प्रस्तुति- स्वामी शरण
भारतीय परम्परा में सेक्स के विषय को लेकर खुली चर्चा करने से परहेज किया जाता रहा है, क्योंकि भारतीय समाज इस पूर्वमान्यता से ग्रसित है कि सेक्स एक ऐसा विषय है जो हमारी संस्कृति और सांस्कृतिक मूल्यों को आघात पहुंचाता है। वस्तुतः भारतीय समाज सेक्स शब्द को ही पाप, अपराध और गंदगी का सूचक मानता है। यदि कोई दुस्साहस करके इस विषय को स्पष्ट करना या समझना चाहता है तो उन दोनो पर ही कामुक और अश्लील और पापी की मोहर लगा दी जाती है, जबकि हकीकत यह है कि सेक्स विषय न तो संस्कृति और सांस्कृतिक मूल्यों पर कुठाराघात करता है और न ही समाज की युवा पीढी की दिशा भ्रमित करता है बल्कि सेक्स से संबंधित ज्ञानवर्द्धक विचार-विमर्श और सेक्स शिक्षा हमारे सांस्कृतिक मूल्यों को सुदृढ करने के साथ ही भावी पीढी को नई दिशा प्रदान करते हुए उन्हें अनुचित यौन आचरण करने से रोक सकता है। अतः सेक्स के संबंध में समाज की उक्त पर्वमान्यता पूर्णतया निर्दोष नहीं है, क्योंकि हमारी संस्कृति में यौन व्यहवार को कभी भी अनुचित नहीं ठहराया गया, बल्कि हमारी संस्कृति में यह पूर्ण स्पष्ट है कि व्यक्ति के सर्वागीण विकास में यौन का विशेष महत्त्व है और उसके बिना किसी समग्र व्यक्तित्व की कल्पना निरर्थक साबित होती है। अतः सेक्स शिक्षा हमारे सांस्कृतिक मूल्यों का हृास करने के बजाय उन्हें पुनजीवित करती है जिसकी हम भौतिक और पाश्चात्य सभयता के अंधानुकरण के प्रयास में भूलते जा रहे है। सेक्स या कामेच्छा को पश्चिमी सभ्यता ने अतिमहत्त्व दिया है तो हमारी संस्कृति में भी सेक्स पर अनुचित दबाव नही डाला गया । भारतीय संस्कृति में सेक्स को अनुचित माना गया है। यह संस्कृति विश्लेषण का एकपक्षीय निष्कर्ष है। वस्तुतः भारतीय संस्कृति की यह मान्यता है कि यौन संबंधों को केवल आवेग के शमन या शारीरिक आकर्षण तक सीमित कर देना मानवत्व की अवमानना है। किसी भी प्रकार की वेश्यावृति और बलात्कार अनैतिक है। किसी के आर्थिक हालात सामाजिक दीनता या शारीरिक कमजोरी का फायदा उठाकर अपनी यौनेच्छा पूरी करना एक प्रकार का शोषण है जो पशुता और मानसिक विकृति का परिचायक है। इस प्रकार भारतीय संस्कृति में सेक्स का विस्तृत स्वरूप अस्वीकृत किया जाता है। पाश्वात्य-सभ्यता जहां सेक्स के पाशविक स्वरूप को ही महत्त्व देते हुए सेक्स को केवल आवेग शमन के जरिए के रूप में जानती हैं वहीं भारतीय विचारधारा की सदैव से ही यह धारणा रही है कि यौन - आचरण केवल दैहिक आवश्यकता पूर्ण करने वाली कि्रया - मात्र बनकर न रहे बल्कि व्यक्ति के व्यक्तित्व का सृजनात्मक विकास भी करें। पाशविक जीवन और मानव जीवन में मौलिक अन्तर यही है कि पशु जहां सदैव आवेग द्वारा संचालित होते है, वहीं मानव उन आवेगों में भी सौन्दर्यबोध और मूल्यबोध को ढूंढ लेता है, क्योंकि यह सर्जनात्मक सोच ही है जो मनुष्य को जानवर से पृथक करके उसे चेतनाशील मनुष्य होने का सम्मान प्रदान करती है। अतः भारतीय संस्कृति में सेक्स विकृत स्वरूप को अनुचित ठहराने का यह तात्पर्य लगाना कि यौनवृति ही पूर्णतया अनुचित है सर्वथा गलत निष्कर्ष है, क्योंकि भारतीय संस्कृति और दर्शन में सेक्स को एक पृथक मूल्य पृथक मूल्य के रूप में स्वीकार करके यह सिद्व किया गया है कि यहां मानव की काम - वासनाओं की स्वाभाविक वृति को दमित नहीं किया गया बल्कि सेक्स के द्वारा व्यक्ति के व्यवहारिक जीवन मूल्यों की प्राप्ति के साथ साथ पारमार्थिक मूल्य (मोक्ष) की प्राप्ति में भी सेक्स एक सकि्रय सहायक की भूमिका अदा करता है । इस प्रकार स्पष्ट है कि जहां तक सांस्कृतिक मूल्यों का सवाल है तो सेक्स को भी यहां प्रथक मूल्य का सवाल है तो सेक्स को भी यहां प्रथक मूल्य का मान प्राप्त है जिसे मानव जीवन में अनावश्यक मानने के साथ ही परम मूल्य मोक्ष के सहायतार्थ रूप में भी अनिवार्य रूप से आवश्यक है। भारतीय दार्शनिक और सांस्कृतिक मूल्यों में सिद्वान्त पुरूषार्थचतुष्ट के चारों पुरूषार्थो-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष में मोक्ष साध्य मूल्य है और धर्म, अर्थ के साथ साथ काम को भी साघन मूल्य के रूप में स्वीकार किया गया है। इस प्रकार भारतीय दार्शनिक दृष्टि से भोग और मोक्ष अभ्युदय और निःश्रेयस दोनों को ही मानव जीवन के लिए आवश्यक माना गया है। वास्तव में देखा जाय तो भारतीय दार्शनिक विचारधारा में अन्य तीन पुरूषार्थ मानव जीवन के लिए आवश्यक है, लेकिन काम पुरूषार्थ मानव जाति के अस्तित्व के बिना इसके मनुष्य जाति का अस्तित्व ही नहीं रहता और मानव अस्तित्व के बिना जीवन में मानव मूल्यो की कल्पना नहीं की जा सकती है। इसीलिए भारतीय संस्कृति की यह मान्यता है कि पितृ-ऋृण की मुक्ति के लिए काम को मानना आवश्यक है, क्योंकि पितृ- ऋृण से मुक्ति सन्तानोत्पति द्वारा वंश परम्परा को कायम रखने से ही मिल जाती है जो काम पुरूषार्थ द्वारा ही संभव है। इसलिए भारतीय दर्शन में चार आश्रमों के अन्तर्गत गृहस्थाश्रम में रहकर ही मनुष्य काम पुरूषार्थ द्वारा वंश वृद्धि करके पितृ ऋृण से मुक्त होकर मानवीय अस्तित्व को संरक्षित करता है। काम पुरूषार्थ को स्वीकार करने के पीछे उपरोक्त नैतिक आधार के साथ साथ मनोवैज्ञानिक आधार यह है कि काम तृप्ति के बिना मनुष्य के अनैतिक होने का खतरा रहता है, क्योंकि मानवीय प्रकृति ही कुछ ऐसी होती है कि जिस प्रकार वह भोजन, वस्त्र, और आवास के बिना नहीं रह सकता उसी प्रकार काम तृप्ति के बिना भी वह नहीं रह सकता, लेकिन जैसा की फ्रायड ने माना है कि यह काम शक्ति इतनी अधिक है कि उसे आसानी से वश में नहीं किया जा सकता। इसीलिए कामसूत्र के रचियता वात्स्यायन का मानना है कि यदि मनुष्य अपनी कामात्मक भावना को कलाओं में लगा दे तो उसकी कामात्मक भावना की संतुष्टि होने के साथ ही उसकी कामात्मक भावना की संतुष्टि होने के साथ ही उसका सृजनात्मक विकास भी हो जाता है। इस प्रकार सेक्स को सांस्कृतिक मूल्यों में स्थान देकर भारतीय नीति में स्वतंत्रता को तो स्वीकृति प्रदान की गयी है परन्तु ’स्वेच्छाविहार‘ को नहीं । सेक्स स्वतंत्रता इस रूप में मान्य है कि यह व्यवहारिक जीवन को सुचारू रूप से संचालित करता है इस प्रकार स्वेट्जर और हेलर जैसे पाश्चात्य दार्शनिकों की यह धारणा धूमिल प्रतीत होती है कि भारतीय दर्शन व्यवहारिक जीवन से पलायन का निर्देश कर केवल परमार्थ को ही परमश्रेयस मानते हुए संन्यास और वैराग्य का ही पाठ पढाता है, लेकिन संस्कृति का यह निष्कर्ष निकालते समय पाश्चात्य विद्वान यह भूल जाते है कि भारतीय संस्कृति के आधार भूत ग्रंथ उपनिषदों में संन्यास को अनिवार्य नहीं माना गया । उनकी दृष्टि से एक गृहस्थी भी मोक्ष प्राप्त कर सकता है। ऐसे अनेक प्राचीन ऋृषियों के उदाहरण मिलते हैं जो सन्यासी नहीं गृहस्थी थे। जैसे याज्ञवल्क्य, उद्दालक, श्वेतकेतु, जनक, अश्वपति, अजातशत्रु और प्रवाहरण आदि गृहस्थ और राजकार्य में संलग्न थे। वे गृहत्यागी सन्यासी नहीं थे। बल्कि गृहस्थ जीवन जीते हुए भी इन्होनें सहज बोध और अनुभाव के द्वारा अनेक नैतिक मूल्यों का साक्षात्कार किया । इस प्रकार स्पष्ट है कि यद्यपि मोक्ष यहां मानव-जीवन का परम श्रेयस है तथापित व्यवहारिक जीवन का परम श्रेयस है तथापित व्यवहारिक जीवन यहां उपेक्षित रहा हो ऐसा नहीं है, क्योंकि व्यवहारिक जीवन को भारतीय संस्कृति ने सदैव महत्व दिया है। इसकी पुष्टि इस बात से भी होती है कि सोलह संस्कारों में विवाह संस्कार और गर्भाधाना संस्कार सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है और ये दोनों संस्कार सेक्स के महत्त्व को उजागर करते है। इस प्रकार काम को एक मानव मूल्य और संस्कार के रूप में स्वीकार करके भारतीय संस्कृति ने यह सिद्व कर दिया है कि हमारे यहां व्यवहारिक जीवन का कभी निषेध नहीं किया जाता साथ ही केवल व्यवहारिक जीवन में खोकर अपने आत्म-अस्तित्व को खोने का निर्देश भी नही किया जाता बल्कि व्यवहार से परमार्थ प्राप्ति का पथ बताने वाली पथ प्रदर्शक की योग्यता रखने वाली संस्कृति का नाम है-भारतीय संस्कृति। अतः स्पष्ट है कि सेक्स स्वयं जो सांस्कृतिक मूल्यों में परिगणित है वह सांस्कृतिक मूल्यों की अवनति कैसे कर सकता है। तात्पर्य यह कि सेक्स संस्कृति को तोडने वाला औजार नहीं बल्कि जोडने वाला सेतु है। यहां यह स्पष्ट करना अनिवार्य है कि भारतीय संस्कृति में प्राण कहे जाने वाले उपनिषद् भी कामेच्छा के महत्व स्वीकार करके यह सिद्ध करते करते है कि सृष्टि-सर्जना करने वाली प्रभु इच्छा भी कामेच्छा द्वारा ही कि्रयांवित होती है, क्योंकि उपनिषेदेां के कुछ अवतरणों से ऐसा स्पष्ट होता है कि यह सम्पूर्ण सृष्टि काम पुरूषार्थ द्वारा सृजित होती हैं। इसको स्पष्ट करते हुए उपनिषदों में बताया गया है कि सर्वप्रथम ब्रह्म अकेला था, इसलिए उसका मन नहीं लगा। उसने दुसरे की इच्छा की और अपने ही शरीर को दो टुकडो में आपातयत पटक दिया । पटकने के लिए पत शब्द का प्रयोग किया गया है, उसी से पति और पत्नी बने । अब इस पुरूष तत्व और स्त्री तत्व का मेल हुआ और उससे मनुष्य जाति का निर्माण हुआ। अब स्त्री तत्व ने सोचा मुझे अपने शरीर में से ही उत्पन्न करके यहा पुरूष मेरे साथ संभोग करता है, हाय मैं छिप जाऊं। वह लज्जा से छिपकर गौ बन गई, पुरूष तत्व ने वृषभ बनकर उसके साथ संयोग किया जिससे गो जाति का निर्माण हुआ। अब स्त्री तत्व लज्जा में छिपकर कभी घोडी बनी, कभी गर्दभी और कभी बकरी बनी। पुरूष तत्व की तो चूंकि सृष्टि रचनी थी इसलिए वह भी इनके विपरीत लिंग धारण करके संयोग करता गया और इस प्रकार चिउंटी-पर्यन्त जितने भी संसार के जोडे है उन्हें उस प्रथम पुरूष तत्व और स्त्री तत्व ने संभोग करके पैदा किया (वृहदारणय उपनिषद् १/२/३/४) यहां सेक्स के समष्टिगत-स्वरूप को स्पष्ट किया गया है। इसी प्रकार सेक्स के व्यष्टिगत-स्वरूप को भी उपनिषेदों में स्पष्ट किया गया है। व्यक्ति के वैवाहिक जीवन से संबंध रखने वाला यौन-कर्म सेक्स का व्यष्टिगत स्वरूप है। वैवाहिक जीवन में सेक्स के महत्त्व को स्पष्ट करते हुए उपनिषेदों में बताया गया है कि - जिस प्रकार महाभूतों का रस पृथ्वी है, उसी प्रकार पुरूष का रस वीर्य है, इसलिए प्रजापति ने ईक्षण किया कि यह वीर्य कितना सामथ्य शाली है, इसे यह पुरूष यों ही न बिगाडे, इसलिए इसकी प्रतिष्ठा बना दूं और उसने स्त्री को रचा। उनका आपस में विवाह होता है। विवाह के अन्तर पत्नि पति को सहयोग न दें तो पति उसे सुन्दर सुन्दर वस्तुएं लाकर दे और उससे कहे कि अपने इन्दि्रय बल से और उससे कहे कि अपने इन्दि्रय बल से और यश से मै तुझे भी यशस्विनी बनाता ह। इस प्रकार पति पत्नी दोनों यशस्विनी हो जाते है। इससे आगे कहा गया है कि अगर पति चाहे कि उसकी पत्नी सन्तानोपति करे, तो उसके साथ अपनी कामेच्छा आौर वाणी का सम् गर्भदान कर-दोनो के एक रूप होने से स्त्री गर्भवती हो जाती है। (वृहदारण्यक उपनिषद ६/४/१,२) लेकिन ऐसा भी नहीं है कि रति कि्रया केवल सन्तान प्राप्ति के जरिये के रूप में ही मान्य ,क्योंकि उपनिषदों में स्पष्ट शब्दों में आया है कि यदि पति पत्नी किसी कारणवश गर्भधान नहीं करना चाहते है ता उसके लिए यौन कर्म करते समय इस मंत्र का जाप करें ’इन्द्रेयेण ते रेतसा रेत आददे (बृहदारण्यक उपनिषद्)‘ ऐसा करने पर पत्नी गर्भवती नहीं होती है। इस प्रकार वर्तमान में पाश्चात्य संस्कृति ने गर्भ निरोध के लिए अनेक तामसिक उपाय बताए गऐ हैं, लेकिन भारतीय संस्कृति में केवल एक मंत्र के जाप मात्र से ही गर्भनिरोध संभव हो जाता है। आवश्यकता है तो संस्कृति के उस स्वरूप से परिचय करवाने की जिस पर सदैव पर्दा रखा जाता है। इस प्रकार यहां औपनिषिदीक दृष्टि से सेक्स के स्वरूप और महत्व को स्पष्ट किया गया है। वस्तुतः काम को मानव मूल्य के रूप में प्रतिस्थामित करने वाले ऋृषि शायद आज के मनोवैज्ञानिकों से अधिक सजग थे, क्योंकि काम को मानव मूल्य के रूप में स्वीकार करने का उपनिषदीय मनोवैज्ञानिक आधार यही है कि मनुष्य मानवता और पशुता का समिश्रिण है और जब तक उसकी पाशविक वृति की तुष्टि नहीं हो जाती तब तक उसके मनतत्व को नहीं उभारा जा सकता। इसलिए काम को जीवन में अनिवार्य रूप से शामिल किया है, क्योंकि यौन तृप्ति के बिना मनुष्य खालीपन की अनुभूति करता है और इस खालीपन की भरने के लिए वह नैतिकता की सीमा लांघ सकता हैं। इसलिए शायद काम स्वयं तृतीय पुरूषार्थ के रूप में नैतिक मूल्यों में शामिल किया गया है। लेकिन इसका तात्पर्य यह कतई नहीं कि मनुष्य अपने यन आचरण के औचित्य-अनौचित्य पर कोई विचार न करें अथवा हर प्रकार की यौन प्रवृति को उचित समझे। वस्तुतः सेक्स अपने सुकृत स्वरूप मेंही भारतीय संस्कृति और दर्शन म मान्य रहा है। उसका विकृत स्वरूप, यहां सदैव से ही अस्वीकार्य रहा है। सेक्स अपने सुकृत-स्वरूप में सत्य , शिव और सुन्दर हैं। अपने इस सत्य , शिव और सुन्दर स्वरूप में सेक्स एक पवित्र यज्ञ है। सेक्स को एक पवित्र यज्ञ के रूप में प्रतिस्थापित करते हुए वृहदारण्यक उपनिषद (६/४/३) में स्पष्ट शब्दों में आया है कि पुरूष एक पत्नी वृत का पालन करते हुए यौन कि्रया केा एक पवित्र यज्ञ के समान समझ कर सम्पन्न करें । इसीलिए भारतीय संस्कृति में यह गृहस्थी का यह आचार धर्म है कि पति अपनी पत्नी से यौन कर्म करते समय अपने मस्तिष्क में यह विचार रखे कि यह एक यज्ञ कर्म के समान है जिसमें पत्नी का जनन स्थान ही यज्ञ की वेदी है, उसकी इस वेदी रूपी जनन स्थान के बाह्म लोम यज्ञ में बिछाने वाले मृग चर्म है और जिस प्रकार यज्ञ कर्म में स्त्रुवा द्वारा घृत है, उसी प्रकार मैथुन-कर्म में पुरूष का लिंग ही स्त्रुवा है जिसके द्वारा स्त्री वेदी रूपी जननी स्थान के अन्दर शु
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