार में जाने का मेरा मन नहीं कर रहा था। मगर मजबूरी थी।
लिहाजा तमाम कठिनाईयों और ज्यादातर सामग्री लुप्त हो जाने के बावजूद साहित्य सम्राट प्रेमचंद द्वारा पत्रकारिता के क्षेत्र में किए गए उल्लेखनीय रपटों टिप्पणियों, आलेखों, समीक्षा, विश्लेषण तथा समसामयिक हालात काम से हैरानी होती है। पूरी दुनिया पर प्रेमचंद की पैनी नजर और सबसे अलहदा रपटों को देखकर यह बार बार सोचने के लिए मन लाचार हो जाता है कि यदि वे केवल पत्रकार होते तो पता नहीं क्या करते? वे एकदम कमाल के थे। जहां विचारों की कोई कमी नहीं थी। जब पत्रकार प्रेमचंद को लेकर काम करना आरंभ किया गया था। तब इसे दो खंडों में समायोजित करने की योजना थी। मगर, जब इनकी पत्रकारिता के मूल्यांकन की बारी आई, तो हमें एक साथ इतनी सामग्री मिली कि हम लगभग अवाक रह गए। पत्रकारिता में उल्लेखनीय सामग्री चयन करने की जब बारी आई, तो किसे रखा जाए या किसे छोड़ा जाएयह एक बड़ी दुविधा बन गई। पत्रकारिता के जिस काम को आज तक उल्लेखनीय तक नहीं माना गया उन्हीं रचनाओं को उनके दिवगंत होने के 75 साल के बाद देखना, पढ़ना और मूल्यांकन करना एक रोमाचंक अनुभव सा लग रहा है।
भारी मन से इसे तीन भागों में बांट तो दिया गया, मगर खबर है भी और खबर नहीं भी है की तर्ज पर प्रेमचंद की 100 से भी ज्यादा उन छोटी छोटी रपटों, टिप्पणियों या कमेंट्स को चाह कर भी हम यहां पर नहीं ले सके है। जिसको देखकर घटना विशेष पर प्रेमचंद के नजरिए को देखना मुमकिन नहीं हो पाया। उन चुटीली टिप्पणियों में एक अलग प्रेमचंद सामने आते हैं. जो ना केवल एक सजग पत्रकार थे, अपितु एक सार्थक सामाजिक प्रवक्ता के रूप में भी अपनी छाप प्रकट करते है। समय समाज, सत्ता संघर्ष, स्वराज, स्वाधीनता दमन, संग्राम और इनसे पीस रही जनता की पीड़ा को प्रेमचंद ने सामने रखा है। उनकी नजर से ना कोई दलित, महिला अभावग्रस्त समाज बाकी रहा और ना ही कोई क्रूर जालिम जमींदार या फिरंगी फौज की दमनकारी नीतियां ही बच पाई। एक पत्रकार के रूप में वे हमारी उम्मीदों से भी बड़े और महान और कालजयी पत्रकार के रूप में उभरते है। इस पहचान को सर्वमान्यता की जरूरत है। ताकि हिन्दी समेत पूरा साहित्य समाज प्रेमचंद को एक तेजस्वी पत्रकार की पत्रकारिता को देख देख कर अपने आपको धन्य माने। पत्रकार प्रेमचंद को लेकर कमसे कम दो और पुस्तकों की योजना चल रही है।
पिछले एक दशक में जापान और भारत श्रीलंका मे सुनामी के ज्वार से लाखों लोगों की बर्बादी और तबाही का खतरनाक मंजर अभी तक यादों में है। पत्रकार प्रेमचंद ने 1934 में बिहार में आए प्रलंयकारी भूकंप और जान माल की तबाही को जो चित्र खींचा है। इस मार्मिक रपट को पढ़कर आज की तबाही, के खतरनाक मंजर का सहज में अंदाजा लगाया जा सकता है। एक पत्रकार के रूप में प्रेमचंद पर बहुत सारी बातें की जा सकती है, मगर यहां पर इस चर्चा को विराम लगाने की बजाय इसे और तेज करना ही मेरा लक्ष्य है। देखना है कि क्या आज के मीडिया वार एज में प्रेमचंद कितना और किस तरह नए रूप में स्वीकार पाना क्या सहज होगा? अपने तमाम पाठकों से पत्रकार प्रेमचंद पर प्रतिक्रिया और बेबाक राय विचारों की  आवश्यकता है, ताकि बाद के संस्करणों में आपके विचारों को भी समायोजित किया जा सके।
पत्रकार अनामी शरण बबल ने मशहूर कथाकार और उपन्यासकार प्रेमचंद को एक पत्रकार के रूप में स्थापित करते हुए तीन खंडों में ''प्रेमचंद की पत्रकारिता'' पुस्तक का संपादन किया है। इस पुस्तक के दो खंडों में अनामी ने जो भूमिका लिखी है, उसे भडास4मीडिया के पाठकों के लिए खासतौर पर प्रस्तुत किया गया है. इनसे सम्‍पर्क इन नम्‍बरों 09868568501, ,09312223412 ,01122615150 के जरिए किया जा सकता है।
Comments




pramod kumar.muz.bihar 2011-06-23 17:27:29

upanyas samrat premchandra ne 1934 ke bhukamp me bihar me hui tabahi ka jo manjar banya kiya hoga us dastavej ka milana romanchakari ghatna hai.apane use khoja hai.apaka prayas sarahaniye hai.75 wars bad hamare bich ek nayee subah lekar yah pustak aayegee. nayeepidhi ke patrakar is pustak ko padhkar garib gurbon ka dukha dard samjhenge kash kositrasadi par koi manviye pira ko samajhkar kuch likata.

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