बुधवार, 2 दिसंबर 2015

अहमद फराज 1931- 2008 की बेहतरीन गजलें






प्रस्तुति- स्वामी शरण

अगरचे ज़ोर हवाओं ने डाल रक्खा है
अजब जुनून-ए-मसाफ़त में घर से निकला था
अब और क्या किसी से मरासिम बढ़ाएँ हम
अब के तजदीद-ए-वफ़ा का नहीं इम्काँ जानाँ
अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें
अब क्या सोचें क्या हालात थे किस कारन ये ज़हर पिया है
अब शौक़ से कि जाँ से गुज़र जाना चाहिए
अभी कुछ और करिश्मे ग़ज़ल के देखते हैं
अव्वल अव्वल की दोस्ती है अभी
आँख से दूर न हो दिल से उतर जाएगा
आशिक़ी में 'मीर' जैसे ख़्वाब मत देखा करो
इश्क़ नश्शा है न जादू जो उतर भी जाए
इस क़दर मुसलसल थीं शिद्दतें जुदाई की
इस से पहले कि बे-वफ़ा हो जाएँ
उस का अपना ही करिश्मा है फ़ुसूँ है यूँ है
उस को जुदा हुए भी ज़माना बहुत हुआ
उस ने सुकूत-ए-शब में भी अपना पयाम रख दिया
ऐसा है कि सब ख़्वाब मुसलसल नहीं होते
ऐसे चुप हैं कि ये मंज़िल भी कड़ी हो जैसे
कठिन है राहगुज़र थोड़ी दूर साथ चलो
करूँ न याद मगर किस तरह भुलाऊँ उसे
कशीदा सर से तवक़्क़ो अबस झुकाव की थी
कहा था किस ने कि अहद-ए-वफ़ा करो उस से
क़ामत को तेरे सर्व सनोबर नहीं कहा
किसी जानिब से भी परचम न लहू का निकला
क़ुर्ब-ए-जानाँ का न मय-ख़ाने का मौसम आया
क़ुर्बत भी नहीं दिल से उतर भी नहीं जाता
क़ुर्बतों में भी जुदाई के ज़माने माँगे
क्या ऐसे कम-सुख़न से कोई गुफ़्तुगू करे
क्यूँ न हम अहद-ए-रिफ़ाक़त को भुलाने लग जाएँ
ख़ामोश हो क्यूँ दाद-ए-जफ़ा क्यूँ नहीं देते
ख़ुद को तिरे मेआर से घट कर नहीं देखा
ग़नीम से भी अदावत में हद नहीं माँगी
गिला फ़ुज़ूल था अहद-ए-वफ़ा के होते हुए
गुफ़्तुगू अच्छी लगी ज़ौक़-ए-नज़र अच्छा लगा
गुमाँ यही है कि दिल ख़ुद उधर को जाता है
ग़ुरूर-ए-जाँ को मिरे यार बेच देते हैं
ग़ैरत-ए-इश्क़ सलामत थी अना ज़िंदा थी
चल निकलती हैं ग़म-ए-यार से बातें क्या क्या
चाक-पैरहनी-ए-गुल को सबा जानती है
जब तिरी याद के जुगनू चमके
जब तुझे याद करें कार-ए-जहाँ खेंचता है
जब भी दिल खोल के रोए होंगे
जब यार ने रख़्त-ए-सफ़र बाँधा कब ज़ब्त का पारा उस दिन था
जब हर एक शहर बलाओं का ठिकाना बन जाए
जान से इश्क़ और जहाँ से गुरेज़
ज़िंदगी से यही गिला है मुझे
जिस सम्त भी देखूँ नज़र आता है कि तुम हो
जिस से ये तबीअत बड़ी मुश्किल से लगी थी
जिस्म शोला है जभी जामा-ए-सादा पहना
जुज़ तिरे कोई भी दिन रात न जाने मेरे
जो क़ुर्बतों के नशे थे वो अब उतरने लगे
जो ग़ैर थे वो इसी बात पर हमारे हुए
जो भी दरून-ए-दिल है वो बाहर न आएगा
तड़प उठूँ भी तो ज़ालिम तिरी दुहाई न दूँ
तरस रहा हूँ मगर तू नज़र न आ मुझ को
तुझ से मिल कर तो ये लगता है कि ऐ अजनबी दोस्त
तुझे है मश्क़-ए-सितम का मलाल वैसे ही
तेरी बातें ही सुनाने आए
तेरे क़रीब आ के बड़ी उलझनों में हूँ
तेरे होते हुए महफ़िल में जलाते हैं चराग़
था अबस तर्क-ए-तअल्लुक़ का इरादा यूँ भी
दिल बदन का शरीक-ए-हाल कहाँ
दिल मुनाफ़िक़ था शब-ए-हिज्र में सोया कैसा
दिल-गिरफ़्ता ही सही बज़्म सजा ली जाए
दुख फ़साना नहीं कि तुझ से कहें
दोस्त बन कर भी नहीं साथ निभाने वाला
न तेरा क़ुर्ब न बादा है क्या किया जाए
न दिल से आह न लब से सदा निकलती है
न मंज़िलों को न हम रहगुज़र को देखते हैं
न सह सका जब मसाफ़तों के अज़ाब सारे
न हरीफ़-ए-जाँ न शरीक-ए-ग़म शब-ए-इंतिज़ार कोई तो हो
नहीं कि नामा-बरों को तलाश करते हैं
नौहागरों में दीदा-ए-तर भी उसी का था
पयाम आए हैं उस यार-ए-बेवफ़ा के मुझे
पेच रखते हो बहुत साहिबो दस्तार के बीच
फ़क़ीह-ए-शहर की मज्लिस से कुछ भला न हुआ
फिर उसी रहगुज़ार पर शायद
बैठे थे लोग पहलू-ब-पहलू पिए हुए
भेद पाएँ तो रह-ए-यार में गुम हो जाएँ
मंज़िलें एक सी आवारगीयाँ एक सी हैं
मिज़ाज हम से ज़ियादा जुदा न था उस का
मिसाल-ए-दस्त-ए-ज़ुलेख़ा तपाक चाहता है
मुंतज़िर कब से तहय्युर है तिरी तक़दीर का
मुस्तक़िल महरूमियों पर भी तो दिल माना नहीं
मैं तो मक़्तल में भी क़िस्मत का सिकंदर निकला
यूँ तो पहले भी हुए उस से कई बार जुदा
यूँही मर मर के जिएँ वक़्त गुज़ारे जाएँ
ये आलम शौक़ का देखा न जाए
ये किया कि सब से बयाँ दिल की हालतें करनी
ये तबीअत है तो ख़ुद आज़ार बन जाएँगे हम
ये बे-दिली है तो कश्ती से यार क्या उतरें
ये मैं भी क्या हूँ उसे भूल कर उसी का रहा
ये शहर सेहर-ज़दा है सदा किसी की नहीं
रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ
रात के पिछले पहर रोने के आदी रोए
रोग ऐसे भी ग़म-ए-यार से लग जाते हैं
वफ़ा के बाब में इल्ज़ाम-ए-आशिक़ी न लिया
वहशत-ए-दिल सिला-ए-आबला-पाई ले ले
वहशतें बढ़ती गईं हिज्र के आज़ार के साथ

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