बिहार: सौ साल पुरानी है नाटक की परंपरा
- 16 अक्तूबर 2014प्
प्रस्तुति- स्वामी शरण
देश के कई हिस्सों में दशहरे के मौके पर रामलीला आयोजित होती है.
लेकिन बिहार के पटना जिले के पंडारक गांव में दशहरे के मौके पर 93 सालों से लगातार नाटकों का मंचन होता आ रहा है.इस गांव में नाटक की परंपरा सौ साल से भी ज्यादा पुरानी है.पंडारक निवासी रंगकर्मी अजय कुमार बताते हैं कि गांव में नाटकों के मंचन की शुरुआत 1912 में स्वतंत्रता सेनानी चैधरी राम प्रसाद शर्मा ने की थी.
उन्हें इसकी प्रेरणा तब मिली जब उन्होंने भारत की आजादी की लड़ाई के दौरान गया में हुए कांग्रेस अधिवेशन में भाग लिया.
जन जागृति
वहां से लौटकर उन्होंने गांव और उसके आस-पास के इलाके में देशभक्ति जगाने और जन-जागृति के लिये नाटक का माध्यम चुना.पटना से लगभग अस्सी किलोमीटर दूर स्थित इस गांव में फिलहाल पांच रंग संस्थाएं सक्रिय हैं.जिनमें से सबसे पुरानी संस्था हिंदी नाटक समाज है जिसकी स्थापना 1922 में चैधरी राम प्रसाद शर्मा ने की थी.
1922 से ही दशहरे के समय नाटकों का मंचना शुरु हुआ. गांव की दूसरा सबसे पुरानी नाट्य मंडली कला निकेतन लगभग बीते एक दशक से सक्रिय नहीं है.इसकी स्थापना 1949 में हुई थी.पंडारक में शुरुआत में बांस-बल्ले के अस्थाई मंच पर नाटकों का मंचन होता था.
स्थाई मंच
आज गांव में थोड़ी-थोड़ी दूरी पर दो स्थाई मंच हैं. एक मंच का निर्माण हिंदी नाटक समाज ने किया है जबकि दूसरे का किरण कला निकेतन ने.
किरण कला निकेतन की स्थापना 1957 में हुई थी. दशहरे के दौरान लगभग एक सप्ताह एक साथ दोनों मंचों पर अलग-अलग नाटकों का मंचन होता है.किरण कला निकेतन के अध्यक्ष राम मनोहर शर्मा बताते हैं कि गांव में नाटक की शुरुआत धार्मिक समारोहों से हुई थी.
बाद में धीरे-धीरे ऐतिहासिक, सामाजिक और सम-सामयिक मुद्दों पर आधारित नाटकों का मंचन शुरु हुआ.पंडारक में इस साल सलाना जलसे का समापन सात अक्तूबर को हुआ. सात अक्तूबर को व्यंग्य नाटक ‘नंगा राजा’ कर मंचन पटना इप्टा की ओर से हुआ.
वहीं गांव की नाट्य संस्था पुनियार कला निकेतन की ओर से ‘इश्क-ए-लैला’ का मंचन किया गया.
पुरानी परंपरा
पंडारक में दशहरे के अवसर पर कभी-कभी बाहर की नाट्य मंडलियां भी नाटकों की प्रस्तुति करती हैं.पंडारक की नाट्य परंपरा से मशहूर रंगकर्मी और फिल्म अभिनेता दिवंगत पृथ्वीराज कपूर भी प्रभावित हुए थे.
हिंदी नाटक समाज के अध्यक्ष प्रेम शरण शर्मा बताते हैं कि पृथ्वीराज 1956 में जब अपने नाटक के मंचन के सिलसिले में पटना आए थे तब वे आमंत्रण पर पंडारक भी आए थे. शशि कपूर भी तब उनके साथ थे.
सौ साल से पुरानी नाट्य परंपरा के बावजूद अब तक गांव की लड़कियां नाटकों में अभिनय नहीं करती थीं.
महिला पात्रों की भूमिका निभाने के लिए आम तौर पर पटना से महिला रंगकर्मियों को आमंत्रित किया जाता है.लेकिन इस साल की खास बात यह रही कि पहली बार गांव की युवा रंगकर्मी सौम्या भारती ने अभिनय किया.
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