सोमवार, 21 दिसंबर 2015

सआदत हसन मंटो की कहानियां










सआदत हसन मंटो

सबसे साहसी मंटो




सआदत हसन मंटो
सआदत हसन मंटो (11 मई 1912 18 जनवरी 1955) उर्दू लेखक थे, जो अपनी लघु कथाओं, बू, खोल दो, ठंडा गोश्त और चर्चित टोबा टेकसिंह के लिए प्रसिद्ध हुए। कहानीकार होने के साथ-साथ वे फिल्म और रेडिया पटकथा लेखक और पत्रकार भी थे। अपने छोटे से जीवनकाल में उन्होंने बाइस लघु कथा संग्रह, एक उपन्यास, रेडियो नाटक के पांच संग्रह, रचनाओं के तीन संग्रह और व्यक्तिगत रेखाचित्र के दो संग्रह प्रकाशित किए। सआदत हसन मंटो की गिनती ऐसे साहित्यकारों में की जाती है जिनकी कलम ने अपने वक़्त से आगे की ऐसी रचनाएँ लिख डालीं जिनकी गहराई को समझने की दुनिया आज भी कोशिश कर रही है।[1] प्रसिद्ध कहानीकार मंटो का जन्म 11 मई 1912 को पुश्तैनी बैरिस्टरों के परिवार में हुआ था। उनके पिता ग़ुलाम हसन नामी बैरिस्टर और सेशन जज थे। उनकी माता का नाम सरदार बेगम था, और मंटो उन्हें बीबीजान कहते थे। मंटो बचपन से ही बहुत होशियार और शरारती थे। मंटो ने एंट्रेंस इम्तहान दो बार फेल होने के बाद पास किया। इसकी एक वजह उनका उर्दू में कमज़ोर होना था। मंटो का विवाह सफ़िया से हुआ था। जिनसे मंटो की तीन पुत्री हुई।
उन्हीं दिनों के आसपास मंटो ने तीन-चार दोस्तों के साथ मिलकर एक ड्रामेटिक क्लब खोला था और आग़ा हश्र का एक नाटक प्रस्तुत करने का इरादा किया था। "यह क्लब सिर्फ़ 15-20 दिन रहा था, इसलिए कि मंटो के पिता ने एक दिन धावा बोलकर हारमोनियम और तबले सब तोड़-फोड़ दिए थे और कह दिया था, कि ऐसे वाहियात काम उन्हें बिल्कुल पसंद नहीं।"[2]
मंटो की कहानियों की बीते दशक में जितनी चर्चा हुई है उतनी शायद दुनिया की किसी भी भाषा के कहानीकारों की कभी नहीं हुई होगी।  चेखव के बाद मंटो ही थे जिन्होंने अपनी कहानियों के दम पर ही अपनी जगह बनाई और तमाम विवादोंके बाद भी साहित्य से कभी बेदखल नहीं किए गए। मंटो विवादों को जन्म देते थे और यह विवादइसलिए और उफन सा जाता था कि मंटों की सोच और विषय की नवीनता और साफ बेलाग लिखने का साहस ही इनको औ1रों से अलग करके भी सबसे उपर रखता था। जीवन के ज्यादातर अनछूए पहलूओं को सार्वजनिक करने वाले मंटो के साथ यह एक विरोधाभास ही है कि उन्होने  अपने जीवन में कभी कोई उपन्यास नहीं लिखा।



सआदत हसन मंटो











मंटो की कहानियां

1
खोल दो


अमृतसर से स्पेशल ट्रेन दोपहर दो बजे चली और आठ घंटों के बाद मुगलपुरा पहुंची। रास्ते में कई आदमी मारे गए। अनेक जख्मी हुए और कुछ इधर-उधर भटक गए।
सुबह दस बजे कैंप की ठंडी जमीन पर जब सिराजुद्दीन ने आंखें खोलीं और अपने चारों तरफ मर्दों, औरतों और बच्चों का एक उमड़ता समुद्र देखा तो उसकी सोचने-समझने की शक्तियां और भी बूढ़ी हो गईं। वह देर तक गंदले आसमान को टकटकी बांधे देखता रहा। यूं ते कैंप में शोर मचा हुआ था, लेकिन बूढ़े सिराजुद्दीन के कान तो जैसे बंद थे। उसे कुछ सुनाई नहीं देता था। कोई उसे देखता तो यह ख्याल करता की वह किसी गहरी नींद में गर्क है, मगर ऐसा नहीं था। उसके होशो-हवास गायब थे। उसका सारा अस्तित्व शून्य में लटका हुआ था।
गंदले आसमान की तरफ बगैर किसी इरादे के देखते-देखते सिराजुद्दीन की निगाहें सूरज से टकराईं। तेज रोशनी उसके अस्तित्व की रग-रग में उतर गई और वह जाग उठा। ऊपर-तले उसके दिमाग में कई तस्वीरें दौड़ गईं-लूट, आग, भागम-भाग, स्टेशन, गोलियां, रात और सकीना...सिराजुद्दीन एकदम उठ खड़ा हुआ और पागलों की तरह उसने चारों तरफ फैले हुए इनसानों के समुद्र को खंगालना शुरु कर दिया।
पूरे तीन घंटे बाद वह 'सकीना-सकीना' पुकारता कैंप की खाक छानता रहा, मगर उसे अपनी जवान इकलौती बेटी का कोई पता न मिला। चारों तरफ एक धांधली-सी मची थी। कोई अपना बच्चा ढूंढ रहा था, कोई मां, कोई बीबी और कोई बेटी। सिराजुद्दीन थक-हारकर एक तरफ बैठ गया और मस्तिष्क पर जोर देकर सोचने लगा कि सकीना उससे कब और कहां अलग हुई, लेकिन सोचते-सोचते उसका दिमाग सकीना की मां की लाश पर जम जाता, जिसकी सारी अंतड़ियां बाहर निकली हुईं थीं। उससे आगे वह और कुछ न सोच सका।
सकीना की मां मर चुकी थी। उसने सिराजुद्दीन की आंखों के सामने दम तोड़ा था, लेकिन सकीना कहां थी , जिसके विषय में मां ने मरते हुए कहा था, "मुझे छोड़ दो और सकीना को लेकर जल्दी से यहां से भाग जाओ।"
सकीना उसके साथ ही थी। दोनों नंगे पांव भाग रहे थे। सकीना का दुप्पटा गिर पड़ा था। उसे उठाने के लिए उसने रुकना चाहा था। सकीना ने चिल्लाकर कहा था "अब्बाजी छोड़िए!" लेकिन उसने दुप्पटा उठा लिया था।....यह सोचते-सोचते उसने अपने कोट की उभरी हुई जेब का तरफ देखा और उसमें हाथ डालकर एक कपड़ा निकाला, सकीना का वही दुप्पटा था, लेकिन सकीना कहां थी?
सिराजुद्दीन ने अपने थके हुए दिमाग पर बहुत जोर दिया, मगर वह किसी नतीजे पर न पहुंच सका। क्या वह सकीना को अपने साथ स्टेशन तक ले आया था?- क्या वह उसके साथ ही गाड़ी में सवार थी?- रास्ते में जब गाड़ी रोकी गई थी और बलवाई अंदर घुस आए थे तो क्या वह बेहोश हो गया था, जो वे सकीना को उठा कर ले गए?
सिराजुद्दीन के दिमाग में सवाल ही सवाल थे, जवाब कोई भी नहीं था। उसको हमदर्दी की जरूरत थी, लेकिन चारों तरफ जितने भी इनसान फंसे हुए थे, सबको हमदर्दी की जरूरत थी। सिराजुद्दीन ने रोना चाहा, मगर आंखों ने उसकी मदद न की। आंसू न जाने कहां गायब हो गए थे।
छह रोज बाद जब होश-व-हवास किसी कदर दुरुसत हुए तो सिराजुद्दीन उन लोगों से मिला जो उसकी मदद करने को तैयार थे। आठ नौजवान थे, जिनके पास लाठियां थीं, बंदूकें थीं। सिराजुद्दीन ने उनको लाख-लाख दुआऐं दीं और सकीना का हुलिया बताया, गोरा रंग है और बहुत खूबसूरत है... मुझ पर नहीं अपनी मां पर थी...उम्र सत्रह वर्ष के करीब है।...आंखें बड़ी-बड़ी...बाल स्याह, दाहिने गाल पर मोटा सा तिल...मेरी इकलौती लड़की है। ढूंढ लाओ, खुदा तुम्हारा भला करेगा।
रजाकार नौजवानों ने बड़े जज्बे के साथ बूढे¸ सिराजुद्दीन को यकीन दिलाया कि अगर उसकी बेटी जिंदा हुई तो चंद ही दिनों में उसके पास होगी।
आठों नौजवानों ने कोशिश की। जान हथेली पर रखकर वे अमृतसर गए। कई मर्दों और कई बच्चों को निकाल-निकालकर उन्होंने सुरक्षित स्थानों पर पहुंचाया। दस रोज गुजर गए, मगर उन्हें सकीना न मिली।
एक रोज इसी सेवा के लिए लारी पर अमृतसर जा रहे थे कि छहररा के पास सड़क पर उन्हें एक लड़की दिखाई दी। लारी की आवाज सुनकर वह बिदकी और भागना शुरू कर दिया। रजाकारों ने मोटर रोकी और सबके-सब उसके पीछे भागे। एक खेत में उन्होंने लड़की को पकड़ लिया। देखा, तो बहुत खूबसूरत थी। दाहिने गाल पर मोटा तिल था। एक लड़के ने उससे कहा, घबराओ नहीं-क्या तुम्हारा नाम सकीना है?
लड़की का रंग और भी जर्द हो गया। उसने कोई जवाब नहीं दिया, लेकिन जब तमाम लड़कों ने उसे दम-दिलासा दिया तो उसकी दहशत दूर हुई और उसने मान लिया कि वो सराजुद्दीन की बेटी सकीना है।
आठ रजाकार नौजवानों ने हर तरह से सकीना की दिलजोई की। उसे खाना खिलाया, दूध पिलाया और लारी में बैठा दिया। एक ने अपना कोट उतारकर उसे दे दिया, क्योंकि दुपट्टा न होने के कारण वह बहुत उलझन महसूस कर रही थी और बार-बार बांहों से अपने सीने को ढकने की कोशिश में लगी हुई थी।
कई दिन गुजर गए- सिराजुद्दीन को सकीना की कोई खबर न मिली। वह दिन-भर विभिन्न कैंपों और दफ्तरों के चक्कर काटता रहता, लेकिन कहीं भी उसकी बेटी का पता न चला। रात को वह बहुत देर तक उन रजाकार नौजवानों की कामयाबी के लिए दुआएं मांगता रहता, जिन्होंने उसे यकीन दिलाया था कि अगर सकीना जिंदा हुई तो चंद दिनों में ही उसे ढूंढ निकालेंगे।
एक रोज सिराजुद्दीन ने कैंप में उन नौजवान रजाकारों को देखा। लारी में बैठे थे। सिराजुद्दीन भागा-भागा उनके पास गया। लारी चलने ही वाली थी कि उसने पूछा-बेटा, मेरी सकीना का पता चला?
सबने एक जवाब होकर कहा, चल जाएगा, चल जाएगा। और लारी चला दी। सिराजुद्दीन ने एक बार फिर उन नौजवानों की कामयाबी की दुआ मांगी और उसका जी किसी कदर हलका हो गया।
शाम को करीब कैंप में जहां सिराजुद्दीन बैठा था, उसके पास ही कुछ गड़बड़-सी हुई। चार आदमी कुछ उठाकर ला रहे थे। उसने मालूम किया तो पता चला कि एक लड़की रेलवे लाइन के पास बेहोश पड़ी थी। लोग उसे उठाकर लाए हैं। सिराजुद्दीन उनके पीछे हो लिया। लोगों ने लड़की को अस्पताल वालों के सुपुर्द किया और चले गए।
कुछ देर वह ऐसे ही अस्पताल के बाहर गड़े हुए लकड़ी के खंबे के साथ लगकर खड़ा रहा। फिर आहिस्ता-आहिस्ता अंदर चला गया। कमरे में कोई नहीं था। एक स्ट्रेचर था, जिस पर एक लाश पड़ी थी। सिराजुद्दीन छोटे-छोटे कदम उठाता उसकी तरफ बढ़ा। कमरे में अचानक रोशनी हुई। सिराजुद्दीन ने लाश के जर्द चेहरे पर चमकता हुआ तिल देखा और चिल्लाया-सकीना
डॉक्टर, जिसने कमरे में रोशनी की थी, ने सिराजुद्दीन से पूछा, क्या है?
सिराजुद्दीन के हलक से सिर्फ इस कदर निकल सका, जी मैं...जी मैं...इसका बाप हूं।
डॉक्टर ने स्ट्रेचर पर पड़ी हुई लाश की नब्ज टटोली और सिराजुद्दीन से कहा, खिड़की खोल दो।
सकीना के मुद्रा जिस्म में जुंबिश हुई। बेजान हाथों से उसने इज़ारबंद खोला और सलवार नीचे सरका दी। बूढ़ा सिराजुद्दीन खुशी से चिल्लाया, जिंदा है-मेरी बेटी जिंदा है?







सियाह हाशिए 

करामात
लूटा हुआ माल बरामद करने के लिए पुलिस ने छापे मारने शुरू किए।
लोग डर के मारे लूटा हुआ माल रात के अँधेरे में बाहर फेंकने लगे; कुछ ऐसे भी थे जिन्होंने अपना माल भी मौका पाकर अपने से अलहदा कर दिया, कानूनी गिरफ्त से बचे रहें।
एक आदमी को बहुत दिक्कत पेश आई। उनके पास शक्कर की दो बोरियाँ थीं जो उसने पंसारी की दुकान से लूटी थीं। एक तो वह जूँ-तूँ रात के अँधेरे में पास वाले कुएँ में फेंक आया, लेकिन जब दूसरी उसमें डालने लगा तो खुद भी साथ चला गया।
शोर सुनकर लोग इकट्ठे हो गए। कुएँ में रस्सियाँ डाली गईं। जवान नीचे उतरे और उस आदमी को बाहर निकाल लिया गया; लेकिन वह चंद घंटों के बाद मर गया।
दूसरे दिन जब लोगों ने इस्तेमाल के लिए कुएँ में से पानी निकाला तो वह मीठा था।
उसी रात उस आदमी की कब्र पर दीए जल रहे थे।
गलती का सुधार
"कौन हो तुम?"
"तुम कौन हो?"
"हर-हर महादेवहर-हर महादेव!"
"हर-हर महादेव!"
"सुबूत क्या है?"
"सुबूत…? मेरा नाम धरमचंद है।"
"यह कोई सुबूत नहीं।"
"चार वेदों में से कोई भी बात मुझसे पूछ लो।"
"हम वेदों को नहीं जानतेसुबूत दो।"
"क्या?"
"पायजामा ढीला करो।"
पायजामा ढीला हुआ तो एक शोर मच गया-"मार डालोमार डालो…"
"ठहरोठहरोमैं तुम्हारा भाई हूँभगवान की कसम, तुम्हारा भाई हूँ।"
"तो यह क्या सिलसिला है?"
"जिस इलाके से मैं आ रहा हूँ, वह हमारे दुश्मनों का हैइसलिए मजबूरन मुझे ऐसा करना पड़ा, सिर्फ अपनी जान बचाने के लिएएक यही चीज गलत हो गई है, बाकी मैं बिल्कुल ठीक हूँ…"
"उड़ा दो गलती को…"
गलती उड़ा दी गईधरमचंद भी साथ ही उड़ गया।
घाटे का सौदा
दो दोस्तों ने मिलकर दस-बीस लड़कियों में से एक लड़की चुनी और बयालीस रुपए देकर उसे खरीद लिया।
रात गुजारकर एक दोस्त ने उस लड़की से पूछा-"तुम्हारा क्या नाम है?"
लड़की ने अपना नाम बताया तो वह भिन्ना गया-"हमसे तो कहा गया था कि तुम दूसरे मजहब की हो…"
लड़की ने जवाब दिया-"उसने झूठ बोला था।"
यह सुनकर वह दौड़ा-दौड़ा अपने दोस्त के पास गया और कहने लगा-"उस हरामजादे ने हमारे साथ धोखा किया हैहमारे ही मजहब की लड़की थमा दीचलो, वापस कर आएँ।"
सॉरी
छुरी पेट चाक करती (चीरती) हुई नाफ (नाभि) के नीचे तक चली गई।
इजारबंद (नाड़ा) कट गया।
छुरी मारने वाले के मुँह से पश्चात्ताप के साथ निकला-"च् च् च्मिशटेक हो गया!"
रियायत
"मेरी आँखों के सामने मेरी बेटी को न मारो…"
"चलो, इसी की मान लोकपड़े उतारकर हाँक दो एक तरफ…"
बँटवारा
एक आदमी ने अपने लिए लकड़ी का एक बड़ा संदूक चुना। जब उसे उठाने लगा तो संदूक अपनी जगह से एक इंच न हिला।
एक शख्स ने, जिसे अपने मतलब की शायद कोई चीज मिल ही नहीं रही थी, संदूक उठाने की कोशिश करनेवाले से कहा-"मैं तुम्हारी मदद करूँ?"
संदूक उठाने की कोशिश करनेवाला मदद लेने पर राजी हो गया।
उस शख्स ने जिसे अपने मतलब की कोई चीज नहीं मिल रही थी, अपने मजबूत हाथों से संदूक को जुंबिश दी और संदूक उठाकर अपनी पीठ पर धर लिया। दूसरे ने सहारा दिया, और दोनों बाहर निकले।
संदूक बहुत बोझिल था। उसके वजन के नीचे उठानेवाले की पीठ चटख रही थी और टाँगें दोहरी होती जा रही थीं; मगर इनाम की उम्मीद ने उस शारीरिक कष्ट के एहसास को आधा कर दिया था।
संदूक उठानेवाले के मुकाबले में संदूक को चुननेवाला बहुत कमजोर था। सारे रास्ते एक हाथ से संदूक को सिर्फ सहारा देकर वह उस पर अपना हक बनाए रखता रहा।
जब दोनों सुरक्षित जगह पर पहुँच गए तो संदूक को एक तरफ रखकर सारी मेहनत करनेवाले ने कहा-"बोलो, इस संदूक के माल में से मुझे कितना मिलेगा?"
संदूक पर पहली नजर डालनेवाले ने जवाब दिया-"एक चौथाई।"
"यह तो बहुत कम है।"
"कम बिल्कुल नहीं, ज्यादा हैइसलिए कि सबसे पहले मैंने ही इस माल पर हाथ डाला था।"
"ठीक है, लेकिन यहाँ तक इस कमरतोड़ बोझ को उठाके लाया कौन है?"
"अच्छा, आधे-आधे पर राजी होते हो?"
"ठीक हैखोलो संदूक।"
संदूक खोला गया तो उसमें से एक आदमी बाहर निकला। उसके हाथ में तलवार थी। उसने दोनों हिस्सेदारों को चार हिस्सों में बाँट दिया।
हैवानियत
मियाँ-बीवी बड़ी मुश्किल से घर का थोड़ा-सा सामान बचाने में कामयाब हो गए।
एक जवान लड़की थी, उसका पता न चला।
एक छोटी-सी बच्ची थी, उसको माँ ने अपने सीने के साथ चिमटाए रखा।
एक भूरी भैंस थी, उसको बलवाई हाँककर ले गए।
एक गाय थी, वह बच गई; मगर उसका बछड़ा न मिला।
मियाँ-बीवी, उनकी छोटी लड़की और गाय एक जगह छुपे हुए थे।
सख्त अँधेरी रात थी।
बच्ची ने डरकर रोना शुरू किया तो खामोश माहौल में जैसे कोई ढोल पीटने लगा।
माँ ने डरकर बच्ची के मुँह पर हाथ रख दिया कि दुश्मन सुन न ले। आवाज दब गई। सावधानी के तौर पर बाप ने बच्ची के ऊपर गाढ़े की मोटी चादर डाल दी।
थोड़ी दूर जाने के बाद दूर से किसी बछड़े की आवाज आई।
गाय के कान खड़े हो गए। वह उठी और पागलों की तरह दौड़ती हुई डकराने लगी। उसको चुप कराने की बहुत कोशिश की गई, मगर बेकार
शोर सुनकर दुश्मन करीब आने लगा। मशालों की रोशनी दिखाई देने लगी।
बीवी ने अपने मियाँ से बड़े गुस्से के साथ कहा-"तुम क्यों इस हैवान को अपने साथ ले आए थे?"
सफाई पसंद
गाड़ी रुकी हुई थी।
तीन बंदूकची एक डिब्बे के पास आए। खिड़कियों में से अंदर झाँककर उन्होंने मुसाफिरों से पूछा-"क्यों जनाब, कोई मुर्गा है?"
एक मुसाफ़िर कुछ कहते-कहते रुक गया। बाकियों ने जवाब दिया-"जी नहीं।"
थोड़ी देर बाद भाले लिए हुए चार लोग आए। खिड़कियों में से अंदर झाँककर उन्होंने मुसाफिरों से पूछा-"क्यों जनाब, कोई मुर्गा-वुर्गा है?"
उस मुसाफिर ने, जो पहले कुछ कहते-कहते रुक गया था, जवाब दिया-"जी मालूम नहींआप अंदर आके संडास में देख लीजिए।"
भालेवाले अंदर दाखिल हुए। संडास तोड़ा गया तो उसमें से एक मुर्गा निकल आया। एक भालेवाले ने कहा-"कर दो हलाल।"
दूसरे ने कहा-"नहीं, यहाँ नहींडिब्बा खराब हो जाएगाबाहर ले चलो।"
साम्यवाद
वह अपने घर का तमाम जरूरी सामान एक ट्रक में लादकर दूसरे शहर जा रहा था कि रास्ते में लोगों ने उसे रोक लिया।
एक ने ट्रक के माल-असबाब पर लालचभरी नजर डालते हुए कहा-"देखो यार, किस मजे से इतना माल अकेला उड़ाए चला जा रहा है!"
असबाब के मालिक ने मुस्कराकर कहा-"जनाब, यह माल मेरा अपना है।"
दो-तीन आदमी हँसे-"हम सब जानते हैं।"
एक आदमी चिल्लाया-"लूट लोयह अमीर आदमी हैट्रक लेकर चोरियाँ करता है…!"
हलाल और झटका
"मैंने उसके गले पर छुरी रखी, हौले-हौले फेरी और उसको हलाल कर दिया।"
"यह तुमने क्या किया?"
"क्यों?"
"इसको हलाल क्यों किया?"
"मजा आता है इस तरह।"
"मजा आता है के बच्चेतुझे झटका करना चाहिए थाइस तरह।"
और हलाल करनेवाले की गर्दन का झटका हो गया।
'सियाह हाशिये' से
मुनासिब कार्रवाई
जब हमला हुआ तो महल्‍ले में अकल्‍लीयत के कुछ लोग कत्‍ल हो गए
जो बाकी बचे, जानें बचाकर भाग निकले-एक आदमी और उसकी
बीवी अलबत्ता अपने घर के तहखाने में छुप गए।
दो दिन और दो रातें पनाह याफ्ता मियाँ-बीवी ने हमलाआवरों
की मुतवक्‍के-आमद में गुजार दीं, मगर कोई न आया।
दो दिन और गुजर गए। मौत का डर कम होने लगा। भूख
और प्‍यास ने ज्यादा सताना शुरू किया।
चार दिन और बीत गए। मियाँ-बीवी को जिदगी और मौत से
कोई दिलचस्‍पी न रही। दोनों जाए पनाह से बाहर निकल आए।
खाविंद ने बड़ी नहीफ आवाज में लोगों को अपनी तरफ मुतवज्‍जेह
किया और कहा : "हम दोनों अपना आप तुम्‍हारे हवाले करते हैं...हमें मार डालो।"
जिनको मुतवज्‍जेह किया गया था, वह सोच में पड़ गए : "हमारे धरम
में तो जीव-हत्‍या पाप है..."
उन्‍होंने आपस में मशवरा किया और मियाँ-बीवी को मुनासिब कार्रवाई
के लिए दूसरे महुल्‍ले के आदमियों के सिपुर्द कर दिया।

हैवानियत
बड़ी मुश्किल से मियाँ-बीवी घर का थोड़ा-सा असासा बचाने में कामयाब हो गए।
एक जवान लड़की थी, उसका पता न चला।
एक छोटी-सी बच्‍ची थी, उसको माँ ने अपने सीने के साथ चिमटाए रखा।
एक भूरी भैंस थी, उसको बलवाई हाँककर ले गए।
एक गाय थी, वह बच गई मगर उसका बछड़ा न मिला।
मियाँ-बीवी, उनकी छोटी लड़की और गाय एक जगह छुपे हुए थे।
सख्‍त अँधेरी रात थी।
बच्‍ची ने डरकर रोना शुरू किया तो खामोश फजा में जैसे कोई ढोल पीटने लगा।
माँ ने खौफजदा होकर बच्‍ची के मुँह पर हाथ रख दिया
कि दुश्‍मन सुन न ले। आवाज दब गई - बाप ने
एहतियातन बच्‍ची के ऊपर गाढ़े की मोटी चादर डाल दी।
थोड़ी दूर जाने के बाद दूर से किसी बछड़े की आवाज आई।
गाय के कान खड़े हो गए - वह उठी और दीवानावार दौड़ती हुई डकराने लगी।
उसको चुप कराने की बहुत कोशिश की गई, मगर बेसूद...
शोर सुनकर दुश्‍मन करीब आने लगा।
मशालों की रोशनी दिखाई देने लगी।
बीवी ने अपने मियाँ से बड़े गु़स्‍से के साथ कहा :
"तुम क्‍यों इस हैवान को अपने साथ ले आए थे?"
 
कस्रे-नफ्सी
चलती गाड़ी रोक ली गई।
जो दूसरे मजहब के थे,
उनको निकाल-निकालकर तलवारों और गोलियों से हलाक कर दिया गया।
इससे फारिग होकर
गाड़ी के बाकी मुसाफिरों की
हलवे, दूध और फलों से तवाजो की गई।
गाड़ी चलने से पहले
तवाजो करने वालों के मुंतजिम ने
मुसाफिरों को मुखातिब करके कहा :
"भाइयो और बहनो,
हमें गाड़ी की आमद की इत्तिला बहुत देर में मिली;
यही वजह है कि हम जिस तरह चाहते थे,
उस तरह आपकी खिदमत न कर सके…!"










3


बू


बरसात के यही दिन थे. खिड़की के बाहर पीपल के पत्ते इसी तरह नहा रहे थे सागवन के स्प्रिन्गदार पलंग पर, जो अब खिड़की के पास थोड़ा इधर सरका दिया गया, एक घाटन लड़की रणधीर के साथ लिपटी हुई थी.
खिड़की के पास बाहर पीपल के पत्ते रात के दुधिया अंधेरे में झुमरों की तरह थरथरा रहे थे, और शाम के समय, जब दिन भर एक अंग्रेजी अखबार की सारी खबरें और इश्तहार पढ़ने के बाद कुछ सुस्ताने के लिये वह बालकनी में आ खड़ा हुआ था तो उसने उस घाटन लड़की को, जो साथवाले रस्सियों के कारखाने में काम करती थी और बारिश से बचने के लिये इमली के पेड़ के नीचे खड़ी थी, खांस-खांसकर अपनी तरफ आकर्षित कर लिया था और उसके बाद हाथ के इशारे से ऊपर बुला लिया था.
वह कई दिनों की बेहद तनहाई से उकता गया था. विश्वयुद्ध के चलते मुम्बई की लगभग तमाम ईसाई छोकरियां, जो अमूमन सस्ते दामों में मिल जाया करती थीं, वैसी जवान औरत और कमसीन लड़की अंग्रेजी फौज में भरती हो गई थीं. उनमें से कईयों ने फोर्ट के इलाके में डांस स्कूल खोल लिये थे, वहां सिर्फ फौजी गोरों को जाने की इजाजत थी.
इन हालत के चलते रणधीर बहुत उदास हो गया था. जहां उसकी उदासी का कारण यह था कि क्रिश्चियन छोकरियां दुर्लभ हो गई थीं वहीं दुसरा यह कि फौजी गोरों के मुकाबले में कहीं ज्यदा सभ्य, पढ़ा-लिखा और खूबसूरत नौजवान होने के बावजूद रणधीर के लिये फोर्ट के लगभग तमाम दरवाजे बंद हो चुके थे, क्योंकि उसकी चमड़ी सफेद नहीं थी.
जंग के पहले रणधीर नागपाड़ा और ताजमहल होटल की कई मशहूर क्रिश्चियन छोकरियों से जिस्मानी रिश्ते कायम कर चुका था, उसे अच्छी तरह पता था कि इस किस्म के संबंधों के आधार पर वह उन क्रिश्चियन लड़कों के मुकाबले क्रिश्चियन लड़कीयों के बारे में कहीं ज्यदा जानकारी रखता था जिनसे ये छोकरियां फैशन के तौर पर रोमांस लड़ाती हैं और बाद में उन्हीं में से किसी बेवकूफ से शादी कर लेती हैं.
रणधीर ने महज हैजल से बदला लेने की खातिर उस घाटन लड़की जो अलह्ड़ मस्त जवानी से भरी हुई जवान लड़की थी को ऊपर बुलाया था. हैजल उसके फ्लैट के नीचे रहती थी. वह रोज सुबह वर्दी पहनकर कटे हुए बालों पर खाकी रंग की टोपी तिरछे कोण से जमा कर बाहर निकलती थी और ऎसे बांकापन से चलती थी, जैसे फुटपाथ पर चलने वाले सभी लोग टाट की तरह उसके कदमों में बिछते चले जाएंगे. रणधीर सोचता था कि आखिर क्यों वह उन क्रिश्चियन छोकरियों की तरफ इतना ज्यदा रीझा हुआ है. इस में कोई शक नहीं कि वे मनचली लड़कियां अपने जिस्म की तमाम दिखाई जा सकने वाली चीजों की नुमाइश करती हैं. किसी किस्म की झिझक महसूस किये बगैर मनचली लड़की अपने कारनामों का जिक्र कर देती हैं. अपने बीते हुए पुराने रोमांसों का हाल सुना देती हैं. यह सब ठीक है, लेकिन किसी दूसरी जवान औरत में भी ये खूबियां हो सकती हैं.
रणधीर ने जब घाटन लड़की को इसारे से ऊपर बुलाया था तो उसे इस बात का कतई अंदाज नहीं था कि वह उसे अपने साथ सुला भी लेगा. वह तो इसके वहां आने के थोड़ी देर के बाद उसके भीगे हुए कपड़े देखकर यह शंका मन में उठी थी कि कहीं ऎसा न हो कि बेचारी को निमोनिया हो जाए. सो रणधीर ने उससे कहा था, " ये कपड़े उतार दो, सर्दी लग जाएगी ".
वह रणधीर की इस बात का मतलब समझ गई थी. उसकी आखों में शर्म के लाल डोरे तैर गए थे. फिर भी जब रणधीर ने अपनी धोती निकालकर दी तो कुछ देर सोचकर अपना लहंगा उतार दिया, जिस पर मैल भीगने के कारण और भी उभर आया था.
लहंगा उतारकर उसने एक तरफ रख दिया और अपनी रानों पर जल्दी से धोती डाल ली. फिर उसने अपनी भींची-भींची टांगों से ही चोली उतारने की कोशिश की जिसके दोनों किनारों को मिलाकर उसने एक गांठ दे रखी थी. वह गांठ उसके तंदुरुस्त सीने के नन्हे लेकिन सिमटे गड्ढे में छिप गई थी.
कुछ देर तक वह अपने घिसे हुए नाखूनों की मदद से चोली की गांठ खोलने की कोशिश करती रही जो भीगने के कारण बहुत ज्यदा मजबूत हो गई थी. जब थक हार के बैठ गई तो उसने मरठी में रनधीर से कुछ कहा, जिसका मतलब यह था, " मैं क्या करुं, नहीं निकलती ".
रणधीर उसके पास बैठ गया और गांठ खोलने लगा. जब नहीं खुली तो उसने चोली के दोनों सिरे दोनों हाथों से पकड़कर इतनी जोर का झटका दिया कि गंठ सरसराती सी फैल गई और इसी के साथ दो धड़कती हुई छातियां एकाएक उजागर हो गईं. क्षणभर के लिये रण्धीर ने सोचा कि उसके अपने हाथों से उस घाटन की लड़की के सीने पर नर्म-नर्म गुंथी हुई मिट्टी को कमा कर कुम्हार की तरह दो प्यालियों की शक्ल बना दी है.
उसकी भरी-भरी सेहतमंद उरोजों में वही धड़कन, वही गोलाई, वही गरम-गरम ठंडक थी, जो कुम्हार के हाथ से निकले हुए ताजे बरतनों में होती है.
मटमैले रंग की उन कुंवारी और जवान औरत की उरोजों ने एक अजीब किस्म की चमक पैदा कर दी थी जो चमक होते हुए भी चमक नहीं थी. उसके सीने पर ये उभार दो दीये मालूम होते थे जो तालब के गंदेले पानी पर जल रहे होने का आभास दे रहे थे.
बरसात के यही दिन थे. खिड़की के बाहर पीपल के पत्ते इसी तरह कंपकंपा रहे थे. उस घाटन लड़की के दोनों कपड़े, जो पानी से सराबोर हो चुके थे, एक गंदेले ढेर की सूरत में फर्श पर पड़े थे और वह घाटन की नंगी लड़की रणधीर के साथ चिपटी हुई थी. उसके नंगे बदन की गर्मी रणधीर के बदन में हलचल पैदा कर रही थी, जो सख्त जाड़े के दिनों मेम नाइयों के गलीज लेकिन गरम हमामों में नहाते समय महसूस हुआ करती है.
दिन भर वह रणधीर के साथ चिपटी रही. दोनों एक दूसरे के साथ गड्डमड्ड हो गए थे. उन्होंने मुश्किल से एक दो बातें की होंगी, क्योंकि जो कुछ भी कहना सुनना था, सांसों, होंठों और हाथों से तय हो रहा था. रणधीर के हाथ सारी रात उसकी नर्म-नर्म उरोजों पर हवा के झोंकों की तरह फिरते रहे. उन हवाई झोंकों से उस घाटन लड़की के बदन में एक ऎसी सरसराहट पैदा होती थी कि खुद रणधीर भी कांप उठता था.
इस कंपकंपाहट से रणधीर का पहले भी सैकड़ों बार वास्ता पड़ चुका था. वह काम वासना से भरी हुई लड़की के मजे भी बखूबी जानता था. कई लड़कियों के नर्म और नाजुक लेकिन सख्त स्तनों से अपना सीना मिलाकर वह कई रातें गुजार चुका था. वह ऎसी बिलकुल अल्हड़ लड़कियों के साथ भी रह चुका था जो उसके साथ लिपट कर घर की वे सारी बातें सुना दिया करती थीं जो किसी गैर कानों के लिये नहीं होतीं. वो ऎसी कमीनी लड़की से भी जिस्मानी रिश्ता कायम कर चुका था जो सारी मेहनत खुद करती थीं और उसे कोई तकलीफ नहीं देती थीं. उसे कई समाजिक रुप से बदचलन लड़की और बदचलन औरत का भी अनुभव था जिसे वह बहुत ही रुहानी मानता था.
लेकिन यह घाटन की लड़की, जो इमली के पेड़ के नीचे भीगी हुई खड़ी थी और जिसे उसने इशारे से ऊपर बुला लिया था, बिलकुल भिन्न किस्म की लड़की थी.
सारी रात रणधीर को उसके जिस्म से एक अजीब किस्म की बू आती रही. इस बू को, जो एक हीं समय में खुशबू थी और बदबू भी, वह सारी रात पीता रहा. उसकी बगलों से, उसकी छातियों से, उसके बालों से, उसकी चमड़ी से, उसके जवान जिस्म के हर हिस्से से यह जो बदबू भी थी और खूशबू भी, रणधीर के पूरे शरीर में बस गई थी. सारी रात वह सोचता रहा था कि यह घाटन लड़की बिलकुल करीब हो कर भी हरगिज इतनी करीब नहीं होती, अगर उसके जिस्म से यह बू न उड़ती. यह बू उसके मन-मस्तिष्क की हर सल्वट में रेंग रही थी. उसके तमाम नए-पुराने अनुभवों में रच-बस गई थी.
उस बू ने उस लड़की और रणधीर को जैसे एक-दूसरे से एकाकार कर दिया था. दोनों एक-दूसरे में समा गए थे. उन अनंत गहराईयों में उतर गए थे जहां पहुंच कर इंसान एक खालिस इंसान की संतुष्टि से सरबोर होता है. ऎसी संतुष्टि, जो क्षणिक होने पर भी अनंत थी. लगातार बदलती हुई होने पर भी द्र्ढ और स्थायी थी, दोनों एक ऎसा जवाब बन गए थे, जो आसमान के नीले शून्य में उड़ते रहने पर भी दिखाई देता रहे.
उस बू को, जो उस घाटन लड़की के अंग-अंग से फूट रही थी, रणधीर बखूबी समझता था, लेकिन समझे हुए भी वह इनका विश्लेषण नहीं कर सकता था. जिस तरह कभी मिट्टी पर पानी छिड़कने से सोंधी-सोंधी बू निकलती है, लेकिन नहीं, वह बू कुछ और हीं तरह की थी. उसमें लेवेंडर और इत्र की मिलावट नहीं थी, वह बिलकुल असली थी, औरत और मर्द के शारीरिक संबंध की तरह असली और पवित्र.
रणधीर को पसीने की बू से सख्त नफरत थी. नहाने के बाद वह हमेशा बगलों वैगेरह में पाउडर छिड़कता था या कोई ऎसी दवा इस्तेमाल करता था, जिससे वह बदबू जती रहे, लेकिन ताज्जुब है कि उसने कई बार, हां कई बार, उस घाटन लड़की की बालों भरी बगलों का चुम्मा लिया. उसने चूमा और उसे बिलकुल घिन नहीं आई, बल्कि एक अजीब किस्म की तुष्टि का एहसास हुआ. रणधीर को ऎसा लगता था कि वह इस बू को जानता है, पहचानता है, उसका अर्थ भी पहचानता है, लेकिन किसी को समझा नहीं सकता.
बरसात के यही दिन थे. यूं ही खिड़की के बाहर जब उसने देखा तो पीपल के पत्ते उसी तरह नहा रहे थे. हवा में फड़फड़ाहटें घुली हुई थी. अंधेरा थ, लेकिन उसमें दबी-दबी धुंधली - सी रोशनी समाई हुई थी. जैसे बरिश की बुंदों के सौ सितरों का हल्का-हल्का गुब्बारा नीचे उतर आया हो. बरसात के यही दिन थे, जब रणधीर के उस कमरे में सागवान का सिर्फ़ एक ही पलंग था. लेकिन अब उस से सटा हुआ एक और पलंग भी था और कोने में एक नई ड्रेसिंग टेबल भी मौजूद थी. दिन यही बरसात के थे. मौसम भी बिलकुल वैसा ही था. बारिश की बूंदों के साथ सितारों की रोशनी का हल्का-हल्का गुब्बार उसी तरह उतर रहा था, लेकिन वातावरण में हिना की तेज खूशबू बसी हुई थी. दूसरा पलंग खाली था. इस पलंग पर रणधीर औंधे मुंह लेटा खिड़की के बाहर पीपल के झुमते हुए पत्तों का नाच देख रहा था.
एक गोरी - चिट्टी लड़की अपने नंगे जिस्म को चादर से छुपाने की नाकाम कोशिश करते करते रणधीर के और भी करीब आ गई थी. उसकी सुर्ख रेशमी सलवार दूसरे पलंग पर पड़ी थी जिसके गहरे सुर्ख रंग के हजार्बंद का एक फुंदना नीचे लटक रहा था. पलंग पर उसके दूसरे कपड़े भी पड़े थे. सुनहरी फूलदार जम्फर, अंगिया, जांधिया और मचलती जवानी की वह पुकार, जो रणधीर ने घाटन लड़की के बदन की बू में सूंघी थी. वह पुकार, जो दूध के प्यासे बच्चे के रोने से ज्यादा आनंदमयी होती है. वह पुकार जो स्वप्न के दायरे से निकल कर खामोश हो गई थी.
रणधीर खिड़की के बाहर देख रहा था. उसके बिलकुल करीब पीपल के नहाये हुए पत्ते झूम रहे थे. वह उनकी मस्तीभरी कम्पन के उस पार कहीं बहुत दूर देखने की कोशिश कर रहा था, जहां गठीले बादलों में अजीब किस्म की रोशनी घुली हुई दिखाई दे रही थी. ठीक वैसे ही जैसे उस घाटन लड़की के सीने में उसे नजर आई थी ऎसी रोशनी जो पुरैसरार गुफ्तगु की तरह दबी लेकिन स्पष्ट थी.
रणधीर के पहलू में एक गोरी - चिट्टी लड़की, जिसका जिस्म दूध और घी में गुंथे आटे की तरह मुलायम था, उस जवान औरत की उरोजों में मक्खान सी नजाकत थी. लेटी थी. उसके नींद में मस्त जवान लड़की के मस्त नंगे बदन से हिना के इत्र की खुशबू आ रही थी जो अब थकी-थकी सी मालूम होती थी. रणधीर को यह दम तोड़ती और जुनून की हद तक पहुंची हुई खुशबू बहुत बुरी मालूम हुई. उसमें कुछ खटास थी, एक अजीब किस्म की खटास, जैसे बदहजमी में होती है, उदास, बेरंग, बेचैन.
रणधीर ने अपने पहलू में लेटी हुई लड़की को देखा. जिस तरह फटे हुए दूध के बेरंग पानी में सफेद मुर्दा फुटकियां तैरने लगती हैं, उसी तरह इस लड़की के दूधिया जिस्म पर खराशें और धब्बे तैर रहे थे और हिना की ऊटपटांग खुशबू. दरअसल रणधीर के मन - मस्तिष्क में वह बू बसी हुई थी, जो घाटन लड़की के जिस्म से बिना किसी बहरी कोशिश के स्वयं निकल रही थी. वह बू जो हिना के इत्र से कहीं ज्यदा हल्की - फुल्की और रस में डूबी हुई थी, जिसमें सूंघे जाने की कोशिश शामिल नहीम थी. वह खुद - ब - खुद नाक के रास्ते अंदर घुस अपनी सही मंजिल पर पहुंच जाती थी.
लड़की के स्याह बालों में चांदी के बुरादे के कण की तह जमे हुए थे. चेहरे पर पाउडर, सुर्खी और चांदी के बुरादे के इन कणों ने मिल - जुल कर एक अजीब रंग पैदा कर दिया था. बेनाम सा उड़ा - उड़ा रंग और उसके गोरे सीने पर कच्चे रंग की अंगिया ने जगह - जगह सुर्ख ध्ब्बे बना दिये थे.
लड़की की छातियां दूध की तरह सफेद थी. उनमें हल्का - हल्का नीलापन भी थी. बगलों में बाल मुंड़े हुए थे, जिसकी वजह से वहां सुरमई गुब्बार सा पैदा हो गया था. रणधीर लड़की की तरफ देख-देख्कर कई बार सोच चुका था, क्यों ऎसा नहीं लगता, जैसे मैने अभी-अभी कीलें उखाड़कर उसे लकड़ी के बंद बक्से से निकाला हो? अमूमन किताबों और चीनी के बर्तनों पर जैसी हल्की हल्की खराशें पड़ जाती हैं, ठीक उसी प्रकार उस लड़की के नंगी जवान जिस्म पर भी कई निशान थी.
जब रणधीर ने उसके तंग और चुस्त अंगिया की डोरियां खोली थी तो उसकी पीठ और सामने सीने पर नर्म - नर्म गोश्त की झुर्रियां सी दिखाई दी थी और कमर के चारों तरफ कस्कर बांधे हुए इजार्बद का निशान भी. वजनी और नुकीले नेक्लेस से उसके सीने पर कई जगह खराशें पड़ गई थीं, जैसे नाखूनों से बड़े जोर से खुजलाया गया हो.
बरसात के यही दिन थे, पीपल के नर्म नर्म पत्तों पर बारिश की बूंदें गिरने से वैसी ही आवाज पैदा हो रही थी, जैसी रण्धीर उस दिन सारी रात सुनता रहा था. मौसम बेहद सुहाना था. ठंडी ठंडी हवा चल रही थी . उसमें हिना के इत्र की तेज खुशबू घुली हुई थी.
रणधीर के हाथ देर तक उस गोरी लड़की के क्च्चे दूध की तरह सफेद स्तनों पर हवा के झोंकों की तरह फिरते रहे थे. उसकी अंगुलियों ने उस गोरे गोरे बदन में कई चिनगारियां दौड़ती हुई महसूस की थीम. उस नाजुक बदन में कई जगहों पर सिमटे हुए क्म्पन का भी उसे पता चला था. जब उसने अपना सीना उसके सीना के साथ मिलाया तो रणधीर के जिस्म के हर रोंगटे ने उस लड़की के बदन के छिड़े तारों की भी आवाज सुनी थी, मगर वह आवाज कहां थी?
रणधीर ने आखिरी कोशिश के तौर पर उस लड़की के दूधिया जिस्म पर हाथ फेरा, लेकिन उसे कोई कपंकंपी महसूस नहीं हुई. उसकी नई नवेली दुल्हन, जो कमशीन कली थी, जो फर्स्ट क्लास मजिस्ट्रेट की बेटी थी और जो अपने कालेज के सैकड़ों दिलों की धड़कन थी, रणधीर की किसी भी चेतना को छू न सकी. वह हिना की खुशबू में उस बू को तलाश रहा था, जो इन्हीं दिनों जब खिड़की के बाहर पीपल के पत्ते बारिश में नहा रहे थे, उस घाटन लड़की के मैले बदन से आई थी ।





 4/ ठंडा गोश्त


ईश्वरसिंह ज्यों ही होटल के कमरे में दांखिला हुआ, कुलवन्त कौर पलंग पर से उठी। अपनी तेज-तेज आँखों से उसकी तरफ घूरकर देखा और दरवाजे की चिटखनी बन्द कर दी। रात के बारह बज चुके थे। शहर का वातावरण एक अजीब रहस्यमयी खामोशी में गर्क था।
कुलवन्त कौर पलंग पर आलथी-पालथी मारकर बैठ गयी। ईशरसिंह, जो शायद अपने समस्यापूर्ण विचारों के उलझे हुए धागे खोल रहा था, हाथ में किरपान लेकर उस कोने में खड़ा था। कुछ क्षण इसी तरह खामोशी में बीत गये। कुलवन्त कौर को थोड़ी देर के बाद अपना आसन पसन्द न आया और दोनों टाँगें पलंग के नीचे लटकाकर उन्हें हिलाने लगी। ईशरसिंह फिर भी कुछ न बोला।
कुलवन्त कौर भरे-भरे हाथ-पैरों वाली औरत थी। चौड़े-चकले कूल्हे थुल-थुल करने वाले गोश्त से भरपूर। कुछ बहुत ही ज्यादा ऊपर को उठा हुआ सीना,तेज आँखें, ऊपरी होंठ पर सुरमई गुबार, ठोड़ी की बनावट से पता चलता था कि बड़े धड़ल्ले की औरत है।
ईशरसिंह सिर नीचा किये एक कोने में चुपचाप खड़ा था। सिर पर उसके कसकर बाँधी हुई पगड़ी ढीली हो रही थी। उसने हाथ में जो किरपान थामी हुई थी, उसमें थोड़ी-थोड़ी कम्पन थी, उसके आकार-प्रकार और डील-डौल से पता चलता था कि वह कुलवन्त कौर जैसी औरत के लिए सबसे उपयुक्त मर्द है।
कुछ क्षण जब इसी तरह खामोशी में बीत गये तो कुलवन्त कौर छलक पड़ी, लेकिन तेज-तेज आँखों को नचाकर वह सिर्फ इस कदर कह सकी-''ईशरसियाँ!''
ईशरसिंह ने गर्दन उठाकर कुलवन्त कौर की तरफ देखा, मगर उसकी निगाहों की गोलियों की ताब न लाकर मुँह दूसरी तरफ मोड लिया।
कुलवन्त कौर चिल्लायी-''ईशरसिंह!'' लेकिन फौरन ही आवांज भींच ली, पलंग पर से उठकर उसकी तरफ होती हुई बोली-''कहाँ गायब रहे तुम इतने दिन?''
ईशरसिंह ने खुश्क होठों पर जबान फेरी, ''मुझे मालूम नहीं।''
कुलवन्त कौर भन्ना गयी, ''यह भी कोई माइयावाँ जवाब है!''
ईशरसिंह ने किरपान एक तरफ फेंक दी और पलंग पर लेट गया। ऐसा मालूम होता था, वह कई दिनों का बीमार है। कुलवन्त कौर ने पलंग की तरफ देखा, जो अब ईशरसिंह से लबालब भरा था और उसके दिल में हमदर्दी की भावना पैदा हो गयी। चुनांचे उसके माथे पर हाथ रखकर उसने बड़े प्यार से पूछा-''जानी, क्या हुआ तुम्हें?''
ईशरसिंह छत की तरफ देख रहा था। उससे निगाहें हटाकर उसने कुलवन्त कौर ने परिचित चेहरे की टटोलना शुरू किया-''कुलवन्त।''
आवांज में दर्द था। कुलवन्त कौर सारी-की-सारी सिमटकर अपने ऊपरी होंठ में आ गयी, ''हाँ, जानी।'' कहकर वह उसको दाँतों से काटने लगी।
ईशरसिंह ने पगड़ी उतार दी। कुलवन्त कौर की तरफ सहारा लेनेवाली निगाहों से देखा। उसके गोश्त भरे कुल्हे पर जोर से थप्पा मारा और सिर को झटका देकर अपने-आपसे कहा, ''इस कुड़ी दा दिमांग ही खराब है।''
झटके देने से उसके केश खुल गये। कुलवन्त अँगुलियों से उनमें कंघी करने लगी। ऐसा करते हुए उसने बड़े प्यार से पूछा, ''ईशरसियाँ, कहाँ रहे तुम इतने दिन?''
''बुरे की मां के घर।'' ईशरसिंह ने कुलवन्त कौर को घूरकर देखा और फौरन दोनों हाथों से उसके उभरे हुए सीने को मसलने लगा-''कसम वाहे गुरु की,बड़ी जानदार औरत हो!''
कुलवन्त कौर ने एक अदा के साथ ईशरसिंह के हाथ एक तरफ झटक दिये और पूछा, ''तुम्हें मेरी कसम, बताओ कहाँ रहे?-शहर गये थे?''
ईशरसिंह ने एक ही लपेट में अपने बालों का जूड़ा बनाते हुए जवाब दिया, ''नहीं।''
कुलवन्त कौर चिढ़ गयी, ''नहीं, तुम जरूर शहर गये थे-और तुमने बहुत-सा रुपया लूटा है, जो मुझसे छुपा रहे हो।''
''वह अपने बाप का तुख्म न हो, जो तुमसे झूठ बोले।''
कुलवन्त कौर थोड़ी देर के लिए खामोश हो गयी, लेकिन फौरन ही भड़क उठी, ''लेकिन मेरी समझ में नहीं आता उस रात तुम्हें हुआ क्या?-अच्छे-भले मेरे साथ लेटे थे। मुझे तुमने वे तमाम गहने पहना रखे थे, जो तुम शहर से लूटकर लाए थे। मेरी पप्पियाँ ले रहे थे। पर जाने एकदम तुम्हें क्या हुआ, उठे और कपड़े पहनकर बाहर निकल गये।''
ईशरसिंह का रंग जर्द हो गया। कुलवन्त ने यह तबदीली देखते ही कहा, ''देखा, कैसे रंग पीला पड़ गया ईशरसियाँ, कसम वाहे गुरु की, जरूर कुछ दाल में काला है।''
''तेरी जान कसम, कुछ भी नहीं!''
ईशरसिंह की आवांज बेजान थी। कुलवन्ता कौर का शुबहा और ज्यादा मजबूत हो गया। ऊपरी होंठ भींचकर उसने एक-एक शब्द पर जोर देते हुए कहा, ''ईशरसियाँ, क्या बात है, तुम वह नहीं हो, जो आज से आठ रोज पहले थे।''
ईशरसिंह एकदम उठ बैठा, जैसे किसी ने उस पर हमला किया था। कुलवन्त कौर को अपने मजबूत बाजुओं में समेटकर उसने पूरी ताकत के साथ झ्रझोड़ना शुरू कर दिया, ''जानी, मैं वहीं हूं-घुट-घुट कर पा जफ्फियाँ, तेरी निकले हड्डाँ दी गर्मी।''
कुलवन्त कौर ने कोई बाधा न दी, लेकिन वह शिकायत करती रही, ''तुम्हें उस रात या हो गया था?''
''बुरे की मां का वह हो गया था!''
''बताओगे नहीं?''
''कोई बात हो तो बताऊँ।''
''मुझे अपने हाथों से जलाओ, अगर झूठ बोलो।''
ईशरसिंह ने अपने बाजू उसकी गर्दन में डाल दिये और होंठ उसके होंठ पर गड़ा दिए। मूँछों के बाल कुलवन्त कौर के नथूनों में घुसे, तो उसे छींक आ गयी। ईशरसिंह ने अपनी सरदी उतार दी और कुलवन्त कौर को वासनामयी नंजरों से देखकर कहा, ''आओ जानी, एक बाजी ताश की हो जाए।''
कुलवन्त कौर के ऊपरी होंठ पर पसीने की नन्ही-नन्ही बूंदें फूट आयीं। एक अदा के साथ उसने अपनी आँखों की पुतलियाँ घुमायीं और कहा, ''चल, दफा हो।''
ईशरसिंह ने उसके भरे हुए कूल्हे पर जोर से चुटकी भरी। कुलवन्त कौर तड़पकर एक तरफ हट गयी, ''न कर ईशरसियाँ, मेरे दर्द होता है!''
ईशरसिंह ने आगे बढ़कर कुलवन्त कौर की ऊपरी होंठ अपने दाँतों तले दबा लिया और कचकचाने लगा। कुलवन्त कौर बिलकुल पिघल गयी। ईशरसिंह ने अपना कुर्ता उतारकर फेंक दिया और कहा, ''तो फिर हो जाए तुरप चाल।''
कुलवन्त कौर का ऊपरी होंठ कँपकँपाने लगा। ईशरसिंह ने दोनों हाथों से कुलवन्त कौर की कमींज का बेरा पकड़ा और जिस तरह बकरे की खाल उतारते हैं, उसी तरह उसको उतारकर एक तरफ रख दिया। फिर उसने घूरकर उसके नंगे बदन को देखा और जोर से उसके बाजू पर चुटकी भरते हुए कहा-''कुलवन्त, कसम वाहे गुरु की! बड़ी करारी औरत हो तुम।''
कुलवन्त कौर अपने बाजू पर उभरते हुए धŽबे को देखने लगी। ''बड़ा जालिम है तू ईशरसियाँ।''
ईशरसिंह अपनी घनी काली मूँछों में मुस्काया, ''होने दे आज जालिम।'' और यह कहकर उसने और जुल्म ढाने शुरू किये। कुलवन्त कौन का ऊपरी होंठ दाँतों तले किचकिचाया, कान की लवों को काटा, उभरे हुए सीने को भँभोडा, भरे हुए कूल्हों पर आवांज पैदा करने वाले चाँटे मारे, गालों के मुंह भर-भरकर बोसे लिये, चूस-चूसकर उसका सीना थूकों से लथेड़ दिया। कुलवन्त कौर तेंज आँच पर चढ़ी हुई हांड़ी की तरह उबलने लगी। लेकिन ईशरसिंह उन तमाम हीलों के बावजूद खुद में हरकत पैदा न कर सका। जितने गुर और जितने दाँव उसे याद थे, सबके-सब उसने पिट जाने वाले पहलवान की तरह इस्तेमाल कर दिये,परन्तु कोई कारगर न हुआ। कुलवन्त कौर के सारे बदन के तार तनकर खुद-ब-खुद बज रहे थे, गैरजरूरी छेड़-छाड़ से तंग आकर कहा, ''ईश्वरसियाँ, काफी फेंट चुका है, अब पत्ता फेंक !''
यह सुनते ही ईशरसिंह के हाथ से जैसे ताश की सारी गड्डी नीचे फिसल गयी। हाँफता हुआ वह कुलवन्त के पहलू में लेट गया और उसके माथे पर सर्द पसीने के लेप होने लगे।
कुलवन्त कौर ने उसे गरमाने की बहुत कोशिश की, मगर नाकाम रही। अब तक सब कुछ मुंह से कहे बगैर होता रहा था, लेकिन जब कुलवन्त कौर के क्रियापेक्षी अंगों को सख्त निराशा हुई तो वह झल्लाकर पलंग से उतर गयी। सामने खूँटी पर चादर पड़ी थी, उसे उतारकर उसने जल्दी-जल्दी ओढ़कर और नथुने फुलाकर बिफरे हुए लहजे में कहा, ''ईशरसियाँ, वह कौन हरामजादी है, जिसके पास तू इतने दिन रहकर आया है और जिसने तुझे निचोड़ डाला है?''
कुलवन्त कौर गुस्से से उबलने लगी, ''मैं पूछती हूं, कौन है वह चड्डो-है वह उल्फती, कौन है वह चोर-पत्ता?''
ईशरसिंह ने थके हुए लहजे में कहा, ''कोई भी नहीं कुलवन्त, कोई भी नहीं।''
कुलवन्त कौर ने अपने उभरे हुए कूल्हों पर हाथ रखकर एक दृढ़ता के साथ कहा-''ईशरसियाँ! मैं आज झूठ-सच जानकर रहूँगी-खा वाहे गुरु जी की कसम-इसकी तह में कोई औरत नहीं?''
ईशरसिंह ने कुछ कहना चाहा, मगर कुलवन्त कौर ने इसकी इजाजत न दी,
''कसम खाने से पहले सोच ले कि मैं भी सरदार निहालसिंह की बेटी हूं तक्का-बोटी कर दूँगी अगर तूने झूठ बोला-ले, अब खा वाहे गुरु जी की कसम-इसकी तह में कोई औरत नहीं?''
ईशरसिंह ने बड़े दु:ख के साथ हाँ में सिर हिलाया। कुलवन्त कौर बिलकुल दीवानी हो गयी। लपककर कोने में से किरपान उठायी। म्यान को केले के छिलके की तरह उतारकर एक तरफ फेंका और ईशरसिंह पर वार कर दिया।
आन-की-आन में लहू के फव्वारे छूट पड़े। कुलवन्त कौर को इससे भी तसल्ली न हुई तो उसने वहशी बिल्लियों की तरह ईशरसिंह के केश नोचने शुरू कर दिये। साथ-ही-साथ वह अपनी नामालूम सौत को मोटी-मोटी गालियाँ देती रही। ईशरसिंह ने थोड़ी देर बाद दुबली आवांज में विनती की, ''जाने दे अब कुलवन्त, जाने दे।''
आवांज में बला का दर्द था। कुलवन्त कौर पीछे हट गयी।
खून ईशरसिंह के गले में उड़-उड़ कर उसकी मूँछों पर गिर रहा था। उसने अपने काँपते होंठ खोले और कुलवन्त कौर की तरफ शुक्रियों और शिकायतों की मिली-जुली निगाहों से देखा।
''मेरी जान, तुमने बहुत जल्दी की-लेकिन जो हुआ, ठीक है।''
कुलवन्त कौर कीर् ईष्या फिर भड़की, ''मगर वह कौन है, तेरी मां?''
लहू ईशरसिंह की जबान तक पहुँच गया। जब उसने उसका स्वाद चखा तो उसके बदले में झुरझुरी-सी दौड़ गयी।
''और मैं...और मैं भेनी या छ: आदमियों को कत्ल कर चुका हूं-इसी किरपान से।''
कुलवन्त कौर के दिमाग में दूसरी औरत थी-''मैं पूछती हूं कौन है वह हरामजादी?''
ईशरसिंह की आँखें धुँधला रही थीं। एक हल्की-सी चमक उनमें पैदा हुई और उसने कुलवन्त कौर से कहा, ''गाली न दे उस भड़वी को।''
कुलवन्त कौर चिल्लायी, ''मैं पूछती हूं, वह कौन?''
ईशरसिंह के गले में आवांज रुँध गयी-''बताता हूं,'' कहकर उसने अपनी गर्दन पर हाथ फेरा और उस पर अपनी जीता-जीता खून देखकर मुस्कराया, ''इनसान माइयाँ भी एक अजीब चीज है।''
कुलवन्त कौर उसके जवाब का इन्तजार कर रही थी, ''ईशरसिंह, तू मतलब की बात कर।''
ईशरसिंह की मुस्कराहट उसकी लहू भरी मूँछों में और ज्यादा फैल गयी, ''मतलब ही की बात कर रहा हूं-गला चिरा हुआ है माइयाँ मेरा-अब धीरे-धीरे ही सारी बात बताऊँगा।''
और जब वह बताने लगा तो उसके माथे पर ठंडे पसीने के लेप होने लगे, ''कुलवन्त ! मेरी जान-मैं तुम्हें नहीं बता सकता, मेरे साथ क्या हुआ?-इनसान कुड़िया भी एक अजीब चीज है-शहर में लूट मची तो सबकी तरह मैंने भी इसमें हिस्सा लिया-गहने-पाते और रुपये-पैसे जो भी हाथ लगे, वे मैंने तुम्हें दे दिये-लेकिन एक बात तुम्हें न बतायी?''
ईशरसिंह ने घाव में दर्द महसूस किया और कराहने लगा। कुलवन्त कौन ने उसकी तरफ तवज्जह न दी और बड़ी बेरहमी से पूछा, ''कौन-सी बात?''ईशरसिंह ने मूँछों पर जमे हुए जरिए उड़ाते हुए कहा, ''जिस मकान पर...मैंने धावा बोला था...उसमें सात...उसमें सात आदमी थे-छ: मैंने कत्ल कर दिये...इसी किरपान से, जिससे तूने मुझे...छोड़ इसे...सुन...एक लड़की थी, बहुत ही सुन्दर, उसको उठाकर मैं अपने साथ ले आया।''
कुलवन्त कौर खामोश सुनती रही। ईशरसिंह ने एक बार फिर फूँक मारकर मूँछों पर से लहू उड़ाया-कुलवन्ती जानी, मैं तुमसे क्या कहूँ, कितनी सुन्दर थी-मैं उसे भी मार डालता, पर मैंने कहा, ''नहीं ईशरसियाँ, कुलवन्त कौर ते हर रोज मजे लेता है, यह मेवा भी चखकर देख!''
कुलवन्त कौर ने सिर्फ इस कदर कहा, ''हूं।''
''और मैं उसे कन्धे पर डालकर चला दिया...रास्ते में...क़्या कह रहा था मैं...हाँ, रास्ते में...नहर की पटरी के पास, थूहड़ की झाड़ियों तले मैंने उसे लिटा दिया-पहले सोचा कि फेंटूँ, फिर खयाल आया कि नहीं...'' यह कहते-कहते ईशरसिंह की जबान सूख गयी।
कुलवन्त ने थूक निकलकर हलक तर किया और पूछा, ''फिर क्या हुआ?''
ईशरसिंह के हलक से मुश्किल से ये शब्द निकले, ''मैंने...मैंने पत्ता फेंका...लेकिन...लेकिन...।''
उसकी आवांज डूब गयी।
कुलवन्त कौर ने उसे झिंझोड़ा, ''फिर क्या हुआ?''
ईशरसिंह ने अपनी बन्द होती आँखें खोलीं और कुलवन्त कौर के जिस्म की तरफ देखा, जिसकी बोटी-बोटी थिरक रही थी-''वह...वह मरी हुई थी...लाश थी...बिलकुल ठंडा गोश्त...जानी, मुझे अपना हाथ दे...!''
कुलवन्त कौर ने अपना हाथ ईशरसिंह के हाथ पर रखा जो बर्फ से भी ज्यादा ठंडा था।





5-- टोबा टेकसिंह


बंटवारे के दो-तीन साल बाद पाकिस्तान और हिंदुस्तान की हुकूमतों को ख्याल आया कि अख्लाकी कैदियों की तरह पागलों का भी तबादला होना चाहिए, यानी जो मुसलमान पागल हिन्दुस्तान के पागलखानों में हैं उन्हें पाकिस्तान पहुंचा दिया जाय और जो हिन्दू और सिख पाकिस्तान के पागलखानों में है उन्हें हिन्दुस्तान के हवाले कर दिया जाय।
मालूम नहीं यह बात माकूल थी या गैर-माकूल थी। बहरहाल, दानिशमंदों के फैसले के मुताबिक इधर-उधर ऊँची सतह की कांफ्रेंसें हुई और िदन आखिर एक दिन पागलों के तबादले के लिए मुकर्रर हो गया। अच्छी तरह छान बीन की गयी। वो मुसलमान पागल जिनके लवाहिकीन (सम्बन्धी ) हिन्दुस्तान ही में थे वहीं रहने दिये गये थे। बाकी जो थे उनको सरहद पर रवाना कर दिया गया। यहां पाकिस्तान में चूंकि करीब-करीब तमाम हिन्दु सिख जा चुके थे इसलिए किसी को रखने-रखाने का सवाल ही न पैदा हुआ। जितने हिन्दू-सिख पागल थे सबके सब पुलिस की हिफाजत में सरहद पर पहुंचा दिये गये।
उधर का मालूम नहीं। लेकिन इधर लाहौर के पागलखानों में जब इस तबादले की खबर पहुंची तो बड़ी दिलचस्प चीमेगोइयां होने लगी। एक मुसलमान पागल जो बारह बरस से हर रोज बाकायदगी के साथ जमींदार पढ़ता था, उससे जब उसके एक दोस्त ने पूछा-
-- मोल्हीसाब। ये पाकिस्तान क्या होता है ?
तो उसने बड़े गौरो फिक्र के बाद जवाब दिया-
-- हिन्दुस्तान में एक ऐसी जगह है जहां उस्तरे बनते हैं।
ये जवाब सुनकर उसका दोस्त मुतमइन हो गया।
इसी तरह एक और सिख पागल ने एक दूसरे सिख पागल से पूछा--
-- सरदार जी हमें हिन्दुस्तान क्यों भेजा जा रहा है - हमें तो वहां की बोली नहीं आती।
दूसरा मुस्कराया-
-- मुझे तो हिन्दुस्तान की बोली आती है - हिंदुस्तानी बड़े शैतानी आकड़ -आकड़ फिरते हैं।
एक मुसलमान पागल ने नहाते-नहाते 'पाकिस्तान जिन्दाबाद' का नारा इस जोर से बुलन्द किया कि फर्श पर फिसल कर गिरा और बेहोश हो गया।
बाज पागल ऐसे थे जो पागल नहीं थे। उनमें अकसरियत ऐसे कातिलों की थी जिनके रिश्तेदारों ने अफसरों को दे- दिलाकर पागलखाने भिजवा दिया था कि फांसी के फंदे से बच जायें। ये कुछ-कुछ समझते थे कि हिंदुस्तान क्या तकसीम हुआ और यह पाकिस्तान क्या है, लेकिन सही वाकेआत से ये भी बेखबर थे। अखबारों से कुछ पता नहीं चलता था और पहरेदार सिपाही अनपढ़ और जाहिल थे। उनकी गुफ्तगू (बातचीत) से भी वो कोई नतीजा बरआमद नहीं कर सकते थे। उनको सिर्फ इतना मालूम था कि एक आदमी मुहम्मद अली जिन्ना है, जिसको कायदे आजम कहते हैं। उसने मुसलमानों के लिए एक अलाहेदा मुल्क बनाया है जिसका नाम पाकिस्तान है। यह कहां है ?इसका महल-ए-वकू (स्थल) क्या है इसके मुतअल्लिक वह कुछ नहीं जानते थे। यही वजह है कि पागल खाने में वो सब पागल जिनका दिमाग पूरी तरह माउफ नहीं हुआ था, इस मखमसे में गिरफ्तार थे कि वो पाकिस्तान में हैं या हिन्दुस्तान में। अगर हिन्दुस्तान में हैं तो पाकिस्तान कहां है। अगर वो पाकिस्तान में है तो ये कैसे हो सकता है कि वो कुछ अरसा पहले यहां रहते हुए भी हिन्दुस्तान में थे। एक पागल तो पाकिस्तान और हिन्दुस्तान, और हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के चक्कर में कुछ ऐसा गिरफ्तार हुआ कि और ज्यादा पागल हो गया। झाडू देते-देते एक दिन दरख्त पर चढ़ गया और टहनी पर बैठ कर दो घंटे मुस्तकिल तकरीर करता रहा, जो पाकिस्तान और हिन्दुस्तान के नाजुक मसअले पर थी। सिपाहियों ने उसे नीचे उतरने को कहा तो वो और ऊपर चढ़ गया। डराया, धमकाया गया तो उसने कहा-
-- मैं न हिन्दुस्तान में रहना चाहता हूं न पाकिस्तान में। मैं इस दरख्त पर ही रहूंगा।
एक एम. एससी. पास रेडियो इंजीनियर में, जो मुसलमान था और दूसरे पागलों से बिल्कुल अलग-थलग, बाग की एक खास रविश (क्यारी) पर सारा दिन खामोश टहलता रहता था, यह तब्दीली नमूदार हुई कि उसने तमाम कपड़े उतारकर दफादार के हवाले कर दिये और नंगधंडंग़ सारे बाग में चलना शुरू कर दिया।
यन्यूट के एक मौटे मुसलमान पागल ने, जो मुस्लिम लीग का एक सरगर्म कारकुन था और दिन में पन्द्रह-सोलह मरतबा नहाता था, यकलख्त (एकदम) यह आदत तर्क (छोड़)कर दी। उसका नाम मुहम्मद अली था। चुनांचे उसने एक दिन अपने जिंगले में ऐलान कर दिया कि वह कायदे आजम मोहम्मद अली जिन्ना है। उसकी देखादेखी एक सिख पागल मास्टर तारासिंह बन गया। करीब था कि उस जिंगले में खून-खराबा हो जाय, मगर दोनों को खतरनाग पागल करार देकर अलहदा-अलहदा बन्द कर दिया गया।
लाहौर का एक नौजवान हिन्दू वकील था जो मुहब्बत में मुब्तिला होकर पागल हो गया था। जब उसने सुना कि अमृतसर हिन्दुस्तान में चला गया है तो उसे बहुत दुख हुआ। इसी शहर की एक हिन्दू लड़की से उसे मुहब्बत हो गयी थी। गो उसने इस वकील को ठुकरा दिया था, मगर दीवानगी की हालत में भी वह उसको नहीं भूला था। चुनांचे वह उन तमाम मुस्लिम लीडरों को गालियां देता था, जिन्होंने मिल मिलाकर हिन्दुस्तान के दो टुकड़े कर दिये-- उसकी महबूबा हिंदुस्तानी बन गयी और वह पाकिस्तानी।
जब तबादले की बात शुरू हुई तो वकील को कई पागलों ने समझाया कि वह दिल बुरा न करे,उसको हिन्दुस्तान वापस भेज दिया जायेगा। उस हिन्दुस्तान में जहां उसकी महबूबा रहती है। मगर वह लाहौर छोड़ना नहीं चाहता था-- इस ख्याल से कि अमृतसर में उसकी प्रैक्टिस नहीं चलेगी।
यूरोपियन वार्ड में दो एंग्लो-इण्डियन पागल थे। उनको जब मालूम हुआ कि हिन्दुस्तान को आजाद करके अंग्रेज चले गये हैं तो उनको बहुत रंज हुआ। वह छुप-छुप कर इस मसअले पर गुफ्तगू करते रहते कि पागलखने में उनकी हैसियत क्या होगी। यूरापियन वार्ड रहेगा या उड़ जायगा। ब्रेकफास्ट मिलेगा या नहीं। क्या उन्हें डबलरोटी के बजाय ब्लडी इण्डियन चपाती तो जहरमार नहीं करनी पड़ेगी ?
एक सिख था जिसको पागलखाने में दाखिल हुए पन्द्रह बरस हो चुके थे। हर वक्त उसकी जबान पर अजीबोगरीब अल्फाज सुनने में आते थे, 'ओपड़ी गुड़गुड़ दी एन्क्स दी बेध्याना विमन्ग दी बाल आफ दी लालटेन।' वो न दिन में सोता था न रात में। पहरेदारों का कहना था कि पन्द्रह बरस के तवील अर्से में एक एक लम्हे के लिए भी नहीं सोया। लेटा भी नहीं था। अलबना किसी दीवार के साथ टेक लगा लेता था।
हर वक्त खड़ा रहने से उसके पांव सूज गये थे। पिंडलियां भी फूल गयीं थीं। मगर इस जिस्मानी तकलीफ के बावजूद वह लेटकर आराम नहीं करता था। हिन्दुस्तान-पाकिस्तान और पागलों के तबादले के मुतअिल्लक जब कभी पागलखाने में गुफ्तगू होती थी तो वह गौर से सुनता था। कोई उससे पूछता कि उसका क्या खयाल है तो बड़ी संजीदगी से जवाब देता, 'ओपड़ी गुड़गुड़ दी एन्क्स दी बेध्याना विमन्ग दी वाल आफ दी पाकिस्तान गवर्नमेंट।'
लेकिन बाद में आफ दी पाकिस्तान गवर्नमेंट की जगह आफ दी टोबा टेकसिंह गवर्नमेंट ने ले ली और उसने दूसरे पागलों से पूछना शुरू किया कि टोबा टेकसिंह कहां है जहां का वो रहने वाला है। लेकिन किसी को भी नहीं मालूम था कि वो पाकिस्तान में है या हिन्दुस्तान में। जो यह बताने की कोशिश करते थे वो खुद इस उलझाव में गिरफ्तार हो जाते थे कि स्याल कोटा पहले हिन्दुस्तान में होता था, पर अब सुना है कि पाकिस्तान में है। क्या पता है कि लाहौर जो अब पाकिस्तान में है कल हिन्दुस्तान में चला जायगा या सारा हिन्दुस्तान हीं पाकिस्तान बन जायेगा। और यह भी कौन सीने पर हाथ रखकर कह सकता था कि हिन्दुस्तान और पाकिस्तान दोनों किसी दिन सिरे से गायब नहीं हो जायेंगे।
उस सिख पागल के केस छिदरे होके बहुत मुख्तसर रह गये थे। चूंकि वह बहुत कम नहाता था इसलिए दाढ़ी और बाल आपस में जम गये थे जिनके बाइस (कारण) उसकी शक्ल बड़ी भयानक हो गयी थी। मगर आदमी बेजरर (अहानिकारक) था। पन्द्रह बरसों में उसने किसी से झगड़ा-फसाद नहीं किया था। पागलखाने के जो पुराने मुलाजिम थे वो उसके मुतअलिक इतना जानते थे कि टोबा टेकसिंह में उसकी कई जमीनें थीं। अच्छा खाता-पीता जमींदार था कि अचानक दिमाग उलट गया। उसके रिश्तेदार लोहे की मोटी-मोटी जंजीरों में उसे बांधकर लाये और पागलखाने में दाखिल करा गये।
महीने में एक बार मुलाकात के लिए ये लोग आते थे और उसकी खैर-खैरियत दरयाफ्त करके चले जाते थे। एक मुप्त तक ये सिलसिला जारी रहा, पर जब पाकिस्तान हिन्दुस्तान की गड़बड़ शुरू हुई तो उनका आना बन्द हो गया।
उसका नाम बिशन सिंह था। मगर सब उसे टोबा टेकसिंह कहते थे। उसको ये मालूम नहीं था कि दिन कौन-सा है, महीना कौन-सा है या कितने दिन बीत चुके हैं। लेकिन हर महीने जब उसके अजीज व अकारिब (सम्बन्धी) उससे मिलने के लिए आते तो उसे अपने आप पता चल जाता था। चुनांचे वो दफादार से कहता कि उसकी मुलाकात आ रही है। उस दिन वह अच्छी तरह नहाता, बदन पर खूब साबुन घिसता और सिर में तेल लगाकर कंघा करता। अपने कपड़े जो वह कभी इस्तेमाल नहीं करता था, निकलवा के पहनता और यूं सज-बन कर मिलने वालों के पास आता। वो उससे कुछ पूछते तो वह खामोश रहता या कभी-कभार 'ओपड़ी गुड़गुड़ दी एन्क्स दी वेध्याना विमन्ग दी वाल आफ दी लालटेन ' कह देता। उसकी एक लड़की थी जो हर महीने एक उंगली बढ़ती-बढ़ती पन्द्रह बरसों में जवान हो गयी थी। बिशन सिंह उसको पहचानता ही नहीं था। वह बच्ची थी जब भी आपने बाप को देखकर रोती थी, जवान हुई तब भी उसकी आंख में आंसू बहते थे।पाकिस्तान और हिन्दुस्तान का किस्सा शुरू हुआ तो उसने दूसरे पागलों से पूछना शुरू किया कि टोबा टेकसिंह कहां है। जब इत्मीनान बख्श (सन्तोषजनक) जवाब न मिला तो उसकी कुरेद दिन-ब- दिन बढ़ती गयी। अब मुलाकात नहीं आती है। पहले तो उसे अपने आप पता चल जाता था कि मिलने वाले आ रहे हैं, पर अब जैसे उसके दिल की आवाज भी बन्द हो गयी थी जो उसे उनकी आमद की खबर दे दिया करती थी।
उसकी बड़ी ख्वाहिश थी कि वो लोग आयें जो उससे हमदर्दी का इजहार करते थे ओर उसके लिए फल, मिठाइयां और कपड़े लाते थे। वो उनसे अगर पूछता कि टोबा टेकसिंह कहां है तो यकीनन वो उसे बता देते कि पाकिस्तान में है या हिन्दुस्तान में, क्योंकि उसका ख्याल था कि वो टोबा टेकसिंह ही से आते हैं जहां उसकी जमीनें हैं।
पागलखाने में एक पागल ऐसा भी था जो खुद को खुदा कहता था। उससे जब एक दिन बिशन सिंह ने पूछा कि टोबा टेकसिंह पाकिस्तान में है या हिन्दुस्तान में तो उसने हस्बेआदत (आदत के अनुसार) कहकहा लगाया और कहा--
-- वो न पाकिस्तान में है न हिन्दुस्तान में, इसलिए कि हमने अभी तक हुक्म नहीं लगाया।
बिशन सिंह ने इस खुदा से कई मरतबा बड़ी मिन्नत समाजत से कहा कि वो हुक्म दे दे ताकि झंझट खत्म हो, मगर वो बहुत मसरूफ था, इसलिए कि उसे ओर बेशुमार हुक्म देने थे। एक दिन तंग आकर वह उस पर बरस पड़ा, 'ओपड़ी गुड़गुड़ दी एन्क्स दी बेध्याना विमन्ग दी वाल आफ वाहे गुरूजी दा खलसा एन्ड वाहे गुरूजी की फतह। जो बोले सो निहाल सत सिरी अकाल।' उसका शायद यह मतलब था कि तुम मुसलमान के खुदा हो, सिखों के खुदा होते तो जरूर मेरी सुनते। तबादले से कुछ दिन पहले टोबा टेकसिंह का एक मुसलमान दोस्त मुलाकात के लिए आया। पहले वह कभी नहीं आया था। जब बिशन सिंह ने उसे देखा तो एक तरफ हट गया और वापस आने लगा मगर सिपाहियों ने उसे रोका-- -- ये तुमसे मिलने आया है - तुम्हारा दोस्त फजलदीन है।
बिशन सिंह ने फजलदीन को देखा और कुछ बड़बड़ाने लगा। फजलदीन ने आगे बढ़कर उसके कंधे पर हाथ रखा।
-- मैं बहुत दिनों से सोच रहा था कि तुमसे मिलूं लेकिन फुर्सत ही न मिली। तुम्हारे सब आदमी खैरियत से चले गये थे मुझसे जितनी मदद हो सकी मैने की। तुम्हारी बेटी रूप कौर...। वह कुछ कहते कहते रूक गया । बिशन सिंह कुछ याद करने लगा --
-- बेटी रूप कौर ।
फजलदीन ने रूक कर कहा-
-- हां वह भी ठीक ठाक है। उनके साथ ही चली गयी थी।
बिशन सिंह खामोश रहा। फजलदीन ने कहना शुरू किया-
-- उन्होंने मुझसे कहा था कि तुम्हारी खैर-खैरियत पूछता रहूं। अब मैंने सुना है कि तुम हिन्दुस्तान जा रहे हो। भाई बलबीर सिंह और भाई बिधावा सिंह से सलाम कहना-- और बहन अमृत कौर से भी। भाई बलबीर से कहना फजलदीन राजी-खुशी है। वो भूरी भैंसे जो वो छोड़ गये थे उनमें से एक ने कट्टा दिया है दूसरी के कट्टी हुई थी पर वो छ: दिन की हो के मर गयी और और मेरे लायक जो खिदमत हो कहना, मै। हर वक्त तैयार हूं और ये तुम्हारे लिए थोड़े से मरून्डे लाया हूं।
बिशन सिंह ने मरून्डे की पोटली लेकर पास खड़े सिपाही के हवाले कर दी और फजलदीन से पूछा- -- टोबा टेकसिंह कहां है?
--टोबा टेकसिंह... उसने कद्रे हैरत से कहा-- कहां है! वहीं है, जहां था।
बिशन सिंह ने पूछा-- पाकिस्तान में या हिन्दुस्तान में?
--हिन्दुस्तान में...। नहीं-नहीं पाकिस्तान में...।
फजलदीन बौखला-सा गया। बिशन सिंह बड़बड़ाता हुआ चला गया-- ओपड़ी गुड़गुड़ दी एन्क्स दी बेध्याना विमन्ग दी वाल आफ दी पाकिस्तान एन्ड हिन्दुस्तान आफ दी हए फिटे मुंह।
तबादले की तैयारियां मुकम्मल हो चुकी थीं। इधर से उधर और उधर से इधर आने वाले पागलों की फेहरिस्तें (सूचियां) पहुंच गयी थीं, तबादले का दिन भी मुकरर्र हो गया था। सख्त सर्दियां थीं। जब लाहौर के पागलखाने से हिन्दू-सिख पागलों से भरी हुई लारियां पुलिस के मुहाफिज दस्ते के साथ् रवाना हुई तो मुतअल्लिका (संबंधित ) अफसर भी हमराह थे। वाहगा के बार्डर पर तरफैन के (दोनों तरफ से) सुपरिटेंडेंट एक दूसरे से मिले और इब्तेदाई कार्रवाई खत्म होने के बाद तबादला शुरू हो गया जो रात भर जारी रहा।
पागलों को लारियों से निकालना और उनको दूसरे अफसरों के हवाले करना बड़ा कठिन काम था। बाज तो बाहर निकलते ही नहीं थे। जो निकलने पर रजामन्द होते थे, उनको संभालना मुश्किल हो जाता था क्योंकि इधर-उधर भाग उठते थे। जो नंगे थे उनको कपड़े पहनाये जाते, तो वो फाड़कर अपने तन से जुदा कर देते क़ोई गालियां बक रहा है, कोई गा रहा है। आपस में लड़-झगड़ रहे हैं, रो रहे हैं, बक रहे हैं। कान पड़ी आवाज सुनायी नही देती थी-- पागल औरतों का शेरोगोगा अलग था और सर्दी इतने कड़ाके की थी कि दांत बज रहे थे।
पागलों की अकसरियत इस तबादले के हक में नहीं थी। इसलिए कि उनकी समझ में आता था कि उन्हें अपनी जगह से उखाड़कर कहां फेंका जा रहा है। चन्द जो कुछ सोच रहे थे-- 'पाकिस्तान जिन्दाबाद' के नारे लगा रहे थे। दो-तीन मरतबा फसाद होते-होते बचा, क्योंकि बाज मुसलमान और सिखों को ये नारे सुनकर तैश आ गया।
जब बिशन सिंह की बारी आयी ओर वाहगा के उस पार मुतअल्लका अफसर उसका नाम रजिस्टर में दर्ज करने लगा तो उसने पूछा-- टोबा टेकसिंह कहां है? पाकिस्तान में या हिन्दुस्तान में? -मुतअल्लका अफसर हंसा--पाकिस्तान में।
यह सुनकर विशनसिंह उछलकर एक तरफ हटा और दौड़कर अपने बाकी मांदा साथियों के पास पहुंच गया। पाकिस्तानी सिपाहियों ने उसे पकड़ लिया और दूसरी तरफ ले जाने लगे। मगर उसने चलने से इन्कार कर दिया, और जोर-जोर से चिल्लाने लगा--टोबा टेकसिंह कहां है ओपड़ी गुड़गुड़ दी एन्क्स दी बेध्याना विमन्ग दी वाल आफ दी टोबा टेकसिंह एन्ड पाकिस्तान।
उसे बहुत समझाया गया कि देखों अब टोबा टेकसिंह हिन्दुस्तान में चला गया है। अगर नहीं गया तो उसे फौरन वहां भेज दिया जायगा। मगर वो न माना। जब उसको जबरदस्ती दूसरी तरफ ले जाने की कोशिश की गयी तो वह दरम्यान में एक जगह इस अन्दाज में अपनी सूजी हुई टांगों पर खड़ा हो गया जैसे अब उसे वहां से कोई ताकत नहीं हटा सकेगी।
आदमी चूंकि बेजरर था इसलिए उससे मजीद जबरदस्ती न की गयी। उसको वहीं खड़ा रहने दिया गया और बाकी काम होता रहा। सूरज निकलने से पहले साकित व साकिन (शान्त) बिशनसिंह हलक से एक फलक शगाफ (आसमान को फाड़ देने वाली ) चीख निकली -- इधर-उधर से कई अफसर दौड़ आये और देखा कि वो आदमी जो पन्द्रह बरस तक दिन-रात अपनी टांगों पर खड़ा रहा, औंधे मुंह लेटा था। उधर खारदार तारों के पीछे हिन्दुस्तान था-- इधर वैसे ही तारों के पीछे पाकिस्तान। दरमियान में जमीन के इस टुकड़े पर, जिसका कोई नाम नहीं था, टोबा टेकसिंह पड़ा था।
 

6---टिटवाल का कुत्ता




कई दिनों से दोनों तरफ से सिपाही अपने-अपने मोर्चे पर जमे हुए थे। दिन में इधर और उधर से दस-बारह गोलियाँ चल जातीं, जिनकी आवाज़ के साथ कोई इनसानी चीख बुलन्द नहीं होती थी। मौसम बहुत खुशनुमा था। हवा जंगली फूलों की महक में बसी हुई थी। पहाडिय़ों की ऊँचाइयों और ढलानों पर लड़ाई से बेखबर कुदरत, अपने रोज के काम-काज में व्यस्त थी। चिडिय़ाँ उसी तरह चहचहाती थीं। फूल उसी तरह खिल रहे थे और धीमी गति से उडऩे वाली मधुमक्खियाँ, उसी पुराने ढंग से उन पर ऊँघ-ऊँघ कर रस चूसती थीं।
जब गोलियाँ चलने पर पहाडिय़ों में आवाज़ गूँजती और चहचहाती हुई चिडिय़ाँ चौंककर उडऩे लगतीं, मानो किसी का हाथ साज के गलत तार से जा टकराया हो और उनके कानों को ठेस पहुँची हो। सितम्बर का अन्त अक्तूबर की शुरूआत से बड़े गुलाबी ढंग से गले मिल रहा था। ऐसा लगता था कि जाड़े और गर्मी में सुलह-सफाई हो रही है। नीले-नीले आसमान पर धुनी हुई रुई जैसे, पतले-पतले और हल्के-हल्के बादल यों तैरते थे, जैसे अपने सफेद बजरों में नदी की सैर कर रहे हैं।
पहाड़ी मोर्चों पर दोनों ओर से सिपाही कई दिनों से बड़ी ऊब महसूस कर रहे थे कि कोई निर्णयात्मक बात क्यों नहीं होती। ऊबकर उनका जी चाहता कि मौका-बे-मौका एक-दूसरे को शेर सुनाएँ। कोई न सुने तो ऐसे ही गुनगुनाते रहें। वे पथरीली ज़मीन पर औंधे या सीधे लेटे रहते और जब हुक्म मिलता, एक-दो फायर कर देते।
दोनों मोर्चे बड़े सुरक्षित स्थान पर थे। गोलियाँ पूरे जोर से आतीं, और पत्थरों की ढाल से टकराकर, वहीं चित्त हो जातीं। दोनों पहाडिय़ों की ऊँचाई, जिन पर ये मोर्चे थे, लगभग एक ही जैसी थीं। बीच में छोटी-सी हरी-भरी घाटी थी, जिसके सीने पर एक नाला, मोटे साँप की तरह लोटता रहता था।
हवाई जहाजों का कोई खतरा नहीं था। तोपें न इनके पास थीं, न उनके पास, इसलिए दोनों तरफ बेखटके आग लगाई जाती थी। उससे धुएँ के बादल उठते और हवाओं में घुल-मिल जाते। रात को चूँकि बिलकुल $खामोशी थी, इसलिए कभी-कभी दोनों मोर्चों के सिपाहियों को, किसी बात पर लगाए हुए, एक-दूसरे के ठहाके सुनाई दे जाते थे। कभी कोई लहर में आकर गाने लगता तो दूसरी आवाज़ गूँजती तो ऐसा लगता, मानो पहाडिय़ाँ सबक दोहरा रही हों।
चाय का दौर ख़त्म हो चुका था। पत्थरों के चूल्हे में चीड़ के हल्के-हल्के कोयले करीब-करीब ठंडे हो चुके थे। आसमान साफ था। मौसम में खुनकी थी। हवा में फूलों की महक नहीं थी, जैसे रात को उन्होंने अपने इत्रदान बन्द कर लिये थे। अलबत्ता, चीड़ के पसीने, यानी बिरोजे की बू थी। पर यह भी कुछ ऐसी नागवार नहीं थी। सब कम्बल ओढ़े सो रहे थे, पर कुछ इस तरह, कि हल्के-से इशारे पर उठकर लडऩे-मरने के लिए तैयार हो सकते थे। जमादार हरनाम सिंह खुद पहरे पर था। उसकी रासकोप घड़ी में दो बजे तो उसने गंडासिंह को जगाया और पहरे पर खड़ा कर दिया। उसका जी चाहता था कि सो जाएे, पर जब लेटा तो आँखों से नींद को इतना दूर पाया जितने कि आसमान में सितारे थे। जमादार हरनाम सिंह चित लेटा उनकी तरफ देखता रहा...और फिर गुनगुनाने लगा।
कुत्ती लेनी आ सितारेयाँ वाली...
सितारेयाँ वाली...
वे हरनाम सिंहा, ओ यारा, भावें तेरी महीं बिक जाएे
और हरनाम सिंह को आसमान पर हर तरफ सितारों वाले जूते बिखरे नज़र आये जो झिलमिल-झिलमिल कर रहे थे।
जुत्ती ले देआँ सितारेयाँ वाली...
सितारेयाँ वाली...
नी हरनाम कौर, ओ नारे, भावें मेरी महीं बिक जाएे
यह गाकर यह मुस्कराया; फिर यह सोचकर नींद नहीं आएगी, उसने उठकर और सबको जगा दिया। नार के जिक्र ने उसके दिमाग में हलचल पैदा कर दी थी। वह चाहता था कि ऊटपटाँग बातें हों, जिससे इस गीत की हरनामकौरी कैफियत पैदा हो जाएे। चुनाँचे बातें शुरू हुई, पर उखड़ी-उखड़ी रहीं। बन्तासिंह, जो उन सब में कम उम्र था और जिसकी आवाज़ सबसे अच्छी थी, एक तरफ हटकर बैठा गया। बाकी अपनी जाहिरा तौर पर मजेदार बातें करते और जम्हाइयाँ लेते रहे। थोड़ी देर के बाद बन्तासिंह ने एकदम सोज़भरी आवाज़ में 'हीर' गाना शुरू कर दिया...
हीर आख्या जोगिया झूठ बोले, कौन रूठड़े यार मनाउँदा ई
ऐसा कोई न मिलेया मैं ढूँढ़ थक्की जेहड़ा गयाँ नूँ मोड़ ल्याउँदा ई
इक बाज तों काँग ने कूँज खोही बेक्खाँ चुप है कि कुलाउँदा ई
दुक्खाँ वालेयाँ नूँ गल्लाँ सुख दियाँ नी किस्से जोड़ जहान सुनाउँदा ई
फिर कुछ रुक कर उसने हीर की इन बातों का जवाब, राँझे की ज़बान में गाया...
जेहड़े बाज तो काँग ने कूँज खोही सब्र शुक्र कर बाज फनाह होया
ऐवें हाल है एस फकीर दा नी, धन माल गया ते तबाह होया
करें सिदक ते कम मालूम होवे तेरा रब्ब रसूल गवाह होया
दुनिया छड्ड उदासियाँ पहन लइयाँ सैयद वारिसों हुन वारिस शाह होया
बन्तासिंह ने जिस तरह एकदम गाना शुरू किया था, उसी तरह वह एकदम $खामोश हो गया।
ऐसा लगता था कि खाकी पहाडिय़ों ने भी उदासियाँ पहन ली हैं। जमादार हरनाम सिंह ने थोड़ी देर के बाद किसी अनदेखी चीज को मोटी-सी गाली दी और लेट गया। सहसा रात के आख़िरी पहर की उदास-उदास फिजा में एक कुत्ते के भौंकने की आवाज़ गूँजी। सब चौंक पड़े; आवाज़ करीब से आयी थी। सूबेदार हरनाम सिंह ने उठकर कहा, ''यह कहाँ से आ गया, भौंकू?''
कुत्ता फिर भौंका। अब उसकी आवाज़ और भी नज़दीक से आयी थी। कुछ पलों के बाद, दूर झाडिय़ों में आहट हुई। बन्तासिंह उठा और उसकी तरफ बढ़ा। जब वापस आया तो उसके साथ एक आवारा-सा कुत्ता था, जिसकी दुम हिल रही थी। वह मुस्कराया, ''जमादार साहब! मैं 'हूकम्ज इधर' बोला तो कहने लगा-मैं हूँ चपड़ झुनझुन।''
सब हँसने लगे। जमादार हरनाम सिंह ने कुत्ते को पुचकारा, ''इधर आ चपड़ झुनझुन।''
कुत्ता दुम हिलाता, हरनाम सिंह के पास चला गया और यह समझकर कि शायद खाने की कोई चीज फेंकी गयी है, ज़मीन के पत्थर सूँघने लगा। जमादार हरनाम सिंह ने थैला खोलकर एक बिस्कुट निकाला और उसकी तरफ फेंका। कुत्ते ने उसे सूँघकर मुँह खोला, लेकिन हरनाम सिंह ने लपककर उसे उठा लिया, ''ठहर कहीं पाकिस्तानी तो नहीं।'' सब हँसने लगे। सरदार बन्तासिंह ने आगे बढक़र कुत्ते की पीठ पर हाथ फेरा और जमादार हरनाम सिंह से कहा, ''नहीं जमादार साहब, चपड़ झुनझुन हिंदुस्तानी है।''
जमादार हरनामसिंह हँसा और कुत्ते से मु$खातिब हुआ, ''निशानी दिखा ओये।''
कुत्ता दुम हिलाने लगा। हरनाम सिंह ज़रा खुलकर हँसा, ''यह कोई निशानी नहीं। दुम तो सारे कुत्ते हिलाते हैं।''
बन्दा सिंह ने कुत्ते की काँपती दुम पकड़ ली, ''शरणार्थी है बेचारा।''
जमादार हरनाम सिंह ने बिस्कुट फेंका, जो कुत्त ने झट दबोचा लिया। एक जवान ने अपने बूट की एड़ी से ज़मीन खोटते हुए कहा, ''अब कुत्तों को भी या तो हिंदुस्तानी होना पड़ेगा। या पाकिस्तानी।''
जमादार ने अपने थैले से एक और बिस्कुट निकाला और फेंका, ''पाकिस्तानियों की तरह पाकिस्तानी कुत्ते भी गोली से उड़ा दिये जाएँगे।''
एक ने जोर से नारा लगाया-''हिन्दुस्तान ज़िन्दाबाद।''
कुत्ता, जो बिस्कुट उठाने के लिए आगे बढ़ा था, डरकर पीछे हट गया। उसकी दुम टाँगों के अन्दर घुस गयी। जमादार हरनाम सिंह हँसा, ''अपने नारे से क्यों डरता है। चपड़ झुनझुन...खा...ले, एक और ले।'' उसने थैले से एक और बिस्कुट निकाल कर उसे दिया।
बातों-बातों में सुबह हो गयी। सूरज निकलने का इरादा ही कर रहा था कि चारों ओर उजाला हो गया। जिस तरह बटन दबाने से एकदम बिजली की रोशनी होती है, उसी तरह सूरज की किरणें देखते-ही-देखते, उस पहाड़ी इला$के में फैल गयीं, जिनका नाम टिटवाल था।
इस इला$के में काफी देर से लड़ाई चल रही थी। एक-एक पहाड़ी के लिए द$र्जनों जवानों की जानें जाती थीं, फिर भी क़ब्$जा $गैर-य$कीनी होता था। आज यह पहाड़ी उनके पास है, कल दुश्मन के पास, परसों फिर उनके क़ब्$जे में इसके दूसरे दिन वह फिर दूसरों के पास चली जाती थी।
जमादार हरनाम सिंह ने दूरबीन लगाकर आसपास का जायजा लिया। सामने पहाड़ी में धुआँ उठ रहा था। इसका मतलब यह था कि चाय वगैरह तैयार हो रही है। इधर भी नाश्ते की फिक्र हो रही थी। आग सुलगायी जा रही थी। उधर वालों को भी निश्चय ही उधर से धुआँ उठता दिख रहा था।
नाश्ते पर सब जवानों ने थोड़ा-थोड़ा कुत्ते को दिया, जो उसने खूब पेट भरके खाया। सब उसमें दिलचस्पी ले रहे थे, जैसे वे उसको अपना दोस्त बनाना चाहते हों। पुचकार कर 'चपड़ झुनझुन' के नाम से पुकारता और उसे प्यार करता।
शाम के करीब, दूसरी तरफ, पाकिस्तानी मोर्चे में, सूबेदार हिम्मत खाँ अपनी बड़ी-बड़ी मूँछों को, जिनके साथ बेशुमार कहानियाँ जुड़ी हुई थीं, मरोड़े दे-देकर, टिटवाल के नक्शे को बड़े ध्यान से देख रहा था। उसके साथ ही वायरलैस आपरेटर बैठा था और सूबेदार हिम्मत खाँ के लिए प्लाटून कमांडर के निर्देश प्राप्त कर रहा था। कुछ दूर, एक पत्थर से टेक लगाये और अपनी बन्दूक लिये, बशीर धीमे-धीमे गुनगुना रहा था...
''चन्न कित्थे गवाई आयी रात वे...
चन्न कित्थे गवाई आयी...''
बशीर ने मजे में आकर आवाज़ ज़रा ऊँची की तो सूबेदार हिम्मत खाँ की कडक़दार आवाज़ बुलन्द हुई-''ओये, कहाँ रहा है तू रात-भर?''
बशीर ने सवालिया नज़रों से हिम्मत खाँ को देखना शुरू किया, तो बशीर की बजाय किसी और से मु$खातिब था, ''बता ओये।''
बशीर ने देखा-कुछ $फासले पर वह आवारा कुत्ता बैठा था, जो कुछ दिन हुए उनके मोर्चे में बिन बुलाये मेहमान की तरह आया था और वहीं टिक गया था। बशीर मुस्कराया और कुत्ते को सम्बोधित कर बोला-
''चन्न कित्थे गँवाई आयी रात ये
चन्न कित्थे गँवाई आयी...''
कुत्ते ने जोर से दुम हिलाना शुरू किया, जिससे पथरीली ज़मीन पर झाड़ू-सी फिरने लगी।
सूबेदार हिम्मत खाँ ने एक कंकड़ उठाकर कुत्ते की तरफ फेंका, ''साले को दुम हिलाने के सिवा और कुछ नहीं आता!''
बशीर ने एकदम कुत्ते की तरफ $गौर से देखा, ''इसकी गर्दन में क्या है?'' यह कहकर वह उठा, पर इससे पहले एक और जवान के कुत्ते को पकडक़र, उसकी गर्दन में बँधी हुई रस्सी उतारी। उसमें गत्ते का एक टुकड़ा पिरोया हुआ था, जिस पर कुछ लिखा था। सूबेदार हिम्मत खाँ ने यह टुकड़ा लिया और अपने जवानों से कहा-''......... हैं। जानता है तुममें से कोई पढऩा?''
बशीर ने आगे बढक़र गत्ते का टुकड़ा लिया, ''हाँ...कुछ-कुछ पढ़ लेता हूँ।'' और उसने बड़ी मुश्किल से अक्षर जोड़-जोडक़र यह पढ़ा-''चप...चपड़ झुन...झुन...चपड़ झुनझुन...यह क्या हुआ?''
सूबेदार हिम्मत खाँ ने अपनी बड़ी-बड़ी ऐतिहासिक मूँछों को ज़बरदस्त मरोड़ दिया, ''कोडवर्ड होगा कोई।'' फिर उसने बशीर से पूछा, ''कुछ और लिखा है बशीरे?''
बशीर ने, जो अक्षर जोडऩे में लगा था, जवाब दिया, ''जी हाँ...यह... यह...हिन...हिन्द...हिंदुस्तानी...यह हिंदुस्तानी कुत्ता है।''
सूबेदार हिम्मत खाँ ने सोचना शुरू किया, ''मतलब क्या हुआ इसका? क्या पढ़ा था तुमने-चपड़...?''
बशीर ने जवाब दिया, ''चपड़ झुनझुन।''
एक जवान ने बहुत बुद्धिमान बनते हुए कहा, ''जो बात है, इसी में है।''
सूबेदार हिम्मत खाँ को यह बात माकूल लगी, ''हाँ, कुछ ऐसा ही लगता है।''
बशीर ने गत्ते पर लिखी हुई पूरी इबारत पढ़ी-''चपर झुनझुन...यह हिंदुस्तानी कुत्ता है।''
सूबेदार हिम्मत खाँ ने वायरलैस सेट लिया और कानो पर हैडफोन लगामर प्लाटून कमांडर से खुद उस कुत्ते के बारे में बातचीत की। वह कैसे आया था, किस तरह उनके पास कई दिन पड़ा रहा, फिर एकाएक $गायब हो गया और रात-भर $गायब रहा। अब आया है तो उसके गले में एक रस्सी नज़र आयी, जिसमें गत्ते पर एक टुकड़ा था। उस पर जो इबारत लिखी थी, वह उसने तीन-चार बार दोहराकर प्लाटून कमांडर को सुनायी, पर कोई नतीजा हासिल न हुआ।
बशीर अलग कुत्ते के पास बैठकर उसे कभी पुचकार कर, कभी डरा-धमकाकर पूछता रहा कि वह रात कहाँ गायब रहा था और उसके गले में वह रस्सी और गत्ते का टुकड़ा किसने बाँधा था, पर कोई मनचाहा जवाब न मिला। वह जो सवाल न करता, उसके जवाब में कुत्ता अपनी दुम हिला देता। आखिर गुस्से में आकर बशीर ने उसे पकड़ लिया और जोर का झटका दिया। कुत्ता तकलीफ़ के कारण 'चाऊँ-चाऊँ' करने लगा।
वायरलैस से निपटकर सूबेदार हिम्मत खाँ ने कुछ देर नक्शे को गौर से देखा और फिर निर्णयात्मक भाव से उठा और सिगरेट की डिबिया का ढकना खोलकर बशीर को दिया, ''बशीरे, लिख इस पर गुरमुखी में...उन कीड़े-ककोड़ों में...''
बशीर ने सिगरेट की डिबिया का गत्ता लिया और पूछा-''क्या लिखूँ सूबेदार साहब?''
सूबेदार हिम्मत खाँ ने मूँछों को मरोड़े देकर सोचना शुरू किया, ''लिख दे...बस, लिख दे।'' यह कहकर उसने जेब से पेंसिल निकालकर बशीर को दी, ''क्या लिखना चाहिए?'' उसने जैसे खुद से पूछा।
बशीर पेंसिल की नोक को होंठ से लगाकर सोचने लगा, फिर एकदम सवालिया अन्दाज में बोला-''सपड़ सुनसुन...?'' लेकिन फौरन ही सन्तुष्ट होकर उसने निर्णय-भरे लहजे में कहा-''चपड़ झुनझुन का जवाब सपड़ सुनसुन ही हो सकता है...क्या याद करेंगे अपनी माँ के सिखड़े।''
बशीर ने पेंसिल सिगरेट की डिबिया पर जमायी, ''सपड़ सुनसुन!''
''सोला आने! लिख...सप...सपड़...सुनसुन।'' यह कहकर सूबेदार हिम्मत खाँ ने जोर का ठहाका लगाया,'' और आगे लिखा, ''यह...पाकिस्तानी कुत्ता है।''
सूबेदार हिम्मत खाँ ने गत्ता बशीर के हाथ से ले लिया। पेंसिल से उसमें एक छेद किया और रस्सी में पिरोकर कुत्ते की तरफ बढ़ा, ले जा यह अपनी औलाद के पास।''
यह सुनकर सब जवान खूब हँसे। सूबेदार हिम्मत खाँ ने कुत्ते के गले में रस्सी बाँध दी। वह इस बीच अपनी दुम हिलाता रहा। इसके बाद सूबेदार ने उसे कुछ खाने को दिया और नसीहत करने के अन्दाज़ में कहा-''देखो दोस्त, गद्दारी मत करना...याद रखो, गद्दारी की सजा मौत होती है।''
कुत्ता दुम हिलाता रहा। जब वह अच्छी तरह खा चुका तो सूबेदार हिम्मत खाँ ने रस्सी से पकडक़र उसका रुख पहाड़ी की इकलौती पगडंडी की तरफ फेरा और कहा, ''जाओ, हमारा खत दुश्मनों तक पहुँचा दो...मगर देखो, वापस आ जाना...यह तुम्हारे अफसर का हुक्म है, समझे?''
कुत्ते ने अपनी दुम हिलायी और आहिस्ता-आहिस्ता पगडण्डी पर, जो बल खाती हुई, नीचे पहाड़ी के दामन में जाती थी, चलने लगा। सूबेदार हिम्मत खाँ ने अपनी बन्दूक उठायी और हवा में फायर किया।
फायर और उसकी गूँज दूसरी तरफ हिन्दुस्तानियों के मोर्चे में सुनी गयी। इसका मतलब उनकी समझ में न आया। जमादार हरनाम सिंहा पता नहीं किस बात पर चिड़चिड़ा हो रहा था, यह आवाज़ सुनकर और भी चिड़चिड़ा हो गया। उसने फायर का हुक्म दे दिया। आधा घंटे तक दोनों मोर्चों से गोलियों के बेकार बारिश होती रही। जब इस शगल से उकता गया तो जमादार हरनाम सिंह ने फायर बन्द करा दिया और दाढ़ी में कंघी करनी शुरू कर दी। इससे छुट्टी पाकर उसने जाली के अन्दर सारे बाल बड़े सलीके से जमाये और बन्ता सिंह से पूछा, ''ओय बन्ता सिंहा! चपड़ झुनझुन कहाँ गया?''
दन्ता सिंह ने चीड़ की भूखी लकड़ी से बिरोजे को अपने नाखूनों से अलग करते हुए कहा, ''पता नहीं।''
जमादार हरनाम सिंह ने कहा, ''कुत्ते को घी हजम नहीं हुआ?''
बन्ता सिंह इस मुहावरे का मतलब नहीं समझा, ''हमने तो उसे घी की कोई चीज नहीं खिलायी थी।''
यह सुनकर जमादार हरनाम सिंह बड़े जोर से हँसा, ''ओये अनपढ़! तेरे साथ तो बात करना, पंचानबे का घाटा है।''
तभी वह सिपाही, जो पहरे पर था और दूरबीन लगाए, इधर-उधर देख रहा था, एकदम चिल्लाया, ''वह...वह आ रहा है।''
सब चौंक पड़े। जमादार हरनाम सिंह ने पूछा, ''कौन?''
पहरे के सिपाही ने कहा, ''क्या नाम था उसका-चपड़ झुनझुन!''
''चपड़ झुनझुन?'' यह कह कर जमादार हरनाम सिंह उठा, ''क्या कर रहा है वो?''
पहरे के सिपाही ने जवाब दिया, ''आ रहा है।''
जमादार हरनाम सिंह ने दूरबीन उसके हाथ से ली और देखना शुरू किया, इधर ही आ रहा है।...रस्सी बँधी हुई है गले में...लेकिन यह तो उधर से आ रहा है, दुश्मन के मोर्चे से।'' कह कर उसने कुत्ते की माँ को बहुत बड़ी गाली दी। इसके बाद उसने बन्दूक उठायी और निशाना बाँधकर फायर किया। निशान चूक गया। गोली कुत्ते के कुछ फासले पर पत्थरों की किरचें उड़ाती, ज़मीन में दफन हो गयी। कुत्ता सहम कर रुक गया।
दूसरे मोर्चे में सूबेदार हिम्मत खाँ ने दूरबीन में से देखा कि कुत्ता पगडंडी पर खड़ा है। एक और फायर हुआ तो वह दुम दबाकर उल्टी तरफ भागा-सूबेदार हिम्मत खाँ के मोर्चे की तरफ। सूबेदार ने जोर से पुकारा, ''बहादुर, डरा नहीं करते...चल वापस।'' और उसने डराने के लिए एक फायर किया। कुत्ता रुक गया। उधर से जमादार हरनाम सिंह ने बन्दूक चलाई। गोली कुत्ते के कान के पास से सनसनाती हुई गुजर गयी। उसने उछलकर ज़ोर-ज़ोर से दोनों कान फटफटाने शुरू किये। उधर से सूबेदार हिम्मत खाँ ने दूसरा फायर किया। गोली उसके अगले पंजों के पास पत्थरों में धँस गयी। बौखलाकर कभी वह इधर दौड़ा, कभी उधर। उसकी इस बौखलाहट से हिम्मत खाँ और हरनाम सिंह, दोनों बहुत खुश हुए और $खूब ठहाके लगाते रहे। कुत्ते ने जमादार हरनाम सिंह के मोर्चे की तरफ भागना शुरू किया। उसने यह देखा तो बड़े ताव में आकर मोटी-सी गाली दी और अच्छी तरह निशान बाँधकर फायर किया। गोली कुत्ते की टाँग में लगी। आसमान को चीरती हुई एक चीख बुलन्द हुई। कुत्ते ने अपना रुख बदला। लँगड़ा-लँगड़ाकर सूबेदार हिम्मत खाँ के मोर्चे कि तरफ दौडऩे लगा तो उधर से भी फायर हुआ, पर वह सिर्फ डराने के लिए किया गया था। हिम्मत ख़ाँ फायर करते ही चिल्लाया, ''बहादुर...बहादुर परवाह नहीं किया करते ज़$ख्मों की। खेल जाओ अपनी जान पर...जाओ...जाओ।''
कुत्ता फायर से घबराकर मुड़ा। उसकी एक टाँग बिल्कुल बेकार हो गयी थी। बाकी तीन टाँगों की मदद से उसने खुद को चन्द कदम दूसरी ओर घसीटा था कि जमादार हरनाम सिंह ने निशाना ताककर गोली चलाई, जिसने उसे वहीं ढेर कर दिया।
सूबेदार हिम्मत खाँ ने अफसोस के साथ कहा-''च...च...च...! शहीद हो गया बेचारा।'
जमादार हरनाम सिंह ने बन्दूक की गर्म-गर्म नाली अपने हाथ में ली और कहा, 'वही मौत मरा, जो कुत्ते की होती है।''

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