बुधवार, 2 दिसंबर 2015

जां-निसार अख्तर 1911-1976 की गजलें





प्रस्तुति- दिनेश कुमार सिन्हा


अच्छा है उन से कोई तक़ाज़ा किया न जाए
अशआर मिरे यूँ तो ज़माने के लिए हैं
आए क्या क्या याद नज़र जब पड़ती इन दालानों पर
आज मुद्दत में वो याद आए हैं
आहट सी कोई आए तो लगता है कि तुम हो
उफ़ुक़ अगरचे पिघलता दिखाई पड़ता है
ऐ दर्द-ए-इश्क़ तुझ से मुकरने लगा हूँ मैं
ख़ुद-ब-ख़ुद मय है कि शीशे में भरी आवे है
चौंक चौंक उठती है महलों की फ़ज़ा रात गए
जब लगें ज़ख़्म तो क़ातिल को दुआ दी जाए
ज़मीं होगी किसी क़ातिल का दामाँ हम न कहते थे
ज़रा सी बात पे हर रस्म तोड़ आया था
ज़िंदगी तुझ को भुलाया है बहुत दिन हम ने
ज़िंदगी ये तो नहीं तुझ को सँवारा ही न हो
जिस्म की हर बात है आवारगी ये मत कहो
ज़ुल्फ़ें सीना नाफ़ कमर
तमाम उम्र अज़ाबों का सिलसिला तो रहा
तुम पे क्या बीत गई कुछ तो बताओ यारो
तुम्हारे जश्न को जश्न-ए-फ़रोज़ाँ हम नहीं कहते
तुलू-ए-सुब्ह है नज़रें उठा के देख ज़रा
तू इस क़दर मुझे अपने क़रीब लगता है
दिल को हर लम्हा बचाते रहे जज़्बात से हम
दीदा ओ दिल में कोई हुस्न बिखरता ही रहा
बहुत दिल कर के होंटों की शगुफ़्ता ताज़गी दी है
मय-कशी अब मिरी आदत के सिवा कुछ भी नहीं
माना कि रंग रंग तिरा पैरहन भी है
मुझे मालूम है मैं सारी दुनिया की अमानत हूँ
मुद्दत हुई उस जान-ए-हया ने हम से ये इक़रार किया
मौज-ए-गुल मौज-ए-सबा मौज-ए-सहर लगती है
रंज-ओ-ग़म माँगे है अंदोह-ओ-बला माँगे है
लाख आवारा सही शहरों के फ़ुटपाथों पे हम
लोग कहते हैं कि तू अब भी ख़फ़ा है मुझ से
वो लोग ही हर दौर में महबूब रहे हैं
सुब्ह के दर्द को रातों की जलन को भूलें
सौ चाँद भी चमकेंगे तो क्या बात बनेगी
हम ने काटी हैं तिरी याद में रातें अक्सर
हम से भागा न करो दूर ग़ज़ालों की तरह
हर एक रूह में इक ग़म छुपा लगे है मुझे
हौसला खो न दिया तेरी नहीं से हम ने

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