शुक्रवार, 23 अक्टूबर 2015

बेबस आदिवासी और लाचार समाज सरकार




Posted On January - 29 - 2012
श्याम माथुर

प्रस्तुति- दर्शनलाल

पैसों के लिए लोगों की नुमाइश करना शायद आधुनिक दौर का फैशन है। शायद इसीलिए अंडमान में लुप्त होते आदिवासियों को सैलानियों के सामने नाचने पर मजबूर किया गया। हालांकि यह मामला सामने आने के बाद केंद्र सरकार ने जांच के आदेश दे दिए हैं, सैर-सपाटे के बढ़ते बाजार ने इस कारोबार में जुटे लोगों को इस हद तक मजबूर कर दिया है कि वे अपनी कमाई के लिए आदिवासियों को निर्वस्त्र नचाने से भी नहीं चूके। बताया जाता है कि अंडमान में लुप्त हो रही जारवा जाति के आदिवासियों को खाने का लालच देकर सैलानियों के सामने नचाया गया और इसकी रिकॉर्डिंग भी की गई। गौरतलब है कि जारवा जाति के सिर्फ 403 लोग दुनिया में बचे हैं, जो दक्षिणी अंडमान में रहते हैं। बाद में ब्रिटेन के कुछ समाचारपत्रों को इस मामले का वीडियो भी दिया गया, जिसमें हिंदी में आदिवासियों को नाचने के लिए कहते हुए देखा जा सकता है। इस घटना से सकते में आए अंडमान प्रशासन ने अपनी शुरुआती रिपोर्ट में कहा है कि वह वीडियोग्राफर के खिलाफ मुकदमा करेगा।
ब्रिटेन के ऑब्जर्वर अखबार ने इस वीडियो को जारी किया है। इसमें तारीख का जिक्र नहीं है, लेकिन कुछ अधनंगी आदिवासी महिलाएं दिख रही हैं। भारतीय कानून के तहत जारवा जाति के लोगों के संपर्क में आना या फिर उनकी फोटोग्राफी करना अपराध है। समझा जाता है कि इस प्रजाति के लोग सबसे पहले अफ्रीका से एशिया पहुंचे और हिंद महासागर के पास आकर बसे। अंडमान निकोबार द्वीप समूह में चार आदिवासी जातियां रहती हैं- ओन्गे, ग्रेट अंडमानीज, सेंटेनेलीज और शोम्पेंस। वहां एक और जाति हुआ करती थी, बो। लेकिन बो जाति जनवरी 2010 में पूरी तरह खत्म हो गई।
केंद्रीय गृह मंत्रालय ने भी स्थानीय प्रशासन से कहा है कि वे पता लगाएं कि इस वीडियो को कब तैयार किया गया और ये आदिवासी बाहरी लोगों के संपर्क में कैसे आए। हालांकि अंडमान के डीजीपी एस.बी. देओल का कहना है कि यह वीडियो दस साल पुराना हो सकता है। अंडमान पुलिस ने यह भी सफाई दी कि आदिवासियों को नचाने के लिए 200 पाउंड की रिश्वत लेने वाला व्यक्ति कोई पुलिस वाला नहीं है। बयान में कहा गया है कि लंदन के अखबार ‘द ऑब्जर्वर’ से इस मामले में पुलिस से माफी मांगने की मांग की गई है। अखबार की रिपोर्ट में दावा किया गया था कि एक पुलिसकर्मी ने पर्यटकों से रिश्वत लेकर आदिवासियों को उनके सामने नचाया। पुलिस अब अखबार से फुटेज बनाने वाले वीडियोग्राफर का नाम भी पूछ रही  है। पुलिस ने फुटेज में दिख रहे वर्दीधारी शख्स को पहचानने के लिए सेनाओं की मदद भी मांगी है।
दरअसल हाल के दिनों में आदिवासी पर्यटन के नाम पर सैलानियों को लुभाने का चलन बढ़ गया है, जिसमें उनसे वादा किया जाता है कि उन्हें लुप्त होती जातियों के लोग दिखाए जाएंगे। इसी क्रम में आसानी से यह माना जा सकता है कि जारवा आदिवासी महिलाओं को पर्यटकों के सामने लगभग वस्त्ररहित नृत्य करने के लिए बाध्य किया गया। गृह मंत्रालय वीडियो क्लिप को तकनीकी जांच के लिए भेजेगा, ताकि पता लग सके कि यह वीडियो कितना पुराना है। साथ ही यह भी पता लगाया जाना चाहिए कि जब यह वीडियो तैयार किया जा रहा था, तब इस आदिम जाति के लोग किस प्रकार से बाहरी लोगों के संपर्क में आए, जो एकांत में जीवन व्यतीत करते थे। प्रशासन से शोषण के लिए जिम्मेदार लोगों का पता लगाने को कहा गया है। अगर रिपोर्ट सही साबित हुई तब गृह मंत्रालय आदिवासी लोगों की नुमाइश के लिए जिम्मेदार लोगों के खिलाफ कड़ी दंडात्मक कार्रवाई कर सकता है।
इस पूरे घटनाक्रम से एक बार फिर यह बात साबित हो गई है कि आजादी के 62 साल बाद आज भी हमारे आदिवासी उपेक्षित, शोषित और पीडि़त नजर आते हैं। किसी भी राजनीतिक दल ने न तो अपने घोषणा-पत्र में आदिवासियों से जुड़े मुद्दे उठाए और न ही कभी चुनाव अभियान में उनके हित की बात उठाई है। आदिवासी किसी राज्य या क्षेत्र विशेष में नहीं हैं, बल्कि पूरे देश में फैले हैं। ये कहीं नक्सलवाद से जूझ रहे हैं, तो कहीं अलगाववाद की आग में जल रहे हैं। जल, जंगल और जमीन को लेकर इनका शोषण निरंतर चला आ रहा है। देश के लगभग 7 करोड़ आदिवासियों की अनदेखी कर तात्कालिक राजनीतिक लाभ देने वाली बातों को हवा देना एक परंपरा बन गई है।
दुनियाभर में आदिवासियों के अधिकारों के लिए काम कर रही संस्था ‘सरवाइवल इंटरनेशनल’ ने पिछले साल विकीलीक्स के नए केबलों के जरिए जो जानकारी जुटायी थी, उसमें आदिवासियों के मामले में सरकारी रुख को लेकर बड़ी चौंकाने वाली बातें सामने आयी थीं। इन केबलों के अनुसार अमेरिका के राजनयिकों का मानना है कि भारत सरकार देश के आठ करोड़ चालीस लाख आदिवासियों के ऊपर हो रहे अत्याचार को खत्म करने की न तो इच्छा रखती है न वह कर पा रही है। एक अंग्रेजी दैनिक में छपी केबलों के अनुसार अमेरिकी सरकार को इस बात का भय है कि आदिवासियों को इस तरह से नजरअंदाज करने से नक्सलियों को फायदा हो रहा है; एक तरफ जहां भारत सरकार आर्थिक प्रगति पर ध्यान केन्द्रित कर रही है, दूसरी तरफ बढ़ती आबादी और आर्थिक प्रगति ने आदिवासियों की हालत को और खराब कर दिया है। उनके जंगल और संसाधन सिकुडऩे से स्थिति और गंभीर हो रही है। सरकार ने आदिवासियों की बदहाली को देखते हुए वन अधिकार कानून जरूर पारित कर दिया है, जिसमें वनों पर उनके मौलिक अधिकार की रक्षा की बात है। देश में कई लोगों के निहित स्वार्थ हैं, जिन्होंने जंगलों को बर्बाद करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। गैर आदिवासियों ने भ्रष्ट तरीकों का इस्तेमाल कर आदिवासियों को उनके जंगलों और जमीन से बेदखल कर दिया है और यह पूरे देश के आदिवासियों की सबसे बड़ी समस्या है।
हमारे देश में मिजोरम, नगालैंड और मेघालय जैसे छोटे राज्यों में 80 से 93 प्रतिशत तक आबादी आदिवासियों की है। बड़े राज्यों में मध्यप्रदेश, उड़ीसा, महाराष्ट्र, बिहार, गुजरात, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में 8 से 23 प्रतिशत तक आबादी आदिवासियों की है। नक्सलवाद हो या अलगाववाद, पहले शिकार आदिवासी ही होते हैं। छत्तीसगढ़, उड़ीसा और झारखंड में आदिवासी नक्सलवाद की त्रासदी झेल रहे हैं। मेघालय, नगालैंड, अरुणाचल प्रदेश और कुछ आदिवासी बहुल प्रांतों में यह समुदाय अलगाववाद का शिकार समय-समय पर होता रहता है। नक्सलवाद की समस्या आतंकवाद से कहीं बड़ी है।  आदिवासी अब भी समाज की मुख्यधारा से कटे नजर आते हैं। कुछ राज्य सरकारें आदिवासियों को लाभ पहुंचाने के लिए उनकी संस्कृति और जीवन शैली को समझे बिना ही योजना बना लेती हैं। वे महंगाई व कुपोषण के शिकार हो रहे हैं। आदिवासियों को राजनीतिक तौर पर जागरूक बनाने के प्रयास भी नहीं के बराबर हुए हैं।  नक्सली वारदातों के चलते छत्तीसगढ़ में बस्तर इलाका बाहरी दुनिया से पूरी तरह कट गया है। कुछ इलाका ऐसा है, जहां फोर्स भी घुसते हुए डरती है। जाहिर है कि ऐसी सूरत में जीने वाले आदिवासियों के लिए नक्सली ही सबसे बड़े सृजक और विनाशक दोनों हैं।
वर्तमान दौर में आदिवासी महिलाओं पर ज्यादतियां हो रही हैं और आदिवासी लड़कों की हत्या जैसे अपराध भी रोज हो रहे हैं। विचारकों का मानना है आदिवासियों के खिलाफ बर्बरता की सच्चाई हमारे सभ्य समाज की संवेदना को छू भी नहीं पाती है।
जारवा आदिवासियों के निर्वस्त्र नृत्य से जुड़े मामले ने मीडिया की सक्रिय भूमिका को भी एक बार फिर उजागर किया। मीडिया की सक्रियता से ही हमारा ध्यान पर्यटन के नाम पर आदिवासियों के साथ होने वाले अमानवीय अत्याचार की तरफ गया। वर्तमान परिदृश्य में सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि हम जारवा आदिवासियों को मुख्यधारा में शामिल करने की दिशा में प्रयास करें और सरकार को भी इसका का समर्थन करना चाहिए।

कुदरत की शक्ति में यकीन

दक्षिण अफ्रीका के पर्यावरण प्रेमी और खोजकर्ता माइक हॉर्न ऐसे युवा लोगों की टीम बना रहे हैं, जो दुनिया भर में घूमकर आदिवासियों की समस्याओं को समझ सकें और उनके हल के लिए रास्ता तैयार करें। पिछले दिनों स्विट्जरलैंड के शातू दोए में माइक हॉर्न ने इस खास प्रोग्राम की शुरुआत की। वे अपने साथ आये नौजवानों को रोमांचक यात्राओं पर ले जाते हैं और दूरदराज के इलाकों में ले जाकर उनका परिचय नई-नई संस्कृतियों से कराते हैं। वे इन सब कामों में युवाओं की दिलचस्पी पैदा कर उन्हें प्रकृति और इंसान के प्रति और भावुक होना सिखाते हैं। इस साल इनकी टोली का लक्ष्य भारत है। ये लोग भारत के सबसे सुंदर द्वीपों में से एक अंडमान निकोबार की ओर चल पड़े हैं। ये आठ यंग एक्सप्लोरर्स वहां बसने वाले लोगों की जिंदगी को नजदीक से जानने की कोशिश करेंगे। साथ ही ये लोग सन्ï 2004 में आई सुनामी के बाद अंडमान के इकोसिस्टम में आये बदलावों को भी पढ़ेंगे। माइक के दल में शामिल इटली की वैलेंटीना मैजोला बताती हैं, ‘…अगर पर्यावरण और पशु नहीं होंगे और सिर्फ मानव की बनाई चीजें ही हर तरफ होंगी, तो यह सब ज्यादा दिन तक नहीं चल सकता। …मुझे कुदरत की शक्ति में विश्वास है और हमें इसे बनाए रखना है।’

प्रकृति से अलग नहीं वजूद

आदिवासी बहुल राज्यों में आज खनन उद्योग और राष्ट्रीय राजमार्ग विकास के नाम पर बनने वाले बांधों तथा उद्योगों के लिए जमीन आवप्ति जारी है और इस कारण कई लोगों को विस्थापित होना पड़ रहा है। भूमाफिया बड़े पैमाने पर कृषि भूमि का हस्तांतरण करवाकर इसे गैर आदिवासियों को बेचने में लगा हुआ है।  आदिवासी प्रकृति से अलग रहकर जिंदा नहीं रह सकता है, इसलिए संविधान निर्माताओं ने संविधान की पांचवीं अनुसूची बनाकर राज्यपालों और जनजाति सलाहकार परिषद का गठन कर उन्हें विशेष अधिकार दिए, लेकिन इन अधिकारों का उपयोग आदिवासियों की भूमि के संरक्षण में नहीं हुआ। अब सरकार को संवैधानिक दायित्व निभाने और संविधान की भावना के अनुसार कुछ प्रभावी कदम उठाने ही चाहिए।

आदिवासी बच्चे भी चाहते हैं पढऩा-लिखना

सच्चाई यह है कि अंडमान द्वीप के सबसे पुराने आदिवासी जारवा कबीले के बच्चे जंगली और आदिम दुनिया से निकल कर लिखना-पढऩा चाहते हैं। आसपास के दूसरे गावों में स्थित स्कूलों में कुछ जारवा बच्चे जाकर यूं ही बैठ जाते हैं और हिंदी गाना गाते हैं, जिससे उनमें शिक्षा के प्रति झुकाव का भाव पता चलता है। अंडमान-निकोबार के लोकसभा सांसद विष्णुपद राय का कहना है कि उन्होंने कितनी ही बार जारवा लोगों को समाज कीमुख्यधारा में लाने की बात केंद्र सरकार और राज्य के केंद्र शासित सरकार से की है, लेकिन अनसुनी की जाती है। अगर जारवा जनजाति को बचाना है, तो उसे शिक्षा देनी होगी और समाज की मुख्यधारा में लाना ही होगा। जारवा के संरक्षण के नाम पर कुछ एनजीओ भी वर्षों से अंडमान में काम कर रहे हैं परंतु ये समर्पित प्रतीत नहीं होते। यह साजिश है उनको जंगली और असभ्य बनाये रखने की। सांसद का कहना है कि जो लोग यह तर्क दे रहे हैं कि जारवा अगर दूसरे समाज के संपर्क में आया, तो उसे इन्फेक्शन हो जायेगा, उनकी बातों में दम नहीं है।

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