शुक्रवार, 30 अक्टूबर 2015

रागिनी नायक दादा लखमी चंद के दोहे

 

 

 

 

 

राजकवि दादा लखमी चन्द जी की कविताएं


Lakhmi Chand - The Great poet of Haryana

Contents

About the author

Lakhmi Chand was born in ‘Janti’ जांटी village in Sonepat district of Haryana. River Yamuna is a few kilometers from this village but in the first decade of 1900 A.D., the village used to be on Yamuna’s banks. The river has now changed its streams a few kilometers away, towards Uttar Pradesh. Lakhmi Chand was a Brahmin and had the exceptional qualities of a poet. In the decades of 1940s and 1950s, he became famous because of his folk dramas called “Saang”.

The biography of Lakhmi Chand can be read in the book “Kavi Surya Lakhmi Chand” written by Shri K.C. Sharma. The earlier work of the author was ‘‘Haryana Ke Kavi Surya Lakhmi Chand’’ which was written in 1982 and the author was honoured with Haryana Hindi Sahitya Akademi Award for this creative work.

Popularly known as “Dada Lakhmi Chand”, he was a man of all ages and he ranked among the rarest of the rare. People of north India in general and Haryana in particular, would always be indebted to him for his contribution to the tradition of ‘‘saang’’ सांग, narration of spiritual themes and communication of social virtues.

Some of the famous ‘Raagnis’ of Lakhmi Chand can be read here.

राजकवि दादा लखमी चन्द जी की कविताएं

कलियुग

(राजकवि दादा लखमी चन्द जी)

(कुछ * वाले शब्दों के अर्थ अंत में दिए गए हैं)
समद ऋषि जी ज्ञानी हो-गे जिसनै वेद विचारा ।
वेदव्यास जी कळूकाल* का हाल लिखण लागे सारा ॥ टेक ॥

एक बाप के नौ-नौ बेटे, ना पेट भरण पावैगा -

बीर-मरद हों न्यारे-न्यारे, इसा बखत आवैगा ।
घर-घर में होंगे पंचायती, कौन किसनै समझावैगा -
मनुष्य-मात्र का धर्म छोड़-कै, धन जोड़ा चाहवैगा ।

कड़ कै न्यौळी बांध मरैंगे, मांग्या मिलै ना उधारा* ॥1॥

वेदव्यास जी कळूकाल का हाल लिखण लागे सारा ।

लोभ के कारण बल घट ज्यांगे*, पाप की जीत रहैगी -

भाई-भाण का चलै मुकदमा, बिगड़ी नीत रहैगी ।
कोए मिलै ना यार जगत मैं, ना सच्ची प्रीत रहैगी -
भाई नै भाई मारैगा, ना कुल की रीत रहैगी ।

बीर नौकरी करया करैंगी, फिर भी नहीं गुजारा ॥2॥

वेदव्यास जी कळूकाल का हाल लिखण लागे सारा ।

सारे कै प्रकाश कळू का, ना कच्चा घर पावैगा* -

वेद शास्त्र उपनिषदां नै ना जाणनियां पावैगा ।
गऊ लोप हो ज्यांगी दुनियां में, ना पाळनियां पावैगा -
मदिरा-मास नशे का सेवन, इसा बखत आवैगा ।

संध्या-तर्पण हवन छूट ज्यां, और वस्तु* जांगी बाराह ॥3॥

वेदव्यास जी कळूकाल का हाल लिखण लागे सारा ।

कहै लखमीचंद छत्रापण* जा-गा, नीच का राज रहैगा -

हीजड़े मिनिस्टर बण्या करैंगे, बीर कै ताज रहैगा ।
दखलंदाजी और रिश्वतखोरी सब बे-अंदाज रहैगा -
भाई नै तै भाई मारैगा, ना न्याय-इलाज रहैगा ।

बीर उघाड़ै सिर हांडैंगी, जिन-पै दल खप-गे थे अठाराह* ॥4॥

वेदव्यास जी कळूकाल का हाल लिखण लागे सारा ।


कळूकाल = कलियुग

कड़ कै न्यौळी बांध मरैंगे, मांग्या मिलै ना उधारा = लोग कमर में या जेब में पैसा बांधे रखेंगे, फिर भी मांगने पर या उधार में पैसा नहीं मिलेगा ।
लोभ के कारण बल घट ज्यांगे = घी-दूध आदि महंगा हो जायेगा, लोग लोभ में आकर इसे खरीद नहीं पायेंगे और उनका शारीरिक बल घटता जायेगा ।
सारे कै प्रकाश कळू का, ना कच्चा घर पावैगा = कलियुग में सब जगह (बिजली का) उजाला रहेगा और सब मकान पक्के होंगे ।
वस्तु जांगी बाराह = सोना, चांदी, तांबा आदि बारह धातु (वस्तु) गायब हो जायेंगी ।
छत्रापण जा-गा = क्षत्रियपन मिट जायेगा
जिन-पै दल खप-गे थे अठाराह = द्रोपदी के चीरहरण के कारण महाभारत हुआ था जिसमें कुल 18 सेनाऐं खत्म हो गईं थीं (कौरवों के पास 11 अक्षौहिणी सेना थी और पांडवों के पास 7) ।



कहते हैं कि युधिष्ठिर के पोते परीक्षित के बाद कलियुग आरंभ हो गया था । प्रस्तुत है परीक्षित और कलियुग की बातचीत (दादा लखमीचंद की वाणी से)

कलियुग बोल्या परीक्षित ताहीं, मेरा ओसरा आया ।

अपने रहण की खातिर मन्नै इसा गजट बणाया॥

सोने कै काई ला दूंगा, आंच साच पै कर दूंगा -

वेद-शास्त्र उपनिषदां नै मैं सतयुग खातिर धर दूंगा ।
असली माणस छोडूं कोन्या, सारे गुंडे भर दूंगा -
साच बोलणियां माणस की मैं रे-रे-माटी कर दूंगा ।

धड़ तैं सीस कतर दूंगा, मेरे सिर पै छत्र-छाया ।

अपने रहण की खातिर मन्नै इसा गजट बणाया ॥

मेरे राज मैं मौज करैंगे ठग डाकू चोर लुटेरे -

ले-कै दें ना, कर-कै खां ना, ऐसे सेवक मेरे ।
सही माणस कदे ना पावै, कर दूं ऊजड़-डेरे -
पापी माणस की अर्थी पै जावैंगे फूल बिखेरे ॥

ऐसे चक्कर चालैं मेरे मैं कर दूं मन का चाहया ।

अपने रहण की खातिर मन्नै इसा गजट बणाया ॥


जीवन की रेल

मनुष्य का शरीर अस्थाई है । पुनर्जन्म द्वारा मानव की आत्मा नया शरीर धारण करती रहती है । इसी को विस्तार से समझाने के लिए प्रस्तुत है दादा लखमीचंद की यह रागनी जो एक रेलगाड़ी के रूप में कल्पित की गई है। कुछ * लगे हुए शब्दों के अर्थ अंत में लिखे हैं, उन्हें पढना मत भूलना, नहीं तो शायद यह रागनी समझ में नहीं आयेगी ।

हो-ग्या इंजन* फेल चालण तैं, घंटे बंद, घडी रह-गी ।
छोड़ ड्राइवर* चल्या गया, टेशन पै रेल* खड़ी रह-गी ॥टेक॥

भर टी-टी* का भेष रेल में बैठ वे कुफिया काल गये -

बंद हो-गी रफ्तार चलण तैं, पुर्जे सारे हाल गये ।
पांच ठगां* नै गोझ काट ली, डूब-डूब धन-माल गये -
बानवें करोड़ मुसाफिर* थे, वे अपना सफर संभाल गये ॥1॥

ऊठ-ऊठ कै चले गए, सब खाली सीट पड़ी रह-गी ।

छोड़ ड्राइवर चल्या गया, टेशन पै रेल खड़ी रह-गी ॥

टी-टी, गार्ड और ड्राइवर अपनी ड्यूटी त्याग गए -

जळ-ग्या सारा तेल खतम हो, कोयला पाणी आग गए ।
पंखा फिरणा बंद हो-ग्या, बुझ लट्टू गैस चिराग गए -
पच्चीस पंच* रेल मैं ढूंढण एक नै एक लाग गए ॥2॥

वे भी डर तैं भाग गए, कोए झांखी खुली भिड़ी रह-गी ।

छोड़ ड्राइवर चल्या गया, टेशन पै रेल खड़ी रह-गी ॥

कल-पुर्जे सब जाम हुए भई, टूटी कै कोए बूटी* ना -

बहत्तर गाडी* खड़ी लाइन मैं, कील-कुहाड़ी टूटी ना ।
तीन-सौ-साठ लाकडी* लागी, अलग हुई कोई फूटी ना -
एक शख्स* बिन रेल तेरी की, पाई* तक भी ऊठी ना ॥3॥

एक चीज तेरी टूटी ना, सब ठौड़-की-ठौड़ जुड़ी रह-गी ।

छोड़ ड्राइवर चल्या गया, टेशन पै रेल खड़ी रह-गी ॥

भरी पाप की रेल अड़ी तेरी पर्वत पहाड़ पाळ आगै -

धर्म-लाइन गई टूट तेरी नदिया नहर खाळ आगै ।
चमन चिमनी का लैंप बुझ-ग्या आंधी हवा बाळ आगै -
किन्डम हो गई रेल तेरी जंक्शन जगत जाळ आगै ॥4॥

कहै लखमीचंद काळ आगै बता किसकी आण अड़ी रहैगी* ?

छोड़ ड्राइवर चल्या गया, टेशन पै रेल खड़ी रह-गी ॥

इंजन - मनुष्य का दिल
ड्राइवर - आत्मा
रेल - मानव शरीर
भर टी-टी का भेष - टी-टी के वेश में यमदूत
बानवें करोड़ मुसाफिर - सांसों की संभावित गिनती
पच्चीस पंच - घरवाले और नजदीकी रिश्तेदार
पांच ठग - पंचभूत, जिनसे शरीर बना है (पृथ्वी, वायु, आकाश, जल, अग्नि)
बूटी - दवाई/ इलाज
बहत्तर गाडी - एक मिनट में नाड़ी या दिल की धड़कनों की गिनती
तीन-सौ-साठ लाकडी - शरीर की हड्डियां
पाई - पैसा, मोल
एक शख्स - आत्मा
काळ आगै बता किसकी आण अड़ी रहैगी - काल के सामने भला किसकी आन (शान) अड़ सकती है?


शेर और गाय का संवाद

एक पिता है , हेरे फ़िर तुझे कैसे ज्ञान नही !
अधर्म करके जीना चाहता , राजधर्म का ध्यान नही
मोंत भूख का एक पिता है , फ़िर तुझे कैसे ज्ञान नही
अधर्म करके जीना चाहता , राज धर्म का ध्यान नही !


इस सुंदर रचना को पंडित जी ने इस मार्मिक दृष्टान्त की सहायता से समझाने का पर्यास किया है:
एक मालिक के घर पर एक गऊ अपाहिज हो जाती है !मालिक ने गऊ को घर से निकल दिया !
गऊ दूर जंगल में जाकर अपना पेट गुजरा करती है ! परमात्मा की कृपा से उसका एक सांड से मिलन हो जाता है ! सांड के मिलने से उसका काफी परिवार हुआ ! दिन बितते चले जाते हैं ! एक बार परिवार की सभी सदय्स्या गउएँ मिलकर कहती है , हे माँ इस हद से पार , खाई के परली( दूसरी ) तरफ़ काफी लम्बी २ घास उगी है , सहज ही पेट भर जाता है !वह लंगडी गाय उनके साथ चली जाती है !भगवान् की ऐसी निगाह फिरि , एक शेर का आना हो जाता है !शेर के दहाड़ने से सभी गउएँ भाग जाती हैं !वह लंगडी गऊ अकेली रह जाती है ! शेर उसे दबोच लेता ! वह दुआएं करती है ! रे भाई मेरा एक छोटा बच्चा है , में उसको दूध पिला के तेरे समक्ष आजाउंगी ! शेर ने उसको छोड़ दिया!
उसने अपने बच्चे को दूध पिलाया, मन को संतोष मिला शान्ति मिली! और फ़िर अपन वचन पुरा करती हुई उसके सामने आकर खड़ी हो जाती है जब वह गऊ को मारने के लिए झपटा , वह कहती है, " रे पापी ये बता मुझे क्यों मारना चाहता है ? वह कहता है मुझे भूख लगी है और यदि भूख को ना मेटा जाए तो आत्मा को ठेस लगती है ! आत्मा मुसने से फ़िर कुछ नही रहता ! गऊ कहती है , रे पापी मुझे मेरी मोंत दिखाई देती है !क्या मेरी आत्मा नही मुसती ?
तेरी भी आत्मा मुसती है !
भूख लगने से भी आत्मा मुसती है , मोत दिखने से भी आत्मा मुसती है !
दोनों का एक ही जगह से जन्म हुआ है , कुछ ज्ञान कर, ज्ञान क बिना तू अधुरा है !
ज्ञान के बिना तुझे सुख नही मिल सकता , मोक्ष नही मिल सकता ! वह लंगडी गऊ उस शेर को ज्ञान देती है!
क्या भला ?

अरे ज्ञान बिना संसार दुखी, ज्ञान बिना दुःख सुख खेणा,
ज्ञान से ऋषि तपस्या करते , जो तुझको पड़ा पड़ा सहणा !
ज्ञान से कार व्यवहार चालते, साहूकार से ऋण लेना !
ज्ञान से प्रजा का पालन करके, ब्याज मूल सब दे देना !
अरे ले कर्जा कोए मार किसे का , जो रहती ये सच्ची शान नही !
अधर्म करके जीना ......

एक सत्यकाम ने गुरु की गउओं को इतने दिन तक चरा दिया,
जहाँ गई वो साथ गया , उसने प्रेम से उदर भरा दिया!
सत्यकाम ने गुरु के वचन को धर्मनाव पर तिरा दिया,
फ़िर से बात सुनी सांड की यम् का दर्शन करा दिया!
ज्ञानी पुरूष कोण कहे , पशुओं में भी भगवान् नही !
अधर्म करके जीना .

होए ज्ञान के कारण पृथ्वी ,जल ,वायु , तेज , आकाश खड़े :
ज्ञान के कारण सो कोस परे , ज्ञान के कारण पास खड़े ! ज्ञान के कारण ऋषि तपस्या करते , बन इश्वर के दास खड़े ,
मुझ को मोक्ष मिले होण ने, न्यू करके पूरी आस खड़े
जान जाओ पर रहो धर्म पे , इस देह का मान गुमान नही !
अधर्म करके जीना ..........

फेर अंत में क्या कहती है भला:
ज्ञान बिना मेरी टांग टूटगी , ज्ञान बिना कूदी खाई !
ज्ञान बिना में लंगडी होगी , ज्ञान बिना बुड्ढी ब्याई !
ज्ञान बिना तू मुझको खाता, कुछ मन में ध्यान करो भाई !
लख्मीचंद कह क्यों भूल गए सब, धर्म शरण की यो राही!
इस निराकार का बच्चा बन ज्या, क्यों कह मेरे में भगवान् नही !
अधर्म करके जीना चाहता , राजधर्म का ध्यान नही !
मोंत भूख का एक पिता है , फ़िर तुझे कैसे ज्ञान नही
अधर्म करके जीना चाहता , राज धर्म का ध्यान नही
आप सभी यू ट्यूब पर इस सुंदर रागनी की विडियो का भी लुत्फ उठा सकते हैं :
http://au.youtube.com/watch?v=83vaB9Er91E




जन्म-मरण

लाख-चौरासी खतम हुई बीत कल्प-युग चार गए ।
नाक में दम आ लिया, हम मरते-मरते हार गए ॥टेक॥

बहुत सी मां का दूध पिया पर आज म्हारै याद नहीं -

बहुत से भाई-बहन हुए, पर एक अंक दर याद नही ।
बहुत सी संतान पैदा की, पर गए उनकी मर्याद नहीं -
बहुत पिताओं से पैदा हुए, पर उनका घर भी याद नहीं ॥1॥

शुभ-अशुभ कर्म करे जग में, स्वर्ग-नरक कई बार गए ।

नाक में दम आ लिया, हम मरते-मरते हार गए ॥

कहीं लिपटे रहे जेर में अपने कर्म करीने से -

कहीं अंडों में बंद रहे कहीं पैदा हुए पसीने से ।
कहीं डूबे रहे जल में, कहीं उम्र कटी जल पीने से -
फिर भी कर्म हाथ नहीं आया, मौत भली इस जीने से ॥2॥

कभी आर और कभी पार, डूब फिर से मंझधार गए ।

नाक में दम आ लिया, हम मरते-मरते हार गए ॥

कभी तो मूल फूल में रम-ग्या, कभी हर्ष का स्योग लिया -

कभी निर्बलता कभी प्रबलता, कभी रोगी बण-कै रोग लिया ।
कभी नृपत कभी छत्रधारी, कभी जोगी बण-कै जोग लिया -
भोग भोगने आये थे, उन भोगों ने हमको भोग लिया ॥3॥

बड़े-बड़े योगी इस दुनियां में सोच-समझ सिर मार गए ।

नाक में दम आ लिया, हम मरते-मरते हार गए ॥

आशा, तृष्णा और ईर्ष्या होनी चाहियें रस-रस में -

वो तो बस में हुई नहीं, हम हो गए उनके यश में ।
न्यूं सोचूं था काम-क्रोध नै मार गिरा दूं गर्दिश में -
काम-क्रोध तै मरे नहीं, हम हो गए उनके बस में ॥4॥

इतनी कहै-कै लखमीचंद भी मरे नहीं, दड़ मार गए ।

नाक में दम आ लिया, हम मरते-मरते हार गए ॥


चिड़िया के बच्चे

एक चिड़िया के दो बच्चे थे , वे दूजी चीड़ी ने मार दिए !
मैं मर गयी तो मेरे बच्चों ने मत ना दुःख भरतार दिए !!

एक चिड़े की चिड़िया मरगी, दूजी लाया ब्या के !!

देख सोंप के बच्चों ने , वा बैठ गयी गम खा के !!
चिड़ा घर ते चला गया , फेर समझा और बुझा के !!
उस पापन ने वो दोनों बच्चे , तले गेर दिए ठा के !!
चोंच मार के घायल कर दिए , चिड़िया ने जुलम गुजार दिए !!

एक चिड़िया के दो बच्चे थे , वे दूजी चीड़ी ने मार दिए !

मैं मर गयी तो मेरे बच्चों ने मत ना दुःख भरतार दिए !!

मैं मर जा तो मेरे पिया तू , दूजा ब्या करवायिए ना !!

चाहे इन्दर की हूर मिले , पर बीर दूसरी लाईये ना !!
दो बेटे तेरे दिए राम ने , और तन्नै कुछ चायिए ना !!
रूप - बसंत की जोड़ी ने तू , कदे भी धमकायिये ना !!
उढ़ा पराह और नुहा धूवा के , कर उनका श्रृंगार दिए !!
एक चिड़िया के दो बच्चे थे , वे दूजी चीड़ी ने मार दिए !
मैं मर गयी तो मेरे बच्चों ने मत ना दुःख भरतार दिए !!

याणे से की माँ मर जावे , धक्के खाते फिरा करे !!

कोई घुड़का दे कोई धमका दे , दुःख विपदा में घिरा करे !!
नों करोड़ का लाल रेत में , बिन जोहरी के ज़रा करे !!
पाप की नैया अधम डूब जा , धर्म के बेड़े तिरा करे !!
मरी हुई ने मन्ने याद करे तो , ला छाती के पुचकार दिए !!
एक चिड़िया के दो बच्चे थे , वे दूजी चीड़ी ने मार दिए !
मैं मर गयी तो मेरे बच्चों ने मत ना दुःख भरतार दिए !!

मेरा फ़र्ज़ से समझावन का ,ना चलती तदबीर पिया !!

रोया भी ना जाता मेरे , गया सुख नैन का नीर पिया !!
मेरी करनी मेरे आगे आगी , आगे तेरी तक़दीर पिया !!
लख्मीचंद तू मान कहे की , आ लिया समय आखिर पिया !!
मांगे राम ते इतनी कह के , रानी ने पैर पसार दिए !!

एक चिड़िया के दो बच्चे थे , वे दूजी चीड़ी ने मार दिए !

मैं मर गयी तो मेरे बच्चों ने मत ना दुःख भरतार दिए !!

नृत्य कला

नाचने-गाने का और लखमीचंद के सांगों का विरोध भी बहुत होता था, क्योंकि उन दिनों में आर्यसमाज का प्रभाव बहुत बढ़ गया था । आत्मविश्वासी पंडित जी ने विरोधों का जमकर मुकाबला किया । पुरुषों द्वारा स्त्रियों का भेष धारण करने की सफाई देते थे : इन मर्दों का के दोष भला धारण में भेष जनाना । इस बारे में उनकी यह रागनी पेश है :

लाख चौरासी जीया जून में नाचै दुनियां सारी
नाचण मैं के दोष बता या अक्कल की हुशियारी...

सबतैं पहलम विष्णु नाच्या पृथ्वी ऊपर आकै

फिर दूजै भस्मासुर नाच्या सारा नाच नचा कै
गौरां आगै शिवजी नाच्या, ल्याया पार्वती नै ब्याह-कै
जल के ऊपर ब्रह्मा नाच्या कमल फूल के मांह-कै
ब्रह्मा जी नै नाच-नाच कै रची सृष्टि सारी...


गोपियों में कृष्ण नाच्या करकै भेष जनाना
विराट देश में अर्जुन नाच्या, करया नाचना गाणा
इंद्रपुरी में इन्द्र नाचै जब हो मींह बरसाणा
गढ़ मांडव में मलके नाच्या करया नटों का बाणा
मलके नै भी नाच-नाच कै ब्याहली राजदुलारी...


ईश वन्दना

लखमीचंद की एक मशहूर रागनी प्रस्तुत है जिसमे एक ही अक्षर से शब्द और पूरी पंक्ति की छन्द रचना की गई है ।
अलख अगोचर अजर अमर अन्तर्यामी असुरारी...
गुण गाऊं गोपाल गरुडगामी गोविन्द गिरधारी ...
परम परायण पुरुषोत्तम परिपूर्ण हो पुरुष पुराण
नारायण निरलेप निरन्तर निरंकार हो निर्माण
भागवत भक्त भजैं भयभंजन भ्रमभजा भगवान
धर्म धुरंधर ध्यानी ध्याव धरती धीरज ध्यान
सन्त सुजान सदा समदर्शी सुमरैं सब संसारी ...


मशहूर स्वांगों के नाम

दादा लखमीचन्द के कुछ मशहूर सांगों के नाम ये हैं :

श्रंगार एवं प्रेम प्रधान सांग
(1) नौटंकी (2) धर्म कौर - रघुबीर सिंह (3) हूर मेनका (4) ज्यानी चोर (5) चन्द्रकिरण (6) राजा भोज - सरणदे (7) चापसिंह (8) शाही लकड़हारा (9) हीर रांझा

धर्म और नीतिप्रधान सांग
(1) सत्यवान सावित्री (2) भगत पूर्णमल (3) पदमावत (4) चीर पर्व (5) नल दमयन्ती (6) विराट पर्व (7) राजा हरिश्चन्द्र (8) सेठ ताराचन्द (9) भूप पुरंजन, मीराबाई

इसके अलावा जयमल फत्ता, अंजना देवी, भरथरी, पिंगला, चंद्रहास, रूप-बसंत, सरवर नीर, चीरहरण, शकुन्तला, ध्रुव भगत जैसे सांगों का भी मंचन किया ।

Dndeswal 10:50, 28 December 2007 (EST)



'शरीर के दरवाजों की व्याख्या

जगह देख कै बाग़ लगा दिया छोटी-छोटी क्यारी |
तरह तरह के फूल बाग में, खुश्बो न्यारी-न्यारी ||(टेक)

दो दरवाजे गड़े बाग़ में देख्या भीतर बड़-कै,
एक पानी का चलै फुहारा, मन चाहवै जब छिडकै,
माणस राख लिया बाग़ बीच में, बाग़ का माली घड़ कै,
पत्ता तक भी तोड़ण दे ना, देखीं जा गिर-पड़ कै |

ना देखै तै किस नै बतावै, उस्सै की जिम्मेवारी |
तरह तरह के फूल बाग में खुश्बो न्यारी-न्यारी ||

दो दरवाजे लगे बाग़ में न्यारे न्यारे पाग्ये |
एक दरवाजा इसा लग्या, जो भीत्तर चीज पहुन्चादे |
दो दरवाजे और लगे जो सारी खबर सुनादे |
एक दरवाजा इसा लग्या जो गंदगी बाहर बगा दे |

दो दरवाजे इसे बाग़ में या दीखै दुनिया सारी |
तरह तरह के फूल बाग में खुश्बो न्यारी-न्यारी ||

बाग़ बीच में फिर कै देख्या, काफी चीज खाण नै |
एक पानी का पम्प चलै था, पीवण और नहाण नै |
जितना पानी गन्दा हो, एक रास्ता बाहर जाण नै |
एक दरवाजे पै लौड़ स्पीकर आनंद राग गाण ने |

छुट्टी के दिन पूरे होग्ये, फिर आ पहुंचा दरबारी |
तरह तरह के फूल बाग में खुश्बो न्यारी-न्यारी ||

तार टूट-कै कटा कनेक्सन, देता नहीं सुनायी |
अंख्या के दर बंद होग्ये, कुछ देता नहीं दिखाई |
सारी चीज मिली बाग़ में, ना चीज बहार तैं आई |
बाग़ छोड़ कै बहार लिकड़ गया कुछ ना पार बसाई |

कह लखमीचंद इस बाग़ नै या दुनिया सिर पै ठा-री |
तरह तरह के फूल बाग में खुश्बो न्यारी न्यारी ||


जप तप पर लख्मीचंद का ज्ञान

रै संता सील सबर संतोष श्रधा शर्म समाई सै, यो साधन संत शरीर का || (टेक )

भय भूल भ्रम ने त्याग, विषय वासना बैर की लाग |

अरै जा जाग जरा नाजोश जहर जड़ जबर जमाई सै यो जोबन जाल जंजीर का |
रै संता सील सबर संतोष श्रधा शर्म समाई सै, यो साधन संत शरीर का ||

लागी लगन ले लिया योग होकै लौलीन रहे जो लोग |

ऋषि कै रोग रहा ना रोष रमता राख रमाई सै यो रंग रचज्या रंगबीर का |
रै संता सील सबर संतोष श्रधा शर्म समाई सै, यो साधन संत शरीर का ||

या दुनिया दुःख की दारण लगे देह धार धर्म ने हारण |

करतब कारण करनी ने कोस कुकरम कुबध कमाई सै गुनाह कुण कमशीर का |
रै संता सील सबर संतोष श्रधा शर्म समाई सै, यो साधन संत शरीर का ||

मुक्ति मिलै मतिमंद मरले लखमीचंद सहम में फिरले |

अरै करले तजकै त्रिया दोष थोड़ी सी तपा तपाई सै फेर जप तप तकदीर का |
रै संता सील सबर संतोष श्रधा शर्म समाई सै, यो साधन संत शरीर का ||

माया

भाईयो बेरा ना के चाला रै ये घडी मै दे सें गर्द मिला || (टेक)
ब्रह्मा विष्णु सारे मोहे भस्मासुर से मारे गए |
जमदग्नि पुलिस्त मुनि पतंजली बिचारे गए |
मेर और सुमेर सुनो सीस जिन के तारे गए |
बारासूर बनाद भाई गौतम जी का फेरा मन |
बाल्मीकि गुरुवासा से मार डाले योगी जन |
अत्तरी और बतीस ऋषि चंदरमा का बिगाड़ा तन |

जिनकी खुडकै दिन रात माला रै शिवजी की लई खींच कला |
भाईयो बेरा ना के चाला रै ये घडी मै दे सें गर्द मिला ||

परचेता और परसूराम रावण नै भी भेष भरा |
देवातावों से जत्ती मोहे आशकी मे बाली मरा |
कर्ण जैसे योधा खपगे माया तै ना कोए टरा |
दुर्योधन दुशाशन और जरासंध की बुधी हर ली |
जन्मय जी भी पुष्टि होगये किस्सी की ना पेश चली |
कीचकों का ढेर करया पांडों में था भीम बली|

वो था जग भूप का साला रै अग्नी मे दिया तुरत जला |
भाईयो बेरा ना के चाला रै ये घडी मै दे सें गर्द मिला ||

यादुवंशी कट कै मरगये अगड कै था कुटम्ब घना |
ऐसा भी कहाँ सें लोग पटेरे का लोहा बना |
चाल के चक्कर में आके संग पिस्से घुन और चना |
लैला और मजनू होगये लगी रही नैना झड़ी |
ऐश और अमीरी छुट्टी सुख तै कोन्या बीत्ती घडी |
राजा रोड पागल होगया लौलता लगी थी बड़ी |

जर जोरू जमीन हवाला रै ये रोग नै दें सें तुरत फला |
भाईयो बेरा ना के चाला रै ये घडी मै दे सें गर्द मिला ||

चोरी जारी जामनी झूठ बोलें करै ठगी |
देख पराया माल भाई तनमे बेदन आन जग्गी |
सारी दुनिया निंदा करै खोट्टी शामत आन लगी |
लख्मीचंद छंद कहै आशकी कै जात नहीं |
भूख प्यास जावो पर पड़े चैन दिन रात नहीं |
हाथ जोड़ माफ़ी मांगूं कोए बड़ी बात नहीं |
सतगुरु कहै बसौधि आला रै बड्यां की लियो मान सलाह |

भाईयो बेरा ना के चाला रै ये घडी मै दे सें गर्द मिला ||

चुनौती

आधी रात सिखर तैं ढलगी हुया पहर का तड़का |
बिना जीव की कामनी कै हुया अचानक लड़का |

जब लड़के का जन्म हुया ये तीन लोक थर्राए |
ब्रह्मा विष्णु शिवजी तीनू दर्शन करने आये |
सप्त ऋषि भी आसन ठा कै हवन करण नै आये |
साध सती और मन मोहनी नै आके मंगल गाये |

जब नाम सूना था उस लड़के का हुया काल मुनि कै धड़का |
बिना जीव की कामनी कै हुया अचानक लड़का |

साठ समन्दर उस लड़के नै दो टैम नहवाया करते |
अगन देवता बण्या रसोई, भोग लगाया करते |
इंद्र देवता लोटा ले कै चल्लू कराया करते |
पवन देवता पवन चला लड़के ने सूवाया करते |

जब लड़के नै भूख लगी वो पेड़ निगल गया बड़ का |
बिना जीव की कामनी कै हुया अचानक लड़का |

कामदेव पहरे पै रहता चारों युग के साथी |
अस्ट वसु और ग्यारा रूद्र ये लड़के के नाती |
बावन कल्वे छप्पन भैरो गावें गीत परभाती |
उस के दरवाजे के ऊपर बेमाता साज बजाती |

गाना गावे साज बजावे करै प्रेम का छिड़का |
बिना जीव की कामनी कै हुया अचानक लड़का |

सब लड़कों मै उस लड़के का आदर मान निराला |
गंगा यमुना अडसठ तीरथ रटे प्रेम की माला |
चाँद सूरज और तारे तक भी दे रहे थे उज्याला |
वेद धरम की बात सुणावै लखमीचंद जांटी आळा |

उस नै कवी मै मानूं जो भेद खोल दे जड़ का |
बिना जीव की कामनी कै हुया अचानक लड़का |

गोफिया

तेरी झांकी के माहं गोल मारूं मैं बांठ गोफिया सण का
एक निशाना चुकण दयूं ना मैं छलिया बालकपण का

लांबे-लांबे केश तेरे जंणू छारहि घटा पटेरे पै
ढुंगे ऊपर चोटी काली जंणू लटकै नाग मंडेरे तै
घणी देर मैं नजर गयी तेरे चंदरमाँ से चेहरे पै
गया भूल पाछली बातां नै मैं इब सांग करूँगा तेरे पै
मैं ख़ास सपेरा तू नागण काली, तेरा जहर दीख रह्या सै फण का
एक निशाना चुकण दयूं ना मैं छलिया बालकपण का
बिन बालम के तेरे यौवन की रेह-रेह माटी हो ज्यागी
कितै डूबण की जानैगी तेरै गात उचाटी हो ज्यागी
कितै मरण की सोचैगी तेरी तबियत खाटी हो ज्यागी
मेरी गेल्याँ चाल देख मेरी राज्जी जाटी हो ज्यागी
हठ पकड़ कै बैठी सै रै जंणू शेर सै यो बब्बर का
एक निशाना चुकण दयूं ना मैं छलिया बालकपण का
दुनिया मैं लिया घूम मिली मनै इसी लुगाई कोन्या
इतनी सुथरी शान शिकल की कोए दी दिखाई कोन्या
खुनी खेल तेरे गारू मैं दर्द समाई कोन्या
कुंवारापण तेरा दिखै सै तू इब लग ब्याही कोन्या
हाली बिन समरै ना यो तेरा खेत पड़या सै रण का
एक निशाना चुकण दयूं ना मैं छलिया बालकपण का
छाती खिंचमां पेट सुकड़मां आँख मिरग की ढाल परी
नाक सुआसा मुहं बटुवा सा होठ पान तै बी लाल परी
लेरी रूप गजब का गोल, तू किसे माणस का काल परी
लख्मीचंद था न्यूं सोचैगी करकै दुनिया ख्याल परी
मेरा गाम सै सिरसा जाटी, मैं चेला मानसिंह बामण का
एक निशाना चुकण दयूं ना मैं छलिया बालकपण का

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