शुक्रवार, 23 अक्टूबर 2015

जारवा आदिवासी




आदिवासियों की लाचारी को भुनाने का गुनाह

प्रमोद भार्गव
जब किसी भी समाज की दशा और दिशा अर्थतंत्र तय करने लगते हैं तो मापदण्ड तय करने के तरीके बदलने लग जाते हैं। यही कारण है हम जिन्हें सभ्य और आधुनिक समाज का हिस्सा मानते हैं, वे लोग प्राकृतिक अवस्था में रह रहे लोगों को इंसान मानने की बजाय जंगली जानवर ही मानते हैं। आधुनिक कहे जाने वाले समाज की यह एक ऐसी विडंबना है, जो सभ्यता के दायरे में कतर्इ नहीं आती। अंडमान-निकोबार द्वीप समूह में रह रहे लुप्तप्राय जारवा प्रजाति की महिलाओं को स्वादिष्ट भोजन का लालच देकर सैलानियों के सामने नचाने के जो विडियो-दृश्य ब्रिटिश अखबार के हवाले से सामने आए हैं, उन्हें शासन-प्रशासन के स्तर पर झुठलाने कवायद कितनी भी की जाए, लेकिन हकीकत यह है कि अभयरण्यों में दुर्लभ वन्य जीवों को देखने की मंशा की तरह दुर्लभ मानव प्रजातियों को भी देखने की इच्छा नव-धनाढयों और रसूखदारों में पनप रही है। इसी कुत्सित मानसिकता के चलते जारवां लोगों को हम इंसान न मानते हुए, मनोरंजक खिलौना मानकर चल रहे हैं। यहां यह भी एक विचित्र विडंबना है कि एक ओर तो हम दया और करूणा जताते हुए सर्कसों और मदारियों द्वारा वन्य जीवों के करतब दिखाए जाने पर अंकुश लगाने की वकालात करते हैं, वहीं दूसरी ओर अपने में मगन निर्वस्त्र जन-जातियों को नचाने के लिए मजबूर करते हैं।
आधुनिक विकास और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए वन कानूनों में लगातार हो रहे बदलावों के चलते अंडमान में ही नहीं देश भर की जनजातियों की संख्या लगातार घट रही हैं। आहार और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी जरूरतों की कमी होती जा रही है। इन्हीं वजहों के चलते अंडमान-निकोबार द्वीप समूह में अलग-अलग दुर्गम टापुओं पर जंगलों में समूह बनाकर रहने वाली जनजातियों का अन्य समुदायों और प्रशासन से बहुत सीमित संपर्क है। यही वजह है कि इनकी संख्या घटकर महज 381 रह गर्इ है। एक अन्य टापू पर रहने वाले ग्रेट अंडमानी जनजाति के लोगों की आबादी केवल 97 के करीब है। इन लोगों में प्रतिरोधात्मक क्षमता इतनी कम होती है कि ये एक बार बीमार हुए तो इनका बचना नमुमकिन ही होता है। एक तय परिवेश में रहने के कारण इन आदिवासियों की त्वचा बेहद संवेदनशील हो गर्इ है। लिहाजा यदि ये बाहरी लोगों के संपर्क में लंबे समय तक रहते हैं तो ये रोगी हो जाते हैं और उपचार के अभाव में दम तोड़ देते हैं।
करीब एक दशक पहले तक ये लोग पूरी तरह निर्वस्त्र रहते थे, लेकिन सरकारी कोशिशों और इनकी बोली के जानकार दुभाषियों के माध्यम से समझाइश देने पर इन थोड़े-बहुत कपडे़ पहनने अथवा पत्ते लपेटने शुरू कर दिए हैं। इसीलिए बि्रटिश अखबार के जरिए जिन वीडियो दृश्यों की जानकारी सामने आर्इ है, उनमें जारवा महिलओं को कपड़े पहने नृत्य करते दिखाया गया है। इससे तय हुआ है कि यह वीडियो नया है। अब ताजा पुलिसिया पूछताछ से खुलासा हुआ है कि ब्रिटिश के ‘द आब्जर्वर के पत्रकार को पोर्टब्लेयर के राजेश व्यास और टैक्सी चालक इनके निवास स्थल तक ले गए थे। वहां इन्होंने स्वादिष्ट भोजन के चंद निवाले डालकर इनसे नृत्य कराया और फिल्मांकन किया। जबकि यह क्षेत्र सर्वोच्च न्यायालय और स्थानीय प्रशासन के दिशा-निर्देशों के अनुसार पर्यटन के लिए पूरी तरह प्रतिबंधित है। इन्हें संपूर्ण संरक्षण देने की दृषिट से अंडमान ट्रंक रोड को बंद करके समुद्र से ऐसा मार्ग बनाए जाने की संभावनाएं तलाशी जा रही हैं, जो जारवा संरक्षित क्षेत्र से हाकर न गुजरें।
भारत की सांस्कृतिक विविधता एक अनूठी खूबसूरती है। यहां विभिन्न आदिवासी समुदायों को अपने पुरातन व सनातन परिवेश में रहने की स्वतंत्रता हासिल है। जबकि मानवाधिकारों की वकालात करने वाले अमेरिका जैसे देश में आदिम जनजातियों को सुनियोजित ढंग से समाप्त किया जा रहा है। अमेरिकी देशों में कोलंबस के मूल्यांकन को लेकर दो तरह के दृषिटकोण सामने आए हैं। एक दृष्टिकोण उन लोगों का है, जो अमेरिकी मूल के हैं और जिनका विस्तार व वर्चस्व उत्तरी व दक्षिणी अमेरिका के अनेक देशों में है। दूसरा दृष्टिकोण या लोलंबस के प्रति धारणा उन लोगों की है, जो दावा करते हैं कि अमेरिका का असितत्व ही हम लोगों ने खड़ा किया। इनका दावा है कि कोलंबस इन लोगों के लिए मौत का कहर लेकर आया। क्योंकि कोलंबस के आने तक अमेरिका में इन आदिम समूहों की आबादी 20 करोड़ के करीब थी, जो अब घटकर 10 करोड़ के करीब रह गर्इ है। इतने बड़े नरसंहार के बावजूद अमेरिका में अश्वेतों का जनसंहार लगातार जारी है। बि्रटेन के भी हालात बहुत अच्छे नहीं हैं। हाल ही में नस्लीय आधार पर भारत के अनुज बिडवे की हत्या की गर्इ है।
शोषण व सुनियोजित संहार के ऐसे ही पैरोकारों का एक दल हमारे यहां भी पैदा हो गया है। जिसमें योजनाकर और अर्थशास्त्री शामिल हैं। ये भूमि, जंगल और खनिजों को आर्थिक संपत्ति मानते हैं। इनका कहना है कि इस प्राकृतिक संपदा पर दुर्भाग्य से ऐसी छोटी व मझोली जोत के किसानों और वनवासियों का वर्चस्व है, जो अयोग्य व अक्षम है। सकल घरेलू उत्पाद दर में लगातार वृद्धि के लिए जरूरी है, ऐसे लोगों से खेती योग्य भूमियां छीनी जाएं और उन्हें विशेष व्यावसायिक हितों, शापिंग मालों और शहरीकरण के लिए अधिग्रहण कर लिया जाए। इसी तर्ज पर जिन जंगलों और खनिज ठिकानों पर जन-जातियां आदिकाल से रहती चली आ रही हैं, उन्हें विस्थापित कर संपदा के ये अनमोल क्षेत्र औधोगिक घरानों को उत्खनन के लिए सौंप दिए जाएं। इस मकसद पूर्ति के लिए ‘क्षतिपूर्ति वन्यरोपण विधेयक 2008 बिना किसी बहस-मुवाहिशे के पारित करा दिया गया था। जबकि इसके मसौदे को जनजातियों, वनों और खनिज संरक्षण की दृषिट से गैर-जरूरी मानते हुए संसद की स्थायी समिति ने खारिज कर दिया था। लेकिन कंपनियों को सौगात देने की कड़ी में प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने समिति की सिफारिश को दरकिनार कर यह विधेयक पारित करा दिया। यही कारण है देश में जितने भी आदिवासी बहुल इलाके हैं, उन सभी में इनकी संख्या तेजी से घट रही है।
जारवा जनजातियों को भोजन के लालच में नचाने का यह शर्मनाक पहलू शोषण और अमानवीयता का चरम है। चंद निवालों के लालच में यदि परदेशियों के सामने अर्धनग्न जारवा महिलाएं नाच रही हैं तो विकास का ढिंढोरा पीट रहे देश के लिए लज्जा से डूब मरने की बात है। क्योंकि ये भोले और मासूम जारवा नहीं जानते कि कथित रूप से सभ्य मानी जाने वाले दुनिया में नग्नता बिकती है। किंतु इसके ठीक विपरीत जो लोग धन का लालच देकर इनकी नग्नता के दृश्य कैमरे में कैद कर रहे थे, वे जरूर अच्छी तरह जानते थे कि यह नग्नता उनके व्यापारिक प्रतिष्ठान की टीआरपी बढ़ाने की सस्ती और जुगुप्सा जगाने वाली अचरज भरी विडियो क्लीपिंग है। इस लिहाज से जन्मजात अवस्था में रह रहे जारवाओं की मासूमियत को बेचने का यह हद दर्जे का गुनाह है।
हालांकि हमारे देश के सांस्कृतिक परिवेश में नग्नता कभी फूहड़ अश्लीलता का पर्याय नहीं रही। पाश्चात्य मूल्यों और भौतिकवादी आधुनिकता ने ही प्राकृतिक व स्वाभाविक नग्नता को दमित काम-वासना की पृष्ठभूमि में रेखांकित किया है। वरना हमारे यहां तो खजुराहों, कोणार्क और कामसूत्र जैसे नितांत व मौलिक रचनाधर्मिता से स्पष्ट होता है कि एक राष्ट्र के सामाजिक-सांस्कृतिक परिदृश्य में हम कितनी व्यापक मानसिक दृषिट से परिपक्व लोग थे। लेकिन कालांतर में विदेशी आक्रांताओं के शासन और उनकी संकीर्ण कार्य-प्रणाली ने हमारी सोच को बदला और नैसर्गिक नग्नता फूहड़ सेक्स का उत्तेजक हिस्सा बन गर्इ। इसीलिए कहना पड़ता है कि कथित रूप से हम आधुनिक भले ही हो गए हों, लेकिन सभ्यता की परिधि में आना अभी बांकी है। बरना हम जो आदिम जातियां प्रकृति से संस्कार व आहार ग्रहण कर अपना जीवन-यापन कर रही हैं, उन्हें ‘मानव मानने की बाजए चिंपाजियों जैसे रसरंजक वन्य प्राणी मानकर नहीं चलते और न ही भोजन के चंद टुकडे़ डालकर उन्हें बंदर या भालूओं की तरह नाचने को बाध्य करते किसी इंसान की लाचार मासूमियत को भुनाने का यह गुनाह भी राष्ट्रीय शर्म से कम नहीं है।

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