बुधवार, 15 जून 2011

हिन्दी गजलृृ सोच और संस्कारों की सांझी धरोहर


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                                सोच और संस्कारों की सांझी धरोहर

                                            (अंक-10-वर्ष-1)

                      हमारा दिल सवेरे का सुनहरा जाम हो जाए ।

                       चराग़ों की तरह आँखें जलें, जब शाम हो जाए ।

                                                          -बशीर बद्र



                                           गीत और ग़ज़ल विशेषांक

                                                (सर्वाधिकार सुरक्षित)



                                     संरचना व संपादन:: शैल अग्रवाल. 
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                                                                             अपनी बात   

        गीत और ग़ज़ल का  फरक क्या  बस गुल और फूल तक ही सीमित है...  गीत और ग़ज़ल की बहस अधिकांशतः हिन्दी  और उर्दू की बहस बनकर रह जाती है  जबकि हिन्दी और उर्दू दोनों ही एक ही कौम की  दो भाषाएँ हैं  और सदियों से  हमारी सांझी  और सांस्कृतिक धरोहर रही हैं। विभाजन के साठ साल बाद भी,  दोनों देशों की  बोलचाल की  भाषा आज भी  गंगा-जमनी ही है। कश्मीर से लेकर कन्या कुमारी तक हर प्रान्तीय भाषा-भाषियों ने   ग़ज़ल गायकी को अपनी जुबां और पहचान दी है। सरहद के दूसरी ओर भी यही हाल है। आज भी लाहौर, पेशावर या ढाका, या फिर  कलकत्ता मुम्बई, दिल्ली, सभी जगह एक-से-एक उम्दा गायक सुर और सोज़ की साधना  में समर्पित हैं और गीत और ग़ज़ल की  परंपरा को आगे बढ़ाते हुए गालिब और मीर के सुरों में  ही गूंज रहे हैं । वैसे भी एक ख़याल, एक सोज़ का कैसा वतन और कैसी सीमा, ये अहसास तो शाश्वत  हैं,

मैं हवा हूँ, कहां वतन मेरा

दश्त मेरा न ये चमन मेरा।

                              अमीक हनफ़ी

भाषा का  काम  मुख्यतः अभिव्यक्ति  है और कविता हो या गीत व गजल, सभी का माध्यम भाषा ही   है। मन जो कहे...दूसरा सुन-समझ ले, आनंदित और पुलकित हो ले, भावों और सोच के धरातल पर  एक दूसरे से मिल लें, क्या बस इतना ही काफी नहीं ...
'तुम्हें खोजता था मैं,
पा नहीं सका,
हवा बन बहीं तुम, जब ,
मैं थका रुका । '
        निराला '
ओस की बूदों के कंपन में, झरनों की कलकल में, खुशबू की मादकता और पवन की सिहरन मे... दुखियों के आँसू और बच्चों की मुस्कान में ...कहाँ-कहाँ नहीं ढूँढा और पाया है इसे। अनगिनित वे पल जिन्हें हम बेहद शिद्दत और अहसास के साथ जीना चाहते हैं, अक्सर इज़ाजत ही नहीं देता जीवन कि उन खूबसूरत पलों के बारे में सोचा तक जाए, उन्ही भागते-दौड़ते पलों की थमी  अनुगूँज का नाम है कविता...जैसे सितार पर झाले के बाद एक सुरीली और कंपित मीड ... देर तक गूंजती हुई।  
 कहीं पढ़ा था कि गजल का शाब्दिक अर्थ है प्रिय से मन की बात कहना। शायद यही वज़ह है कि- जैसे बातों का (वह भी प्रिय से) अंत नहीं, वैसे ही गीत और ग़ज़ल के विषय भी विविध और अनंत रहे हैं। बेबाक मन जो अल्हड़ बच्चे सा खेलता है, आसानी से बहलता नहीं; हां, दुःख और सुख से बिंधी बांसुरी-सा हल्की सी फूंक पर भी गूँजना जरूर स्वभाव है इसका। तो क्या हम यह मान लें कि ये सुख-दुख या विविध अनुभव ही काव्य-जननी या प्रेरणा हैं। 
' वियोगी होगा पहला कवि आह से उपजा होगा गान
उमड़कर आँखों से चुपचाप बही होगी कविता अनजान।'

                                                                                              -सुमित्रानन्दन पंत
पर मुस्कान और आंसू ही नहीं, भावातिरेक में शब्द भी तो झरते हैं आंखों से... होठों से। भारतीय जन-जीवन में तो वैसे भी गीत-संगीत ताने-बाने-सा ही बुना है। शादी-ब्याह, जन्म, मत्यु, दुःख-सुख; सच कहूँ तो आज भी हर अवसर पर गीत-संगीत ही सामाजिक अभिव्यक्ति का सर्वाधिक सरल, सशक्त और प्रिय माध्यम है। प्यार, नफरत सब समेटे ये गीत और ग़ज़ल कभी जाने-अनजाने की आस ...तो कभी मनचाहे की तलाश हैं।  एक अबूझ प्यास, तो कभी एक उलझी भटकन हैं। चुटकी ले-लेकर हँसाती-रुलाती भावों की इस सुरीली छेड़छाड़ को कुछ और ज्यादा ही शह दी है पिछले सात दशक से दिन-प्रति- दिन और-और प्रचलित होते और हरेक के सर चढ़कर बोलते फिल्मी गीतों ने। पिछले साठ सालों में एक-से-एक अच्छे गीतकार और गजलकारों का नाम जुड़ा है इनसे और ये इन्हें एक दूसरे ही धरातल पर ले गए हैं। सफर जो कभी शैलेन्द्र, गोपालसिंह नेपाली, साहिर लुधियानवी, कैफी आजमी और हसरत जयपुरी आदि से शुरु हुआ था, आज इसमें नीरज, अनजान, कतील शफाई, नासिर, गुलज़ार, जावेद अख्तर जैसे कई-कई बेहद संवेदनशील और काबिल नाम जुड़ गये हैं और जगजीत सिंह, अनूप जलोटा, तलत अजीज, चंदन दास, भूपेन्द्र, मेंहदी हसन, गुलाम अली, फरीदा खानम, मुन्नी बेगम, बेगम अख्तर, नूरजहां, तलत महमूद, मुकेश, लता, (आशा भोंसले) कविता कृष्णमूर्ति, सोनू निगम, अलका यागनिक, शान  जैसी मधुर और सोजभरी और सुरीली आवाजों ने इनके असर और लोकप्रियता में चार चांद लगाए हैं(नामों की फहरिश्त वक्त के साथ लम्बी ही होती जा रही है)। 

इसी लोकप्रियता का असर है कि आज यह काव्य-रस घर-घर स्वर लहरियों के संग बह रहा है...बच्चे-बूढ़े सभी के दिलो-दिमाग पर हावी है। काफी लचर सामग्री भी परोसी जाती है, पर अपवाद कहां नहीं होते? 

सूर, तुलसी, कबीर के साथ जब नरेन्द्र शर्मा और प्रदीप भी घर घर गूंजे तो यह कहना अतिशयोक्ति न होगी कि इन स्वर लहरियों के साथ साहित्य जन-जीवन में भी रच-बस गया और सुबह की किरणें, किरणें नहीं 'ज्योति कलश' बन गयीं। रोटी की जोड़-तोड़ में जो मीर और गालिब का नाम तक नहीं जान पाए थे उन्हें भी सुरैया और तलत ने ' दिले नादां ' से परिचित कराया और इन गीत और ग़ज़लों की लोकप्रियता बताती है कि पल भर को ही सही, गरीब-से-गरीब का जीवन भी आज एक गीतों भरी कहानी है... यथार्थ की कठोरता इनके दम पर मिटी भले ही न हो, कम-से-कम कम अवश्य हुई है।

कब हम बचपन से यौवन और यौवन से बुढ़ापे की तरफ चल पड़ते हैं और कब अपने आप से भी बेगाने से होने लगते हैं, सूखे पत्ते सा उड़ता... यथार्थ की जमीं और सपनों के आकाश की दुर्लभ दूरियां नापता यह जीवन,  इन बातों का लेखा-जोखा तक रखने की फुरसत नहीं देता। और तब बेबस और ' नुक्तांचीं गमे दिल' ही तो है जो कभी बात न कह पाने के गम में तो कभी 'बात बनाए न बने' की उलझन में डूबा, न जाने कैसे-कैसे करतब दिखलाता है। कितना-कितना हंसाता और रुलाता है। और यहीं से शुरु होता है हमारा शब्द और भावों में रचा बसा एक कल्पना का संसार... गीत-संगीत का साथ। 

पर यह जूझ... यह भटकन, यह मज़बूरी ही तो हमारा इश्क या शग़ल है...जीवन है!
हज़ार ख्वाइशें ऐसी कि हर ख्वाइश पर दम निकले

बहुत निकले मेरे अरमान मगर कम निकले ।


आज भी तो हाँ पर ना और ना पर हाँ ही तो इस मन का स्वभाव है। 



मेरे महबूब, मेरे दोस्त नहीं ये भी नहीं

मेरी बेबाक तबियत का तकाज़ा है कुछ और

                             -शौकत जयपुरी
और 'उम्रे दराज़' से उधार मांग कर लाए गये ये पल, दिन, महीने, साल...देखते-देखते ही पीछे भी छूट जाते हैं, पहुंच से परे, इन्ही सपने देखती आंखों के आगे ही। ... आरजू में तो कभी  इन्तज़ार में खुशियों के सातवें आसमान बैठे तो कभी उदास और उन्मन, बस उड़ते रहते है हम इनके साथ। वैसे भी चलचित्र-सा  देखने के अलावा और कुछ बस में भी तो नहीं हमारे। खुद ही तमाशबीन और खुद ही करतबबाज़, फिर भी जीते जी कब छोड़ पाए हैं हम यह अद्भुत नाटिका!

  जिधर है उधर के हम है...!  वक्त के हाथ है मिट्टी का सफर सदियों से

किसको मालूम कहां के हैं, किधर के हम हैं।



चलते रहते हैं कि चलना है मुसाफिर का नसीब

सोचते रहते हैं किस रहगुजर के हम हैं।

                                              -निदा फाज़ली





ऐ ज़जबाए दिल ग़र तू चाहे हर चीज़  मुनासिब हो जाए

मंजिल के लिए दो पैर चलूँ और मंजिल सामने हो जाए।

किसने लिखा, याद नहीं। कॉलेज के उन्मादी और बेफिक्र दिनों में एक दूसरे को सुना-सुनाकर बस खुश हो लिया करते थे हम और एक नयी स्फूर्ति से भर जाते थे। आज तो बस इतना ही याद है ... अब ना वो जोश और ना ही वे साथी।

भोलापन...सहेलियां ही नहीं, शायद वक्त की भीड़ में सही शब्द तक खो जाते हैं  ...पर आजभी तो मुश्किल से मुश्किल पल में यही समझाया है खुद को, कि सब यह मन का ही खेल है...चाहो तो जीत लो, चाहे तो हार। वैसे भी असलियत किसे पता नहीं!

 हमको मालूम है जन्नत की हकीकत लेकिन  एक बार फिर वक्त का मुसाफिर गुजरे वर्ष को अतीत की संदूकची में सजाये तैयार बैठा है। एकबार फिर पीछे छूटी यादें  ... मिलन और विछोह की, उपलब्धि और असफलताओं की...सुख-दुख की, मन के एलबम में तस्बीरों  सी सजने लगी हैं...हंसाती, रुलाती, उलझाती...कभी-कभी तो बेमतलब ही थकाती।  पर मनचाहा सब पूरा ही हो जाए, तो फिर जीने को ही क्या रह जाए... हर किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता/ कहीं जमीं नहीं मिलती तो कहीं आसमां नहीं मिलता।

मियां गालिब यह कह तो गये, पर जाते-जाते एक ऐसा संसार भी छोड़ गए हमारे लिए,  जहां आज भी हम न सिर्फ जमीं और आसमां दोनों को ही बांहों में  भरने की गुस्ताख़ी करते  हैं बल्कि रमते भी हैं ... लब्ज़ों के कांधे सिर टिकाए अपना एकांत और कोलाहल जी भर-भरकर बांटते हैं...  हँसते और रोते हैं।

कभी चांदनी के साथ छत पर टहलती, तो कभी लहरों-सी सागर की बांहों में सिमटने को बेचैन, कल्पना-सुन्दरी भावों के नए-नए लिबास पहने  नए वर्ष के स्वागत की तैयारी में सज उठी है। होठों पर एक उत्सुक मुस्कान और आँखों में हल्की-सी नमी ... बिल्कुल नयी-नवेली दुल्हन-सा ही तो हाल है इसका। एक तरफ तो विदाई जाते वर्ष 2007 की... पीछे छूटे कई-कई महीने, घंटों और पलों की, तो दूसरी तरफ नए के स्वागत की प्रतीक्षा और रोमांच...। ऐसे रूमानी पल में हमने भी गीत और ग़ज़लों का एक महकता गमकता गुलदस्ता तैयार किया है आपके लिए और गीत व ग़ज़ल की उत्पत्ति, प्रचलन और तकनीकी आदि जानकारी के बारे में कई-कई तथ्य एकत्रित करने की कोशिश भी की है।   

यही वजह है कि लेखनी के सभी स्थाई स्तंभ जैसे विविधा, राग-रंग और भारती, सभी इसबार ग़ज़लों से या ग़ज़ल संबंधी सामग्री से ओतप्रोत हैं। नए-पुराने, जाने-अनजाने सभी गीतकार और गजलकारों की झोली से कुछ चुनिंदा रतन आप तक पहुँचाने का प्रयास है लेखनी का यह अंक। सच कहूँ तो सुख और दुःख की अनगिनित हिलोरें लेती गीत और गजल की एक मनमौजी लहर उमड़ आई है लेखनी के इस अंक में; आपको भिगोने और डुबोने...शायद संग-संग बहा तक ले जाने को...आपकी प्रतिक्रिया का हमें इन्तज़ार रहेगा!  

                                                                                                  -शैल अग्रवाल


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                                                                                     मन की किताब से...
कोई फूल


कोई फूल धूप की पत्तियों में हरे रिबन से बंधा हुआ ।

वो ग़ज़ल का लहजा नया-नया, न कहा हुआ न सुना हुआ ।



जिसे ले गई अभी हवा, वो वरक़ था दिल की किताब का,

कहीँ आँसुओं से मिटा हुआ, कहीं, आँसुओं से लिखा हुआ ।



कई मील रेत को काटकर, कोई मौज फूल खिला गई,

कोई पेड़ प्यास से मर रहा है, नदी के पास खड़ा हुआ ।



मुझे हादिसों ने सजा-सजा के बहुत हसीन बना दिया,

मिरा दिल भी जैसे दुल्हन का हाथ हो मेंहदियों से रचा हुआ ।



वही शहर है वही रास्ते, वही घर है और वही लान भी,

मगर इस दरीचे से पूछना, वो दरख़्त अनार का क्या हुआ ।



वही ख़त के जिसपे जगह-जगह, दो महकते होटों के चाँद थे,

किसी भूले बिसरे से ताक़ पर तहे-गर्द होगा दबा हुआ ।


                                 वशीर वद्र


अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें


 अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें
जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें

ढूँढ उजड़े हुए लोगों में वफ़ा के मोती
ये ख़ज़ाने तुझे मुमकिन है ख़राबों में मिलें

तू ख़ुदा है न मेरा इश्क़ फ़रिश्तों जैसा
दोनों इंसाँ हैं तो क्यों इतने हिजाबों में मिलें

ग़म-ए-दुनिया भी ग़म-ए-यार में शामिल कर लो
नशा बड़ता है शरबें जो शराबों में मिलें

आज हम दार पे खेंचे गये जिन बातों पर
क्या अजब कल वो ज़माने को निसाबों में मिलें

अब न वो मैं हूँ न तु है न वो माज़ी है "फ़राज़"
जैसे दो शख़्स तमन्ना के सराबों में मिलें
                        अहमद फ़राज़











बंद होंठों में छुपा लो


बंद होंठों में छुपा लो
ये हँसी के फूल
वर्ना रो पड़ोगे।

हैं हवा के पास
अनगिन आरियाँ
कटखने तूफान की
तैयारियाँ
कर न देना आँधियों को
रोकने की भूल
वर्ना रो पड़ोगे।

हर नदी पर
अब प्रलय के खेल हैं
हर लहर के ढंग भी
बेमेल हैं
फेंक मत देना नदी पर
निज व्यथा की धूल
वर्ना रो पड़ोगे।

बंद होंठों में छुपा लो
ये हँसी के फूल
वर्ना रो पड़ोगे।

     -कुंवर बेचैन









कहीं चांद



कहीं चाँद राहों में खो गया कहीं चाँदनी भी भटक गई
मैं चराग़ वो भी बुझा हुआ मेरी रात कैसे चमक गई

मेरी दास्ताँ का उरूज था तेरी नर्म पलकों की छाँव में
मेरे साथ था तुझे जागना तेरी आँख कैसे झपक गई

कभी हम मिले तो भी क्या मिले वही दूरियाँ वही फ़ासले
न कभी हमारे क़दम बढ़े न कभी तुम्हारी झिझक गई

तुझे भूल जाने की कोशिशें कभी क़ामयाब न हो सकीं
तेरी याद शाख़-ए-गुलाब है जो हवा चली तो लचक गई
                      वशीर वद्र



जिन्दगी यूं जली




ज़िंदगी यूँ भी जली, यूँ भी जली मीलों तक

चाँदनी चार क‍़दम, धूप चली मीलो तक



प्यार का गाँव अजब गाँव है जिसमें अक्सर
ख़त्म होती ही नहीं दुख की गली मीलों तक

प्यार में कैसी थकन कहके ये घर से निकली
कृष्ण की खोज में वृषभानु-लली मीलों तक


घर से निकला तो चली साथ में बिटिया की हँसी
ख़ुशबुएँ देती रही नन्हीं कली मीलों तक

माँ के आँचल से जो लिपटी तो घुमड़कर बरसी
मेरी पलकों में जो इक पीर पली मीलों तक


मैं हुआ चुप तो कोई और उधर बोल उठा
बात यह है कि तेरी बात चली मीलों तक


हम तुम्हारे हैं 'कुँअर' उसने कहा था इक दिन
मन में घुलती रही मिसरी की डली मीलों तक

                                 -कुंवर बेचैन



 जब किसी से 




जब किसी से कोई गिला रखना
सामने अपने आईना रखना

यूं उजालों से वास्ता रखना
शमा के पास ही हवा रखना

घर की तामिर चाहे जैसी हो
इसमें रोने की कुछ जगह रखना

मिलना जुलना जहा ज़रूरी हो
मिलने ज़ुलने का हौसला रखना

  दुनिया जिसे कहते हैं  निदा फ़ाज़ली

दुनिया जिसे कहते हैं जादू का ख़िलौना हैं
मिल जाये तो मिट्टी हैं खो जाये तो सोना है

अच्छा सा कोई मौसम तनहा सा कोई आलम
हर वक़्त आये रोना तो बेकार का रोना हैं

बरसात का बादल तो दिवाना हैं क्या जाने
किस राह से बचना हैं किस छत को भिगौना हैं

ग़म हो कि ख़ुशी दोनो कुछ देर के साथी हैं
फिर रास्ता ही रास्ता हैं हंसना हैं रोना हैं
              -निदा फ़ाज़ली.











 शाख़ पर एक फूल भी है


है समय प्रतिकूल माना
पर समय अनुकूल भी है।
शाख पर इक फूल भी है॥


घन तिमिर में इक दिये की
टिमटिमाहट भी बहुत है
एक सूने द्वार पर
बेजान आहट भी बहुत है
लाख भंवरें हों नदी में
पर कहीं पर कूल भी है।
शाख पर इक फूल भी है॥
विरह-पल है पर इसी में
एक मीठा गान भी है
मरुस्थलों में रेत भी है
और नखलिस्तान भी है
साथ में ठंडी हवा के
मानता हूं धूल भी है।
शाख पर इक फूल भी है॥
है परम सौभाग्य अपना
अधर पर यह प्यास तो है
है मिलन माना अनिश्चित
पर मिलन की आस तो है
प्यार इक वरदान भी है
प्यार माना भूल भी है।
शाख पर इक फूल भी है॥

           -कुंवर बेचैन 








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                                                                                                                     मन्थन

" अश्क बनबनके  बह रहे होते,जो न कहना था कह रहे होते 
रौशनी ने बचा लिया, वरना हम अँधेरों में रह रहे होते। "- कुंवर बेचैन  
गजल की दस्तकः शैल अग्रवाल                                   
 आखिर क्या है यह ग़ज़ल या रौशनी की लकीर;

फिक्र मोमिन की, जबां द़ाग की, गालिब की बयां

मीर का रंगे सुख़न हो तो ग़ज़ल होती है।

सिर्फ अल्फ़ाज़ ही माने नहीं पैदा करते

जज़्बा-ए-खिदमते-फ़न हो तो ग़ज़ल होती है।

सोच की गहराई और सुरों में रियाज़ हो  तो ग़ज़ल  आज भी श्रोताओं को बांधने की बेजोड़ विधा है। आज भारत में जगजीत सिंह, पंकज उधास और सरहद के दूसरी तरफ मेंहदी हसन और गुलाम अली वगैरह जैसे नायाब गायक इसे मखमली और सोजभरी आवाजों में घोलकर  पसंदगी के बेजोड़ आयामों तक लिए जा रहे हैं। कभी बेगम अख्तर, मलका पुखराज और नूरजहां व सुरैया की गाई गजल सुनने वाला एक खास तबका होता था और एक खास उम्र के ही इसके प्रशंसक हुआ करते थे, परन्तु अब ऐसा नहीं है। नई गजलों की शब्दावली और तेवर दोनों ही बदल चुके हैं और इसमें आजके गीत और गजलकारों( जावेद अख्तर, गुलजार, नीरज, कतील शफाई, बशीर बद्र...आदि) का बड़ा हाथ है। अब विषय और शब्दावली दोनों में ही गीत और ग़ज़ल के फासले कम होते नजर आते हैं। पहले जो सिर्फ गायकी पर ध्यान दिया जाता था और भारी आवाज में एकाध साज के साथ गजल पक्की रागों में ही गायी जाती थी,  आज यह तस्बीर पूरी तरह से बदल चुकी है और अब गजल गायकों के साथ भी पूरा और्क्रेष्ट्रा व आधुनिकतम तकनीकियां होती हैं।

विषय की रूमानियत, सादगी और कभी-कभी एक सोजभरी उदासी या दार्शनिकता की वजह से ग़ज़ल ने हमेशा से ही श्रोताओं के बीच अपनी एक खास जगह बनाई है... रेशमी सलवटों सी सहजतः ही मन की तहों में बैठी रही है। कहते हैं पं बैजनाथ, जो कि बैजू बाबरा के नाम से विख्यात थे और जिन्होंने ध्रुपद और धमाल की गायकी को एक नयी दिशा और नया आयाम दिया था, ग़ज़ल के भी कंठसिद्ध गायक थे और उन्होंने अपनी ग़ज़ल गायकी से मुगल सम्राट हुमायूं को इतना अधिक प्रसन्न व प्रभावित किया कि उनके अनुरोध पर इनाम स्वरूप शहंशाह हुमायूँ ने एक लाख गुजराती युद्धबंदियों को जीवनदान दे दिया  था जबकि हुमायूँ उनके कत्ल का आदेश तक दे चुके थे। रूह तक में हलचल पैदा करने वाली ये ग़ज़लें सिर्फ लफ़्जों की तोड़-मरोड़ और नाप तौल से ही नहीं बनतीं। बयानगी की बेमिसाल अदा और बेहतरीन सोच भी एक नायाब ग़ज़ल में उतनी ही दमखम रखती है जितनी कि विषय की सम-सामयिकिता। बात वही असर करेगी, जो सही संदर्भ में, सही ढंग से और सही वक्त पर की गई होगी। और अगर कहने का लहज़ा भी अनूठा और सुरीला हो, तब तो और भी अच्छा...सोने में सुहागा। यही वजह है कि मियां गालिब इतने आराम और विश्वास के साथ कह गये कि 'सुखनबर कई और देखे मगर है गालिब का अन्दाजे बयां कुछ और '।

ग़ज़ल का अर्थ है महबूब से बातचीत करना और इसी अर्थ की तंगदिली तहत शुरुवात में ग़ज़ल राजा महाराजाओं के दरबार या कोठों तक ही कैद रही और कभी तबले की ठेक पर  तो कभी नयनों की कटारी से दिल के छिलने की, तो कभी मखमली कालीन से पैरों के छिलने की बातें करती रही।

ग़ज़ल शब्द का अर्थ अरबी भाषा में कातना बुनना भी होता है; एक ऐसा सूत जिससे कि (ख्वाबों का) पूरा का पूरा कालीन बुना जा सके...(जाल भी)। कुछ लोग ग़ज़ल शब्द की उत्पत्ति गज़ाल से भी मानते हैं। ग़ज़ाल यानी कि हिरण... और ग़ज़ल भी तो हिरण की सी ही लम्बी-लम्बी चौकड़ी मारती है...अभिव्यक्ति की कुलाचें लेती है। गालिब ने तो कहीं ग़ज़ल को एक ऐसी घायल हिरणी भी कहा है, जिसका शिकारी पीछा कर रहे हों। लम्बे समय तक ग़ज़लों में अभिव्यक्ति बस प्रेम की ही होती थीं और ग़ज़ल के सभी विषय प्रेमी-प्रेमिकाओं के इर्दगिर्द ही मंडराते रहते थे। यह प्रेमी या प्रेमिका स्त्री-पुरुष या सर्व शक्तिमान ईश्वर और अल्लाह कुछ भी हो सकते थे और इसी दुहरे संदर्भ के तहत सूफी नज्मों में एक-से-एक बढ़कर श्रंगार-रस की प्रेमपगी अभिव्यक्तियां हुयीं और साथ-साथ वह अलौकिक रहस्यमयता भी बरकरार रही। सूफियों ने अपनी सांगीतिक प्रार्थना के लिए फारसी ग़ज़ल को अपनाया और उसे भारतीय संगीत के रागों और तालों में बांधकर पेश किया। फ़िराक गोरखपुरी के अनुसार

' ग़ज़ल मूलतः प्रेम को काव्यात्मक शैली में अभिव्यक्त करने वाली विधा है।'

यदि हम इतिहास के पन्ने पलटें तो पाएंगे कि अरबी भाषा में 'क़सीदा' नाम की एक काव्य-विधा हुआ करती थी जो कि तारीफ या प्रशंसा से जुड़ी थी (आज भी 'नाम के क़सीदे पढ़ना'  एक प्रचलित मुहावरा है)। क़सीदे के आरंभ में चार-पांच शेर कहे जाते थे, जिन्हे नसीब या तशबीब कहते थे। कसीदे की यही तशबीब या नसीब ग़ज़ल कहलाती थी। अरबी साहित्य में ग़ज़ल का कोई स्वतंत्र स्थान नहीं था। अरबी साहित्य से फारसी साहित्य में आने पर ही इस काव्य विधा ने अपना स्वतंत्र रूप, गुण और स्थान पाया।

तुर्क सुलतानों का जब बारहवीं शताब्दी में शासन आरंभ हुआ तो वे भाषा के नाम पर फारसी और काव्य के नाम पर कसीदा, मसनवी और ग़ज़ल लेकर भारत आए। अरबी फारसी और हिंदवी के इस सांस्कृतिक समन्वय के साथ-साथ एक नयी भाषा का जन्म हुआ जिसे ' उर्दू'  नाम दिया गया जो स्थानीय बोली के साथ अरबी, फारसी और तुर्की भाषा का समन्वय थी।

यूँ तो ग़ज़ल की विधा भारत में अमीर खुसरो से तीन सौ साल पहले से ही प्रचलित थी परन्तु ग़ज़ल को अपनी असली पहचान अमीर खुसरो( 1253-1325) से ही मिली, जिन्होंने अरबी फारसी के साथ-साथ सादी और खड़ी बोली में अपने मन की बात कहनी शुरू की जो अवाम को भी समझ में आयी।

जब यार देखा नैन भर, दिल की गई चिंता उतर

ऐसा नहीं कोई अजब, राखे उसे समझाय कर।

जब आँख से ओझल भया, तड़पन लगा मेरा जिया,

हक्का इलाही क्या किया, आंसू चले भर लाय कर।

तू तो हमारा यार है, तुझ पर हमारा प्यार है,

तुझ दोस्ती बिसियार है, एक शब मिलो तुम आय कर!

तुमने जो मेरा मन लिया, तुमने उठा ग़म को दिया,

तुमने मुझे ऐसा किया, जैसे पतंगा आग पर।

खुसरो कहें बातें गज़ब, दिल में न लाबें अजब,

कुदरत है खुदा की अजब, जब जिव दिया लाय कर।

                             (बहरे रजज सालिम-2122)

अमीर खुसरो की 'यह ग़ज़ल महमूद शीरानी को तेरहवीं सदी हिजरी के आरंभ में लिखी गई थी और इसकी एक पांडुलीपि अभी भी सलामत है ( लाहौर के प्रो. सिराज्जुद्दीन आजार के संग्रहालय में मिली थी।') डॉ. भोलानाथ तिवारीः अमीर खुसरो और उऩका साहित्य।

अमीर खुसरो की यह खांटी हिंदुस्तानी ग़ज़ल न केवल भारतीय साहित्य की पहली ग़ज़ल है बल्कि हिन्दुस्तानी ग़ज़ल की वह पहली मुख्यधारा या परंपरा है जिसे आज 'हिन्दी ग़ज़ल' के नाम से जाना जाता है।  (उनकी ग़ज़ल, कव्वाली और ख्याल आज 700 साल बाद भी गायकों की चुनिंदा पसंद हैं। हाल ही में उनकी एक रचना '  छाप तिलक सब भूली, तोसे नैना मिलाय के'  तो दो तीन हिन्दी फिल्मों में ली गयी और आज भी खूब पसंद की गयी)।'

अमीर खुसरो की इसी ग़ज़ल परंपरा को कबीर से लेकर कुंवर बेचैन तक, आज के ग़ज़लकारों ने आगे बढ़ाया है।

 यूँ तो केकुबाद के युग में ही (1187-1290) गली-गली में ग़ज़ल के गायक पैदा हो चुके थे और काज़ी कमीदुद्दीन नागौरी के कव्वाल महमूद ने सुलतान शमशुद्दीन इल्तुमिश (कार्यकाल 1210-1235) को ग़ज़ल सुनाकर मुग्ध भी कर दिया था, ऐसा  उल्लेख भी मिलता है, परन्तु भारत का पहला ग़ज़लकार  कुली कुतुब शाह को  ही माना जाता है जो कि गोलकुंडा के शासक थे और उनकी ये पंक्तियां काफी मशहूर  भी हुईं।

पिया बाज प्याला पिया जाए ना

पिया बाज यक तल जिया जाए ना। 

अपनी सरस और मिलीजुली भाषा में तेरहवीं शताब्दी में अमीर खुसरो ने हिंदी ग़ज़ल कहने का एक नया ही अंदाज पैदा किया जिसे खास और आम दोनों में पसंद किया गया।

ज़े हाले मिसकीं मकुन तग़ाफुल,

दुराय नैना बनाय बतियां। 

के ताबे-हिजरां न दारम ए जां,

ना लेहू काहे लगाय छतियां।

शबाने-हिजरां न दराज़ चूं

जुल्फ-ओ-रोज़े वसलत चूं उम्र कोताह,

सखी पिया को जो मैं न देखूं, तो कैसे काटूं अंधेरी रतियां।

ब-हक्के रोज़े विसाल दिलवर, के दादे मारो फ़रेब 'खुसरो'

समीप मन के दराये राखूं, जो जान पावूं पिया की खतियां।

इस शेर में उन्होंने फारसी और खड़ी बोली को ऐसे सुन्दर और सटीक तरीके से जोड़ा है मानो सोने की अंगूठी में हीरा और उनकी यही वह ग़ज़ल है जिसने उस जमीं को तैयार किया जहां से वली दकनी (1705) ने हिन्दुस्तानी ग़ज़ल की दूसरी धारा आरंभ की जो आज उर्दू ग़ज़ल के नाम से जानी जाती है और इस परंपरा को आगे बढ़ाया दर्द, मीर, मज़हर और गालिब से लेकर जिगर, फिराक और आजतक उर्दू में लिखते आ रहे सभी शायरों ने। अमीर खुसरो की इस पहली हिंदी ग़ज़ल में छंद(बहर) जरूर फारसी भाषा का है, परन्तु इसका काफिया (तुकांत) पूर्णतया हिन्दी का है। खुसरो अपभ्रंश और भारतीय भाषाओँ के संधिकाल में लिख रहे थे। उस समय प्राकृत तत्सम शब्दों का प्रयोग ज्यादा होता था जबकि उन्होंने तद्भव शब्दों का ज्यादा इस्तेमाल किया। इस परिप्रेक्ष में उनकी पहेलियों और मुकरियों को उद्धत किया जा सकता है।

देखन में है बड़ उजियारी।

है सागर से आती प्यारी।

सगरी रैन संग ले सोती

ऐ सखी साजन, ना सखी मोती।

               (मुकरियां)

विभिन्न भाषा के समन्वय पर आगे भी प्रयोग हुए हैं और होते ही रहेंगे ( आजकी आधुनिक कविता में तो यह बहुत ही आम सी बात है) जैसे कि अवध के अन्तिम नवाब, शायर और नर्तक वाजिद अली शाह ने अंग्रेजी और उर्दू का मिलाजुला प्रयोग करते हुए लिखा (ग़ज़ल नहीं) ,

माई डियर बुलाओ

कित बसे

माई डियर बुलाओ

हबसन करो/ जश्न करो

बंगला में ले जाओ।

यहां तक आते-आते ग़ज़ल प्यार-मोहब्बत और प्रेमी-प्रेमिकाओं से मुक्त हो आगे बढ़ चुकी थी और अब तो हर तरह के सामाजिक संदर्भ, चिंताएं व दर्शन इसमें आ मिले हैं,

आ के पत्थर तो मेरे सहन में दो-चार गिरे,

जितने उस पेड़ के फल थे, पसे दीवार गिरे।

                              -शकेब जलाली

दिन भर तो बच्चों की खातिर मैं मजदूरी करता हूँ,

शब को अपनी गैर मुकम्मल ग़ज़लें पूरी करता हूँ।

                                    -तनवीर सुपरा

यूँ तो सब के सब अंधेरों से बहुत बेजार हैं

रोशनी के बास्ते फिर भी नहीं तैयार हैं।

                                -कमलेश भट्ट कमल

दोस्ती, नेकी, मुहब्बत, आदमियत और वफ़ा

अपनी छोटी नाव में इतना भी मत सामान रख।

                                    -आलम खुरशीद

ग़ज़ल में मिसरों पर किसी मात्रा या मीटर की रोक नहीं, बस तुक मिलाना जरूरी है। तुक की यह बंदिश जहां ग़ज़ल की शर्त और ताकत है वहीं कमजोरी भी। मिर्जा गालिब ने इसीलिए ग़ज़ल को तंग दामन भी कहा है। 'मत्ला ' और ' मक्ता ' कहते हैं। गजल की एक शर्त यह भी है कि इसका हर शेर खुद अपने आप में भी पूरा होना चाहिए।

बक़द्रे शौक़ नहीं ज़र्फे़ तंगना-ए-ग़ज़ल,
कुछ और चाहिये वुसअत मेरे बयाँ के लिये।


ग़ज़ल में कम-से-कम पांच शेर होते हैं और अंतिम शेर में शायर का नाम आता है। गजल में मिसरे (पंक्तियां) होती हैं और दो मिसरों का एक शेर बनता है। पहले दोनों मिसरे सानुप्रास होते हैं। पहले और अंतिम शेरों को

पर आजकी समकालीन ग़ज़ल का रूप बदल चुका है। अब मीटर की पाबंदी (वजन)पर उतना ध्यान नहीं दिया जाता पर काफिया और रदीफ़ का ध्यान रखा जाता है (रदीफ़ शेर का वह आखिरी शब्द है जो हर शेर के अंत में आता है और काफ़िया रदीफ से पहले आने वाले मिलते जुलते शब्द 'अनुप्रास' को कहते हैं); जिससे कि इसका गत्वर तत्व न बिखरे, क्योंकि ग़ज़ल आज भी तबले की ठोक पर ही सजती है। आज की इस ग़ज़ल के बारे में लिखते हुए रतीलाल शाहीन अपने एक लेख में लिखते हैः

 ' आज की ग़ज़ल जदीद ग़ज़ल है। उसमें मत्ले और मक्ते की पाबंदी भी उतनी सख्ती से नहीं बरती जाती। आज की ग़ज़ल फूल, खुशबू, चादर और इत्र लिहाफ से निकलकर सड़क पर आ गई है। दरअसल कोठे से ग़ज़ल को निकालकर आम जिन्दगी का स्वर बनाने का काम मिर्जा असदुल्ला खां ग़ालिब का है। इसमें दार्शनिकता का पुट भरने का काम किया इकबाल ने। जिन्दगी से जोड़ने का काम किया फिराक जी ने। पृष्ठभूमि में अनेकानेक शायरों की ज़मात है जिनके नामों की सूची बनाई जाए तो कई पृष्ठ भर जाएँगे। मगर उनकी उपेक्षा नहीं की जानी चाहिए।'

सूफी मिलन से विरह पक्ष को अधिक महत्व देते थे और पुराने ग़ज़लकार फारसी की इन्ही ग़ज़लों के आधार पर अपनी ग़ज़लें लिखा करते थे, यही वजह है कि इनमें बिछुड़ने या दूर होने का गम या रोना धोना अधिक मिलता था। इन गजलों में मात्रा की पाबंदी को बहुत कड़ाई से ध्यान में रखा जाता था परन्तु  नई गजलों में जीवन की विसंगतियां, विद्रूपताएं और सहजता सभी तरह के विषय आए है। देश के बटवारे ने नक्शे में तो भारत के दो टुकड़े किए मगर दिलों को बांटने का काम न कर पाया। सबूत पाकिस्तान की गजलें हैं। उनमें गंगा जमना, हिमालय, राम, श्याम और राधा, सभी का जिक्र बहुतायत से मिलता है।  '

प्रस्तुत हैं पाकिस्तान की कुछ ग़ज़लें अपनी गंगा जमुनी बानगी के साथ, जिनमें हिंदू कथाओं के पारंपरिक संदर्भ ही नहीं, बटवारे से पहले का भारत भी बोलता है,

हर लिया है किसी ने सीता को

जिंदगी है कि राम का बनवास।

                              -फ़िराक़ गोरखपुरी.

या फिर,

हर क़दम, हर जगह पे साथ रही

ज़िंदगी है कि सती-सावित्री !

                            - फुज़ैल जाफरी.

अब न वो गीत, न चौपाल, न पनघट, न अलाव,

खो गए शहर के हंगामे में देहात मेरे।

                                  -फुज़ैल जाफरी.

उलझे-उलझे धागे-धागे से ख्यालों की तरह

हो गया हूँ इन दिनों तेरे सवालों की तरह।

                                   -खातिर गजनवी

पेड़ यों तो शाख कट जानेसे भी जिन्दा रहा,

लेकिन अपने साए से भी सख्त शर्मिंदा रहा।

                                  -खाबिर एजाज़
इस नई ग़ज़ल के प्रचलित होने की एक वजह यह भी है कि पिछली शताब्दी के सातवें दशक के आने तक अतुकांत कविताएँ काफी जोर पकड़ चुकी थीं जो कि न छन्दबद्ध थीं और ना ही गेय, इससे इनकी सरसता मिटती जा रही थी। ऐसे में यह गेय विधा एक नयी सरसता लेकर आयी। हिन्दी ग़ज़लें आज एक नए तेवर के साथ लिखी जा रही हैं जिसमें जीवन के सारे इन्द्रधनुषी रंग खिल आए हैं;

ये वही गांव हैं, फसलें वतन को जो देते

भूख ले आई है इनको तो शहर में रख लो।

                                                 -प्रेम भंडारी



मैने बच्चों को यूं बातों में लगा रक्खा है

सोचता हूँ चला जाए खिलौने वाला।

                                            -मुनव्वर राणा

दीवार क्या गिरी मेरे कच्चे मकान की,

लोगों ने मेरी सहन में रास्ते बना लिए।

                                    -अली शमीम

मिले जो दीवार, खिड़कियां गुम,कहीं मिले छत तो दर नहीं है

भटक-भटककर हुआ यक़ीं ये, हमारे हिस्से में घर नहीं है।

                                    -सुल्तान अहमद   



नारियां अब वक्त की हस्ताक्षर हैं

कथ्य तुलसीदास झूठा हो गया।

                       श्याम प्रकाश अग्रवाल



दूसरों की जेब में जब हाथ जाता है,

आस्तीनों की सिलाई टूट जाती है।

                          श्याम प्रकाश अग्रवाल



गीता हूँ कुरान हूँ मैं,

मुझे पढ़, इन्सान हूँ मैं।

                     राजेश रेड्डी



ये सारे शहर में दहशत-सी क्यों है

यक़ीनन कल कोई त्योहार होगा।

                             राजेश रेड्डी



मेरे दिल के किसी कोने में इक मासूम-सा बच्चा

बड़ों की देखकर दुनिया, बड़ा होने से डरता है।

                                        राजेश रेड्डी

                     

हम तो कातिल खुद अपने हैं साहब

तीन सौ दो दफा है खामोशी !

                         चन्द्रभानु गुप्त



सिर्फ शायर वही हुए, जिनकी

जिन्दगी से नहीं पटी साहब।

                      चन्द्रभानु गुप्त



सूरज को चोंच में लिए मुरगा खड़ा रहा

खिड़की के पर्दे खींच दिए रात हो गई।

                                  निदा फाजली

अब तो इस तालाब का पानी बदल दो

ये कंवल के फूल कुम्हलाने लगे हैं।

                          दुष्यंत कुमार

और अन्त में आज की सपने देखती आंखों की आत्मविश्वास भरी दुस्साही पंक्तियां जो मेरी समझ से इस इक्कीसवीं सदी की हस्ताक्षर पंक्तियां हैं।

कैसे आकाश में सूराख नहीं हो सकता?

एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारों।

                          -दुष्यंत कुमार

बात खतम करते हुए यही कहना चाहूँगी कि हम हों या ना हों, चाहें न चाहें, हवाओं में बिखरे ये ग़ज़ल और मिसरे...इनकी ये घुसपैठिया दस्तकें तो होती ही रहेंगी। और दिल के खुले दरवाज़े हम गाहे-बगाहे इनका स्वागत भी ऐसे ही हंस-रोकर करेंगे... बिना थके और बिना रुके। ये बात और है कि बदलते वक्त के साथ-साथ सुनने और सुनाने वाले, दोनों नये होंगे और एक और नए अन्दाज़ से किसी और के आगे यही बातें एकबार फिर से किसी नए अन्दाज़  से  सुनी और सुनाई जाएँगी...

हज़ार बार ज़माना इधर से गुज़रा है

नई-नई-सी है कुछ तेरी रहगुज़र फिर भी।...

                                -फ़िराक़ गोरखपुरी।



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                                                                                                            कविता-धरोहर
                                                                                                                       
दुष्यंत कुमार  
चाँदनी छत पे चल रही होगी
अब अकेली टहल रही होगी
फिर मेरा ज़िक्र आ गया होगा
वो बर्फ़-सी पिघल रही होगी
कल का सपना बहुत सुहाना था
ये उदासी न कल रही होगी
सोचता हूँ कि बंद कमरे में
एक शम-सी जल रही होगी
तेरे गहनों सी खनखनाती थी
बाजरे की फ़सल रही होगी
जिन हवाओं ने तुझ को दुलराया
उन में मेरी ग़ज़ल रही होगी 

      

-महादेवी वर्मा 
तुम मुझमें प्रिय! फिर परिचय क्या
तारक में छवि, प्राणों में स्मृति,
पलकों में नीरव पद की गति,
लघु उर में पुलकों की संसृति,
           भर लाई हूँ तेरी चंचल
           और करूँ जग में संचय क्या!

तेरा मुख सहास अरुणोदय,
परछाई रजनी विषादमय,
वह जागृति वह नींद स्वप्नमय,
           खेलखेल थकथक सोने दे
           मैं समझूँगी सृष्टि प्रलय क्या!

तेरा अधरविचुंबित प्याला
तेरी ही स्मितमिश्रित हाला,
तेरा ही मानस मधुशाला,
           फिर पूछूँ क्या मेरे साकी!
           देते हो मधुमय विषमय क्या?
रोमरोम में नंदन पुलकित,
साँससाँस में जीवन शतशत,
स्वप्न स्वप्न में विश्व अपरिचित,
           मुझमें नित बनते मिटते प्रिय!
           स्वर्ग मुझे क्या निष्क्रिय लय क्या?
हारूँ तो खोऊँ अपनापन
पाऊँ प्रियतम में निर्वासन,
जीत बनूँ तेरा ही बंधन
           भर लाऊँ सीपी में सागर
           प्रिय मेरी अब हार विजय क्या?

चित्रित तू मैं हूँ रेखाक्रम,
मधुर राग तू मैं स्वर संगम,
तू असीम मैं सीमा का भ्रम,
           काया छाया में रहस्यमय।
           प्रेयसि प्रियतम का अभिनय क्या
तुम मुझमें प्रिय! फिर परिचय क्या                                      

-कतील शफ़ाई        
किया है प्यार जिसे हमने ज़िन्दगी की तरह
वो आशना भी मिला हमसे अजनबी की तरह
बढ़ा के प्यास मेरी उस ने हाथ छोड़ दिया
वो कर रहा था मुरव्वत भी दिल्लगी की तरह

किसे ख़बर थी बढ़ेगी कुछ और तारीकी
छुपेगा वो किसी बदली में चाँदनी की तरह

कभी न सोचा था हमने "क़तील" उस के लिये
करेगा हमपे सितम वो भी हर किसी की तरह

                                         





 -दुष्यंत कुमार
हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।
आज यह दीवार परदों की तरह हिलने लगी,
शर्त लेकिन यह थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए।
हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर हर गांव में,
हाथ लहराते हुए लाश चलनी चाहिए।
सिर्फ हंगामा करना मेरा मकसद नहीं,
सारी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।




क़ैफ़ी आज़मी
पत्थर के ख़ुदा वहां भी पाये
हम चांद से आज लौट आये

दिवारें तो हर तरफ खडी हैं
क्या हो गया मेहरबां साये

जंगल की हवायें आ रही हैं
कागज़ का ये शहर उड ना जाये

सहरा सहरा लहू के खेमे
फिर प्यासे लब-ए-फ़ुरात आये।







-गोपाल सिंह नेपाली

अपनेपन का मतवाला था

अपनेपन का मतवाला था
भीड़ों में भी मैं खो न सका
चाहे जिस दल में मिल जाऊँ
इतना सस्ता मैं हो न सका
देखा जग ने टोपी बदली
तो मन बदला, महिमा बदली
पर ध्वजा बदलने से न यहाँ
मन-मंदिर की प्रतिमा बदली

मेरे नयनों का श्याम रंग
जीवन भर कोई धो न सका
चाहे जिस दल में मिल जाऊँ

इतना सस्ता मैं हो न सका
हड़ताल, जुलूस, सभा, भाषण
चल दिए तमाशे बन-बनके
पलकों की शीतल छाया में
मैं पुनः चला मन का बन के

जो चाहा करता चला सदा प्र
स्तावों को मैं ढो न सका
चाहे जिस दल में मैं जाऊँ

इतना सस्ता मैं हो न सका
दीवारों के प्रस्तावक थे
पर दीवारों से घिरते थे
व्यापारी की ज़ंजीरों से
आज़ाद बने वे फिरते थे

ऐसों से घिरा जनम भर मैं
सुखशय्या पर भी सो न सका
चाहे जिस दल में मिल जाऊँ

तना सस्ता मैं हो न सका                                                   





इब्ने इंशा
हम घूम चुके बस्ती-बन में

इक आस का फाँस लिए मन में

कोई साजन हो, कोई प्यारा हो

कोई दीपक हो, कोई तारा हो

जब जीवन-रात अंधेरी हो

इक बार कहो तुम मेरी हो

जब सावन-बादल छाए हों

जब फागुन फूल खिलाए हों

जब चंदा रूप लुटाता हो

जब सूरज धूप नहाता हो

या शाम ने बस्ती घेरी हो

इक बार कहो तुम मेरी हो

हाँ दिल का दामन फैला है

क्यों गोरी का दिल मैला है

हम कब तक पीत के धोखे में

तुम कब तक दूर झरोखे में

कब दीद से दिल की सेरी हो

इक बार कहो तुम मेरी हो

क्या झगड़ा सूद-ख़सारे का

ये काज नहीं बंजारे का

सब सोना रूपा ले जाए

सब दुनिया, दुनिया ले जाए

तुम एक मुझे बहुतेरी हो

इक बार कहो तुम मेरी हो

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                                                                                                          कविता आज और अभी


एक खुली खिड़की-सी लड़की



     -नरेश शांडिल्य
क खुली खिड़की-सी लड़कीदे
खी मस्त नदी-सी लड़की



खुशबू की चूनर ओढ़े थी

फूल-बदन तितली-सी लड़की



मैं बच्चे-सा खोया उसमें

वो थी चाँदपरी-सी लड़की



जितना बाँचू उतना कम है

थी ऐसी चिठ्ठी-सी लड़की



काश कभी फिर से मिल जाए

वो खोई-खोई-सी लड़की











आज फिर दर्द जिगर से गुज़रा

          -नरेश शांडिल्य
आज फिर दर्द जिगर से गुज़रा
क सागर ज्यों भँवर से गुजरा



तर-ब-तर याद लिए इक बादल

डबडबाया-सा नज़र  से  गुजरा



दर पे उनके भी पड़ी थी साँकल

आज कैसा मैं उधर से गुज़रा



एक चर्चा थी मेरी बर्बादी

आज जब जब मैं जिधर से गुज़रा





 नये कपड़े बदलकर

 नासिर काजमी

नये कपड़े बदल कर जाऊँ कहाँ और बाल बनाऊँ किस के लिये
वो शख़्स तो शहर ही छोड़ गया अब ख़ाक उड़ाऊँ किस के लिये

जिस धूप की दिल को ठंडक थी वो धूप उसी के साथ गई
इन जलती बुझती गलियों में अब ख़ाक उड़ाऊँ किस के लिये

वो शहर में था तो उस के लिये औरों से मिलना पड़ता था
अब ऐसे-वैसे लोगों के मैं नाज़ उठाऊँ किस के लिये

अब शहर में इस का बादल ही नहीं कोई वैसा जान-ए-ग़ज़ल ही नहीं
ऐवान-ए-ग़ज़ल में लफ़्ज़ों के गुलदान सजाऊँ किस के लिये

मुद्दत से कोई आया न गया सुनसान पड़ी है घर की फ़ज़ा
इन ख़ाली कमरों में "नासिर" अब शम्मा जलाऊँ किस के लिये

  



दिल में एक लहर सी

-नासिर काजमी



दिल में एक लहर सी उठी है अभी
कोई ताजा हवा चली है अभी

शोर बरपा है ख़ाना-ए-दिल में
कोई दिवार सी गिरी है अभी

कुछ तो नाजूक मिजाज है हम भी
और ये चोट भी नई है अभी

याद के बेनिशा जंजीरों से
तेरी आवाज आ रही है अभी

शहर की बेचिराग गलियों में
ज़िंदगी तुझको ढूंढती है अभी

भरी दुनिया में जी नही लगता
जाने किस चीज की कमी है अभी

  



  पूछा था रात मैंने

   -लक्ष्मीशंकर बाजपेयी   

 

पूछा था रात मैंने ये पागल चकोर से

पैग़ाम कोई आया है चंदा की ओर से



बरसों हुए मिला था अचानक कभी कहीं

अब तक बँधा हुआ है जो यादों की डोर से



मैं चौंकता हूँ जब भी आए है नजर कोई

इस दौर में भी हँसते हुए ज़ोर ज़ोर से



मुझको तो सिर्फ उसकी खामोशी का था पता

हैरां हूँ पास आके समंदर के शोर से



ये क्या हुआ है उम्र के अन्तिम पड़ाव पर

माज़ी को देखता हूँ मैं बचपन के छोर से

 






पूरा परिवार, एक कमरे में           
-लक्ष्मीशंकर बाजपेयी   




पूरा परिवार, एक कमरे में

कितने संसार, एक कमरे में



हो नहीं पाया बड़े सपनों का

छोटा आकार, एक कमरे में



ज़िक्र दादा की उस हवेली का

सैंकड़ों बार, एक कमरे में



शोरगुल-नींद, पढ़ाई-टी.वी.

रोज़ तकरार, एक कमरे में



एक घर, हर किसी की आँखों में

सबका विस्तार, एक कमरे में






तुझमें किरणों सा ये उगा क्या है

 दिनेश रघुवंशी



तुझमें किरणों सा ये उगा क्या है

मुझमें सूरज सा ढल गया क्या है



दिल को तनहाईयां सुहाती हैं

ज़िन्दगी तेरा फ़लसफ़ा क्या है



हम अभी तक मिले नहीं तुझसे

फिर जुदाई का ख़ौफ सा क्या है



आइना रोज़ मुझसे पूछे है

मेरे भीतर ये टूटता क्या है







जीकर दिखा मेरे बग़ैर इस जहान में 

 दिनेश रघुवंशी



जीकर दिखा बग़ैर मेरे इस जहान में

कहकर वो मुझको छोड़ गया इम्तिहान में



नज़दीकियों का लोग थे पाले हुए भरम

गो फ़ासले ही फ़ासले थे दरमियान में



चाहत है गर दिलों की, सिमट जाएं दूरियां

तो कुछ मिठास लाइये अपनी ज़बान में



टकरा के सारी ख़ुश्बुएँ दम तोड़ जाएँगी

खिड़की एक भी नहीं है तेरे मकान में



आगोश में ज़मीन की आना है एक दिन

बेशक बसा लो तुम बस्तियां आसमान में



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                                                                                                                   कहानी-समकालीन

                                                                                                                      सुभाष नीरव

आवाज़ 
पापा को कहीं बाहर जाना था। कल रात दुकान से लौटकर पापा ने बस इतना ही कहा कि वह सुबह सात बजे वाली ट्रेन पकड़ेंगे और परसों लौटेंगे, कुछ लोगों के साथ। यह सब बोलते समय पापा का स्वर कितना ठंडा था। ऐसा लगा, जैसे कुछ छिपा रहे हों।

सुबह वह पापा से पहले उठ गई। पापा को जगाया और खुद काम में लग गई। पापा अमूमन छह-साढ़े छह बजे तक उठ जाया करते हैं। जब तक वह नहा-धोकर तैयार होते हैं, वह सारा कामकाज निपटा चुकी होती है। पापा आठ बजे तक निकल जाया करते हैं– दुकान के लिए। नौ बजे तक वह भी कालेज के लिए निकल पड़ती है। पिंकी का स्कूल उसके रास्ते में पड़ता है, इसलिए रोज उसे अपने साथ लाती-ले जाती है वह।

आज छुट्टी का दिन है। छुट्टी के दिन वह खुद को बहुत अकेला महसूस करती है। अकेलेपन का अहसास न हो, इसलिए वह खुद को घर के हर छोटे-मोटे काम में जानबूझकर उलझाये रखती है।



पापा के चले जाने के बाद उसने पूरे मन से घर की साफ-सफाई की। खिड़की-दरवाजों के पर्दे धोकर सूखने के लिए डाल दिए। दीवारों पर की धूल को झाड़ा-पोंछा और खिड़कियों के शीशे चमका दिए। और तो और, सीलिंग-फैन को भी साफ कर दिया है और सेल्फ में इधर-उधर बिखरी पड़ी पुस्तकें भी करीने से सजा दी हैं।

कल ‘कुछ लोग’ आ रहे हैं, पापा के साथ। ‘कुछ लोग...’ उसके पूरे शरीर में सिहरन-सी दौड़ गई यह सोचकर। क्षणांश, उसके तन और मन में गुदगुदी-सी हुई और दूसरे ही क्षण भय और घबराहट। हृदय की धड़कनें बढ गईं।...

कैसे वह उन लोगों के सम्मुख जा पाएगी ? वे क्या-क्या प्रश्न करेंगे उससे ? पहला अवसर है न... वह तो एकदम नर्वस हो जाएगी। मम्मी जीवित होती तो बहुत सहारा मिल जाता। उसकी सहेली सुमन ने ऐसे अवसरों के कितने ही किस्से एकान्त में बैठकर सुनाये हैं उसे। उन किस्सों की याद आते ही उसका दिल घबराने लगता है। कैसे अजीब-अजीब से प्रश्न पूछते हैं ये लोग ! एजूकेशन कहाँ तक ली है ? सब्जेक्ट्स क्या-क्या थे ? यह विषय ही क्यों लिया ? खाना बनाने के अलावा और क्या-क्या जानती हो ? फिल्म देखती हो ? कितनी ? कैसी फिल्में अच्छी लगती हैं ? वगैरह-वगैरह। अच्छा-खासा इंटरव्यू ! उत्तर ‘हाँ’ ‘न’ में नहीं दिया जा सकता। कुछ तो बोलना ही पड़ता है। शायद, मंशा यह रहती हो कि लड़की कहीं गूंगी तो नहीं, हकलाती तो नहीं। लड़की को जानबूझकर इधर-उधर बिठाएंगे-उठाएंगे, उसकी चाल परखेंगे। कहीं पांव दबाकर तो नहीं चलती ? यानी हर तरह से देखने की कोशिश की जाएगी।



कई दिनों से पापा कुछ ज्यादा ही परेशान से नज़र आते हैं। कहते तो कुछ नहीं, पर उनकी चुप्पी जैसे बहुत कुछ कह जाती है। सुबह पापा के कमरे में अधजली सिगरेटों का ढेर देखकर वह हैरत में पड़ जाती है। पहले तो पापा इतनी सिगरेट नहीं पीते थे !... लगता है, पापा रात भर नींद से कश-म-कश करते रहते हैं। रातभर जूझते रहते हैं अपने आप से, अपनी अन्तरंग परेशानियों से।

लेकिन, उसे लेकर अभी से इतना परेशान होने की क्या ज़रूरत है ? भीतर ही भीतर घुटते रहने की क्या आवश्यकता है ? क्या पापा अपनी चिन्ता को, अपनी परेशानियों को उससे शेयर नहीं कर सकते ? वह जवान होने पर क्या इतनी परायी हो गई है ? इस तरह के न जाने कितने प्रश्न उसके अंदर धमाचौकड़ी मचाये रहते हैं आजकल।



पापा ऐसे न थे। कितना बड़ा परिवर्तन आ गया है, पापा में अब। मम्मी की मौत ने उन्हें भीतर से तोड़कर रख दिया है जैसे। कितने हँसमुख थे पहले ! इस घर में कहकहे गूँजते थे उनके ! दुकान पर भी ज्यादा नहीं बैठते थे। जब-तब किसी न किसी बहाने से घर आ जाया करते थे। प्यार से उसे ‘मोटी’ कहा करते थे। मम्मी से अक्सर कहा करते– “देखो, बिलकुल तुम्हारी तरह निकल रही है। जब तुम्हें ब्याहकर लाया था, तुम ठीक ऐसी ही थीं।...”

मम्मी पहले तो लज्जा जातीं, फिर नाराजगी जाहिर करते हुए कहतीं, “यह क्या हर समय मेरी बेटी को ‘मोटी-मोटी’ कहा करते हो ? नाम नहीं ले सकते ?”

मम्मी की याद आते ही उसकी आँखें भीग गईं। कितना चाहती थीं उसे ! जवानी की दहलीज पर पांव रख ही रही थी कि यकायक उसने मम्मी को खो दिया। वह दिन उसे भूल सकता है क्या ?...  नहीं, कदापि नहीं। वह दृश्य उसकी आँखों के सामने अब भी तैर जाता है। ज़िन्दगी और मौत के बीच संघर्ष करती मम्मी। मम्मी मरना नहीं चाहती थी और मौत थी कि उन्हें और जिन्दा नहीं रहने देना चाहती थी। ऐसे दर्दनाक क्षणों में मम्मी को उसी की चिन्ता थी। आखिरी सांस लेने से पहले मम्मी ने पापा से कहा था– “देखो, सुमि को अच्छे घर ब्याहना। मेरी परी-सी बेटी का राजकुमार-सा दूल्हा हो।“

पापा ने शायद तब पहली बार महसूस किया होगा कि उनकी बेटी जवान हो रही है। उसके लिए अच्छा-सा वर ढूँढ़ना है। और शायद तभी से पापा की खोज जारी है।



पापा का उदास, चिन्तित चेहरा कभी-कभी उसे भीतर तक रुला देता है। ऐसे में, दौड़कर पापा की छाती से लिपट जाने और यह कहने की इच्छा होती है कि पापा, मैं अभी शादी नहीं करुँगी। अभी तो मैं बहुत छोटी हूँ।... लेकिन, कहाँ कह पाती है यह सब। पापा और उसके बीच, मम्मी की मौत के बाद जो खाई उभर आई है, चुप्पियों से भरी, उसे वह मिटा नहीं पाती। क्या जवान होने का अहसास, बाप-बेटी के बीच इतनी खाइयाँ पैदा कर देता है ! बस, वह सोचती भर रह जाती है यह सब।



“मैं जल्दबाजी में कुछ नहीं करना चाहता।" पापा का अस्फुट-सा स्वर।

“ठीक है, आप अच्छी तरह सोच लें।" बिचौलियानुमा व्यक्ति की आवाज़।

“...”

“पर, निर्णय तो आपको ही करना है, दुनिया का क्या है ?”

दबी-दबी जुबान में होतीं इस प्रकार की बातों के कुछ टुकड़े बगल के कमरे में बैठे हुए या किचन में चाय तैयार करते समय उसके कानों में अक्सर पड़ते रहते हैं। पिछले कुछ महीनों से इन लोगों का आना-जाना बढ़ा है। कौन है ये लोग, वह नहीं जानती।

पिछले कई दिनों से पापा कई बार मौसी और मामा के घर आये-गए हैं। जितनी जल्दी-जल्दी उनके यहाँ आना-जाना हुआ है पिछले दिनों, पहले नहीं होता था। पापा क्यों आजकल बार-बार मौसी और मामा के यहाँ आते-जाते हैं ?  आखिर, बेटी का मामला ठहरा। कोई कदम उठाने से पहले वह अपने से बड़ों की राय ले लेना चाहते हैं शायद। लेकिन, यह भी सही है, पापा जब-जब मौसी और मामा के घर से लौटे हैं, ज्यादा ही थके और मायूस-से लौटे हैं।



कभी-कभी वह सोचती है, अभी तो इण्टर ही किया है उसने। घर का सारा कामकाज उसी के कंधों पर है। पिंकी की देखभाल भी उसे ही करनी पड़ती है। मम्मी की मौत के समय तो वह बहुत छोटी थी। वही उसके लिए सब कुछ है– मम्मी भी, दीदी भी। वह चली जाएगी तो कौन करेगा घर का सारा काम ?  पापा तो दुकान पर रहते हैं, सारा-सारा दिन। शायद, तब कोई आया रख लें। पर, ऐसे में पिंकी की पढ़ाई, उसकी देखभाल, उसका विकास क्या सही ढंग से हो पाएगा ? क्या सोचकर पापा इतनी जल्दी मचा रहे हैं ? शायद, लड़के वाले जल्दी में हों और पापा को लड़का जँच गया हो।

मन में उठते जाने कितने ही प्रश्नों के उत्तर वह खुद ही गढ़ लेती है और उनसे संतुष्ट भी हो जाती है। लेकिन, जवान होती उम्र के साथ-साथ दिल में उमंगों का ज्वार कभी-कभी इतनी जोरों से ठाठें मारने लगता है कि वह ज़मीन से उठकर आकाश छूने लगती है। अकेले बैठे-बैठे वह सपनों की रंगीन दुनिया में पहुँच जाती है। लड़कियाँ शायद इस उम्र में ऐसे ही स्वप्न देखती हैं। अपने सपनों के राजकुमार की शक्ल आसपास के हर जवान होते लड़के से मिलाती हैं। उनका हर स्वप्न पहले से ज्यादा हसीन और खूबसूरत होता है। आसपास गली-मोहल्ले में कहीं बारात चढ़ेगी तो दौड़कर बारात देखने में आगे रहेंगी। और तो और, घोड़ी पर सवार किसी के सपनों के राजकुमार से अपने-अपने सपनों के राजकुमार की तुलना करेंगी। हर बार उन्हें अपने सपनों का राजकुमार अधिक हसीन नज़र आता है। तन-मन को एक सुख गुदगुदाता हुआ बह जाता है। ऐसा सुख जो न अपने में ज़ज्ब किए बनता है और न ही किसी से व्यक्त किए। ऐसे में, किसी अन्तरंग साथी की, मित्र की, बेइंतहा ज़रूरत महसूस होती है।

आजकल उसके साथ भी तो ठीक ऐसा ही हो रहा है। जब कभी वह तन्हां होती है, स्वयं को ऐसे ही सपनों से घिरा हुआ पाती है। उसे लगता है, वह गली-मोहल्ले की औरतों से, अपनी सखियों से घिरी बैठी है, शरमायी-सी ! हथेलियों पर मेंहदी की ठंडक महसूस हो रही है। ढोलक की आवाज़ के साथ-साथ गीतों के बोल उसके कानों में गूँजते हैं–



बन्ने के सर पे सेहरा ऐसे साजे

जैसे सर पे बांधें ताज, राजे-महाराजे

लाडो ! तेरा बन्ना लाखों में एक

काहे सोच करे...।



और तभी उसे मम्मी की याद आ जाती है। सपनों के महल जादू की तरह गायब हो जाते हैं। उसके इर्द-गिर्द गीत गातीं, चुहलबाजी करती स्त्रियाँ नहीं होतीं, खामोश दीवारें होती हैं। चुप्पियों से भरा कमरा होता है। सामने, ठीक आँखों के सामने, टेबुल पर रखा मम्मी का मुस्कराता चित्र होता है। बेजान ! वह उठकर मम्मी का चित्र अपने सीने से लगा लेती है। भीतर ही भीतर कोई रो रहा होता है उसके। मम्मी के बोल फिर एकबारगी हवा में तैरने लगते हैं– ‘सुमि को अच्छे घर ब्याहना। मेरी परी-सी बेटी का राजकुमार-सा दूल्हा हो।‘



आज पापा को लौटना है। कुछ लोगों के साथ। जाने कब लौट आएं। न पिंकी को स्कूल भेजा है, न ही वह खुद कालेज गई है। पिंकी को और खुद को तैयार करने में जितना अधिक समय उसने आज लगाया, पहले कभी नहीं लगाया। जितनी देर आइने के सामने बैठी रही, खुद के चेहरे में मम्मी का चेहरा ढूँढ़ती रही। साड़ी में कितनी अच्छी लगती है वह ! आज उसने मम्मी की पसन्द की साड़ी पहनी है– हल्के पीले रंग की। साड़ी पहनते समय उसे लगा, जैसे मम्मी उसके आस-पास ही खड़ी हों। जैसे कह रही हों– ‘नज़र न लग जाए तुझे किसी की !’

रह–रहकर उसका दिल जोरों से धड़कने लगता है।



शाम के चार बजे हैं। बाहर एक टैक्सी के रुकने की आवाज़ ने उसके हृदय की धड़कन तेज कर दी है। धक्...धक्... धड़कनों की आवाज़ कानों में साफ सुनाई देती है। पिंकी दौड़कर, खोजती हुई-सी उसके पास आई और फिर चुपचाप बिना कुछ कहे-बोले बैठक में चली गई। उसकी सहमी-सहमी आँखों में कौतुहल साफ दिखाई दे रहा था। बगल के कमरे में होने के बावजूद उसने हर क्षण के दृश्य को अपनी आँखों से पकड़ने की कोशिश की।...

पापा की आवाज़ उसे स्पष्ट सुनाई देने लगी। कैसे हँस-हँसकर बातें कर हैं पापा ! पापा की आवाज़ में अचानक हुए इस परिवर्तन को देख वह चौंक गई। बिलकुल वैसी ही आवाज़ ! जैसी मम्मी के रहते हुआ करती थी। उसके चेहरे पर एकाएक खुशी की एक लहर दौड़ गई। कब से तरस रही थी वह, पापा की इस आवाज़ के लिए।

पापा ने सहमी-सहमी-सी खड़ी पिंकी को शायद गोद में उठा लिया है। प्यार से चूमते हुए बोले हैं, “यह है हमारी पिंकी बिटिया...।“

“अरे बेटे, तुमने किसी को नमस्ते नहीं की ?... नमस्ते करो बेटे... अच्छा इधर देखो... ये कौन है ?...  ये हैं... तुम्हारी... नई मम्मी...।“

नई मम्मी !

वह स्तब्ध रह गई।

सहसा, उसे लगा कि वह हवा में उड़ रही थी और अभी-अभी किसी ने उसके पर काट दिए हैं। वह ज़मीन पर आ गिरी है–धम्म् से ! इसकी तो उसने कल्पना तक न की थी !

उसकी समझ में कुछ नहीं आया। धराशायी हुए सपनों पर आँसू बहाये या अपनी नई मम्मी को पाकर

खुश हो ! एकाएक, उसने खुद को संभालने की कोशिश की और अगले क्षणों के लिए स्वयं को तैयार करने लगी। यह सोचकर कि न जाने कब पापा उसे बुला लें, नई मम्मी से मिलवाने के लिए !

अब उसके कान पापा की आवाज़ का इन्तज़ार कर रहे थे।
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शेष-अशेष (धारावाहिक-भाग-3)
                                                                                                                      -शैल अग्रवाल
घर-आँगन और पाठशाला... भरी दुपहर या रात देर गए तक ...  बगीचे में पंछी और तितलियों का पीछा करना, साथ-साथ दौड़ना भागना...हंसना और किलकना,  उन्ही की, और कभी-कभी तो बस उन्ही से  बातें करते  जाना;  बस ऐसे ही तो गुजरते थे  शेखऱ के सारे वे  बेफिक्र  दिन और रात । वक्त  कभी पंख लगाकर उड़ा करता था नन्हे शेखर के लिए। उन्हें तो आज भी  विश्वास नहीं हो पाता  कि किसी  दूसरे  का बचपन भी इतना स्नेह पगा और  दुलार भरा हो सकता होगा ! भला किसने इतनी  मौज-मस्ती  और बेफिक्री से जिया होगा बचपन,  जितना कि अम्मा-बाबा ने उनके लिए संजोया  था!

ये तो थी शेखर सरकार के मन की बात, परन्तु यदि हम -आप निष्पक्ष और निर्लिप्त भाव से देखें, तो पाएँगे कि एक बेहद  आम बच्चे का  एक  आम-सा   ही बचपन  था उनका भी।  अम्मा की आँख बचाकर ही बाहर खेल पाते थे वे भी और समय की पाबंदी, अन्य खाने-पीने, पढ़ने आदि के समय की पाबंदियां की तरह,  उनपर भी उतनी ही कठोर और अनुशासन पूर्ण  थीं । अम्मा की गली के बच्चों से चिढ़ किसी से छुपी नहीं थी। पर बच्चे तो बच्चे, लाख मना करने पर भी अवसर ढूँढ ही लेते थे वे, और    बच्चों के साथ बाहर खेल भी आते थे... कभी कंचे तो कभी लुका-छिपी। और फिर पकड़े जाने पर चुपचाप तुरंत ही मुर्गा भी बन लिया करते थे। परन्तु दादा कुछ भी पूछे जाने पर हर बात से नकार जाते...अपनी ही बात पर अड़े र हना स्वभाव था उनका।  जवाब ही नहीं देते किसी बात का कभी। कहां रहे,  दिनभर क्या किया किसी को कुछ पता नहीं चल पाता। हर बात  उनका अपना बेहद नितांत और निजी मामला ही रहता। अमेरिकन और भारतीय समाज व संस्कृति के सारे भेद मिटा दिए थे उन्होंने... उनकी इस मनमानी रहन-सहन ने। हो भी क्यों न, पिछले सात साल से वहीं अमेरिका में रहकर जो   पढ़ रहे थे... वह भी बिना किसी रोक-टोक के। अब  कैसे इतनी रोक-टोक बर्दाश्त कर पाते।  अन्य अमरीकी -साथियों की तरह उनके पास भी हर बात का वही एक जवाब था और जीने का वही एक अल्हड़ किशोरों वाला  एक अधपका नजरिया  ' यह मेरी अपनी जिन्दगी है और इसे मैं अपनी ही तरह से  जिऊँगा। किसी का कोई हक़ नहीं बनता फालतू की दखलन्दाजी करने का ।'

 मात्र चन्द हफ्तों की छुट्टियों में आए वह कैसे .इतनी पूछताछ बर्दाश्त कर पाते? अम्मा-बाबा की रोज-रोज की रोक-टोक ने आखिर एक दिन उनकी जुबां  खोल ही दी । आवाज़ बेहद गर्म और तड़क थी मानो सूरज के सात घोड़ों ने चारो दिशाओं पर धावा बोल दिया हो।

“जीना दूभर कर दिया है मेरा। हर काम अब आप लोगों से पूछ कर ही करूँ क्या  मैं ... पूरा ब्योरा दूँ दिन भर का... कहां गया, किसके साथ उठा-बैठा... किससे मिला और किससे नहीं... ।  क्या खाया, कितना खाया ,  क्यों खाया, वगैरह, वगैरह...? मुझसे नहीं जियी जाएगी ऐसी गुलामों-सी जिन्दगी।"अवाक् मुंह खोले खड़े बाबा, सुनने की बजाय बस उन्हें  देखते ही रह गए थे।...क्या यही उनका सुव्रतो है...बुढ़ापे की लाठी सुब्रतो; जिसके सहारे चलने की आस में उन्होंने पूरी जवानी हंस-हंसकर न्योछावर कर दी! उन्हें तो कभी इतना  कड़क गुस्सा नहीं आता और फिर यूँ सारा संयम छोड़कर बड़ों से इस अन्दाज में,  इस अभद्रता के साथ  बातें करना... वह तो सोच तक नहीं सकते थे। कहीं यही  तो जनरेशन गैप नही  ...   आत्मीय और संस्कारी इस परिवार में यह दूरी की दरार कैसे और कब आ तिरकी... बाबा को दादा के गुस्से और तौर-तरीके पर  विश्वास ही नहीं हो पाया कभी...।परेशान मां  थोड़े वक्त के लिए आए बेटे के आगे मनपसंद व्यंजन परोसती और "यह कौनसा तरीका है  अपनों से बड़ों से बात करने का सुब्रतो।  " कहकर,  बाप से ऊंचा कद निकाले बेटे को  धीरे-धीरे समझाने की कोशिश करतीं।  " यह अमेरिका या ब्रिटेन तो नहीं,  भारत है। यहां बड़ों की इज्जत की जाती है और विनम्रता व शालीनता से बात करते  है। कितने भी बड़े हो जाओ ,  झुककर आशीर्वाद लिया जाता है उनका। ऐसा दो टूक रवैया रखकर तो तुम्हारी गुजर बस वहीं, उन्हीं विदेशी देशों में  ही हो पाएगी , जहां मां-बाप-बच्चे किसी को भी एक दूसरे से कोई मतलब ही नहीं।  हम भी तो न कुछ देख पाएंगे और ना ही तुम्हें टोकेंगे।  "

"हाँ, बस जाऊँगा।  जरूर वहीं जाकर बस जाऊँगा। बस एक बार शेखर की जिम्मेदारी निभ जाए...पढ़-लिखकर कुछ बन जाए, तो यह भी करके  दिखला दूंगा। हां, देखना, जरूर वहीं अमेरिका  जाकर ही रहूंगा एक दिन।“

खुद से 17 साल छोटा शेखर हमेशा से ही भाई कम, मां बाप की बेवकूफी और बोझ  ज्यादा लगता था सुब्रतो सरकार को। और  भारत आते ही अपनी इस जिम्मेदारी से जैसे-तैसे उबरने के लिए वे  बेचैन और उतावले दिखते। घर में  सभी  जान और समझ गए थे उनकी इस  झटपटाहट को, साथ में यह भी कि  इनसे कोई उम्मीद रखना सूखी रेत में पौध लगाने जैसा ही है। मन ही मन बड़ा दुखी होती थीं अम्मा  उनके इस  रवैये-से...आखिर कहीं न कहीं, यह बात उनके लालन-पालन पर भी तो एक प्रश्न-चिंन्ह लगाती ही थी। दोनों में आए दिन के ही झगड़े होते और आए दिन ही रोती अम्मा उठकर पूजा करने चली जातीं और तब अम्मा को रोता देख बाबा भी आपे से बाहर हो जाते। और फिर एक दिन यूँ ही क्रोध में कांपते बाबा ने बहुत ही आस-अरमान के साथ हैसियत से चार कदम आगे बढ़कर विदेश में पढ़ाए अपने होनहार बेटे से, एक ही सांस में सारे रिश्ते-नाते तोड़ डाले। घर आने तक को मना कर दिया।



  “शेखर की फ़िक्र मत कर तू। बड़ा कर लेंगे हम इसे...  “ क्रोध के आवेश में हांफते बाबा ने बस यही कहा था उस वक्त और हमेशा की तरह उस दिन भी, अपने बारे में बात होते हुए भी, शेखऱ की समझ में कुछ नहीं आ पाया था, सिवाय इसके कि रोते अम्मा-बाबा को देखकर बेहद डर लगा था उन्हें और उस छोटी-सी उम्र में भी और एक अनजाने अनर्थ की आशंका ने पूरे बदन में भय की सुरसुरी फैला दी थी।



उसके बाद तो हर साल घर वापस लौटते सुब्रतो दादा पूरे पांच साल बाद ही घर वापस आए  थे ...वह भी बस दो दिन के लिए ही। शादी करके नई नवेली लीसा बोहू दी के साथ। और अपना हिस्सा लेकर आनन-फानन लौट भी गए थे। “यह घाट-बाड़ी सब शेखर की और  कैश-जेवर सब  मेरा। वैसे भी वहां अमेरिका में बाकी यह सब मेरे किस काम का?“

 बाबा तब भी, हमेशा की तरह ही, कुछ नहीं बोल पाये थे...यह तक नहीं पूछा था उन्होंने अपने कमाऊ बेटे से कि अगर कुछ अनहोनी हो ही जाए उनके साथ, तो शेखर और श्रीमना की गुजर कैसे होगी...कौन संभालेगा इन्हें? सारा गुस्सा पीकर जैसे कहा, बस वैसा ही कर दिया। शेखर को अभी भी याद है, दादा उस दिन आंगन में बैठे, अम्मा-बाबा से आँखें चुराए जल्दी-जल्दी बोले जा रहे थे, मानो घर-आँगन ही नहीं, रहने वालों तक से रिश्ता तोड़कर जा रहे हों। मानो सामान ही नहीं, अम्मा बाबा भी अब उनके किसी काम के नहीं थे।

अमरीकन बोहूदी को जानने तक का मौका नहीं मिल पाया था  किसी को...न अम्मा-बाबा को और ना ही उल्लासित, ललकते नन्हे देवर शेखर को। हां, बोहू भात में पूरे काली बाग का न्योता जरूर था। पूरी हवेली रंग–रोगन से चमकाई गई थी। बरसों से लटके झाड़-फानूसों को उतार-उतारकर साफ करते-करते नौकरों के हाथ ही नहीं, कमर तक टेढ़ी हो गयी थी, तब कहीं जाकर अपनी खोई शान-शौकत पर वापस लौट पायी थी बूढ़ी काली-बाड़ी। फूल माला और नन्ही बिजली की मालाओं की ऐसी सुंदर सजावट बाड़ी में तो पहले किसी ने नहीं ही देखी थी।

उस दिन देर रात तक नौकरों के साथ अम्मा बाबा और उसने भी, दौड़-दौड़कर बिरादरी को माछी-भात परोसा था। गाने-बजाने वाले भी आए थे और रात भर गीत-संगीत भी हुआ था। यही नहीं, जाते वक्त सौगातों से लदी-फंदी अड़ोस पड़ोस की काकी दादियों ने दादा की किस्मत सराहते, चंदा-सी बोहू दी के रूपरंग की बारबार बलैया भी ली थीं और अगले वर्ष ही चंदा से बेटे को गोदी में लेकर लौटने की दुआएँ तक उसी वक्त और वहीं पर  दे डाली थीं।

दादा पर उसके बाद फिर कभी नहीं लौटे थे, दो साल बाद अकस्मात ही बाबा के गुजरने पर भी नहीं। कोई दुःख नहीं था उन्हें अपनों से बिछुड़ने का, या यूँ दूर चले जाने का। एक लम्बी चुप्पी के बाद मां और शेखर के लिए दो टिकटें जरूर आई थीं, जल्दी में लिखे एक छोटे से पत्र के साथ, बहुत बड़े, रंग-बिरंगे और उनकी बेरंग जिन्दगी में बेमेल से लगते उसी स्टार और स्ट्राइप वाले बेहद खूबसूरत और  चिकने कागज वाले अमेरिकन लिफाफे में। पता तक उस पर कई-कई बार लिख-लिखकर काटा गया था, मानो पत्र भेजने वाला उलझन में था कि पत्र भेजे भी या नहीं...। अपनों के मन का इतना बेगानापन कैसे सह पायी होंगी मां तब...वह भी अकेले-अकेले ही? बालक शेखर मां की कोई मदद नहीं कर पाता था। कोई दुःख नहीं बांट पाता था उनका। शेखर सरकार उदास थे आज भी वक्त को पलट न पाने के लिए...।

कई अच्छी-अच्छी अमेरिकन डाक टिकटें लगी हुई थीं उस लिफाफे पर...स्टैच्यू ऑफ लिबर्टी , सेन फ्रैंसिस्को ब्रिज, वाशिंगटन डी.सी. और भी अन्य सुन्दर-सुन्दर जगहों की तस्बीरें। वास्तव में उन तस्बीरों में करीब करीब वे सभी जगहें और इमारतें थीं, जहां एक दिन धूमने जाने की लम्बी-अलसाई दुपहरियों में वह सुब्रतो दादा के साथ बैठकर योजनाएँ बनाया करते थे। जहां उन्हें अम्मा के साथ जाना था और जहां जाकर दादा से मिलने की ललक में तरसता शेखर का मन बस रिसता ही रह गया था...सपने ही तो देखे थे उन जगहों के मां ने भी उठते-बैठते...सपने जो आज इस काली अंधेरी रात से गडमड और बेजरूरत थे अब उनके लिए।   फिर भूल क्यों नहीं पाए आज भी शेखर सरकार वह लिफाफा। उन्हें तो यह तक याद है कि बारबार मांगने पर भी, मां ने उन्हें ना वह लिफाफा ही कभी दिया था और ना ही वे टाक-टिकटें; और बालक शेखर के स्टैम्प एलबम का अमरीका वाला पन्ना उन रंगबिरंगी टिकटों का इन्तजार करता, दादा की यादों की तरह ही अनमना और उदास ही रह गया था।

चिठ्ठी भी तो पूरे दो महीने बाद ही पढ़ पाया थे वह और वह भी सोती मां से चुराकर। लिखा एक-एक शब्द आज भी बेहद बेगाना और लिजलिजा है यादों की कीचड़ में लिसा-सना...बिल्कुल ही डंक मारते सांप बित्छुओं सा ही।

“  चाहो तो यहां आकर रह सकती हो आप। हमारे पास एक दो कमरे का एक ग्रैनी-फ्लैट भी है, जहां शेखर की पढ़ाई पूरी होने तक आराम से रहा जा सकता है। मैं और लीसा बिल्कुल ही माइन्ड नहीं करेंगे!  वीसा  तो मैं करवा दूंगा पर बाकी सब  इन्तजाम आपको खुद ही करने होंगे। आप जानती ही हो कि मैं और लीसा यहां पर कितने व्यस्त रहते हैं ! “

माँ ने वह चिठ्ठी शेखर से चुरा-चुराकर कई-कई बार पढ़ी थी और फिर जाने किस तनाव को दूर करने के लिए बारबार मोड़ी, और खोली थी। फिर अंत में आखिरी बार ठीक से सीधी करके वापस रख दी थी हमेशा के लिए भूल जाने को बाबा के उन्ही पुराने धूल खाते सरकारी कागजों के साथ। उसके बाद माँ ने सुब्रतो दादा की किसी चिठ्ठी को ना कभी खोला था और ना ही पढ़ा था। हाँ कभी-कभी उनके फोटो के आगे चुपचाप खड़े जरूर देखा था शेखर सरकार ने उन्हें, और वह भी शाम के उस घुप अँधेरे में जब फोटो क्या, हाथ को हाथ तक नहीं सूझ पाता।

कभी दादा की बात भी करो तो बहुत ही धीमी आवाज़ में कहतीं, “ कैसा दुःख...किसका दुःख? बावला है तू तो।  जान ले कि शब्दों की तरह दुःख भी तो बेइमान औऱ खोखळा हो सकता है...औपचारिकता के सभ्य लिबास में लिपटा-छुपा ! उस सूखे पत्ते को देख रहे हो सुमी (ज्यादा प्यार या दुःख में इसी नाम से पुकारती थीं मां उन्हें), कैसे डाली से लिपटा कांप रहा है, पर जानता है कि एक न एक दिन इसे भी तो गिरना ही होगा। रिश्तों की भी बस कुछ ऐसी ही जिन्दगी होती है शेखर!”

बालक शेखर ने भी उस सूखे पत्ते को देखा था और जाना था की कैसे हवा में कांप रहा था वह पत्ता और अब गिरा, तब गिरा। पर पूरी बात तो वह बरसों बाद ही समझ पाए थे। उस समय तो बस डर लगा था...बेहद डर...अम्मा बाबा से कहीं दूर जाकर गिर पड़ने का डर...अपनों से टूटकर  अलग हो जाने का डर। और तब उसी वक्त नन्हे मन ने शपथ ली थी कि चाहे कुछ भी हो जाए, कितनी भी तकलीफें क्यों न उठानी पड़ें उन्हें, अम्मा से दूर नहीं हो पाएँगे वह! आखिर उनको भी तो अम्मा की उतनी ही जरूरत है, जितनी की अम्मा को उनकी! परन्तु आज कितनी दूर चले आए हैं वह...हवा के ऱुख के साथ उड़ते-भटकते...उसी कांपते सूखे पत्ते-से ही?

खेतों पर सामने फैली बर्फ की ठंडी चादर अब तन पर ही नहीं, उनके  मन पर भी फैलती जा रही थी और जमती सिहरन सी सुन्न किए जा रही थी उन्हे। ठिरन से बचने के लिए और मन से ही ऐँठते हाथ-पैरों को थोड़ी सी गरमाहट देने की एक  असफल कोशिश में उन्होंने गीले ठंडे पड़ चुके कोट को थोड़ा और खींचा और हाथ पैरों को थोड़ा और मोड़कर अंदर समेट लिया।

बगल में ही, उनकी खुली जम चुकी पलकों के ठीक नीचे,   पैरों के पास चीटियों का वह जत्था कल के बासी पड़े गोश्त के छोटे से डुकड़े को पीठ पर लादे, बिल में ले जाने की  कड़ी कोशिश  कर रहा  था। बार बार गिरती पड़ती, उलटी हो-होकर घिसटती वे चीटियां कैसे भी  हार नहीं मान रही थीं और बारबार अपना गन्तव्य की तरफ  दुगने जोश से चल पड़ती थीं।

पर शेखर सरकार आज कुछ नहीं सोचना चाहते थे। बेहद जीवटता से  जीविका में उलझी चीटियों से कुछ नहीं सीखना चाहते थे, कोई सबक नहीं लेना चाहते थे उसे।   कब और कैसे  यूँ  देखते-देखते  ही उन चीटियों की शक्लें  खुद उनकी और मां की शक्लों में तब्दील हो गयीं, शेखर सरकार समझ ही नहीं पाए। परन्तु वह तो भूल जाना चाहते थे वह सब...आत्म संघर्ष और संरक्षण के वे दिन  और अभाव भरा वह बचपन, जब हर चीज ही आड़े दिन या वक्त-जरूरत के लिए संभालकर रख दी जाती थी। आज भी तो कुछ नहीं बदल पाया उनके जीवन में.. . किसी तरह की कमी न होने पर भी, आज भी तो .सबको समेटते और संभालते ही तो बीतते हैं उनके दिन और रात!  यह कमी...यह खालीपन आखिर जीने क्यों नहीं देता उन्हें। तो क्या शेष जीवन भी बस ऐसे ही, शारीरिक जरूरतों की मजदूरी करते ही बीतेगा? बाहर खुली हवा में एक छोटी-सी उड़ान तो पशु-पंछी भी ले आते हैं, फिर आदमी होकर भी क्यों इतने बंधे और मजबूर हैं वह ? थके हारे शेखर सरकार की बन्द आँखों से अब अविरल आँसू बहे जा रहे थे। अपनी विवशता को भली-भांति जान चुके थे वह...  जीना भी तो बस एक आदत ही है, जो.साँसों-सी, बहते खून सी, रग-रग में रच-बस जाती हैं  !

न चाहते हुए भी, अगली-पिछली हजार बातों के साथ-साथ जाने क्या-क्या नहीं याद आ रहा था उन्हें और जंगल की उस घुप अँधेरी रात में भी  आँखों के आगे सबकुछ चलचित्र सा ही स्पष्ट था।

उस  दिन की याद  ने तो मानो  उन्हें अन्दर तक  चीर कर  रख दिया...काटे सा चिलकने लगा अंदर-ही-अंदर ।  धूप चारो तरफ खुल कर बिखरी हुई थी। जुलाई या अगस्त का एक अलसाया और खुशनुमा इतवार था वह।  स्कूलों की छुट्टियां चल रही थीं और  चिड़ियाघर घूमने आया बच्चों का वह जत्था बंदरिया के नन्हे परिवार पर पूरी तरह से मोहित था। नवजात  शिशु की तरफ बेहद कौतुक के साथ उछल-उछलकर मूँगफली फेंक रहे थे सब और अकस्मात के इस आक्रमण से घबरायी बन्दरिया, बच्चे को छाती से चिपकाए , बेचैन इधर-उधर पिंजरे के चक्कर लगाती डरी-डरी घूम रही थी। छुपने के लिए एकांत ढूंढ रही थी।...अम्मा की भी तो ऐसी ही छटपटाहट देखी थी उन्होंने अपने  नन्हे की हिफाजत और सलामती की फिक्र में।

शेखर सरकार की सब जानती-समझती आँखें एकबार फिर अँतर्मुखी हो गयीं और एक जाने पहचाने दुःख में डूब गयीं। बंदरिया को ही नहीं, खुद माँ को भी तो  यूँ ही ...बिलख-बिलख कर सर पटकते देखा था उन्होंने। वैसे, घुटनों पर सिर रखकर घंटों यूँ मन्दिर में अकेली बैठी मां  क्या-क्या मांगती  थीं रात की उस क्रूर नीरवता से...यही ना कि काली बाड़ी और  उनकी जिन्दगी को  बाहरी हस्तक्षेप से बचाए रखना मां। शक्ति देना  कि अपनी कच्ची बिखरी गृहस्थी को सम्भाल पाएँ वे। ठीक से पाल-पोस लें...बड़ा कर लें नन्हे शेखर को। कम से कम इतनी शक्ति और समझ तो देना ही उनके जर्जर और बूढे शरीर में कि बीच मझधार में तो पतवार ना ही छूटे  हाथों से। बिना बाप के बच्चे को ठीक से बड़ा कर ले जाएँ ---अच्छी शिक्षा, अच्छे संस्कार दे पाएँ ...एक यही तो आखिरी बुढ़ापे की लाठी है उनके पास ।  कितनी खोखली निकली मां की वह लाठी...शेखर सरकार का मन एकबार फिर खुले जंगल में भी थोड़ी-सी ताजी हवा तक के लिए छटपटाने लगा। पर दुःखम-सुखम बड़ा तो कर ही तो लिया था मां ने उन्हें...। अच्छी से अच्छी शिछा भी दिलवा ही दी थी, फिर क्यों माँ के स्वर की वह नमी...वह छटपटाहट आज  तक गीला क्यों करती आ रही  है? आत्मा की बेचैनी...ताप के इस ज्वर से उबर क्यों नहीं पाए आज भी वह।...
क्रमशः
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                                                                                                                       दो लघु कथाएँ

मर्द



 चित्रा मुद्गल



" आधी रात में उठकर कहां गई थी?" 

शराब में धुत पति बगल में आकर लेटी पत्नी पर गुर्राया। 

 " आंखों को कोहनी से ढांकते हुए पत्नी ने जवाब दिया " पेशाब करने!"

" एतना देर कइसे लगा?" 

'' पानी पी-पीकर पेट भरेंगे तो पानी निकलने में टेम नहीं लगेगा ? " 

" हरामिन, झूठ बोलती है? सीधे-सीधे भकुर दे, किसके पास गयी थी ?"

पत्नी ने सफाई दी-" कऊन के पास जाएँगे मौज-मस्ती करने! 

माटी गारा  ढोती देह पर कऊन पिरान छिनकेगा  ?"  

" कुतिया..." 

" गरियाव जिन, जब एतना मालुम है किसी के पास जाते हैं

  तो खुद ही जाके काहे नहीं ढूंढ लेते  ? " 

" बेसरम, बेहया...जबान लड़ाती है !

 आखिरी बार पूछ रहे हैं-बता किसके पास गयी थी?

" पत्नी तनतनाती उठ बैठी-  "  तो लो सुन लो, गए थे किसी के पास। जाते रहते हैं।

 दारू चढ़ाके तो तू किसी काबिल रहता नहीं... "

 " चुप्प हरामिन, मुंह झौंस दूंगा, जो मुंह से आंय-बांय बकी।

  दारू पी के मरद-मरद नहीं रहता  ?"

  " नहीं रहता... " 

" तो ले देख, दारू पी के मरद-मरद रहता है या नहीं?" 

मरद   ने बगल में पड़ा लोटा उठाया और औरत की खोपड़ी पर दे मारा।...



किराए का मकान

 नीरज नैथानी



 जिन्दगी भर किराए के मकान में बसर करने वाले 
तथा किराये के मकान के छोटे, तंगहाल व असुविधाग्रस्त कमरों से 

   त्रस्त रहे मेरे मित्र के अपने निजी भवन का निर्माण कार्य चल रहा था।

    संयोग से मित्र के साथ उसके निर्माणाधीन मकान को देखने जाने का

     अवसर मिला। इस समय, मकान के अन्तिम चरण का कार्य प्रगति पर था।

     मित्र ने एक बड़े आकार के कक्ष में प्रवेश करते हुए गर्व से बताया ,

     यह ड्राइंग रूम है, उसके बाद साथ के लगे कमरे में ले जाकर बोला

    यह बेडरूम रहा, बेडरूम के बाहर खुली बड़ी स लौबी, उसके बगल में

   बड़ा किचन, सामने पूजाघरउसके साथ में स्टोर व स्टडीरूम

   फिर बाहर निकलने के लिये दरवाजा तथा बाहर आकर समीप में

   बन रही छोटी सी अन्धेरी कोठरी एवं उससे जुड़ी एक और बहुत ही

   तंग कोठरीनुमा संरचना। मैने पूछा ये दो स्टोर, उसने छूटते ही उत्तर दिया,

   स्टोर नहीं यार, ये तो किराये पर देने के लिए एक रूम सेट है।

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                                                                                                                साहित्य-भारती
                                                                                                                 



 (गजल संभवतः आज भी सर्वाधिक लोकप्रिय गत्वर विधा है ,यूँ तो पक्ष-विपक्ष में दावे, विचार संभव हैं पर वास्तविकता यही है। हिन्दी ग़ज़ल के नामकरण और इसकी 'सार्थक जमीन' को लेकर स्वयं ग़ज़लकारों की अपनी अपनी मान्यताएँ हैं। प्रस्तुत है भारतीय हिन्दी ग़ज़ल़ परम्पराओं की स्थिति व संदर्भों का ज़ायजा लेता मधुर नज्मी ( जो खुद एक अच्छे ग़ज़लकार हैं) का  एक तथ्यपूर्ण लेख,




समकालीन हिन्दी ग़ज़ल

मधुर नज्मी

समकालीन भारतीय साहित्य की सर्वाधिक लोकप्रिय गत्वर विधा है ग़ज़ल। पत्र-पत्रिकाओं से लेकर, आज के तथाकथित काव्यमंचों तक की सही वास्तविकता यही है। दावे, विचार अलग-अलग संभव हैं। ग़ज़ल विधा के मुकाबले गीति-विधा भरपूर संप्रेषणीय, जनबोधी होने के बावजूद पाठक-श्रोता को पकड़कर छोड़ देने की अनुभूति देती है। ग़ज़ल पकड़कर छोड़ती नहीं। आंतरिक जमीन से सहजतः बांध-जोड़ लेती है। इसे छंदसिकता का प्रताप ही कहेंगे। नई कविता में ' पकड़ने' ' छोड़ने' की परिस्थियां कम ही बनती हैं। अपवाद कहां नहीं होते? आज समूची छंदासिक कविता ही ' किसिम-किसिम' की साजिशों का शिकार है। सहभागी कवि, समीक्षक, कच्चे संपादक, पाठक-श्रोता, कमोबेश सबके सब हैं। छंद की अस्मिता को स्वीकारते सभी हैं, किंतु साहित्यिक संगोष्ठियों, दूरदर्शनी अवसरों पर, अपने-अपने ' प्रतिबद्ध शिविरों' की सुधि आते ही छांदसिक कविता-संदर्भ पर कुछ कहने से मुंह चुराने लगते हैं।

हिन्दी ग़ज़ल के नामकरण और इसकी 'सार्थक जमीन' को लेकर स्वयं गजलकारों के अपने अपने 'गोवर्धन' हैं। मोहन अवस्थी 'अनुगीत', गोपाल दास नीरज 'गीतिका', चंद्रसेन विराट ' मुक्तिका', चंद्रभाल सुकुमार ' द्विपादिका' , कोई सिर्फ ग़ज़ल, कोई हिन्दी ग़ज़ल नाम से इसको व्याख्यायित रूपायित करते हैं। नाम चाहे जो भी दिए जाएँ, शर्त अनुशासन और संयम है। हिंदी ग़ज़ल की सार्थक जमीन संज्ञक विषय पर वरिष्ठ साहित्यकार त्रिलोचन शास्त्री, स्व. प्रभाकर माचवे, माहेश्वर तिवारी, कैलाश गौतम, माधव मधुकर, मधुरिमा सिंह, ज्ञान प्रकाश विवेक से पत्र माध्यम से बातें हुईँ जो समकालीन हिन्दी ग़ज़ल की दिशा में समझने जानने की सुविधा मुहैया करती हैं।

त्रिलोचन शास्त्री ने ' सार्थक जमीन' पर अपना विचार व्यक्त करते हुए मुझे लिखा ' हिन्दी ग़ज़ल की सार्थक जमीन? यह सवाल काफी टेढ़ा है और फंसने वाला है। उत्तर देकर कोई अपना सिर ओखली में क्यों दे?

हिन्दी ग़ज़ल, अगर इसकी कोई खासियत है, यदि अलग से पहचान है, तो जाहिर है कि ' हिन्दी ग़ज़ल' वैसे ही जैसे गुजराती ग़ज़ल, पंजाबी ग़ज़ल और सिंधी ग़ज़ल। ग़ज़ल लिखने का मतलब ही है कि ग़ज़ल के प्रेरणा स्रोत तक पहुंचा जाए। उर्दू ग़ज़ल खड़ी हुई फारसी का नमूना सामने रखकर फारसी की ग़ज़लों से प्रभाव सभी उर्दू शायरों ने लिया है। उर्दू में जो ग़ज़लें आसानतर नजर आती हैं उन्हें लोग हिन्दी ग़ज़ल कह पड़ते हैं। 'गालिब' ने अपनी गजलों को खतों में हिन्दी कहा है। यहां ' हिन्दी' का अर्थ, हिंद की जबान में ग़ज़ल यानी फारसी से भिन्न। यह जो भाषा बन रही थी, उर्दू के पुराने शायर इस भाषा को जैसा सुनते थे, वैसा ही लिखा करते थे। जो बहर से परिचित हैं, वे किस शब्द का क्या उच्चारण है, बहर की जानकारी के आधार पर कर लेते हैं। एक टुकड़ा लीजिए, ' अगर और जीते रहते' ' अगर और ' मिलकर बहर को बनाते हैं। 'र' और 'औ' मिल जाए तो ' अगरौर' बनेगा जो बोलचाल में व्यंजन के बाद स्वर आ जाने पर मिलता है।

हिंदी में हिन्दी के छंद कम ही हैं। हिन्दी उच्चारण की संस्कृति को सुरक्षित रखती यदि बोलचाल के लहजे पर आचार्यों ने ध्यान दिया होता। उर्दू आगरा से दिल्ली तक लिखी गई और बोल की रंगत उसमें उधर की ही है। हिंदी में 'यह '  'वह' का प्रयोग है। इसका उच्चारण पूरब वाले 'ह' सहित करते है। जो उर्दू में कविता करता है, वह हिंदी वालों से तुलनात्मक रूप से भिन्न उच्चारण करता है। उच्चारण का यह संस्कार उर्दू लेखकों में बराबर मिलता है। हिंदी में उच्चारण का प्रतिमान नहीं मिलता। उर्दू में है और इसमें भिन्नता नहीं है। उर्दू वाले इन्ही दो शब्दों का उच्चारण बिना 'ह' के करते हैं। ' वह' को दाबकर 'वो' पढ़ते हैं। क्या हिंदी का उच्चारण उर्दू से भिन्न नहीं हो सकता? दोनों की बुनयादी भाषा एक ही है। उर्दू में ग़ज़ल इतनी उँचाई पर पहुँच चुकी है कि वहां भाषा जो माध्यम है, वह नपी तुली बन जाती है। कविता का माध्यम भाषा ही तो है।

' हिन्दी गजल' में बहुधा अशोभन वाक्य रचना मिलती है। अधूरे वाक्य मिलते हैं। हिन्दी में ग़ज़ल लिखने वाले फारसी तक तो पहुँचने वाले कम ही हैं तो भी यह साफ है कि उर्दू भी अगर वे अच्छी तरह जानते तो ' हिंदी ग़ज़ल' का व्यक्तित्व कभी न कभी बन जाएगा। भाई मधुर जी आप आजमगढ़ में हैं जो मौलाना शिब्ली का शहर है। कैफी आज़मी वग़ैरह यहीं के हैं। आपको हिन्दी उर्दू के झगड़े मिटाने की कोशिश जरूर करनी चाहिए। आमफ़हम जबान नहीं है। यह दावा ही फिजूल है, हिन्दी कितनी सर्वजन बोधगम्य है, यह आपसे छुपा नहीं है।'

संदर्भित सभी तथ्यपरक बिंदुओं की ओर संकेत किया है त्रिलोचन जी ने। समकालीन हिंदी ग़ज़ल और ग़ज़लकारों को वैचारिक आयाम देते हुए ये वाक्य एक संक्रम (सेतु) हैं। एक अन्य पत्र में लोचन जी ने लिखा-' उर्दू की ऊँचाइयां हिंदी में खोजना, मरीचिका में पानी की खोज है। अभी तो हिंदी में अभ्यास-काल ही है। फिर भी जो प्रयत्नशील हैं उनकी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। हिंदी में गजल दो तरह की हैं। हिन्दी में उर्दू की ग़ज़लों के असर से नागरी लिपि में छपाई हुई ग़ज़ल। यह हिंदी वहीं तक है, जहां तक नागरी लिपि का सवाल है। लिपि बदल दी जाए तो उर्दू ग़ज़ल से बहुत अलग नहीं है। सवाल उठता है हिन्दी में ग़ज़ल नाकाम क्यों है? हिंदी का वातावरण जो अलग है, उसको रूपायित करने के लिए वाक्यों में लोच की जरूरत है और उस लोच को लाने में बड़ी मशक्कल है। उर्दू में छपी ग़ज़लों में जो भाषा जाती है, वह बोलचाल की भाषा पकड़ती है , जिससे कविता में जीवन-तत्व आता है। हिंदी में लिखने वाले बोलचाल का सौंदर्य पकड़ ही नहीं पाते।'

त्रिलोचन जी के पत्र से ' हिन्दी ग़ज़ल' बहस की परिधि में कैद होती दीखती है। त्रिलोचन जी किसी विषय को टालते नहीं, पूरी वैचारिक अग्निमा से विषय की तहें खोलते हैं।

उनका एक अन्य पत्र इस तथ्य को उद्घाटित करता हैः ' हिन्दी ग़ज़ल या तो उर्दू की उपलब्धियां उसी माहौल में इस्तेमाल कर लेती है अथवा जो भी ग़ज़लें लिखी गयी हैं, उनमें अभ्यास ही अधिक है। स्वतंत्र उपलब्धि गायब है। ' हिंदीपन' का मतलब हिंदी मुहावरा-संस्कार आदि भी हैं। मुझको लगता है सदियों के मश्क के बाद, उर्दू में ग़ज़ल को जो ऊँचाई मिली, वह हिन्दी को भी दीर्घ साधना और अभ्यास के बाद शायद मिल जाए। अभी तो मुझे हिन्दी गजल से संतोष नहीं है। यहां मैं यह बात और को देखकर नहीं, अपने आप को भी देखकर कह रहा हूँ। काम बहुत कठिन है। आगे-आगे देखिए होत है क्या ?'

स्वर्गीय प्रभाकर माचवे हिंदी साहित्य के मानक साहित्यकार थे। ' समकालीन हिंदी ग़ज़लः स्वरूप और संभावना' विषय पर उत्तर देते हुए अपने पत्र में लिखाः ' ग़ज़ल के साथ वही दिक्कत या ट्रेजेडी है जो हिन्दी में अंग्रेजी काव्यरूप सॉनेट (चतुर्दशपदी) और गीत लेखन के साथ भी हुई ( जिसे नवगीत ने सुधारा) कि असली-नकली का फर्क कम दिखाई देता है। बाजार में माल चल गया फिर शुद्ध के नाम पर क्या-क्या वनस्पतियां मिलावट में आ गईं, जिसका विश्लेषण साधारण पाठक तो नहीं कर पाता, हिंदी के संपादक भी नहीं कर पाते। वे कैसी-कैसी ऊलजलूल चीजें ग़ज़ल के नाम पर छाप रहे हैं।

हिंदी में लिखी जाने वाली ग़ज़ल नामक रचना न उत्तम कविता है, न उत्तम गीत। वह ग़ज़लनुमा निरी अनुगूंज है। एक गंगाजमुनी घालमेल लिखा, सुनाया और छपाया जा रहा है। हिंदी के मासिकों में जो आज छप रहा है, वह चलताऊ माल है और ग़ज़ल के सस्ता बन जाने की आशंका है। उससे बचना चाहिए। मैने भी ग़ज़ल जैसे छन्द का प्रयोग किया था। कुछ छपा भी था। आज ग़ज़ल में जो कुछ छप रहा है, ऐसी रचनाओं को देखकर ही कभी ' समर्थ' रामदास ने मराठी में कहा थाः' शाइरी घास की तरह उगने लगी है।' किसी ने उर्दू में कहाः ' शाइरी चारा समझकर सब गधे चरने लगे हैं।'

एक वाजिब स्थिति की आइनादारी करती हैं ये पंक्तियां।'

आज गजल के लिए सुखद स्थिति कम और खतरे की स्थिति ज्यादा है। सुविख्यात रचनाकार कैलाश गौतम ने इस कड़ी को आगे ले जाते हुए लिखा कि 'साहित्य की कोई भी विधा कभी पुरानी नहीं पड़ती, बशर्ते उसकी अनुभूति का कलेवर अधुनातन होता रहे।, उसकी संवेदनाएँ समय के साथ चलती रहें। आज आम आदमी की सही बात ग़ज़ल में हो रही है, लेकिन खतरा बढ़ता गया है। आद ग़ज़ल धीरे-धीरे गरीब की बीबी होती जा रही है। लोग उसकी ' सिधाई' का भरपूर और गलत फायदा उठा रहे हैं। हर रचनाकार ग़ज़ल पर हाथ साफ कर रहा है और ग़ज़ल टुकुर-टुकुर मुंह देख रही है।'

समकालीन ग़ज़ल की परिदशा को रेखांकित करती हुई इसकी आंतरिक तरलता को स्पर्शित करते हुए हिंदी ग़ज़ल की प्रमुख कवियत्री मधुरिमा सिंह ने लिखाः ' ग़ज़ल जिंदगी की पलकों पर थरथराती हुई आंसू की बूंदें हैं, जो सूरज की रोशनी अपने अँदर समोकर सतरंगी आभा से आलोकित हो जाती है। ग़ज़ल धूप की नदी में पांव छपछपाती हुई चांदनी है। कभी-कभी जिन्दगी एक डाकिए जैसी हो जाती है, यानी दर्द की चिठ्ठी बांटती तो है, पर खुद पढ़ नहीं सकती। अपनी हथेली पर झिलमिलाती हुई आंसू की बूंद को, उसकी तरलता और पारदर्शिता को छुए बिना, दूसरे की हथेली पर सावधानी से रख देने का दूसरा नाम ग़ज़ल है।'

वरिष्ठ नवगीतकार / ग़ज़लकार माहेश्वर तिवारी ने दुष्यंत कुमार के बाद हिंदी ग़ज़ल पर विचार देते हुए लिखा कि दुष्यंत कुमार के बाद, भवानी शंकर, सूर्यभानु गुप्त, विनोद तिवारी, महेश अनघ, शिव ओम अंबर, ज़हीर कुरैशी, मधुरिमा सिंह, माधव मधुकर आदि ने ग़ज़ल लेखन के प्रति, अपने गंभीर रचनात्मक जुड़ाव से उसकी संभावनाओं को आगे बढ़ाने का काम किया। वहीं दोयम दर्जे के लेखन ने उसे एक लचर काव्य-रूप बनाए रखा। दूसरी श्रेणी के इन ग़ज़लकारों के पास न ग़ज़ल की परंपरा थी न उसका व्याकरण था। ऐसी स्थिति में उमाशंकर तिवारी, मधुर नज्मी, अनिल गौड़, कृष्णानंद चौबे, प्रमोद तिवारी, महेश अश्क आदि के प्रयास अनदेखे रह गए। नकली सिक्कों ने प्रामाणिक सिक्कों को बाजार में घेर लिया। उसके पीछे एक कारण यह भी था कि ये रचनाकार प्रचारवादी या बड़बोले होने की अपेक्षा रचनात्मक प्रशांतता से जुड़े रहे। इन्होंने ग़ज़ल को हिन्दी कविता जैसा कथ्य और अबिव्यक्ति का व्यापक धरातल दिया। लेकिन इस अराजकता के बीच संभावनाओं के संकेत छुपे हुए हैं। ग़ज़ल की भाषा का मुद्दा लगभग तय हो चुका है। उसके लेखन में गंभीर रचनात्मक अनुशाषन आ जाए, इसकी अपेक्षा ही बची है।'

साहित्य की विविध विधाओं में सर्जनारत ग़ज़लकार ज्ञान प्रकाश ' विवेक' का ग़ज़ल को लेकर अभिमत हैः 'इधर लिखी जा रही अधिसंख्य ग़ज़लों को पढ़कर ऐसा प्रतीत होता है कि हिंदी की ग़ज़ल के पास अपनी कोई सार्थक जमीन है ही नहीं। मेरी यह बात निर्मम और तल्ख लग सकती है किंतु बारीकी से देखें और हिंदी ग़ज़ल की पड़ताल करें तो अदिसंख्य ग़ज़लों में कच्चापन मिलेगा, दोहराव और विषय की नासमझी, अनुभवहीनता और कथ्यहीन अशआर इस कदर लिखे गए और प्रकाशित हुए कि अच्छी और स्तरीय ग़ज़लें कहीं भीड़ में खो गईं। इधर मंचीय प्रवृत्तियां बढ़ी हैं। इधर ग़ज़ल में चौंकाने वाले शे'र खूब लिखे गये हैं  वस्तुतः ऐसे शे'र सार्थक जमीन से जुड़े हुए नहीं होते। उनमें सिर्फ शब्दों की कलाबाजी होती है। हिन्दी ग़ज़ल को सार्थक जमीन के लिए यह भी जरूरी है कि ग़ज़ल विधा पर गोष्ठियां, बहसें आयोजित हों। अभी तक दुष्यंत कुमार को मील का पत्थर समझ लिया गया है।'

आज हिन्दी ग़ज़ल के बुनियादी सवालों को उत्तरित करने की आवश्यकता है। त्रिलोचन शास्त्री की सारगर्भित बात ' उत्तर देकर कोई ओखली में सर क्यों दे ?' लगभग सभी ग़ज़लकारों की बात है। कोई खुलकर अपनी बात नहीं कह पा रहा है। 'समकालीन ग़ज़ल' कहकर या अन्य नाम देकर विषय से पलायन की स्थिति है। ' हिन्दी गजल' कहकर या अन्य नाम देकर विषय में पलायन की स्थिति है। 'हिन्दी ग़ज़ल' ' उर्दू ग़ज़ल' कहकर या अन्य नाम लेकर वाजिब मुद्दों से टकराने की स्थिति कहीं नहीं है। ग़ज़ल के लिए विभाजक बिंदु की अनिवार्यता है। चिमटा से अंगारा छूने की यह प्रक्रिया सांघातिक है। हिन्दी ग़ज़ल में हिंदीपन कितना? यह सवाल भी हिंदी ग़ज़लकारों के लिए एक चुनौती है। परंपरा को जानने के लिए परंपरा की सविवेक जानकारी आवश्यक है।

आज की उर्दू ग़ज़ल और हिंदी ग़ज़ल में फर्क भाषा का, लीपि का तो हो सकता है, देखने पढ़ने में कहीं से नहीं है। ग़ज़ल को सिर्फ ग़ज़ल ही रहने दिया जाए, इसी में ग़ज़ल का हित है। हिन्दी में हिन्दीपन की दरकार है। हिन्दी ग़ज़ल को 'हिन्दी गज़ल' कहलाने के लिए भारतीय परंपराओं और संस्कारों से सविवेक सशर्त जुड़ना होगा। नए बिंबों, प्रतीकों, मुहावरों की निर्मिति करनी होगी। हिंदी शब्दावली का मर्मस्पर्शी प्रयोग वांछित है। मिथकों, ऐतिहासिक संबुद्धता को साधना होगा। रूमानियत के भाव-भीने संस्पर्शों की नर्मियां, विचारोत्तेजक कथन की सधुक्कड़ी मुद्रा, अर्थ की दुहरी सांकेतिकता, सर्जनात्मक काव्य-भाषा के निर्माण की प्रक्रिया , जबान के शे'र, काकु वक्रोक्ति का प्रयोग, मनःस्थितियों मनोवैज्ञानिक संदर्भों को उभारने-उकेरने की प्रवृत्ति, रदीफ (समांत) के तौर पर हिन्दी-काव्य-सरोकार के प्रति ध्यान रखना, स्थूल के साथ सूक्ष्म पर नजर रखना, यथार्थ के साथ आदर्श का मर्मीपुट, उक्ति वैचित्र्य के लिए संस्कारों को अनाहत रखना, जातीय संस्कारों, ग्राम्य संस्कारों के प्रति जागतिक जागृति, परंपरित ग़ज़लों की गुणवत्ता को स्वीकारते हुए, परंपरित ग़ज़लों के प्रति आक्रमक तेवर, कथ्य शिल्प की अभिव्यंजना, लोकतांत्रिक भावनाओं का समाहार, उत्सवधर्मी संस्कृति की समझ, उदारवादी सोच की संपृटक्ति, परंपरित ग़ज़लों के प्रति सविवेक विद्रोह, वैश्विक प्रवृत्ति के लिए सतर्कता, कल्पना की निरर्थक उड़ानों से परहेज, अनुवाद की भाषा के स्थान पर निजी भाषा का वाजिब प्रयोग, आदि विचार-तत्व हिन्दी ग़ज़लकारों से, उसकी अस्मिता मुहैया करने के लिए आग्रही हैं।

                                                                                                  (साभार आजकल)

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समकालीन कविता और गज़ल की प्रासंगिकता

(दुष्यन्तकुमार के विशेष संदर्भ में)



समकालीन कविता हिन्दी कविता का नवीनतम आंदोलन है। इसका प्रवर्तन डॉ. विश्वम्भरनाथ उपाध्याय ने सन् 1976 में अपनी पुस्तक ‘समकालीन कविता’ की भूमिका के माध्यम से किया। युँ समकालीन शब्द को हम किस अर्थ में ग्रहण कर सकते हैं? भाव की दृष्टि से या काल की दृष्टि से? वैसे समकालीनता शब्द अंग्रेजी के contemporary का पर्याय है। इसे सम-सामयिकता के अर्थ में ग्रहण किया जाता है। यह इस बात का सूचक है कि समकालीन कविता समसामयिकता से जुड़ी हुई है। साथ ही इसे युग-विशेष के संदर्भों के अनुसार बदली हुई चेतना या मानसिकता का भी द्योतक माना जाता है।

समकालीन कविता के स्वरूप पर जब हम विचार करते हैं तो यह बात ज्ञात होती है कि इस कविता में जो हो रहा है, अर्थात् Becoming का सीधा खुलासा है, जिसे पढ़कर वर्तमानकाल का बोध होता है, कारण उसमें संघर्ष करते, लड़ते, बौखलाते, तड़पते, गरजते ठोकर खाकर सोचते आम आदमी का अंकन है। इस समय की कविता में निरंतरता है, ठहरा हुआ क्षण नहीं है, असन्तोष, रोष एवं विद्रोह का विस्फोट है, सताए हुए लोगों का विद्रोह और सिंहगर्जना है, व्यंग्य और लताड है। इन सारी प्रवृतियों को समेटे समकालीन कविता अपनी पुरी गरिमा और अर्थवत्ता के साथ अपनी यात्रा कर रही थी। इस समय कविता के रूप में भी विविधता  दिखाई देने लगी – प्रबंध, लंबी कविता, सॉनेट, गीत, दोहा, कैपसुल कविता आदि। कविता की निरंतरता में रचनाकारों ने ‘गज़ल’ के माध्यम से भी अपने को व्यक्त किया। समकालीन कविता की इसी भावभूमि पर गज़ल अपने पूरे ऊफान और असर के साथ आगे बढ़ रही थी। इस समय के गज़लकारों जैसे चन्द्रसेन विराट, नीरज, सु्रयभानु गुप्त, डा, कुमार बैचेन, रामावतार त्यागी, जहीर कुरैसी, शेरजंग गर्ग, रोहिताश्व अस्थाना, शकूर अन्वर, गोपाल गर्ग, श्रीमती जया गोस्वामी, तथा दुष्यंन्त कुमार आदि ने गज़ल के माध्यम से अपनी भावनाओं का अंकन किया है।

साहित्य में कविता की समझ को विकसित करना सहज नहीं  है, तिस पर ‘गज़ल’ ?  यूँ कविता के क्षेत्र में ‘गज़ल’ की अपनी एक स्वतंत्र पहचान है। उसमें कविता की समग्र विशेषताएँ तो विद्यमान है ही, परन्तु उसका शिल्प-विधान, उसकी नज़ाकत, नफ़ासत चमत्कृत करनेवाली शैली, आशय की सघनता ‘गज़ल’ को विशेष अर्थवत्ता प्रदान करती है।



 ‘गज़ल’ फारसी की देन है। वहाँ से वह उर्दू साहित्य में पहुँची। उर्दू में इस विधा की सुदीर्घ परंपरा है। मीर, सोज, गालिब, जौक जैसे कई शायरों ने इस विधा को समृद्ध किया है। उर्दू से यह हिन्दी में आयी। उर्दू-फारसी में गज़ल की बढ़ती हुई लोकप्रियता को देखकर प्रयोगवाद, नयी कविता के बाद समकालीन कवियों ने गज़ल की विधा को अपनाया। वैसे प्राचीन काल से ही हिंदी साहित्य में किसी-न-किसी रूप में गज़ल के तत्व विद्यमान रहे हैं।  गज़ल को हिन्दी कविता में भारतीय और इस्लाम संस्कृति के साहचर्य के संदर्भ में ग्रहण किया है। हिंदी में गज़ल का प्रवेश केवल एक साहित्यिक घटना नहीं है। बल्कि यह एक सांस्कृतिक प्रभाव है।

हिंदी गज़ल उर्दू गज़ल के कथ्य और शिल्प से अवश्य प्रभावित है, फिर भी विषयवस्तु की दृष्टि से हिन्दी गज़ल, उर्दू गज़ल से आगे बढ़ी है। हिन्दी गज़ल ने काव्य को नयी भावभूमि और तेवर प्रदान किये। 1936 ई. में प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना के बाद हिंदी-उर्दू साहित्य में कथ्य की दृष्टि से व्यापक परिवर्तन हुए। इसी ज़माने से उर्दू गज़ल का चेहरा भी बदला और ईश्क और रुमानियत से हटकर उर्दू गज़ल आम आदमी की बेबसी और बेकसी को चित्रित करने लगी।

हिंदी गज़ल में आधुनिक भाव-बोध, आम आदमी की पीड़ा, अस्तित्व का संघर्ष आदि की अभिव्यक्ति हुई है। हिन्दी गज़ल ने आम आदमी के व्यापक जीवन के असीमित लोक से

अपना नाता जोड़ा है। मोहब्बत और ईश्क के दर्द से अलग हटकर आम आदमी के जीवन की वास्तविक पीड़ा से अपनी पहचान जोड़ी है। महलों और महफिलों से हटकर पहली बार उसने गरीब की झोपडी में झाँककर जीवन की तल्खी को देखा और पहचाना है। हिन्दी गज़लगो डॉ.रोहिताश्व अस्थाना हिंदी गज़ल के बारे में लिखते हैं –

“दर्द का इतिहास है हिन्दी गज़ल

एक शाश्वत प्यास है हिन्दी गज़ल

प्रेम, मदिरा, रूप साकी से सजा

अब नहीं रनिवास है हिंदी गज़ल।”

स्वतंत्रता के उपरांत जिन मोहभंग, स्वप्रभंग तथा आपात् कालीन स्थितियों का सामना करना पड़ा और सामाजिक जीवन-मूल्यों में जो पतन हुआ उसका संपूर्ण लेखा जोखा

हिंदी गज़ल में दिखाई देता है। वैसे हिन्दी की अपनी प्रशस्त काव्य-शैली होने के कारण गज़ल के कथ्य में विशेष परिवर्तन नहीं हुआ।

1960 के बाद हिन्दी गज़ल को ताजा चेहरा मिला दुष्यन्त कुमार से। हिन्दी

गज़ल के इस दौर में रुमानियत के स्थान पर आम आदमी के सुख-दुख एवं मानवीय संवेदना का विकास हुआ। दुष्यन्त कुमार का अंतिम संग्रह ‘साये में धूप’ 1975 में प्रकाशित हुआ जिसमें कुल 52 गज़लें हैं। इस संग्रह ने दुष्यन्तकुमार को लोकप्रियता के शिखर पर पहुँचा दिया। दुष्यन्त की कविता हो या गज़ल इसमें एक सन्तुलन है, जो कि आदि से अन्त तक बराबर उपलब्ध होता है। इसका कारण यह है कि वे अकृत्रिम और परिचित संवेदनाओं के कवि हैं। और उनकी अभिव्यक्ति बडी ही अनौपचारिक और जानी-पहचानी लगती है। दुष्यन्त गहन अनुभूति के कवि है। ‘सूर्य का स्वागत’, ‘आवाज़ों के घेरे’, ‘मौम का घोड़ा’ जैसी कविताओं में दुष्यन्त की संवेदना और अभिव्यक्ति की सहज ईमानदारी देखी जा सकती है।

दुष्यन्त कुमार ने हिंदी गज़ल को एक नया आयाम प्रदान किया। गज़ल को श्रृंगार की परिधि से बाहर निकालकर दुष्यन्त ने गज़ल को आम आदमी की ज़िन्दगी से जोड़ दिया। परंपरागत कथ्य से निकालकर सामाजिकता से बाँघा। व्यवस्था के प्रति आक्रोश और उसकी मार्मिक अभिव्यकति के लिए गज़ल उन्हें सबसे अच्छा माध्यम लगा। उनकी गज़लों में व्यक्ति चेतना, सामाजिक चेतना और जीवन के विविध आयाम भी दिखाई देते हैं।

दुष्यन्त की गज़ल जीवन के प्रति आस्था की गज़ल है। कवि स्वयं आस्था के गायक हैं।जुझारू है तभी तो जीवन को बदलने की चाह है, पुकार है। तभी वे कह पाते हैं –

“कैसे आकाश में सुराख नहीं हो सकता,

एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारो।”

इन पंक्तियों को भी देखिए -

          “दुःख नहीं कोई कि अब उपलब्धियों के नाम पर

           और कुछ हो न हो, आकाश सी छाती तो है ।”

     दुष्यन्त आस्था, कर्म और संघर्ष के कवि तो है ही, पर युगीन निराशा और अनास्था का चित्रण भी उनकी गज़लों में हुआ है । वर्तमान जीवन का दुःख, निराशा, अभाव, अवसाद आदि का जिस सामाजिक व्यवस्था के कारण जन्म हुआ वह अनेक श्रेणी तथा वर्गों में विभक्त समाज की रुग्ण व्यवस्था है । इस समय का कवि अपने जीवन और संसार के भविष्य के प्रति अनास्था रखता है । दुष्यन्त की गज़ल में भी अनास्था का भी कहीं-कहीं अंकन हुआ है । लक्ष्यहीन, उद्देश्यहीन, जीवन जीनेवाले मनुष्य का चित्रण करते हुए दुष्यन्त लिखते हैं -

          ज़िन्दगी का कोई मकसद नहीं है

          एक भी कद आज आदमकद नहीं है ।

     बदलती हुई सामाजिक तथा राजनीतिक स्थितियों में आम आदमी टूटन और घुटन का अनुभव कर रहा है । उनकी गज़लों में शोषित व्यक्ति की टूटती ज़िन्दगी का मार्मिक चित्रण हुआ है । जीवन में सुख की अपेक्षा दुख अधिक है, यदि सुख क्षणिक है तो दुख चिरन्तन है । इस सच्चाई का बयान दुष्यन्त इस प्रकार करते हैं -

          “दुख को बहुत सहेज कर रखना पड़ा हमें

          सुख जाने किस कपूर की टिकिया सा उड़ गया ।”

     आम आदमी के जीवन से जु़ड़े कई सामाजिक बिंब –प्रतिबींब हिंदी गज़ल में स्पष्ट रूप से परिलक्षित होते हैं। आज के दौर में आम आदमी अनेक यातनाऔं से गुजर रहा है। अतः आम आदमी की तकलीफ़ और पीड़ा का अंकन गज़ल में हुआ है। दुष्यन्त कुमार प्रतिबद्ध कवि होने के नाते कहते हैं, मैं प्रतिबद्ध कवि हूँ – यह प्रतिबद्धता किसी पार्टी से नहीं आज के मनुष्य से है, और वे अपने इस दायित्व को बखुबी निभाते हैं।

      “मुझमें रहते हैं करोंडों लोग, चुप कैसे रहूँ.

      हर गज़ल सल्तनत के नाम पर एक बयान है”।   

दुष्यन्त जहाँ आम आदमी की चर्चा करते हुए उसके अस्तित्वहीनता और स्वत्वहीनता की बात करते हैं वहीं उसे वे यह विश्वास दिलाते हैं कि अगर वह चाहे तो क्या नहीं कर सकता ? उसमें ऐसी शक्ति है जिससे वह क्रान्ति ला सकता है, बस आवश्यकता है तो सिर्फ़ लगन और दृढ़ता की । दूसरी ओर जिसकी रीढ़ की हड्डी ही नहीं, जो सत्वहीन है, जिसकी अस्तित्व बनाने की कोई इच्छा ही नहीं है, उस पर एक करारा व्यंग कसते हुए वे लिखते हैं -

          “जिस तरह चाहो बजाओ इस सभा में

          हम नहीं है आदमी, हम झुनझुने है ।”



     व्यक्तिगत जीवन की पीड़ाएँ, और अनास्था एक ऐसी सामाजिक स्थिति को जन्म देती हैं जहाँ श्रेष्ठ मूल्य ही नहीं रह पातें, सभी या तो आत्मकेंद्री बन जाते हैं या फिर स्वार्थी । दया, सहानुभूति, करुणा जैसे शब्द रह ही नहीं पाते ! ऐसे समय मनुष्य का मनुष्य के साथ जो रिश्ता बना है वह कुछ भिन्न ही है - वे लिखते हैं -

          “अब नयी तहज़ीब के पेशे नज़र हम,

          आदमी को भून कर खाने लगे हैं ।

     और जब ऐसी स्वार्थी सभ्यता से मनुष्य घबराने लगते हैं तो दुष्यन्त उनका भी अनुभव इन शब्दों में व्यक्त करते हुए लिखते हैं -

          “यहाँ दरख्तों के साये में घूप लगती है

          चलो यहाँ से चले और उम्र भर के लिए ।”

     दुष्यन्त परिवर्तन में बड़ा विश्वास रखते हैं । क्रांति का स्वागत करते हैं, तभी तो ज़िंदगी की सच्चाइयाँ व्यापक जीवन दृष्टि के साथ व्यक्त हुई है।तभी तो वे आग की बात करते हैं।उनके निम्नलिखित दो शेर इसी बात की पुष्टि करते हैं -

          एक चिन्गारी कहीं से ढ़ूँढ लाओ दोस्तो

          इस दिये में तेल से भीगी बाती तो हैं ।

                     XXXXXX

          मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही

          हो कहीं भी आग, लेकिन आग लगनी चाहिए ।

     दुष्यन्त की दृष्टि जब समाज की ओर उठती है तो वे तड़प उठते हैं, वे अपनी गज़लों में शोषण, पराजय, दैन्य, उत्पीड़न और दुरावस्था की अभिव्यक्ति जहाँ निर्भीकता से करते हैं वहाँ उनके व्यंग्य की धार पैनी हो जाती है  । आज मनुष्य बड़ा आत्मकेंद्री हो गया है । अपनी-अपनी चार दीवारों में बंद मनुष्य का जीवन सम्बन्धहीन होकर मानवता से कोसो दूर चला गया है । उसकी अभिव्यक्ति करते हुए वे कहते हैं -

          इस शहर में कोई बारात हो या वारदात

          अब किसी बात पर खुलती नहीं खिड़कियाँ ।

     स्वतंत्र भारत का सपना सबने देखा था किंतु स्वतंत्रता के बाद अनेक ऐसी समस्याओं से देश को जूझना पड़ा कि सोने की चिड़िया का सपना टूटकर बिखर गया। आर्थिक वैषम्य के कारण सामाजिक विषमता भी परिलक्षित होने लगी । देश की अस्सी प्रतिशत प्रजा की दयनीय स्थिति देख उसका चित्रण करते हुए दुष्यन्त अपने एक शेर में कहते हैं -

          “कल नुमाइश में मिला जो चिथड़े पहने हुए !

          मैंने पूछा नाम तो बोला कि हिंदुस्तान है ।”

कवि की व्यंग की धार तेज़ है । उनका अंदाज़े बयाँ ही ऐसा है कि सचाई को खोलकर रख देता है। तभी तो दुष्यन्त की सादगी में ही संज़िदगी का अद्भुत मेल नज़र आता है। जीवनानुभव और कल्पना के पंख गज़लको ऊँचाइयाँ प्रदान करते हैं, इन दोनों की सार्थकता दुष्यन्त की गज़ल में परिलक्षित होती है। एख अच्छी गज़ल में रदीफ़ और काफि़ये के सुंदर मेल के साथ एक दुरुस्त जीवन दृष्टि का होना आवश्यक है, जो दुष्यन्त जी के पास है। उनकी गज़ल में दर्द, गम, तल्खी, रुसवाई, बेबसी और हकीकत का अंकन करने का साहस और सामर्थ्य है।

‘प्रेम’ तो वैसे भी गज़ल का प्रमुख विषय रहा है। दुष्यन्त जी ने अपनी गज़ल के माध्यम से इस विषय को तरजीह दी है किन्तु थोडे अलग ढंग से। अपनी प्रेमिका के सात्विक सौन्दर्य का चित्रण वे इस प्रकार करते हैं –

“तुमको निहारता हूँ सुबह से ऋतम्बरा।

अब शाम हो रही है, मगर



वह रेल सी आती है,

मैं पटरी सा थरथराता हूँ।



दुष्यन्त कुमार ऐसे गज़लकार है जिन्होंने आम आदमी की पीडा और सामाजिक राजनीतिक विसंगतियों और विद्रुपताओं को सशक्त वाणी प्रदान की है। उनकी गजलें अपनी सरलता, सहजता और सुबोधता के कारण जनमानस को न केवल आकर्षित करती है अपितु उन्हें उद्देलित भी करती है और सामाजिक परिवर्तन की इच्छा जगाती है।

जहाँ तक भाषा का संबंध है गज़ल की भाषा में प्रभावोत्पादकता और प्रतीकात्मकता का होना अनिवार्य है। कम शब्दों में कथ्य की अभिव्यक्ति गज़ल की महत्वपूर्ण विशेषता है। क्योंकि गज़लकार गागर में सागर भरने का कार्य करता है। दुष्यन्त की गज़ल-भाषा पर विचार करें तो उनकी भाषा सरल और स्वभाविक है उन्होंने लोगों के बीच की बोलचाल की भाषा को काव्यात्मक आधार के रूप में ग्रहण किया है। गज़लों में मानव जीवन की विशद व्याख्या करने की विशेषता है तो दूसरी ओर भाषागत विशेषताओं का भी अभाव नहीं है। दुष्यन्त की भाषा की दो विशेषताएँ हैं (1) गज़ब की संप्रेषण शक्ति और (2) सादगी । भाषा न विशुद्ध हिन्दी है ना ही विशुद्ध उर्दू, बल्कि इन दोनों का मिला जुला रूप इनकी गज़ल में मिलता है।

दुष्यन्त ने गज़ल के कथ्य को एक नया मोड़ दिया है। उनकी गज़लों की भावभूमि परंपरा से हटकर है। उन्होंने बडे साहस के साथ परंपरागत कथ्य में परिवर्तन लाया है। उन्होंने सामान्य जीवन से संघर्ष, टकराहट, घात, प्रतिघात आदि को अपनी गज़लों में अभिव्यक्ति कर उसे लोकप्रिय बनाया। उन्होंने गज़ल को ‘दरबार’ से निकालकर ‘घरबार’ से जोड़ दिया। यही उनका वैशिष्टय है। दुष्यन्त कुमार ऐसे गज़लकार हैं जिन्होंने आम आदमी की पीड़ा और सामाजिक विसंगतियों को सशक्त वाणी प्रदान की है। गहरी सोच, संवेदनाओं की सरलता और तल्खी को दिखाया है। उनकी गज़लें अपनी सरलता, सहजता, और सुबोधता के कारण जनमानस को न केवल आकर्षित करती हैं अपितु उन्हें उद्वेलित भी करती हैं।



प्रतिभा मुदलियार

रीडर, हिन्दी विभाग,

हंकुक विदेशी भाषा अद्ययन विश्व
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                                                                                                                          हास्य-व्यंग्य

गांधीगिरी के वर्तमान फंडे
अविनाश बाचस्पति


गांधीगिरी का जोर है लेकिन गांधीजी के तीनों नटखट बन्दर शांत बैठे हैं। जबकि शांति बन्दरों के स्वभाव में दूर-दूरतक नहीं है। यहीं से असली गांधीगिरी की शुरुआत हुई है। जिसकी अलख जगाने का श्रेय लगे रहो मुन्ना भाई से संजय दत्त के खाते में क्रेडिट हो गया है। जब उधमी बंदर तक शांत हैं तो अन्य किसी निखट्टू की क्या मजाल जो धमाल मचा सके।

ऊपर से तीनों बंदर शांत हैं पर भीतर से मन उधेड़बुन में लगा हुआ है। यही गांधीगिरी की सच्चाई है कि कभी किसी फल तोड़ने का स्वप्न मन में कुलाचें ले रहा है तो कभी किसी फूल को तोड़ने-मसलने का।  पर जब उन पर कैमरे की नजर नहीं होती तो वे गांधीगिरी भूल अपनी बंदरी करतूतों में मशगूल हो जाते हैं।

मुन्नाभाई का भी सपना है कि वे तीन बंदर पालें। उन्हें इतना पालतू बना लें कि वह न तो कैमरे के सामने और न पीछे, कभी भी मन को चलायमान होने दें। उनके बंदरों की पोज गांधीजी के बंदरों से अलग होंगे। अब मुन्नाभाई कोई मदारी तो हैं नहीं जो बंदर या बंदरी के गल्ले में रस्सी बांधकर भाईगिरी दिखलाएँगे। उन्हें तो हाइटेक तरीक से रिमोटिया आधार पर बिना रिमोट के . इशारे भर से हैंडल करना होगा।

बापू ने नोट पर चोट की। इस चोट का निशान वाटर मार्क के रूप में नोटों पर देखा जा सकता है। 500 के नोट को गांधी कहा जाता रहा है। हजार के नोट का भी यही हुआ। कार्य करवाने के लिए बतौर रिश्वत गांधीजी की खूब चर्चा हुई। मिनिमम एमांउट एक गांधी सैट कर दिया गया। मतलब एक पांच सौ का नोट। पुलिस वालों ने इसका पूरा लाभ उठाया। झूठ को सच में तब्दील करने के लिए एक औजार बनकर सामने आया और सच को छुपाने के लिए भी इसी की मदद ली गयी।

गांधीजी का दर्शन भूल नेता तन मन से धन कमाने में तल्लीन हो जाते हैं। यह बिल्कुल साफ है कि हम गांधीजी को अपने स्वार्थ साधने के लिए याद करते हैं। फिरभी उनकी महानता के लिए समर्पित खब्ती भी देश में बहुतेरे हैं। एक सर्वे तो गांधीजी को एक बुरा पिता और पति मानने में भी संकोच नहीं करता। मुन्नाभाई इन अमेरिका की योजना अधर में है। गांधीगिरी का होल वर्ड पर प्रभाव आँका जा रहा है। गांधीजी ने उन्ही बंदरों की फिदरत को बदला जो दो बिल्लियों के झगड़े में तराजू में तोलते हुए, रोटी को बराबर न होने पर सारी खा गया, इसमें उसका हुनर काम में आया और बिल्लियां कूदती-फांदती रह गयीं। कुछ-कुछ वैसे ही जैसे देश की जनता से वोट लेने के बाद नेता बंदरगिरी पर उतर आते हैं। धोती,सोटा और लंगोटी वाले बापू ने बंदरों तक को काबू में कर लिया पर वे इन तथाकथित वोट के चहेते बंदरों के अंदर की मंशा न समझ पाये जो उनके आचार-विचारों को चने की तरह भून कर, बेचकर जेब भर गये।

पहली फिल्म गांधी के जरिए बेन क्गिसले ने इतना कमाया कि कोई क्या कमाएगा? वर्तमान में गांधीजी को बाजार की मांग के मुताबिक पेश करके कैश किया रहा है। बापू ने जीवन भर चरखा चलाया और नेता उनकी  नीतियों को चरखाते रहे। चरते रहे, खाते रहे। सबमें स्वार्थ छिपे हैं। बापू के आदर्शों की बलि चढ़ाकर असहयोग आंदोलन की तर्ज पर हमने हिंदी से असहयोग और अँग्रेजी से सहयोग आरंभ कर दिया। अंग्रेजों के भारत छोड़ो आन्दोलन से  जुड़कर हमने भारत छोड़ दिया और इँडिया से जुड़ गए। अहिंसा के पाठ से अ हटाकर हिंसा को अपना लिया। सच बोलने की आपकी सलाह पर सच बोल दिया कि हम सच नहीं बोल सकते। आपने बुरा न देखने के लिए कहा तो हमने देखना बंद करके करना शुरु कर दिया। आपने बुरा न सुनने के लिए कहा तो हमने टी.वी. पर देखना शुरु कर दिया और उसकी आवाज बंद कर दी। उमा खुराना प्रकरण हमारी गांधीगिरी के नए सोपान का ताजा कीर्तिमान है।

दुनिया में भारत को गांधी, गरीबी और ताजमहल के लिए पहचाना जाने लगा है, यह एक ताजा सर्वे की रपट है। अंग्रेजों ने इसे जादू, टोने, सांपों और सोने की चिड़िया के रूप में पहचान दिलाई थी।

 लगे रहो मुन्नाभाई फिल्म ने संजय दत्त के लिए ख्याति के अनेक सोपान खोल दिए। गंधीजी का अभिनय कर जिन अभिनेताओं की पारी चमकी उनमें संजयदत्त सर्वोपरि दिखाई देते हैं। यह युवराज के लगातार छः छक्के लगाने के कीर्तिमान से बड़ा है।
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गीत और ग़ज़ल... ब्रिटेन से






सोहन राही

1.

रेत, समंदर, सहिल होगा
रस बरसाता बादल होगा

लहर लहर मन व्याकुल होग
आग लगाता जल थल होगा

छन, छन, छन, छन पायल होगी
नाच नचाता काजल होगा

रंग खिलेंगे नीले आंगन
उनका उड़ता आंचल होगा

आंख से आंख की बातें होंगी
दिल के बावत जो दिल होगा

उनके ख्वाब भरे बोलों पर
और मेरा मन चंचल होगा

सौ परदों में है वो लेकिन
चर्चा महफिल महफिल होगा

उन की शर्मो हया में राही
मेरा प्यार भी शामिल होगा।



 2.

 जिन्दगी गोया शिकस्त-ए-साज से कम नहीं।
अपनी खामोशी मगर आवाज से कम नहीं।।

 रात के जलते परों ने आग बरसाई बहुत
चांदनी भी इक तेरे अन्दाज से कुछ कम नहीं।

 खनखनाती हैं अजल की बेड़ियां हर आन में
जो रहे हैं ये तेरे एजाज से कुछ कम नहीं।

 रंग-ए-गुल लम्हात की धड़कन से बिछड़ा गीत है
सोज़ होना गीत का इक राज़ से कुछ कम नहीं।

 साँस की बुझती चिताओं में है नक्श-ए-जिन्दगी
सांस का अंजाम भी आवाज से कुछ कम नहीं।





प्राण शर्मा


1.

मन किसी का दर्द से बोझल न हो
आँसुओं से भीगता काजल न हो

 प्यासी धरती के लिए गर जल नहीं
राम जी ऐसा भी तो बादल न हो

हो भले ही कुछ न कुछ नाराज़गी
दोस्तों के बीच कलकल न हो

ये नहीं मुमकिन कि वो आएँ इधर
और इस दिल में कोई हलचल न हो

धूप में राही को छाया चाहिए
पेड़ पर कोई भले ही फल न हो

 आया है तो बन के जीवन का रहे
ख्वाब की मानिंद सुख ओझल न हो

 जा रहे हो झील की गहराई में
और कहते हो कहीं दलदल न हो


पूछकर आती नहीं कोई बला

इतना भी खुशियों पे तू पागल न हो


2.


हर एक को कुटुम्ब में अपना सा ढालना
मुश्किल बड़ा है दोस्तों घर को संभालना


वो माँगता है सिर्फ खिलौना घड़ी घड़ी
अच्छा नहीं है बच्चे को हर बार टालना


कोई उमंग चाहिए चलने के वास्ते
माना, बुरा नहीं है खयालो का पालना

 इक घर बनाया कल मैने भी ख्वाब में
जैसे चिड़ी का होता है नन्हा सा आलना

 शायद यही विचार के कतरा गए हो तुम
कितना कठिन है अपने पे कीचड़ उझालना


आनंद की फुहार है चंदन की गंध है

जादू जगाता माओं की बाहों का पालना



ए प्राण रास आयी है किस मन को दुश्मनी

इस संकरी गली से स्वयं को निकालना





गौतम सचदेव 



1.



गलत भी वक़्त बदले तो सही है
कभी कोई न रह पाता वही है



मिला हमदर्द जाकर दुश्मनों से

सही वह भी न होता जो सही है



समझते ग़ैर क्यों ये लोग हमको

सभी का मुल्क जब साझा यही है



क़लम यादें सियाही उम्र भर की

यही खाता यही अपनी बही है



अँधेरों का सिसकना और रोना

सुनी हमने बहुत कुछ अनकही है



किया क्यों दूध से पानी अलहदा

कहें सब दूध यह बिगड़ा दही है



हँसी के साथ आँखें भीगती है

खुशी गम के बिना होती नहीं है



पढ़ी जाती न सूरत आदमी की

असल में और दिखती और ही है



घड़ी अगली न जाने क्या दिखाये

गयी जो बीत वह अच्छी रही है



न ' गौतम' कह सका है बात चिकनी

कही उसने जहाँ सच्ची कही है


2.



आइने  बेशर्म हैं कितने भले हैं 
देखते चुपचाप सबके मामले हैं



दिल धड़कता है बताने को हमेशा

सो रहे फिलहाल अंदर ज़लज़ले हैं



दिल बड़ा गहरा डुबा दें दर्द इस में

हम तभी लगते तुम्हें अच्छे-भले हैं



रोज़ छुपकर  देखता तस्बीर मेरी

क्या पता उसने किये क्या फ़ैसले हैं



फूल खुश है देखकर भी यह सचाई

सिर्फ कांटे ही यहां फूले-फले हैं



क़ातिलों की गर्दनें नाज़ुक नहीं क्या

काटते-फिरते जमाने के गले हैं



किस तरह अब आग यादों की जलाएँ

आँसुओं ने ये बुझाये कोयले हैं





क्या ज़बानों में पले हैं क्या दिलों में

साँप असली आस्तीनों में पले हैं





दोष ' गौतम' दूसरों को दे रहा है

गीत उसके भी नहीं कम खोखले हैं












तेजेन्द्र शर्मा



इस उमर में दोस्तों, शैतान बहकाने लगा

जब रहे न नोश के काबिल, मजा आने लगा।



जिस जमाने ने किए सजदे, हमारे नाम पर

आज हम पर वो जमाना, कहर है ढाने लगा।



जब दफन माजी को करने की करें हम कोशिशें

जहन में उतना उभर कर सामने आने लगा।



जिन्दगी भर जिन की खातिर हम गुनाह ढोते रहे

उनकी खुदगर्जी पे दिल, अब तरस है खाने लगा।



चार सू जिनको कभी राहों में ठुकराते रहे

राह का हर एक पत्थर हमको ठुकराने लगा।



जिन्दगी के तौर ही बेतौर जब होने लगे

जब हमें हर तौर दोबारा, समझ आने लगा।



तेज चक्कर वक्त का यूं ही रवां रहता सदा

कल का वीराना यहां, गुलशन है बन जाने लगा। 
 औरत को ज़माने ने बस जिस्म ही माना है
क्या दर्द उसके दिलका कोई नहीं जाना है
बाज़ार में बिकती है घरबार में पिसती है
दिन में उसे दुत्कारें, बस रात को पाना है
मां बाप सदा कहते, धन बेटी पराया है
कुछ साल यहां रहके, घर दूजे ही जाना है
इक उम्र गुज़र जाती, संग उसके जो शौहर है
सहने हैं ज़ुलम उसके, जीवन जो बिताना है
बंटती कभी पांचों में, चौथी कभी ख़ुद होती
यह चीज़ ही रहती है, इन्सान का बाना है
बन जाती कभी खेती, हो जाती सती भी है
उसकी न चले मर्ज़ी बस इतना फ़साना है

 




शैल अग्रवाल

 1.

हिचकियां याद दिलाएँगी भूलने वालों को
गुमनाम चिठ्ठियां ये यूँ ळिखी जाती नहीं ।

जल चुका है पूरा जंगल एक शरारे से
हवाओं की वो शरारत रुक पाती नहीं।

डूब जाते हैं लोग यूँ ही इस समन्दर में
कश्तियां ये सबको पार लगाती नहीं।
फिर टूटा है एक तारा आसमान में
हर टूटे तारे की खबर लग पाती नहीं।


बह जाते हैं कई समन्दर बन्द पलकों से
खुली आंखों की किरक  मगर जाती नहीं।





2.
रात की पलकों पर फिर खेला है चांद
फिर हवा आज  यह जाने कैसी चली

 मेरे संग संग चल तो रहा था वो आसमां
रास्तों ने ही बस मुड़-मुड़के यूँ करवटें लीं

तारों का ये कारवां लेकर अब हम जाए कहां
हर आँख में तो झिलमिल एक मूरत बसी

 किनारे वो प्यासे खडे ही रहे उम्र भर
नदी एक दरमियां थी, जो बहती रही







दिव्या माथुर


1.

न सुने तो कोई क्या कीजे

दस्तक देने में हर्ज है क्या



खुशी खुशी भुगतेंगे इसे

जो मिट जाए वो मर्ज है क्या



दिल मांगा जो हमने दी

ये छोटा मोटा कर्ज है क्या



हमें तो कोई गिला नहीं

पर आप ही जानें फर्ज है क्या



सुबह की हाँ हुई शाम की ना

ये भी कोई तर्ज है क्या



कर लिया सर्द सीना अपना

बिन सुने हमारी अर्ज है क्या



शक है कि सुनवाई होगी

दरख़्वास्त हमारी दर्ज है क्या।






2.


जो तुझको करना है कर

क्या होगा इससे मत डर



चुप्पी से चीखें अच्छी

सहने से कहना



जिसको दुनिया में ढूँढा

वो था ख़ुद मेरे अन्दर



उसका वादा क्या वादा

जो वादे से जाए मुकर



दौड़ के बाँहों में भर ले

दूर से यूँ मत आहें भर



हद में रहना अच्छा है

मत हो तू हद से बाहर।







नीना





 



जवाब सोचकर वो

दिल ही दिल में मुस्कुराने लगे

अभी तो मेरी जुबान पर

कोई सवाल भी आया न था।



दर्द का एहसास तब हुआ जब वक्त को पीछे छोड़ आए

फिर ज़िन्दगी भर ये सोच भटकते रहे

कि शायद फिर से वो पहला मोड़ जाए।









 नगमों के सिलसिले यूँ ही चलते जाएँगे

शेरों के जरिए दिले जज़बात निकलते जाएँगे

बदलेंगे न कभी इन गज़लों के दौर

मौसम तो हर रुत में आकर बदलते जाएंगे।



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स्मृति शेष...

 तलत महमूद





(प्रस्तुत है लेखनी के पाठकों के लिए गीत और ग़ज़ल की दुनिया का सबसे नाजुक स्वर... प्रेम के अमर गायक स्व. तलत महमूद पर उनकी मृत्यु के तुरंत बाद ही  श्री गोविन्द प्रसाद द्वारा लिखित एक पूरी तरह से विमुग्ध और रूमानियत भरा लेख...  तलत की कंपित मधुर आवाज की तरह ही  स्वरों के निजत्व से ओतप्रोत और भावभीना...।)

                                      



तेरी हर चाप से जलते हैं खयालों में चिराग ...     

स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात नेहरू युगीन प्रेम और संस्कति को अपनी आवाज से रूपायित करने वाले तलत महमूद की मृत्यु (1 मई 1998) से सचमुच एक ' युग' का अन्त हो गया।

तलत महमूद पर बात करने से पहले यह बेहतर होगा कि पृष्ठभूमि के रूप में तत्कालीन फिल्म गायकों के परिदश्य में झांकने के बहाने मैं अपनी बात के.एल.सहगल-जो अपने जमाने के गायकों में 'दादा' माने जाते थे- से शुरू करूँ। ' न्यू थियेटर्स' की देवकी बोस के निर्देशन में बनी फिल्म चंडीदास( 1932) से लेकर अपनी आखिरी फिल्म शाहजहाँ और परवाना (1946-47) तक कुंदन लाल सहगल शिखर गायक के रूप में रहे। सहगल की गायकी का असर इस कदर था कि उनके समकालीन पंकज मलिक, के. सी. डे., सी. एच. आत्मा और जगमोहन जैसे सभी गायक सहगल की गायकी के सांचे को मानक मानकर गाते थे। सहगल एक व्यक्ति नहीं, एक युग और एक स्कूल का नाम था। सहगल साहब अपने जीते जी गायक शिरोमणि, या यों कहिए कि वह लगभग एक मिथक में तब्दील हो चुके थे। भारतीय फिल्म संगीत में अबी पार्श्व-गायन का चलन नहीं हुआ था और सहगल साहब सन 1932 से लेकर, जब तक जीवित रहे (जनवरी 1947 तक) फिल्मी और गैर फिल्मी ( अर्थात प्राइवेट गीत आदि) दुनिया में बहैसियत गायकी के ' फादर' की तरह रहे। वह उस जमाने के आदर्श थे। उनके सुरों में ऐसी ' श्योरनेस' थी कि हम नई पीढ़ी के श्रोतावर्ग को उनकी आवाज और अंदाज में मैलोडी के साथ-साथ कहीं कुछ ऐसा भी लगता है कि जैसे उनके स्वरों में कोई तानाशाह भी बोलता-गुनगुनाता हो।

कभी-कभी सोचता हूँ, फिल्म संगीत का आरंभ भक्ति संगीत की भावधारा से हुआ और हिन्दी में चंडीदास (1932) पूरन भगत (1933) में क्रमशः के.एल. सहगल और के. सी. डे ने कीर्तिमान स्थापित किया। इसी क्रम में मीराबाई, सीता, विद्यापति और रामराज्य जैसी फिल्में बनीं। लेकिन फिर भी इस ' डिवोशनल म्यूजिक ' के साथ-साथ सहगल साहब की गायकी में वैभव का सामंती ठाठ दबे स्वर में सुनाई पड़ता है। यह हमारी ' नई पीढ़ी' को लगता है, शायद इसलिए भी कि मूल्य बदल चुके हैं, पुरानी तहजीब, कद्रो-कीमत मिट गई हैं और जमाना  बहुत तेजी से बदला है- बहरहाल।

जैसा कि मैने कहा कि वह लगभग एक मिथक में तब्दील हो चुके थे; इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि उनके समकालीन गायकों पर तो उनका असर था ही लेकिन उनके बाद की पीढ़ी के गायक भी उनसे इतना मुत्तासिर रहे कि मुकेश जैसे गायक ( आंसू न बहा फरियाद न कर/ दिल जलता है तो जलने दे) को भी उनकी गायकी की छाया से मुक्त होने के लिए लगभग जद्दोजहद-सी करनी पड़ी। सहगल की आवाज और आवाज से ज्यादा उनके अंदाज (शैली) और आहंग का जादू ( जिसे मैं  अगर आतंक भी कहूँ  तो शायद गलत न होगा, और इसे कसी दुर्भावना से प्रेरित या 'अंडर एस्टीमेट' करने का प्रयास न समझा जाए) इस कदर था क तलत महमूद जैसे शांत और धीर प्रकति वाले तथा नर्मो-नाजुक मिजाज गायक भी अपनी प्रकृत सहजता और सादगी ( बल्कि वही सादगी उनका अलंकरण साबत हुई) को छोड़ सहगल के अन्दाज में गाने लगे। तलत साहब के  बंबई के फिल्मी कैरियर से पहले आल इंडिया रेडियो, लखनऊ में शुरू के रिकार्ड किए गए गीत ' सब दिन एक समान नहीं ' या ' तुम लोक लाज से डरती थीं ' जैसे आरंभिक गीतों में सहगल के अंदाज का आँशिक असर देखा जा सकता है-ये वे दिन थे जब तलत महमूद तलत के नाम से नहीं, तपन कुमार के नाम से कलकत्ते में गा रहे थे। बहुत जल्द ही इन दो चार नग्मों के बाद एच.एम. बी. ग्रामोफोन कंपनी, कलकत्ता ने चार गीतों का एक रिकार्ड निकाला जिसके इस गीत ने धूम मचा दी- तस्बीर तेरी दिल मेरा बहला न सकेगी।  गीतकार थे फ़य्याज़ हाशमी और संगीत निर्देशक थे कमल दासगुप्त। यह पहला गैर फिल्मी गीत था जिससे उन्हें लोकप्रियता के साथ-साथ प्रतिष्ठा भी मिली।

सन् 1932 से लेकर 1946 तक फिल्मी दुनिया पर यकसां छाई रहने वाली सहगल की आवाज़ और अंदाज के मिथक को तोड़ने में तलत साहब को उस दिन कामयाबी हासिल हुई जब अनिल विश्वास की बनाई धुन पर फिल्म आरजू (1951) की दिल पर नक्श और जेहन पर छा जाने वाली ग़ज़ल- ऐ दिल मुझे ऐसी जगह ले चल जहां कोई न हो/अपना-पराया मेहरबां ना-मेहरबां कोई न हो, गाई। यह ग़ज़ल पांचवें दशक की बला की इब्तिदा थी जिसकी आवाज का जादू और उससे भी ज्यादा उनकी लरजती  -थरथराती आवाज में गहरे विराग भरी कशिस की मद्धम आँच का जादू सिर चढ़कर बोलने लगा।

यहाँ ठहरकर अगर एक नजर फिल्म संगीत के इतिहास पर डालें तो हम यह पाएंगे कि यह वह समय था जब 1947 में सहगल की मत्यु के बाद पुरुष गायकों की दुनिया में एक ठहराव-सा आ गया था और नौशाद जैसे संगीतकार जी.एम. दुर्रानी, सुरेन्द्र जैसे गायकों से अनमोल घड़ी, अनोखी अदा जैसी फिल्मों में एक वैकल्पिक व्यवस्था के तहत कामचलाऊ स्थिति का सामना कर रहे थे। ठीक इसी समय रफी, मुकेश और तलत महमूद जैसे गायकों ने इस शून्य को तेजी से भर दिया।

फिल्म गायक के रूप में तलत महमूद के प्रवेश करने के ठीक पहले सहगल साहब का जमाना था-अर्थात आजादी मिलने से ठीक पहले तक। और आजादी मिलने के ठीक बाद तलत का आगमन।

यह विचार करने की बात है कि आखिर कुंदन लाल सहगल जब नहीं रहे तो सहगल साहब के करोड़ों प्रशंसक, जिन पर उनकी आवाज का जादू था, उनके स्थान पर उन्होंने तलत महमूद को कैसे स्वीकार किया होगा। क्योंकि दोनों की आवाज के बुनियादी लप्स और रेशों में दूर-दूर तक कोई साम्य ही नहीं दिखाई पड़ता।

फिल्म गायकी के इतिहास को देखते हुए यह देखना बहुत दिलचस्प होगा कि एक तरफ सहगल की आवाज में काफी हद तक एक ऐसी  'श्योरनेस' है, जिसमें बहुत दूर तक एक तरह की ' मर्दानगी' का अतिरिक्त अहसास होता है। शायद इसी से उनकी आवाज और गायकी में लोच के लिए अपेक्षाकृत अवकाश कम है। जिसे मार्दव और मसृणता कहते हैं, वह उनकी आवाज का संस्कार नहीं है जिसका बहुत गहरा संबंध हमारी तत्कालीन संस्कति की मूलधारा में खोजा जाना चाहिए। जबकि इसके बरअक्स तलत की आवाज में एक आकांक्षा, स्वप्न से उपजी तरलता और कोमलता जैसे रूमानी तत्वों के लिए पर्याप्त अवकाश दिखाई पड़ता है। उनकी आवाज या अन्दाज से लेकर जीवन तक में ' लाउडनेस' कहीं नहीं है। स्वर की प्रबलता या ओज उनकी प्रकृति में नहीं है। उनके गाए गए 700-800 फिल्मी गीतों में शायद ही कोई (शायद कोई भी नहीं) गीत हो जिसमें वे बहुत लाउड या हाई पिच पर अथवा ओज भरे स्वर में परुषता को छू भी पाते हों। तलत का तलफ्फुज और अदायगी ही ऐसी थी कि वह अकाव्यात्मक अतवा गद्य जैसा रूखापन लिए शब्द या ध्वनियों को भी अपनी मखमली लरजती-थिरकती आवाज से कोमल और मरमरी स्पर्श के साथ-साथ वहरीले आवेग में बदल देते थे। तलत महमूद के स्वरों में आवेग है, पैशन है, लेकिन स्वरों में आक्रमकता, उग्रता या अनुदारता कहीं नहीं मिलेगी। तलत की आवाज में जो कांपती हुई थरथराहट, लोच और लचीलापन अर्थात आवाज के लम्स में जो एक तरह का 'प्लूरलिज्म' है वह ( अपेक्षाकृत) उनके गायन में सामाजिक संभावनाओं के लिए पर्याप्त अवकाश देता है। इस संदर्भ में उनकी आवाज की कंपन-थरथराहट और अंतर्मुखता वाले तत्व को उनकी माना जा सकता है। उनकी आवाज में एक हसरत और अरमान भरा दिल है जिसमें अभी अभी मिली आजादी में ख्वाब बुनने की गहरी उत्कंठा है, उत्कट लालसा है, धीरे से एक गुंचे के खिलने की शिष्ट अदा है और है इस स्वप्न के बिखरने-टूटने की बेआवाज सदा-रात ने क्या-क्या खाब दिखाए/ रंग भरे सौ जाल बिछाए/ आंखे खुली तो सपने टूटे / रह गये गम के काले साए- नाउम्मीदी से भरी अकेली उदास शाम और गम के काले साए में एक गहरी विराग से उपजी पुकार। 1964 में बनी, जहांआरा तलत महमूद की लगभग आखिरी फिल्मों में से थी जिसमें मदनमोहन जी की बनाई एक बंदिश थी-फिर वही शाम वही गम वही तन्हाई है / दिल को समझाने तेरी याद चली आई है-पैथॉस से भरा यह गीत जैसे तलत के शेष जीवन और उनकी गायकी का स्थायीभाव बन गया। आसा-आकांक्षा, उम्मीद-नाउम्मीद, खुशी और गमगीनी और राग विराग के, कभी-कभी शोख चटख लिए लेकिन अक्सर बुझे हुए और थके हुए रंगों के रोशन लेकिन कांपते-थरथराते-से स्वरों के ताने-बाने बन-बनकर मिटते हुए दिखाई पड़ते हैं। वस्तुतः उनके गीतों में इस गहरे राग और गहरे विराग या आसक्त-अनासक्त भाव का संबंध इस राजनीतिक-सांस्कृतिक परिदृश्य से जोड़कर देखा जाना चाहिए जिसे हम भारतीय राजनीति में ' नेहरू युग' के नाम से जानते हैं; जैसा कि विश्वनाथ त्रिपाठी जी ने अपने लेख( कथादेश, जुलाई 98) में कहा है।

चौथे दशक में सहगल, के.सी.डे., पहाड़ी सान्याल, पंकज मलिक, कानन बाला, खुर्शीद, शमशाद आदि गायक-गायिकाओं के द्वारा गाए गये फिल्मी और गैर फिल्मी गीतों में प्रेम के सामाजिक संदर्भ और भक्ति संगीत में प्रवाहित भावधारा में लोकवादी पक्ष की ओर उन्मुख होने की आकांक्षा दीख पड़ती है, जिसका स्रोत उत्तरोत्तर सूखता चला गया। ठीक ऐसे समय में ही तलत ने अपनी आवाज में छिपी प्रेम की अनंत छवियों को उकेर कर रूमानियत के प्रचलित सांचे को तोड़ा।न सिर्फ तोड़ा बल्कि अपनी आवाज में छिपे ' अनश्योर' और ' नानकन्फर्म' एलीमेंट से (प्रेमतत्व) राग प्रणालियों का विस्तार किया। उनकी गायन शैली तथा आवाज की संरचना में पुरुष वर्चस्ववादी तत्वों/ अवयवों की गूँज तक नहीं सुनाई पड़ती जबकि सहगल की आवाज या गीतों में चाहे वे भक्तिपरक् हों अथवा रूमान से भरे उनके यहाँ स्वर में एक प्रकार की दृढ़ता, स्थिरता और पुरुष वर्चस्ववादी स्वर में छिपी अपराजेयता की पौरुषमयी अनुगूँज सुनाई पड़ती है। याद कीजिए शाहजहाँ का वह गीत-गम दिए मुस्तकिल/ कितना नाजुक है दिल-जिसमें दिल की शिकस्तगी रूदाद बयान की गयी है, इस आवाज में एक दीवानगी तो दिखाई देती है लेकिन एक तने हुए स्वभाव की कठोर संकुलता भी उसमें से झांकती प्रतीत होती है। इसे कठोरता कहना जरा ज्यादती होगी, यह सहगल की नहीं, उस युग के सामंती अवशेष के वैभव की छटा है, छाया है।

सहगल अपने जमाने के महान गायक थे, इसमें संदेह नहीं। एक अर्थ में सहगल साहब बहुत खुशनसीब थे कि महान गायक होने के साथ-साथ उनके हिस्से में लोकप्रियता भी आई। बाद के जमाने में कुछ ऐसी ही लोकप्रियता रफी और किशोरकुमार को भी हासिल हुई। लेकिन इस मामले में तलत महमूद काफी अलग रहे। उन्हें न तो इतना महान गायक समझा गया और न ही सहगल, रफी, या किशोर कुमार जैसी ' सफलता' अथवा ख्याति मिली। आखिर वह क्या बात थी कि रफी या किशोर के न रहने पर अनवर और मौ. अजीज जैसे कई गायक आए और नकल के चलते रफी को पुनर्जीवित करने में ही अपने को धन्य समझते रहे या विनष्ट करते रहे। ठीक इसी तरह किशोर के संदर्भ में उनके बेटे अमित से अबिजीत और कुमार सानू को भी देखा जा सकता है। लेकिन तलत की खामोशी और उदासी में बसी रागात्मक उदारता और अंतर्मुखता को किसी ने नहीं अपनाया। वह अपने किस्म के अनूठे गायक थे। अपनी मिसाल आप थे, इसी अर्थ में वह बेजोड़ और यहाँ तक कि लासानी थे। जैसा कि अनिल विश्वास ने भी टी.बी. को दिए एक साक्षात्कार में कहा था।

मंगलेश डबराल ने तलत के संदर्भ में बहुत मार्के की टिप्पणी (लगभग स्पृहमीय) करते हुए कहा है-' लियोनार्दो की विश्वविख्यात कृति मोनालिसा दुबारा नहीं बनी हालांकि उसकी विरूपित नकलें बहुत हुईं। फिल्मी और गैर फिल्मी ग़ज़ल गयकी को संगीतप्रेमियों के दिल के बहुत करीब ले आने वाले तलत महमूद की आवाज भी ऐसी ही अद्वितीय कलाकृति की तरह थी जिसकी नकल नहीं की जा सकती थी। मोनालिसा की तरह ही उनकी आवाज खुशी और उदासी, रहस्य और सौंदर्य के ताने-बाने से बुनी हुई थी और उसमें ' एक अरमान भरा दिल' बोलता था। इसमें चमक-दमक, खनक या झंकार-टंकार नहीं थी, बल्कि एक शांति, सोज और एक शराफत थी जो आत्मीय ढंग से श्रोताओं के कान में कोई मर्म भरी बात कहती हुई दिल में बस जाती थी।'

तलत अपने ढंग के अकेले और इस अर्थ में अद्वितीय और बेजोड़ थे कि वास्तव में उनकी बराबरी किसी से नहीं की जा सकती थी। उनके स्वर में निजता और घनत्व और साथ ही स्वर में विराट सत्ता को छू लेने की ललक दिखाई देती है-इस अर्थ में वह अतुलनीय थे। उनकी आवाज सबसे ज्यादा दिलीप कुमार पर फबती थी। अकारण नहीं है कि अभिनय के क्षेत्र में सबसे ज्यादा जिस अभिनेता के मानसिक और आंतरिक अभिनयगत मूल्यों और कसौटी को उकेरने की क्षमता के साथ-साथ उसे स्वर में मूर्त अथवा रूपायित करने की सामर्थ्य तलत की आवाज में थी ---वह थे ट्रेजेडी किंग दिलीप कुमार। मैं समझता हूँ, इसका कारण दिलीप कुमार के अभिनय में परंपराबद्ध सांचों को तोड़ने वाली चिंतन परकता, कम-कम खिलने वाली अंतर्मुखता और संपूर्ण व्यक्तित्व में निजता का आग्रह जो दिखाई पड़ता है ---ये ही समानताएँ यानी चिंतनपरकता में लिपटी झीनी रूमानियत (जिसमें उदासी भी शामिल है), लाउडनैस और उत्सव-धर्मिता के स्थान पर अंतर्मुखता और आवाज में लहरीली लरज की आवेगमयी बेटूट स्पंदन की निजता-तीनों ऐसी खूबियां थीं जिन्हें कमोबेश रूप से दिलीप की अबिनय शैली में अद्भुत रूप से लक्ष्य किया जा सकता है। फिल्म आरजू का ए दिल मुझे ऐसी जगह ले चल जहाँ कोई न हो (संगीतकारः अनिल विश्वास), संगदिल फिल्म का ये हवा ये रात ये चांदनी ( संगीतकारः सज्जाद) फुटपाथ का शामे-गम की कसम / आज गमगीं हैं हम ( संगीतकारःखय्याम) और देवदास का मितवा लागी रे ये कैसी ( संगीतकारः एस.डी. बर्मन) जैसे सभी गीत पर्दे पर दिलीप कुमार पर फिल्माए गए , जिनमें अबिनय और आवाज की दुनिया के संयुक्त अर्थ-संदर्भ अद्भुत रूप में एक दूसरे के पर्याय हो गए जान पड़ते हैं। इस संदर्भ में दिलीप कुमार की ' ट्रेजेडी किंग' की इमेज बनने में आरजू ( अनिल विश्वास), बाबुल (नौशाद) और दाग (शंकर जयकिशन) जैसी फिल्मों में तलत के स्वर की गुणवता का योगदान कम नहीं माना जाना चाहिए।

राजकपूर के लिए जैसे मुकेश और देवानंद के लिए जैसे किशोर थे, वैसे ही एक समय तक दिलीप के लिए तलत महमूद रहे। याद कीजिए देवदास का वह गीत जिसमें दिलीप व्यग्रता और चेहरे पर उद्विग्न भाव लिए नदी के किनारे पानी से लगी सीढ़ियों पर जा बैठे हैं और अनायास जैसे होठों पर बोल फूटते हैं-मितवा लागी रे ये कैसी अनबुझ आग। बर्मन दादा का स्वर बद्ध किया यह गीत एक तरफ और दूसरे तमाम गीत एक तरफ। सवसे अलग यह गीत, अपनी अदायगी और कांपती थरथराहट में स्वर संतुलन को जिस आश्चर्य जनक ढंग से साधा गया है, आत्म -विभोरता को, सिहरते कंप स्पंदन को मुक्त कंप मगर सभी चाप से गीत में जो भाव पैदा हो गया है , वह चिर विस्मरणीय है। और तलत के साथ-साथ इसमें एस.डी. बर्मन का योगदान भी कुछ कम नहीं है। तलत के गाए ऐसे ही कुछ गीत न केवल उनके अपने लिए, बल्कि उनके समकालीन गायकों के लिए चुनौती भरे गीत कहे जा सकते हैं।

कहने की आवश्यकता नहीं कि चर्चित फिल्मी गीतों के अलावा उनके हकीकत ( उसने घबरा के नजर लाख बचाई होगी) सुशीला ( गम की अंधेरी रात में ) या आदमी फिल्म के 'मेल ड्एट' कितनी हसीन रात...जैसे गीत भी अपना अलग मुकाम रखते हैं। या मजरूह का लिखा और तलत का वह गीत-आँसू तो नहीं आँखों में, पहलू में मगर दिल जलता है या कुछ गैर फिल्मी गीत मैं दुख की रात हूँ ऐसी सवेरा दूर है जिसका, चुपचाप अकेला छिप-छिपकर मैं गीत किसी के गाता हूँ या गई बहारें फिर से आ गईं जैसे नग्मे या फय्याज हाशमी और शकील की गैर फिल्मी गजलें या फिर लोकधुनों की तीखी महक लिए गीत जिनमें भोजपुरी फिल्म गंगा मैया तोहे पियरी चढ़इबो के गीत उल्लेखनीय हैं।

हमारे स्वभाव और आचरण का ही नहीं, जातीय इतिहास और जातीय स्मृति का भी गहरा संबंध ( और भौगोलिक स्थितियों का तो सीधा-सीधा होता ही है) हमारी आवाज, स्वर-संरचना और उसमें समा सकने वाले शिल्प में भी निहित/व्याप्त रहता है। तलत की आवाज से उनके स्वभाव के भीतरी संसार को छुआ जा सकता था, जिसमें अपनों से भी अपनों का स्पर्श, सोज के साथ-साथ साज की सी नग्मगी थी। उसमें शर्माती हुई शोखियाँ थीं, एक अंतर्मुखता और निजता का पहरा उनकी आवाज के आलोक से झरता था। तलत के गाए हुए गीतों को सुनने के बाद लगता है, सोचते-सोचते कहीं खो गई आँखों (पुतलियों) की आवाज है। कभी-कभी सोच में डूबी हुई आवाज। मानो स्मृति में सजलता और ऐसी स्वप्निलता जो धारण करने वाली आँख में समाना चाहती है। उनका गाना जैसे एक सोचता हुआ निजत्व का राग, अँतःसलिला से फूटता हुआ बहुत निजत्व से भरा राग जिसके पार कहीं गहरे तल में चिराग की छायाएँ सो गई हैं। लेकिन निजता के इस राग में जन-जन की संस्कृति की व्याप्ति और स्वर में अविष्ट करने की अद्भुत क्षमता है।

इस कांपती-थरथराती आवाज को बहुत-से लोगों ने नापसंद भी किया। बहुत से लोगों का यह भी मानना है कि वे बहुत बड़ी 'रेंज' के गायक नहीं थे। लेकिन जिस कंपन या थरथराहट को लोग नुक्स या ऐब समझते रहे, तलत के लिए वही 'ऐब' हुनर बन गया।

तलत का स्वर जैसे प्रेम में फूल-से आघात-व्याघात से देर तक कांपती कोई पत्ती थिर होने के पहले लय के सांचे में कैद कर ली जाए।...तलत की आवाज जैसे शांत, निश्चल प्रेम की नदी में उच्छ्वास से भरे देह-मन में उठी लहरों पर तैरता बजरा। उनकी गायकी को सुनकर कभी बिंब उपस्थित होता है-एक सूनी नाव का। और कभी-कभी उदासी और गम के भंवर में घिरा, रात के अँधेरे गहन अँधकार में कांपती दिए की टिमटिमाती लौ-सा करुण स्वर जो स्मृति की लकीर-सा अदृश्य में भी दृश्यमान बना रहता है।

फूहड़ लात-घूंसों से ऐसी तैसी करने वाली हुल्लड़ फिल्मी संस्कृति और मसखरेपन की संस्कृति में और और नायक-खलनायक में भेद मिटाती उच्चकों की फिल्मी संस्कृति में, विज्ञापन से भरी अपना माल बेचने की आत्मघाती संस्कृति में, निजता से अभिभूत करने वाली यह आवाज खामोश कर दी गई-इससे बड़ा दुर्भाग्य और बदनसीबी क्या होगी?

तलत महमूद परंपरा से चली आ रही प्रबल और साथ ही प्रचलित ' नाद-धाराओं' का अतिक्रमण करने वाले गायक थे। यह अतिक्रमण फिल्मों में पार्श्व गायन से पहले या बाद में चाहे आवाज की बनावट से तालुक रखता हो या अंदाज (शैली की संस्कृति) से। गायकी में तलत की अंतर्मुखता और थरथराती-कांपती-लरजती आवाज ने ' पैथास' को एक नयी भाषा, नयी रंगत दी, वह एक नया सौंदर्यशास्त्र रचने की ओर बढ़ती है। उनकी गायकी और आवाज में 'पैथास' का ऐसा रंग है जिसे केवल 'रोमांटिक' कहना से सीमित या ' रिड्यूस' करके देखना होगा। दरअसल वह रोमानी तत्वों के प्रचलित मुहावरे व अर्थ संदर्भ से हटकर रोमांटिसिज्म का भी न सिर्फ अतिक्रमण करती है बल्कि बिना दावों के उनका विस्तार भी करती जान पड़ती है और अतिक्रमण में गायकी के स्तर पर स्वरगत अनुदारता या उग्रता देखने को नहीं मिलती। सहगल और तलत को आमने-सामने रखने पर बहुत साफ दीख पड़ता है कि दोनों की आवाज और अंदाज की संस्कृति में जो ' टोटल टेंपरामेंट है ' उसमें काफी दूर तक परस्पर एक प्रतिलोम संसार की सृष्टि झलकती है। इसे दूसरे शब्दों में गायन की एक ' एक दुनिया समानांतर' भी कहा जा सकता है।

तलत महमूद के गीतों में ' प्रेम की पीर' की मर्मभरी अभिव्यक्ति हुई है। उसमें जीने की हसरत और मरने का अरमान है। कहीं-कहीं शोख लेकिन अक्सर सांझ, स्वप्न और स्मृति के रंग उनकी गायकी के ताने-बाने का विवर्ण, एक गहरे अवसाद से भरा , सूने आकाश का बुझ गयी आकांक्षा का लोक है। लेकिन आकांक्षा के इस लोक में अतिनाटकीयता के स्थान पर सहजता और अंतर्मुखता, आयासजन्यता से कोसों दूर एक स्वतःस्फूर्त प्रयास और लहरों का न टूटने वाला सातत्व दिखाई पड़ता है।

' लाउडनेस' के स्थान पर एक लयबद्ध खामोशी; स्थूल और सस्ती भावुकता के स्थान पर गहरी आत्मीयता का विस्तार दिखाई पड़ता है। तलत साहब को कभी बहुत ध्यान से सुनने पर लगता है, उनकी आवाज और उनकी गायकी में जैसे चिन्तन की लहरें हैं। लेकिन अपने स्वभाव की शालीनता और सरलता और एक शिल्पगत सादगी के चलते चिंतन से भरी ये लहरें अपनी जटिलता का एहसास नहीं होने देतीं। सचमुच वह प्रेम के अमर गायक थे। उनकी स्मृति में इक़बाल का यह शेर कौंधता है-

मुहब्बत के लिए कुछ खास दिल मख़सूस होते हैं

ये वो नग़्मा है जो हर साज़ पे गाया नहीं जाता।
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चांद परियां और तितली

चार बाल गीत
-शैल अग्रवाल




1)
नीले आकाश तले

तारों की ठंडी छांव में

तोता मैना उड़ते फिरे

लम्बी उस उड़ान में

तोते ने गाया एक गीत

मैना, ओ प्यारी मैना

कितनी सुन्दर  हो

तुम मेरी मीत।।








2)
तुनतुन तुक तुनतुन तारा

गीत सुनाए यही एकतारा

सच्चे ने जग जीता

झूठे का मुंह काला

तुनतुन तुक तुनतुन तारा

गीत सुनाए यही एकतारा

जिसकी मीठी बोली

दुनिया उसकी ही हो ली

तुनतुन तुक तुनतुन तारा

गीत सुनाए यही एकतारा

रोता सब कुछ खोता

हंसते का जग होता।।







3)
झिलमिल झिलमिल प्यारे
नभ पर फैले  जो सारे
हीरे से जगमग हैं तारे

मुन्ने ने देखा और सोचा
रोज रात कहां से आ जाते
नभ पर चढ़े  मुझे लुभाते

कैसे मैं इनसे झोली भर लाऊँ
पहले सबको मनचाहा बांटूँ 
फिर मम्मी की साड़ी पर कुछ 
कुछ पर्स पर, और  कुछ
अपने बालों पर टांकू।।








4)
एक दो तीन चार

गिनती कितनी करो विचार

पांच छह सात और आठ

खूब बनाए अपने ठाठ

नौ और दस को ले के संग

दौड़े दौड़े चढ गए बस

घूमेंगे अब फिर शहर-शहर।।

लड़की माचिस वाली

 -हान्स क्रिस्चियन अन्दर्सन

(रूपान्तरः सुरेश चन्द शुक्ल ' शरद आलोक ')

    
बाहर बहुत सर्दी पड़ रही थी। बर्फ गिर रही थी। वह लड़की नंगे पांवों और नंगे सर थी। वह चप्पलें पहन कर चली थी, पर वह चप्पल उसके पांवों के हिसाब से बहुत बड़ी थी। इतनी बड़ी थी चप्पलें कि उसकी मां उन्हें मरने के कुछ दिन पहले तक पहनती थी। जब वह सड़क पार कर रही थी तो एक चप्पल उसके पांव से उतर गयी। जब वह चप्पल ढूंढने लगी तो पहली चप्पल तो उसे मिल गयी। परन्तु दूसरी चप्पल जो उसने उतार कर रख दी थी उसे एक लड़का लेकर भाग गया।

         वह अब नंगे पांवों जा रही थी। उसके पांव ठंड के मारे लाल हो गये थे। उसकी जेबों में बहुत सी माचिस की तीलियां पड़ी हुई थीं। उसने अपने हाथ में एक छोटी सी गठरी पकड़ रखी थी। गठरी में बहुत सी माचिसें थी। आज तो उससे किसी ने भी माचिस नहीं खरीदी थी। आज उसे किसी ने एक पैसा भी नहीं दिया था। भूख और ठंडक से कांपती हुई दुःखी लड़की चली जा रही थी। उसकी इच्छा थी कि कोई आये और उससे माचिस खरीदे और उसे कुछ पैसे दे जाये। बहुत सी बरफ (तुहिन कण) उसके रेशमी, घुंघराले, सुनहरे बालों पर पड़ रही थी। हर खिड़की से प्रकाश दिखाई दे रहा था।

एक स्थान पर दो घरों की दीवारों के मध्य छोटी सी जगह थी। वहां जाकर वह लड़की अपने आप को सिकोड़ कर बैठ गयी। उसने अपने फ्राक से अपने पैर छिपा लिए थे। फिर भी उसे ठंडक लग रही थी। घर वापस जाने की उसकी हिम्मत न पड़ रही थी। क्योंकि आज उसने एक भी माचिस नहीं बेची थी। एक भी पैसा उसके पास नहीं था। उसे मालूम था खाली हाथ वापस लौटने का मतलब था मार। उसके घर पर भी इतनी गर्मी नहीं थी। घर पर जगह-जगह पर सूराख थे जिससे सर्द हवा आ जाती थी।

उसके हाथ सर्दी के कारण लाल और नीले हो गये थे। " ओह " लड़की ने सोचा, " अगर माचिस जलाने की कोशिश करूँ तो मैं अपने आप को थोड़ा गर्म कर सकती हूँ। माचिस की एक तीली निकालूं और उसे दीवार पर रगड़ूं और माचिस की तीली देर तक जले।"

लड़की ने माचिस निकाली और दीवार से लगाकर रगड़ लगाई।  

"च-चस-स" करके माचिस जल गयी। उसने अपने दूसरे हाथ से तीली को ढक लिया ताकि ताली देर तक जलती रहे। उसे ऐसा लग रहा था कि वह एक अँगीठी के पास बैठी है।

वह अपने हाथ सेक रही थी। जैसे ही उसने पैर सेकने के लिए आगे बढ़ाये अचानक उसके सामने सभी कुछ ओझल हो गया। उसके हाथ में खाली (जली) माचिस थी।

काश यह माचिस किसी ने खरीदी होती तो उसकी भूख कम हो जाती। उसने एक नई माचिस की तीली ली और धीरे से जला दिया। यह क्या? उसके सामने सभी कुछ बदला हुआ था। उसके सामने एक मेज थी जो बहुत अच्छी तरह से सजी हुई थी। उस मेज पर तरह-तरह के पकवान रखे हुए थे। अचानक कुछ पकवान उसकी ओर उड़कर आने लगे। जैसे ही उसने उनमें से एक पकवान को छूना चाहा वैसे ही माचिस की तीली बुझ गयी। वह पुनः पुरानी जगह पर आ गयी थी।

उसने एक माचिस की तीली और जलाई। यह क्या है ? " यह कभी सच नहीं हो सकता" लड़की बुदबुदाई। उसके सामने उसकी मरी हुई नानी खड़ी हुई थी। " नानी, ओ नानी! तुम कहीं मत जाना। मुझे अपने साथ ले चलो। मुझे पता है कि तुम माचिस के बुझते ही गायब हो जाओगी।" लड़की ने कहा और उसने एक-एक करके सभी माचिसें जलाना आरम्भ कर दी। फिर उसकी नानी ने उसे गोद में उठाया और दोनों बहुत दूर तक उड़ते चले गये। जब दूसरे दिन सबेरा हुआ तो लड़की वहां पर बैठी हुयी थी। उसकी आँखें बन्द थी।

चेहरे पर हल्की मुस्कान थी। चारो तरफ जली माचिस की तीलियां पड़ी हुई थी। अब लड़की मर चुकी थी। जो कोई भी उसे देखता तो यह कहता कि बेचारी ठंडक के कारण मर गयी होगी। किसी को नहीं पता था कि क्या हुआ था।





                   







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