गुरुवार, 3 दिसंबर 2015

भुवनेश्र की कहानियां





सूर्यपूजा / 1


अँधेरी घूप गलियों में हवा लपटों की तरह ऊँचे सीले मकानों से टकराकर एकरस हिंसक आवाज करती हुई भर-भर जाती थी।
मोटा, भद्दा डॉक्टर और दुबला रोगी-सा विद्यार्थी विलास हाथ में हाथ डाले फिसलौने खड़चड़े पर खामोश चले जा रहे थे। कीचड़ से बचने के लिए वह बराबर मेढकों की तरह फुदक रहे थे...। एकबारगी विलास का पैर कीचड़ में छपक गया और वह उतावली से चिल्ला पड़ा - डॉक्टर तुम मुर्दा हो, बिल्कुल मरे हुए, इससे ज्यादा कुछ भी तो नहीं। तुम जानते हो, तुम मुर्दा हो? ...मैं तुम्हें कितना चाहता हूँ, लेकिन मेरे चाहने से क्या होता है, तुम तो मरे हुए हो।
अच्छा, अच्छा,” - डॉक्टर ने अपने हाथ का पूरा सहारा देते हुए बे-मन कहा।
मैं तुमसे इतनी साफगोई से इसलिए कर रहा हूँ कि मैं तुम्हें चाहता हूँ। क्या तुम जानते हो, मैं तुम्हें कितना चाहता हूँ?”
हाँ, हाँ... क्यों नहीं जानता।
यह तो नरक है डॉक्टर,  नरक! यह मुर्दों की बस्‍ती है। यह भरा-पूरा शहर मुर्दों की बस्ती है... बाज मरतबा तो मैं सोचने लगता हूँ कि यह बिलकुल खाली है... यह शहर है ही नहीं, यह कोई प्रेत है। डॉक्टर, क्या यह मुमकिन है कि इस मनहूस शहर में हजारो-हजारों आदमी सिर्फ खाने, पीने और सोने के लिए ही जिन्दा हैं। अँधेरा, कीचड़, आँधी, बारिश, चारों तरफ देखो, कहीं जीवन का हल्का-सा भी इशारा है? नहीं! घूमकर देखो। कोई यह यकीन करेगा कि यह एक शहर है जहाँ आदमी रहते हैं - जिन्‍दा, पूरे-पूरे मनुष्य, जो ह्यूमेनिटी कही जाती है? ...वह क्यों जिन्‍दा हैं? माताएँ प्रसव की मुसीबत आखिर क्यों झेलती हैं? ...कल्पना करो कि यह बस्ती गारत हो गयी, इसका नाम-निशान मिट गया। गोबर के चोंथ की तरह बारिश ने घुलाकर बहा दिया। लेकिन दुनिया में कोई फर्क न पड़ा। कोई जानेगा भी नहीं कि घूरे पर गोबर का एक चोंथ नहीं रहा। और कोई जाने भी क्यों... थोड़े-से क्लर्क, दुकानदार, दलाल, अ़फसर - और हर एक शहर में बिलकुल ऐसे ही क्लर्क, दुकानदार, दलाल और अफसर हैं, बिलकुल ऐसे ही! ...यह इतनी डुप्लीकेट कॉपियाँ आखिर क्यों हैं! जब खुद असल ही इतना जलील है। शायद सैकड़ों जगह इसी तरह बारिश हो रही होगी, इसी तरह हवा फुफकार रही होगी... डॉक्टर तुम इस पर भी निराश नहीं होते... इतने पर भी?
नहीं नहीं  मैं भला मायूस क्यों होउंगा ?” - डॉक्टर ने जवाब दिया जो विलास को सँभालने की मेहनतसे हाँफ-सा गया था।
हूफ् ! तुम्हें किसी बात पर गुस्सा नहीं आता? तुम मरे हुए हो न - तुम तो मुर्दा हो।
मैं तो खुद ही कहता हूँ।
तुम यह भी कहते ही तो हो, महसूस तो नहीं करते। क्या तुम महसूस करते हो कि तुम जिन्‍दा होते हुए भी एक लाश की तरह धीरे-धीरे गल रहे हो, बिथर रहे हो ? We are all decaying with little patience - little patience... हमें तो कब का मरघट पहुँच जाना चाहिए था।
वाकई कब का पहुँच जाना चाहिए था।डॉक्‍टर ने और अनमने कहा।
समझ में नहीं आता तुम किस तरह जिन्‍दा हो, यह तो मौत है, डॉक्‍टर पूरी तरह  मौत!
मौत?”   
विलास ने कुछ ही कदम चलने के बाद अपने-आपको झटककर छुड़ा लिया और करीब-करीब गिर ही पड़ा था। सँभलकर वह अपनी बहस जारी रखने के लिए एक सीली दीवार से सटकर खड़ा हो गया।
मुझे नहीं मालूम, नहीं मालूम - जब तक जिन्‍दगी से कोई Compelling Contract न हो, कोई कैसे जिन्‍दा रह सकता है।
नहीं रह सकता... लेकिन रहता ही है,” - डॉक्टर अब वाकई ऊब गया था।
जिन्‍दा रहता है? हम लोग जिन्‍दा कहाँ रहते हैं। हम लाशों की तरह सड़ते-गलते रहते हैं। हमारा खून एक क्रूर कांसप्रेसी से पानी होता रहता है, तुम इसे जिन्‍दगी कहते हो। तुमसे आब-हवा गन्दी होती है। तुम इसे जिन्‍दगी कहते हो, जिन्‍दा चीजें तुमसे छूकर झुलस जाती हैं। तुम इसे जिन्‍दगी कहते हो डॉक्टर!उसने अपने स्वाभाविक चिड़चिड़ेपन से डॉक्टर का हाथ पकड़ते हुए कहा - इसे कौन जिन्‍दगी कहेगा? ...डॉक्टर मेरे पास एक छदाम नहीं है, एक सिगरेट नहीं... एक किताब नहीं जिसे मैं बेच सकूँ, इसलिए मैंने शराब पी ली... और इसके बाद। डॉक्टर, क्या मैं जानता नहीं कि इसके बाद अथाह प्रलय है।
चलो, क्या बेवकूफी है।डॉक्टर ने कुछ डाँटकर और कुछ हौसला बँधाते हुए कहा। अँधेरे में वह फिर रेंगते हुए चल दिए। तो भी शीत हवा की लपटें इधर-उधर लपलपा जाती थीं। गीली छतों और काले दरख़्तों के ऊपर बादल धूल के बगूलों की तरह उठ रहे थे... ऊपर... ऊपर। विलास बार-बार कीचड़ में फिसल जाता था। मोड़ पर तो वह गिर ही पड़ा था, अगर डॉक्टर ने उसे इतनी कठिनाई से सँभाल न लिया होता। बाएँ बाजू पर विलास के पूरे बोझे को रोके हुए डॉक्टर वाकई थक गया था - इतना कि एक सेकेंड में उसे यह सब अयथार्थ ख्वाब-सा मालूम होने लगा। वह जानता था बिलास का हाथ जो उसके हाथ में पड़ा हुआ है, काफी ऊँचा उठ गया है और वह करीब-करीब पीछे घिसट रहा है, पर वह बहुत थक गया था और उस मकान के साथ उसके मन में एक अजीब कुरूपता आ गयी थी। अपने हाथ को जरा... आराम देने में अजाने उसने विलास का हाथ और ऊँचा कर लिया और विलास ठोकर खाकर एकबारगी गिरा-गिरा हो गया। डॉक्‍टर”, जैसे विलास का दिमाग ठोकर खाकर एकबारगी बिचक गया हो, “आओ,” हम यह दुनिया त्याग दें, बुद्ध की तरह हम इसे त्याग दें... हुम्फ - आओ, हम इसकी किसी झूठे देवता के सामने कुर्बानी दे दें,” और विलास की जबान लड़खड़ाने लगी थी... लेकिन मैं तो इस दुनिया को प्यार जो करता हूँ! डॉक्टर तुम जानते हो न मैं तुम्हें कितना चाहता हूँ, लेकिन तुम तो मुर्दा हो...मुर्दा हो । जिस पर तमक कर डॉक्टर ने एकबारगी रूखे भाव से कहा, ‘शट,’ और फिर जैसे धीरे-धीरे बच्चों की तरह सुबकने लगा।
विलास ने अपना हाथ छुड़ा लिया, “मैं इसे प्यार करता हूँ। यह दुनिया विलास को नहीं चाहती, विलास ने अपनी जिन्‍दगी बरबाद कर दी, दुनिया की दुकानदारी में उसका साझा नहीं रहा; पर विलास इसी दुनिया के अनगिनत प्रोलीटेप्रोलीतरीयत को प्यार करता है; क्योंकि उसे जीना है, जिन्‍दा रहना है।उसने डॉक्टर का, जो अनजाने उससे आ भिड़ा था, फिर हाथ पकड़ लिया। हाथ को संजीदगी से दबाते उसने डॉक्टर के मुँह के पास मुँह ले जाकर फुसलाने के स्वर में कहा - डॉक्टर, तुम समझते हो हमें जीना है, हमें जरूर जीना है, रात का जशन खत्म हो गया, सुबह को कागज की कन्दीलों की तरह हम लोग बुझे हुए फर्श पर पड़े हैं। पर देखना हम लोग फिर जल उठेंगे, डॉक्टर! डॉक्टर अब भी सुबक रहा था, वह बेहद ऊबा था। विलास हारकर चुपचाप चल दिया। दूर पर एक गीली छत पर सुबह की रमक ने एक बेशक्ल बादल बिथरा दिया था। सामने म्यूनिसिपैलिटी की लाल धुएँदार लालटेन जल रही थी। चिपकी और सूजी हुई आँख जिसमें सामने की रोशनी से खून का एक बूँद डबडबा उठा है। विलास उसे देखकर चिल्ला ही उठा - देखो, वह नई दुनिया की रोशनी है, उस दुनिया की जिसके लिए हम जिएँगे,” और वह वाकई खड़ा होकर, एक पैर मोड़कर उसे हाथ जोड़ रहा था वैसे ही जैसा उसने अपनी हिस्टरी की किताबों में सूर्यपूजकों की शक्लें देखी थीं। पर डॉक्टर अब भी सुबक रहा था, बच्चों की तरह, बेहद ऊबे हुए बच्चे की तरह।।...













एक रात / 2

इस आज’, ‘कल’, ‘अब’, ‘जब’, ‘तबसे सम्पूर्ण असहयोग कर यदि कोई सोचे क्या, खीज उठे कि इतना सब कुछ निगलकर - सहन कर इस हास्यास्पद बालि ने काल को क्यों बाँधा। इस भूत’, ‘भविष्य’, ‘वर्तमानका कार्ड - हाउस क्यों खड़ा किया, हाँ, यदि सोचे क्या, खीज उठे कि कछुए के समान सब कुछ अपने में समेटे वर्तमान कितना शीतल और कठोर है और फिर उसे देखे, उसे क्यों, सृजन के इस अन्ध विपुल जन-संघात से किसी एक कृति को उठाकर माइक्रोस्कोपिक विज्ञता में पिघला दे; पर उसी को क्यों न देखे। हाँ, उसका - स्त्री का - शरीर, उसका नाम, उसका हर रूपेण सुरक्षित होना देखे और खीज उठे।
पर खीज क्यों उठे? आखि‍र क्यों? क्या खीज जाना इतना अन्तिम है? क्या उसके बिना ट्रेजडी बरबस एक असुन्दरता से खिलखिला ही उठेगी। यह सच है, वह विज्ञान के अपरिवर्तनशील नियम से द्रव के समान जीवन के साँचे में पड़ते ही ढल गई।, उसने एक पुरुष से प्रेम किया, दूसरे से विवाह किया, एक का हृदय तोड़ दिया, और उसका फोटो चूमा, दूसरे से अधिक - अत्यधिक निकट आकर विकृत कर दिया और यदि उसके ऊपर सुरक्षित काई आँसू बहानेवाला होगा, तो वह अवश्य हँस दिया होगा।
‘‘प्रेमा’’, - उस भग्न-हृदय ने रुके हुए कंठ से कहा - ’’प्रेम, यह खेल नहीं है। यह...’’
‘‘काश ! यह खेल ही होता, सच मानो, मैं अपनी हार भुलाकर तुम्हारी विजय पर बधाई देती।’’ उसकी आत्मा पशु की आत्मा-सी रीति और सम्पूर्ण थी।
प्रेमा से उस भग्न-हृदय ने दृढ़ता से कहा - तुम पछताओगी, तुम -
‘‘सब कुछ किया है यह भी कर लूँगी।’’
जीवन का पावना रत्ती-रत्ती चुकाना होता है, उसकी आत्मा में दार्शनिक की छिछली प्रगल्भता थी। और उसके बाद उसने अपने आँसू दिखाकर छिपाए। उसकी सौगन्ध खाने के बदले में अपनी सौगन्ध खिलाई, ‘रुसवाईका अर्थ जानते हुए भी इसका प्रयोग तीन बार किया; पर इस सब पर समय की धूलि जम चुकी थी। अब वह चारों ओर से दृढ़, असम्पूर्णता में सम्पूर्ण, सम्पूर्णता में असम्पूर्ण सम्भ्रान्त रमणी थी, केशव के पत्र एक-एक अपने पति को पढ़वाकर जला दिए और अपनी पहली फेन्सी पर हँसी और पति को बलात् हँसाया। उसका फोटो अपने सोने के कमरे में टाँगा, उसके उपहारों को सहेजा, लापरवाही से डाल दिया फिर सहेजा, फिर उनकी असाधारणता भूलकर चारों ओर से एक कुशल निश्चिन्तता की साँस ली; जैसे उसका सारा जीवन, सारा अच्छा-बुरा मादा कंगारू के शिशु के समान उसके अंग ही में तो है। यह सब, पाँच वर्षों में अनियमित उपक्रम बिखरा हुआ है। इन पाँच वर्षों में केशव उससे दूर, सुदूर होता गया, निकट होने का कोई अर्थ भी न था, पर पाँच वर्ष बाद इस मेरी गो-राउण्डमें वह फिर एक-दूसरे के सामने खड़े हो गए और कुछ विचित्र हास्यास्पद जीर्ण और अपंग उनके बीच में था। उसकी कथा इस प्रकार है -
प्रेमा के पति रेलवे के ऑफिसर हैं। प्रायः हेडक्वार्टर से बाहर जाते हैं, प्रेमा उन्हें स्टेशन पहुँचाने जाती है, वह उसकी ओर देखकर मुस्कराते हैं, यह उसकी ओर। वह कुछ गंभीर बात करना चाहते हैं, यह पूछती है, वह कौन है? वह जिसके साथ कुत्ते-ही-कुत्ते हैं? वह उसका हाथ दबाते हैं, वह मुस्कराती है, ऊँची एड़ियों की शिकायत करती है और गाड़ी चल देने पर रूमाल या घबराहट में छाता हिलाती है और उसके बाद अन्यमनस्क तेज-तेज चल देती है। ऐसी ही एक रात वह अकेली नहीं अपने दो वर्षीय शिशु को लेकर पति को विदा करने आई। चलते समय उसने शिशु को लेना चाहा; पर वह न आया और वह वैसे ही बोली जाओ, इसे लिये जाओ, पापू से इसका जी ही भर जाएऔर वह सचमुच उसे लेकर चल दिए। उनका चपरासी चुटकियाँ बजा-बजाकर पोपले मुँह से उसकी हँसी की नकल कर रहा था और वह डूबकर अपने को सम्पूर्णतः भूलकर रेंगती हुई गाड़ी के साथ भागी। माई बूबीपति ने घबराकर, डरकर, खीजकर कहा - विहेवउस स्वर में खीज थी या डपट वह निश्चय न कर सकी। और एक मिनट रिक्त रुककर तेज-तेज लौट पड़ी, लौटकर देखा एक कोने में हिन्दू पानीसे पीठ अड़ाए होल्डाल पर बैठा है केशव। वह ठिठकी, डरी और फिर खड़े होकर मुस्कराने लगी; पर केशव रेलवे टाइमटेबल इस त्याग से पढ़ रहा है जैसे निरालाकी कविता हो। वह फिर मुस्कराई। अधिक हाव से और केशव उठा और उठकर रह गया।
प्रेमा ने कहा - तो बीमे का काम करते हो?’ और छठी बार निरर्थक हँस दी और केशव स्वादहीन, रंगहीन जीवन से कुछ खोज निकालने के प्रयास में उसे और भी उलझा रहा था।
और’, - प्रेमा उच्छ्वास लेकर बोली।
और केशव रिक्त नयनों से उसकी ओर देखकर बाहर अन्धकार में देखने लगा।
कपूर के यहाँ क्या खाया होगा, कुछ बनवाऊँ?’ दिक्कत है, मैं कुछ न खाऊँगी, नहीं तो अब तक बन जाता।
नहीं, नो-नो।
चाय।
ऊहूँ हूँ।
फिर चुप-चुप दोनों इतने निकट आ गए कि प्रेमा उठी अचानक भद्देपन से देखूँऔर केशव ने सिगरेट जलाई और पाँच वर्षों को तत्परता से एकत्र कर टटोलने लगा। वह प्रेमा को भूल-सा गया था। पुरुषोचित शौर्य से बाधित वह भूल ही गया था; पर आज वह सोच रहा था कि वह इससे पहले इसी तरह अचानक वहाँ, जहाँ उसे सींग भली-भाँति समा सकते हैं, इससे पहले क्यों नहीं आया और प्रेमा क्या समय-चक्र के साथ इतनी तेजी से नहीं घूमती? वह बाहर बरामदे में निकल आया। देखा, प्रेमा एक कुर्सी पर बुत बनी बैठी है। अन्धकार में अनिश्चिन्तता में, उसके पद-चाप सुनकर वह उठ खड़ी हुई और हँस दी और यह हँसी केशव की रीढ़ की हड्डी में झनझना उठी, वह चुपचाप उसके निकट गया। शायद वह देखना चाहता था, उसको आत्मा के भीतर बिलकुल उसकी राक बॉटम में देखना चाहता हो, पर यह तो, हमारा खयाल है, प्रेमा ने लाइट जला दी और बिजली के तीव्र एकरस प्रकाश से उसका मुख एकबारगी अप्रतिभ हो गया।
लो, मेरा बीमा कर लो’, वह फिर हँस दी।
और केशव ने तिलमिलाकर सिगरेट को दो बार चूसकर फेंक दिया।
वह दोनों बैठ गए और फिर चुप; पर केशव जैसे अपने आपको अचानक एक क्षण में पा गया।
कौन जानता था (उच्छवास) कि हम लोग फिर मिलेंगे इस प्रकार (स्टॉप)।
फिर मिलेंगे’... वह जैसे इन एक-एक शब्दों की सूक्ष्म ध्वनि नहीं, स्थूल शरीर दाँतों से चबाना चाहती है। केशव हताश हो गया।
प्रेमा’ - उसके वर में विचित्रता थी; पर वह इस विचित्रता से चौंकी नहीं, इंट्रीग्ड न हुई।
प्रेमा, तुम्हारे कै बच्चे हैं’ - जैसे इसी प्रश्न को करने के लिए शब्दों का दास बना हुआ है केशव। जैसे उसे यह प्रश्न करने का निर्विवाद अधिकार है। प्रेमा ने निर्विकार कहा - एक’, ‘नहीं’, जैसे वह साधारण ताश के खेल के ट्रम्पों से इनकार कर रही हो।
एक नहीं’ - वह चौंक उठा, एक विचित्र सन्तोष से, जैसे यह उत्तर पाने के लिए ही उसने यह प्रश्न किया था, फिर बोला - क्या तुम सुखी नहीं हो ?’
सुखी’ - वह बोली जैसे वह कुछ न समझ रही हो।
प्रेमा’ - अब केशव ढर्रे पर आ रहा था, उसे एक अद्भुत असन्तोष ने आन्दोलित कर दिया। वह कुर्सी को दीवार से अड़ाता था। एक बार उसने हाथ बढ़ाकर उसकी शीतल, गोरी बाँहों को भी छूना चाहा, हाँ, छूना और उसे ऐसा प्रतीत हुआ, जैसे इसमें कुछ भी अतिमता नहीं है, कुछ भी; पर प्रेमा चुप थी, शरीर और आत्मा से, यह नहीं कि वह केशव को जान-बूझकर अपने से दूर रखना चाहती थी, यह नहीं कि उसका मन इस विशेष परिस्थिति में व्यर्थ हो रहा था, वह अपनी बेबीतक को भूल गयी थी, जैसे उसके कभी कोई बच्चा न था - जैसे जीवन में कहीं से कहीं लौट आना नितान्त सरल है। इस प्रकार हँसकर बोली - तुमने बच्चों की बात क्यों पूछी?
केशव जवाब देने के लिए मुस्कराया; पर तुरन्त ही गंभीर होकर कहने लगा - अच्छा यह स्वेटर किसके लिए बुन रही हो? क्या’...
प्रेमा एकदम नाटकीय हो उठी। उसका मुख खिल गया। उसके नेत्रों से सहस्रों फूल खिल गए और एक दुत्करके वह कमरे की ओर लपकी।
केशव ने सहसा उठकर एक क्षण में उसका हाथ पकड़ लिया। उफ्, उसके हाथ कितने शीतल थे और उस क्षण की परिधि में उसने उसे छोड़ दिया। प्रेमा ने जाना, उसे सम्पूर्णतः जान लिया। उसका हाथ पकड़ना और इससे अधिक उसका छोड़ देना।
उसने कमरे में घुसकर द्वार बन्द कर लिये और नितान्त साधारण स्वर में बोली - ’’मैं सोती हूँ, तुम भी सोओ। बिस्तरा बिछा लो, नौकर कोई न आएगा।
केशव - चुप।
प्रेमा - सो गए’?
केशव - प्रेमा!
प्रेमा - सो जाओ।
केशव - (भावुकता से) प्रेमा, यहाँ आओ।
प्रेमा - हम तो सो गए।
केशव चुप-चुप-चुप जैसे वह सब कुछ प्रासंगिक द्रुतवेग से भूला जा रहा है, जैसे उसके चारों ओर के बन्धन उसे बलात् मुक्त कर देना चाहते हों और कुछ ही दूर एक स्त्री विचित्र-विचित्र; पर उसकी विचित्रता की कोई निश्चित छाया उसके मस्तिष्क तक नहीं पहुँचती थी। उसने कुछ सँभलकर कहा -
प्रेमा, मुझे नींद नहीं आ रही है, आओ कुछ देर बातें करें।
क्या बातें करें ?’ प्रेमा ने जाग्रत स्वर में कहा - कुछ!
कुछ’ - प्रेमा ने यंत्रवत् दुहराया...
नहीं’, फिर कुछ रुककर कहा - मैंने अपनी साड़ी उतर दी है।केशव चुप, उसे चुप रहने का एक कारण मिला। उसका मन इसे खोज रहा हो एक विचित्र निश्चिन्तता से जैसे उसका कोई मुख्य अंग बुझ गया और वह केन्द्र-हीन भार-हीन होकर या तो तप्त हो गया या उसकी जीवन की परिधि को वह पार कर गई - वह भौंचक्का-सा बैठा रहा और फिर कुर्सी पर गिरकर वहीं सो गया।
सवेरे दिन चढ़े नौकर ने प्रेमा को जगाया। खिड़की की ओर से मेम साहब बहू रानीकी गुहार लगाकर। वह उठी। मलिन श्रमित आँखें सूजी थीं। ओठ विकृत थे, नौकर बोला - वह बाबू सबेरे ही चले गए? सहसा उसने उसकी आँखों में देखकर इसकी तसदीक कर ली। केशव एक पत्र छोड़ गया था, भारी-सा नीला लिफाफा। उसने बार-बार उसे उलटा-पलटा और बाद में वैसा ही सन्दूक में रख दिया। दिन-भर वह कुछ अनमनी-सी रही और एक स्वेटर बुनती रही। शाम को बाहर पति का स्वर सुनकर भी न उठी। पति ने द्वार में घुसते कहा - लीजिए साहबजादे को, देख लीजिए मैंने कुछ छुटा लिया हो और फिर यह सोचकर कि कहीं यह अधिक तीता न हो गया हो, असंगत हँस दिए। नहाकर, कपड़े बदलकर उन्होंने देखा, बच्चा अनमना प्रेमा के पैरों में लिपटा और वह वैसे ही यंत्रचालित स्वेटर के फन्दे डाले जा रही है। उन्होंने कुर्सी के हत्थे पर बैठकर उसे खींचकर कहा - क्यों, बहुत नाराज होउसने बाधा न डाली, हुलसी नहीं, सहज अनमनी सूखा-मुख ऊपर उठाकर कहा - केशव।
क्या केशव यहाँ आया था ? उन्होंने सहज भाव; पर किंचित् उतावली से कहा ?
नही’, उसने अपने पति की गहरी नीली आँखों में देखकर कहा, फिर बोली - हाँ मैं उसे रात-भर स्वप्न में देखती रही जैसे वह मर गया हो, हटाओ।उसके पति ने बीच में रोके हुए कहा - मरने के लिए मैं क्या कम हूँ’, और उन्होंने उसका पूरा मुख दोनों अधर, दोनों कोरें चूम ली; पर आज वह एक अज्ञात रस की प्यासी थी। उसकी आत्मा तृषित-तृषित भारहीन हो, शून्य में उड़ना चाहती थी। खैर यह तो सब कविता है। ।..।.।










 

 

 

 

 

 

भेड़िये / 3


 भेड़िया क्या है’, खारू बंजारे ने कहा, ‘मैं अकेला पनेठी से एक भेड़िया मार सकता हूँ।मैंने उसका विश्वास कर लिया। खारू किसी चीज से नहीं डर सकता और हालाँकि 70 के आस-पास होने और एक उम्र की गरीबी के सबब से वह बुझा-बुझा सा दिखाई पड़ता था; पर तब भी उसकी ऐसी बातों का उसके कहने के साथ ही यकीन करना पड़ता था। उसका असली नाम शायद इफ्तखार या ऐसा ही कुछ था; पर उसका लघुकरण खारूबिलकुल चस्पाँ होता था। उसके चारों ओर ऐसी ही दुरूह और दुर्भेद्य कठिनता थी। उसकी आँखें ठंडी और जमी हुई थीं और घनी सफेद मूँछों के नीचे उसका मुँह इतना ही अमानुषीय और निर्दय था जितना एक चूहेदान।
जीवन से वह निपटारा कर चुका था, मौत उसे नहीं चाहती थी; पर तब भी वह समय के मुँह पर थूककर जीवित था। तुम्हारी भली या बुरी राय की परवा किए बिना भी, वह कभी झूठ नहीं बोलता था और अपने निर्दय कटु सत्य से मानो यह दिखला देता था कि सत्य भी कितना ऊसर और भयानक हो सकता है। खारू ने मुझसे यह कहानी कही उसका वह ठोस तरीका और गहरी बेसरोकारी, जिससे उसने यह कहानी कही, मैं शब्दों में नहीं लिख सकता, पर तब भी मैं यह कहानी सच मानता हूँ - इसका एक-एक लफ्ज।
मैं किसी चीज से नहीं डरता, हाँ, सिवा भेड़िये के मैं किस चीज से नहीं डरता।खारू ने कहा। एक भेड़िया नहीं, दो-चार नहीं। भेड़ियों का झुंड - 200-300 जो जाड़े की रातों में निकलते हैं और सारी दुनिया की चीजें जिनकी भूख नहीं बुझा सकतीं, उनका - उन शैतानों की फौज का कोई भी मुकाबला नहीं कर सकता। लोग कहते हैं, अकेला भेड़िया कायर होता है। यह झूठ है। भेड़िया कायर नहीं होता, अकेला भी वह सिर्फ चौकन्ना होता है। तुम कहते हो लोमड़ी चालाक होती है, तो तुम भेड़ियों को जानते ही नहीं। तुमने कभी भेड़िये को शिकार करते देखा है किसी का - बारहसिंगे का? वह शेर की तरह नाटक नहीं करता, भालू की तरह शेखी नहीं दिखाता। एक मर्तबा, सिर्फ एक मर्तबा - गेंद-सा कूदकर उसकी जाँघ में गहरा जख्म कर देता है - बस। फिर पीछे, बहुत पीछे रहकर टपकते हुए खून की लकीर पर चलकर वहाँ पहुँच जाता है। जहाँ वह बारहसिंगा कमजोर होकर गिर पड़ा है। या, उचककर एक क्षण मैं अपने से तिगुने जानवर का पेट चाक कर देता है - और वहीं चिपक जाता है। भेड़िया बला का चालाक और बहादुर जानवर है। वह थकना तो जानता ही नहीं। अच्छे पछैयाँ बैल हमारे बंजारी गड्डों को घोड़ों से तेज ले जाते हैं : और जब उन्हें भेड़िया की बू आती है, तो भागते नहीं, उड़ते हैं। लेकिन भेड़िये से तेज कोई चार पैर का जानवर नहीं दौड़ सकता...
सुनो, मैं ग्वालियर के राज से आईन में आ रहा था। अजीब सर्दी थी और भेड़िये गोलों में निकल पड़े थे। हमारा गड्डा काफी भरा था। मैं, मेरा बाप, गिरस्ती और तीन नटनियाँ - 15-15 साल की। हम लोग उन्हें पछाँह लिये जा रहे थे।
किसलिए?’ - मैंने पूछा
तुम्हारा क्या खयाल है,  मुजरा करने ? अरे बेचने के लिए। और वह किस मसरफ की हैं? ग्वालियर की नटनियाँ छोटी-छोटी गदबदी होती हैं और पंजाब में खूब बिक जाती हैं। यह लड़कियाँ होती तो बड़ी चोखी हैं, पर भारी भी खूब होती हैं। हमारे पास एक तेज बंजारी गड्डा था और तीन घोड़ों-से तेज भागनेवाले बैल।
हम लोग तड़के ही चल दिये थे, दिन-ही-दिन में हम आगे जाने वाले साथियों से मिल जाना चाहते थे। वैसे डर के लिए हमारे पास दो कमान और एक टोपीदार बंदूक थी। बैल हौसले से भाग रहे थे और हम लोग 20 मील निकल आए थे कि बड़े मियाँ ने घूमकर कहा - `खारे, भेड़िये हैं?’
मैंने तेजी से कहा - क्या कहा? भेड़िये हैं? होते तो बैल न चौंकते?’
बूढ़े ने सर हिलाकर कहा - नहीं, भेड़िये जरूर हैं। खैर, वह हमसे दस मील पीछे हैं और हमारे बैल थक चुके हैं; लेकिन हमें पचास मील और जाना है। बूढ़े ने कहा - और मैं इन भेड़ियों को जानता हूँ, पार साल इन्होंने कुछ कैदियों को खा लिया था और बेड़ियों और सिपाहियों की बंदूकों के सिवा कुछ न बचा। बंदूक भर लो!
मैंने कमानों की तान के देखा, बंदूक तोड़ी, सब ठीक था।
बारूद की नई पोंगली भी निकाल के देख ले।मेरे बाप ने कहा।
बारूद की पोंगली,’ मैंने कहा, ‘मेरे पास तो पुरानी ही वाली है।
तब बूढ़े ने मुझे गालियाँ देनी शुरू कीं - तू यह है, तू वह है।
मैंने पूरा गड्डा उलट डाला; पर नई पोंगली कहीं नहीं थी।
मेरे बाप ने भी सब टटोला - तू झूठ बोलता है, तू भेड़ियों की औलाद, मैंने तुझे नई पोंगली दी थी!पर वह बारूद यहाँ कहीं नहीं थी। मेरे बाप ने मेरी पीठ पर कुहनी मारते हुए कहा, ‘शहर पहुँचकर मैं तेरी खाल उधेड़ दूँगा, शहर पहुँचकर...और इसी वक्त अचानक बैल एकदम रुककर पूँछ हिलाकर जोर से भागे। मैंने सुना मीलों दूर एक आवाज आ रही थी, बहुत धीमी जैसे खँडहरों में भी आँधी गुजरने से आती है -
अहा हा हा  आ आ आ आ आ आ आ आ!
हवा,’ मैंने सहम के कहा। भेड़िये!मेरे बाप ने नफरत से कहा, और बैलों को एक साथ किया। पर उन्हें मार की जरूरत नहीं थी। उन्हें भेड़ियों की बू आ गई थी और वे जी तोड़कर भाग रहे थे। दूर मैं एक छाटे-से काले धब्बे को हरकत करते देख रहा था। उस सैकड़ों मील के चपटे रेगिस्तानी बंजर में तुम मीलों की चीज देख सकते हो। और दूर पर उस काले धब्बे को बादल की तरह आते मैं देख रहा था। बूढ़े ने कहा, जैसे ही वह नजदीक आ जाएँ, मारो। एक भी तीर बेकार खोया तो मैं कलेजा निकाल लूँगा।और तब उन तीन लड़कियों ने एक दूसरे से चिपटकर टिसुए (आँसू) बहाना शुरू किया। चुप रहो।मैंने उनसे कहा, तुमने आवाज निकाली और मैंने तुम्हें नीचे ढकेला।
भेड़िये बढ़ते हुए चले आते थे, हम लोग भूरी पथरीली धरती पर उड़ रहे थे, पर भेड़िये! बूढ़े ने लगामें छोड़ दीं और बंदूक सँभालकर बैठा। मैंने कमान सँभाली - मैं अँधेरे में उड़ती हुई मुर्गाबियों का शिकार कर सकता था और मेरा बाप - वह तो जिस चीज पर निशाना ताकता था अल्लाह उसे भूल जाता था। कोई 400 गज पर मेरे बाप ने आगे वाले भेड़िये को गिरा दिया। धाँय! उसने नटों की तरह एक कलाबाजी खाई; और फिर दूसरी बिलकुल नटों की तरह। बैल पागल होकर भाग रहे थे, हवा में उनके मुँह का फेन उड़कर हमारे मुँहों पर मेह की तरह गिरता था; और वे रँभा रहे थे जैसे बंजारिनें ब्यानेवाली भैंसों की नकलें करती हैं। पर भेड़िये नजदीक ही आते जा रहे थे। गिरे हुए भेड़ियों को वे बिना रुके खा लेते थे; वे उनके ऊपर तैर जाते थे। मेरे बाप ने मेरे कन्धे पर बंदूक की नली रख ली थी। धाँय-धाँय ! (मेरी गरदन पर अब तक जले का दाग है।) मैंने भी 16 तीरों से 16 ही भेड़िये गिराये, बूढ़े ने 10 मारे थे, पर तब भी वह गोल बढ़ता ही आता था।
ले बंदूक ले!उसने कहा, ‘मैं बैलों को देखूँगा।’’
उसका खयाल था कि बैल उससे भी तेज भाग सकते थे, पर यह खयाल गलत था। दुनिया के कोई बैल उससे तेज नहीं भाग सकते थे।
मैं बंदूक का भी निशाना खूब लगाता था, पर वह देशी जंग लगी बंदूक। खैर, वह लड़की उसे 5 मिनट में भर देती थी। बादीं अच्छी लड़की थी, वह बंदूक भरती थी, मैं निशाना मारता था - अचूक। मैंने दस और गिराए - धाँय-धाँय-धाँय! जब सब बारूद खत्म हो गई तो भेड़िये भी कुछ हारे-से मालूम होते थे।
मैंने कहा, ‘अब वे पिछड़ गए।
बूढ़ा हँसा - वह इतनी-सी बात से नहीं पिछड़ सकते। पर मैं मरते-मरते कह चलूँगा कि सात मुल्क के बंजारों में खारे-सा खरा निशानेबाज नहीं है।
मेरा बाप बुढ़ापे में बड़ा हँसोड़ हो गया था।
हाँ, तो भड़िये कुछ पीछे रह गए थे। उन्हें कुछ खाने को मिल गया था। सप-सप-चटबैलों पर कोड़ा बोल रहा था कि पाँच मिनट बाद ही उन्होंने फिर हमारा पीछा शुरू किया। वे हमसे 200 गज पर रह गए होंगे और बढ़ते ही आते थे। मेरे बाप ने कहा, ‘सामान निकालकर फेंको, गड्डा हल्का करो।
एकबारगी ठोकर खाकर गड्डा चरकराकर चला। पूरे बंजारों में यह गड्डा अफसर था, और सब सामान फेंककर हमने उसे फूल-सा हल्का कर दिया था, और कुछ देर तो हम भेड़िये से दूर निकलते मालूम हुए, पर तुरन्त ही वे फिर वापस आ गए।
बड़े मियाँ ने कहा, ‘अब तो, एक बैल खोल दो।
क्या?’  मैंने कहा, ‘दो बैल गड्डा खींच ले जाएँगे?’
उसने कहा, ‘अच्छा, तब एक नटनिया फेंक दो।मैंने उन तीन में से मोटी को ही उठाया और गड्डे के बाहर झुलाकर फेंक दिया। हा! ग्वालियर की नटनिया, उसे दाँत लगा दो तो वह भी भेड़ियों का मुकाबला कर ले! पहले तो वह भागी, पर यह जानकर कि भागना बेकार है, घूमकर खड़ी हो गयी और सामनेवाले भेड़िये की टाँगें पकड़ लीं। पर इससे भी क्या फायदा था। एकदम वह नजर से ओझल हो गयी। जैसे किसी कुएँ में गिर पड़ी हो। गड्डा हल्का होकर और आगे बढ़ा, पर भेड़िये फिर लौट आए।
दूसरी फेंको’, बड़े मियाँ ने कहा। पर अब की मैंने कहा, ‘आखिर क्या हम लोग सैर करने के लिए मारे-मारे फिरते हैं, एक बैल न खोल दो।
मैंने एक बैल खोल दिया। वह पीठ पर पूँछ रखकर चिंघाड़ता हुआ भागा और गोल उसके पीछे मुड़ गया।
मेरे बाप की आँखों में आँसू भर आए। बड़ा असील बैल था, बड़ा असील बैल था...,’ वह बुदबुदा रहा था।
हम बच तो गए’, मैंने कहा। पर तभी, ह्वा आ आ आ आ आ आ! गोल वापस आ गया था। आज कयामत का दिन है’, मैंने कहा और बैलों को इतना भगाया कि मेरी हथेली में खून छलछला आया।
पर भेड़िये पानी की तरह बढ़ते चले आ रहे थे और हमारे बैल मरके गिरना ही चाहते थे। दूसरी लड़की भी फेंको!मेरे बाप ने चीखकर कहा।
इन दोनों में बादीं भारी थी और कुछ सोचकर काँपते हाथों वह अपनी चाँदी की नथनी उतारने लगी थी और मैंने शायद बताया नहीं, मुझे वह कुछ अच्छी भी लगती थी।
इसलिए मैंने दूसरी से कहा, ‘तू निकल!पर उसको तो जैसे फालिज मार गया था। मैंने उसे गिरा दिया और वह जैसे गिरी थी, वैसे ही पड़ी रही। गड्डा और हल्का हो गया और तेज दौड़ने लगा। पर पाँच ही मील में भेड़िये फिर वापस आ गए। बड़े मियाँ ने गहरी साँस ली, माथा पीट लिया - हम क्या करें, भीख माँग के खाना बंजारों का दीन है, हम रईस बनने चले थे...
मैंने बादीं की तरफ देखा, उसने मेरी तरफ। मैंने कहा, ‘तुम खुद कूद पड़ोगी कि मैं तुम्हें धकेल दूँ?’ उसने चाँदी की नथ उतारकर मुझे दे दी और बाँहों से आँखें बन्द किए कूद पड़ी। गड्डा बिलकुल हवा-सा उड़ने लगा। वह पूरे बंजारों में गड्डों का अफसर था।
पर हमारे बैल बेहद थक गए और बस्ती तक पहुँचने के लिए अब भी 30 मील बाकी थे। मैं बंदूक के कुन्दे से उन्हें मार रहा था; पर भेड़िये फिर लौट आए थे।
मेरे बाप के मुँह से पसीना टपकने लगा - लाओ, दूसरा भी बैल खोल दें।
मैंने कहा, ‘यह मौत के मुँह में जाना है। हम लोग दोनों मारे जाएँगे, हमें या तुम्हें किसी को तो बचना चाहिए।
तुम ठीक कहते हो।उसने कहा, ‘मैं बूढ़ा आदमी हूँ। मेरी जिन्‍दगी खत्म हो गई। मैं कूद पड़ूँगा।
मैंने कहा, ‘हिरास मत होना। मैं जिन्दा रहा तो एक-एक भेड़िये को काट डालूँगा।
तू ही तो मेरा असली बेटा है ! मेरे बाप ने कहा और मेरे दोनों गाल चूम लिये। उसने अपने दोनों हाथों में बड़ी-बड़ी छूरियाँ ले लीं और गले में मजबूती से कपड़ा लपेट लिया।
रुको,’ उसने कहा - मैं नए जूते पहने हूँ, मैं इन्हें दस साल पहनता; पर देखो, तुम इन्हें मत पहनना, मरे हुए आदमियों के जूते नहीं पहने जाते, तुम इन्हें बेच देना।
उसने जूते खींचकर गड्डे पर फेंक दिए और भेड़ियों के बीचोबीच कूद पड़ा। मैंने पीछे घूमकर नहीं देखा, लेकिन थोड़ी देर मैं उसे चिल्लाते सुनता रहा - यह ले! यह ले! भेड़िये की औलाद! भेड़िये की औलाद! और फिर चट-चट! चट-चट! मैं ही किसी तरह भेड़ियों से बच गया।
खारू ने मेरे डरे हुए चेहरे की तरफ देखा, जोर से हँसा और फिर खखारकर बहुत-सा जमीन पर थूक दिया।
मैंने दूसरे ही साल उनमें से साठ भेड़िये और मारे।खारू ने फिर हँसकर कहा। पर उसके साथ ही उसकी आँखों में एक अनहोनी कठिनता आ गयी, और वह भूखा, नंगा उठकर सीधा खड़ा हो गया।

















डाकमुंशी / 4

कठिन पथ पर चले हुए श्रमित यात्रियों के समान एक इमली की सघन छाया में, जहाँ दो सड़कें मिली थीं, वहाँ वह कब से बैठता था, यह बतलाना कठिन है। कहानियों की भाषा में उसे अनन्त कालकहा जा सकता है; पर उसके चारों ओर एक ऐसा प्रचुर विश्राम था कि उसे देखकर ही सारी कल्पना जड़ हो जाती थी। जैसे - वह तरल कल्पना के अन्तिम बिन्दु पर पहुँचकर उसका एक दृढ़ और कटु उपहास कर रहा हो।
झुकी हुई कमर, नागफनी का डंडा, मैली अचकन, डोरों से बँधी हुई ऐनक, बगल में बस्ता दबाए हुए वह आता और अपने मैले लाल-काले धब्बों के बिस्तर पर कुछ मनीऑर्डर फॉर्म, कुछ सादे लिफाफे कुछ पुराने खत और तस्वीरों वाले अखबार लेकर बैठ जाता।
वह डाकमुंशी कहलाता था और पेशे का एक बूढ़ा खतनवीस था। बात यह थी कि एक बार लड़ाईके दिनों जब उसके गाँव का डाकमुंशी बिना छुट्टी लिये हुए इसे अपनी कुर्सी पर बिठाकर दूसरे गाँव अपनी मंगेतर को देखने चला गया, तो लोगों ने इसे डाकमुंशी कहना शुरू किया और किस तरह उसने डाकियों पर रोब रक्खा, बड़े-बड़ों को डाँटा और एक शराबी गोरे को थप्पड़ मारा, इन सबकी एक उत्ताल सजीव स्मृति उसके जीवन का एक आवश्यक अंग हो गयी थी। वह वास्तव में उस स्टेज पर पहुँच गया था, जब हम अपने ही असत्य पर विश्वास करने लगते हैं। डाकमुंशी का व्यवसाय कभी दौड़कर भी चला था, यह उसके अतिरिक्त किसी ने भी स्मरण नहीं रक्खा और इन दिनों जब शाम की तम्बाकू भी वह उधार ले जाता था, कोई अपना-पराया...
खैर, उसने इस विषय में गूढ़ चिन्तन किया था। केवल आकस्मिक दार्शनिकता से एक प्रकार की उदासीनता प्राप्त कर ली थी। वह एकाकी था, यह तो कोई बड़ी बात न थी; पर उसका जीवन संकुचित होकर केवल उसके बिस्तर और हरिजन बस्ती में एक कोठरी और खपरैल तक ही सीमित हो गया था और इस अभाव ने उसके जीवन में एक ऐसी विचित्रता और कटुता का समावेश कर दिया था, जिसे वह उसके विशेष सम्बन्ध में उदासीनताही कहकर उसके साथ न्याय किया जा सकता है; पर चीना? यहीं पर उसका जीवन बाधित था, यहीं पर रुककर वह आगे-पीछे देखता था।
लड़कों के गुल-गपाड़े, स्त्रियों के गाली-गलौज, प्रेमियों के दिनदहाड़े चुम्बनों में डाकमुंशी एक साफ कागज पर चीना का नाम लिख अपना टूटा-फूटा कलमदान लेकर पंचायत करने बैठा था। चीना पर अभियोग यह था कि वह अपनी ससुराल से भाग आई थी। दोनों वादियों की सुनकर, जिरह का ईश्यू बनाकर, जो फैसला उसने दिया था, वह दोनों ने नहीं माना। चीना ने अपने उमड़ते हुए यौवन, निखरते साँवले रंग और नेत्रों के अमृत और विष के कारण। वह एक शराबी अहीर की भानजी थी, और जीवन को गेंद के समान उछालती हुई चलती थी, रोज मरदों के दीदे निकालतीऔर स्त्रियों को गाली देती और खाती; पर वह एक साधारण सी बात पर अपनी ससुराल से भाग आई, ‘वह ससुराल से भाग आई!
और वह डाकमुंशी अपने फटे बिस्तर पर पड़ा आँखें फाड़-फाड़कर उस रात को केवल एक यही प्रखर सत्य देख रहा था।
जीवन की गति जब कुछ द्रुत हो जाती है, वह एक विश्राम-सा हो जाता है। ऐसा प्रतीत होता है कि हमने अपने बन्धनों और सीमाओं पर विजय पा ली, हम संघर्ष से ऊपर उठ गए, पर यह एक कठिन प्रवंचना है। यह न हम जान पाते हैं और न बेचारा डाकमुंशी ही जान पाया।
चीना से उसका कोई पार्थिव सम्बन्ध न था। औपन्यासिक सम्बन्ध की बात वह सोच ही क्या सकता था; पर हम आपको विश्वास दिला सकते हैं कि वह चीना के विषय में यदि चिन्तन करता भी होगा, तो एक विराग, एक तटस्थता के साथ।
साँझ को घर लौटकर वह चीना को सरलता से देखते हुए, खिलखिलाकर हँसते हुए, या किसी पर वाग्प्रहार करते हुए, नित्य देखता; पर उसके प्रत्येक रूप का उस पर एक ही प्रभाव पड़ता और वह घर आकर द्वार सावधानी से बन्द कर लेता और जब चूल्हे के धुएँ से कोठरी अभिमन्त्रित-सी हो जाती, वह आँखों को मलते हुए कहता - हरामजादी !
उसके जीवन में एक अकारण क्षोभ ने स्थान कर लिया था और उसने देखा कि उसके चारों ओर सभी वस्तुएँ दुरूह-सी हो रही हैं। रात में जब उसे नींद न आती, वह अपनी बचपन की बात सोचता, कभी जवानी की कोई विहंगम घटना उसे कचोट-सी लेती; और एक रात तो वह अपने दूर के नातेदार की बात सोच उठा, जिनके साथ वह पिछले कुम्भ में ठहरा था, और उनकी पुत्री - उसे उसका नाम भी स्मरण था - रम्मी; गोरी, दुबली, लजीली; पर न जाने क्यों वह एकाएक प्रेरित-सा हो उठा कि वह कुमारीनहीं है और वह उठकर बैठ गया और खाँसने की चेष्टा करने लगा।
चीना को उसने कई बार समझाने का निश्चय किया। क्यों? हमें विश्वास है कि यदि वह सोचता तो कारण की नगण्यता से कुंठित हो जाता; पर वह कई बार उसको बाजार से लौटते हुए, बछड़ों को रँगते हुए अकेली पाकर ठिठका; पर प्रयत्न कर भी कुछ न कह सका और देखा कि वह एक लापरवाह स्थूल हँसी हँस रही है। वह फिर खीज उठता और कभी-कभी उस दिन ग्राहकों से उलझ जाता।
कल्पना, जीवन और प्रकृति के विरुद्ध विद्रोह है। हम सूक्ष्म और सूक्ष्मातिसूक्ष्म अनुभूतियों और सहानुभूतियों के छाया-पंखों पर जीवन की तुच्छताओं और बन्धनों के ऊपर उठने का प्रयत्न करते हैं और कठिन वास्तविक जीवन को एक बार भुलावा दे देते हैं। डाकमुंशी ने भी यही किया। कब किया? इसके अनुसंधान के लिए हमें उसके गूढ़तम अन्त:देश में पैठना होगा, जहाँ से उसका सारा व्यापार एक क्रूर व्यंग्य प्रतीत होता था; पर चीना को उसने कल्पना के रंगों में रँगकर एक निश्चिन्तता का लाभ किया। उसने उसे एक निर्धारित स्थान देकर संतोष की साँस ली। अब वह चीना की ओर विषद सहानुभूति से देखता, उसके पति की बात सोचता, जो नित्य शराब पीकर उसका अपमान करता होगा, वह निर्लज्ज बाजारू स्त्री का ध्यान करता, जो चीना का जीवन नरक बनाए होगी और कभी-कभी सचमुच उसका गला रुँध जाता। एक बार उसने उस खद्दरधारी नवयुवक को भी अपनी कल्पना में स्थान दिया, जो कुछ दिन हुए सुधार के बहाने वहाँ रहा था और कई लड़कियों से छेड़खानी करता देखा गया। न जाने वह कैसे सोच गया कि चीना के भाग आने का कारण वही है; पर इस काल्पनिक असंयमता ने उसे फिर विकल कर दिया और जब उस दिन अपनी दुकान पर बैठे हुए उसने चीना को भूसी की गठरी सिर पर लादे हुए जाते देखा, वह सिहर गया। भूसी बेचकर जब वह लौटी, तो मुस्कराकर आँखें नीची कर डाकमुंशी के पास आई और एक खत लिखवाना चाहा।
चार पैसे हिन्दी-उर्दू पोस्टकार्ड, पाँच पैसे लिफाफा आधा तोला, छे पैसा एक तोला। मनीऑर्डर एक आना, तार के लिए वहाँ जाओ, साफ-साफ बोलना होगा।
एक यंत्र के समान डाकमुंशी बड़बड़ा गया, जो दिन में वह कई बार दुहराता था।
चीना ने गंगा माई’, ‘गो माताकी सौगन्ध खिलाकर अपने ससुराल वाले नगर के किसी दारोगा को एक पत्र लिखवाया और डाकमुंशी ने लिख दिया और डाक में डाल दिया। चीना एक बार फिर सौगन्ध खिलाकर, मुस्कराकर, बल खाकर चली गई; पर डाकमुंशी, जैसे वह केन्द्रविहीन हो गया हो, जैसे वह एक बार फिर जीवन आरम्भ कर रहा हो। जैसे वह पिछले जीवन का एक अप्रिय अतिथि हो। और उस साँझ को लौटते हुए जब एक बालक ने उसे रोककर इकन्नी के पैसे माँगे, वह एकदम हिंसक हो गया और आहत सर्प के समान फुफकारकर बोला -
सूअर कहीं का, बदतमीज ।
जिसने भी डाकमुंशी को देखा, उसने उसे कभी इससे पहले इस रूप में नहीं देखा था। ।।.














आजादी: एक पत्र / 5

वही मार्च का महीना फिर आ गया। आज शायद वही तारीख भी हो। पर मेरे लिखने का सबब इतना निकम्मा नहीं है। असल में प्यारे दोस्त, इस एक साल में मेरे साथ कुछ ऐसा घटगया है कि अब जब कई बार टाल चुकने के बाद मैं तुम्हें लिख रही हूँ, ऐसा हौसला होता है कि मुझे इससे कहीं पहले लिखना चाहिए था। बहरहाल, तुमने इस साल भर चुप रहकर उस समझदारी का सबूत दिया है जो हमीं लोग, हम जो इतने सबसे गु़जर चुके हैं, समझ सकते हैं।
वह स्टूडेंट जिसने उस शाम को इसाडोरा डंकन के फैशन में बहुत सी खट्टी-मिट्ठी बातें की थीं, पिछले सितम्बर में अचानक मर गई। हॉस्टल छोड़ने के कुछ दिन पहले उसने अपनी खिड़की में नागफनी का एक गमला लाकर रखा था और राम जाने मजाक या किसी गहरे दयनीय विकार में ठीक हमारे पुरखों की तरह उसे पूजना शुरू कर दिया था। फिर एक दिन वह अचानक खफीफ-सी बीमार होकर घर चली गई और करीब एक महीने बाद सुबह हम लोगों ने देखा कि हाउस मेड के पीछे एक काउब्वाय फिल्मों के मनमौजियों की तरह का आदमी उसके कमरे में से निकल रहा है। वह उसका बाप था जो उसकी चीज वस्तु लेने आया था। सो हमारी नन्हीं इसाडोरा डंकन की मौत इस तरह हुई और मेरा ख्याल है कि इस मौत के सिवा कोई भी उसके मौजूँ न थी। क्या तुम महसूस नहीं करते कि अक्सर हम न अपनी जिन्दगी जीते हैं और न अपनी मौत मरते हैं। अस्पताल के खैराती कपड़ों की-सी जिन्‍दगी न हम पर फबती है, न फिट ही होती है और हालाँकि वह साफ और धुली होती है; क्लोरोफार्म की बदबू की तरह मौत उसमें बसी रहती है। मैं बाज मर्तबा महसूस करती हूँ कि हमारी सबसे बड़ी ट्रेजेडी यह नहीं है कि हम अपनी जिन्‍दगी नहीं जीते; बल्कि हम अपनी मौत नहीं मरते। क्योंकि यह सि़र्फ मौत है जो जिन्‍दगी के ओछेपन को असम्बद्ध और बेकार घटनाओं के ढेर को एक मानी देती है। मैं जानता हूँ, आप जरूर इसे अंदोलस्ते सोफिस्त्रीकहेंगे। मुझे याद है, तुमने जो कहा था कि मैटर में न कुछ पैदा होता है और न कुछ मरता है। आदमी ने खुद पैमाइश और मौत बनाई है कि वह इस कवित्व से अपने-आप को बरतरी दे।
हाँ भुवन, मैं इस बहस को तातील देकर तुम्हें वह घटना बता दूँ, क्योंकि अगर मैं इस वक्त नहीं कहूँगी तो फिर पूरे खत में नहीं कह पाऊँगी। मैं, एक दो महीने के बच्चे की माँ हूँ।
वह कुछ इतना सहज और अचानक हुआ कि पहले तो मैं खुद अपने ही से उसे कबूल न कर सकी। निहायत मासूमी से मैं रातोरात जगकर सोचा करती थी। टर्म का आखिर हो रहा था और हॉस्पिटल-ड्यूटी से भी एक महीने की छुट्टी हो रही थी। हाँ, मैं बराबर इस नए फेनामनाके बारे में सोचती रहती थी और शुरू में ही मैंने डरने से एकटूक इन्कार कर दिया। मैं जब घर जा रही थी, तब डर शुरू हुआ - एक अनहोना धुँधला खौफ जो दिल में दर्द नहीं, झुँझलाहट और ऊब पैदा करता था। पूरे ट्रेन के सफर में अजीब-अजीब पेंच खाती रही। मैं चाहती थी, पर जान न सकी कि दूसरे लोग मुझे कैसे देखते हैं। सफर की रात बड़ी तकलीफदेह थी। मैंने ध्यान बँटाने के लिए लोगों से बातचीत शुरू की, पर वह सभी सवालों का अनमने जवाब देकर कतरा जाते थे। मुझे ऐसा क्या हो गया था! मुझ पर अजीब गुजर रही थी। यकीन करो, बाज मर्तबा तो मन ऐसा करता था कि मैं एकबारगी विलाप कर रोने लगूँ या एकबारगी चिल्ला पड़ूँ - ऐ भूचाल की सन्तानो।अब आखिरकार नींद आ गयी तो सपनों में मैं उस नागफनी के धूल से भरे सूखे बूटे को देखती रही। सुबह काठगोदाम में मन फिर स्वस्थ हो गया। रात भर के सफर के बाद काठगोदाम की गीली-गीली हवा और नीले-बिलकुल नीले - पहाड़ों की परतों पर परतों में जो जादू है, वह तुम जानते हो। अल्मोड़े तक लॉरी का सफर मैंने बड़ी अच्छी तरह किया। मेरे अन्तर में कुछ उदय हो रहा था और मुझे यकीन था कि मैं माँ से सब कुछ कह लूँगी। अल्मोड़े की चुंगी के पास फिर मेरी हिम्मत बढ़ने लगी। मैंने देखा; नए पादरी की बीवी, मिसेज नबी मेरी तरफ छाता हिला-हिलाकर भोंडे तरीके से मुस्करा रही हैं। पहले तो मेरा हँसने का जी चाहा, लेकिन तुरन्त ही ख्याल हुआ कि जब उन्हें मालूम होगा तब भी वह इसी भोंड़ी और खिसियाई-सी मुस्कान से मेरी तरफ देखेंगी और कुछ बेमानी बुदबुदाकर छाता हिलाती तेज-तेज चल देंगी और तब... और तब...।
माँ मुझे देखते ही चौकन्नी हो गयी। उन्होंने मुश्किल से साधारण होने की कोशिश की; पर मेरे लिए वह बोझ बहुत था। मैंने मुँह फोड़कर कहा - मामा, अब तो मैं साल भर बाद ही नौकरी कर सकूँगी।मामा ने पल भर को मेरी तरफ दर्द से देखा और फिर धीरे-धीरे भीतर के कमरे में चली गयीं। परदे के पीछे से उन्होंने कहा - ’’जो तुम्हारा जी चाहे करो; लेकिन प्रभू और सलीब की कसम मेरे सामने न पड़ना।
मुझे एकबारगी याद आया कि एक मौके पर इसी आवाज और लहजे में यही बात उन्होंने कही थी और मेरा मन दहल गया। पीले सिकुड़े परदे की धारियाँ तरल आग की तरह लौटने लगीं।
बचपन में मेरे सबसे बड़े भाई टिम ने एक रोज एक कुतिया पाल ली थी। उसके पीछे के दोनों पैर घायल थे और वह घिसट-घिसट कर चलती थी, शायद इसीलिए कोई भोटिया उसे छोड़ गया था। टिम ने उसे देखते ही पाल लिया और कंजड़ नाम रख दिया। ममा इस नाम पर बहुत हँसी पर कंजड़ को घर में रखने से उन्होंने साफ इन्कार कर दिया। मैंने और टिम ने फौरन रावत साहब के बँगले की मुँडेर के नीचे टाट का मकान बना दिया था। एक रोज टिम ने हाँफते हुए आकर खबर दी की कंजड़ के एक, दो, तीन, चार बच्चे हुए हैं और ममा ने इसी तरह परदे के पीछे खड़े होकर कहा था - जो तुम्हारा जी चाहे करो, लेकिन प्रभू और सलीब के लिए मेरे सामने मत पड़ना।
मैंने और टिम ने उन छोटे-छोटे चूहों के-से बच्चों को टाट में लपेटा और नारायण तिवारी के एक पोखरे में डुबा दिया। पहले वह बार-बार उभर आता था और टिम को उसे एक छड़ी से डुबोना पड़ा। उस दिन टिम अपने हाथों को दाँत से काटता घर भर में दौड़ा किया...
मैं अब न रुक सकती थी! मेरी अपनी माँ मेरे खिलाफ हो गयी थी।
हॉस्टल छुट्टियों में खाली हो चुका था, सिर्फ दो-एक फाइनल की लड़कियाँ थीं। मैं सामान रखवाकर अस्पताल आई और वहाँ मैंने सब कुछ सरूपी से कह दिया। पहले सरूपी को यकीन नहीं हुआ, जब हुआ तो वह ग्लैडिस का बच्चाया ऐसा ही कुछ चिल्लाती हुई ऊपर भागी और एक नए हाउस सर्जन को खींचती हुई ले आई - खुशी और एक्साइटमेंट से वह दीवानी हो रही थी। हाउस सर्जन हक्का-बक्का होकर देख रहा था, कहा - बच्चा? कैसा बच्चा?’ और सरूपी ने उसे हँसते हुए कमरे से ठेल दिया।
लेकिन वह आदमी कौन है?
यह ठीक है कि हम उसको किसी तरह सजा नहीं देना चाहेंगे। सजा का पूरा बोझ तुम्हीं (यानी स्त्री) को उठाना पड़ेगा। ज्यादा-से-ज्यादा हम यह कह सकते हैं कि हम तुमको सिर्फ इतनी ही सजा दें कि हम तुम्हें उस धोखेबाज बेउसूले मर्द के हवाले जिन्‍दगी भर के लिए कर दें। इसलिए औरत को अपने बरगलाने वाले का नाम बता देना फर्ज ही नहीं, एक बड़ा नैतिक और सामाजिक उत्तरदायित्व है। लेकिन मैं इज्जतदार बेरोजगार हूँ, खासी इकोनॉमिक यूनिट हूँ, इसलिए मैं कैदी के कठघरे में खड़े होने के बजाय खुद जजों की बेंच पर बैठी हूँ। छोटा-सा कस्बा है, यहाँ हर आदमी यही समझता है कि इन डॉक्टरनी साहिबा ने किसी लावारिस लड़के को पाल लिया है। लेकिन इससे भी ज्यादा कुछ है।
पिछली सर्दियों से जब वक्त करीब ही था, मैं हॉस्पिटल में ही कुछ नाइट ड्यूटी करती थी। एक दिन सुबह, जब मैं एक वार्ड से दूसरे वार्ड में जा रही थी, मैंने उसे दूर से पहचान लिया। मैंने फौरन पहचाना उसकी गंभीर और कुछ-कुछ मगरूर चाल और मत्थे के ऊपर घोंसले की तरह रक्खे हुए बालों से। ऐसी शायरों की धजा डॉक्टरों में बेहद गैर मामूली चीज है। उसने भी मुझे देख लिया और मेरे बराबर से गुजरा तो ठिठक गया। उसने कहा कि उसे लड़ाई पर कमीशन मिल रहा है; लेकिन वह खुद अपना क्लीनिक खोलना चाहता है। और कुछ ऐसी ही इधर-उधर की बातें करके वह चल दिया।
दूसरी मर्तबा नैनीताल में वह एक दिन शाम को सरूपी के साथ आ गया। बच्चा वहीं एक किबी में था और मैं सरूपी के साथ ठहरी थी। मेरी नौकरी का ठीक नहीं हुआ था, पर मेरा मन और शरीर काफी स्वस्थ था। उसे देखकर मैं एकबारगी हँस पड़ी। जाहिर है कि उसने बच्चे के बारे में सुन लिया था, फिर भी वह अनजान बना हुआ था और मैंने या सरूपी ने बच्चे की कोई बात नहीं की। उसने अपनी जिन्‍दगी की कठिनाइयों और मायूसियों का पहली बार मुझसे जिक्र किया और कहा कि शायद मजबूर होकर उसे फौज में ही जाना पड़ेगा। फिर यह उसका सामने खत पड़ा है जिसमें उसने लिखा है कि वह आठ तारीख को यानी आज बम्बई से सेल कर रहा है, शायद यह न जानते हुए कि उसकी औलाद ने एक औरत का दिल और जिन्‍दगी भरी-पूरी कर दी है। मैंने पहले ही दिन से तय कर लिया था कि मैं उसे न बताऊँगी, मैं उसे मजबूर नहीं करना चाहती हूँ और नहीं बरदाश्त कर सकती कि उसका-सा बेचारा और दयनीय पुरुष मुझ पर दया करे। अगर सच पूछो तो बच्चा उसके लिए क्या है और मेरे लिए वह ऐसा सत्य है जिसे मैंने शरीर और आत्मा की पीड़ा के जरिए महसूस किया है। इसने मेरे अन्दर अनहोनी ताकत, उमंग और आजादी की ललक पैदा कर दी है।
क्या चीज है आजादी? बिना उसे हासिल किए और बरते बिना उसके बारे में कुछ भी नहीं जानते।





मास्टरनी / 6

उस रोज सुबह से पानी बरस रहा था। साँझ तक वह पहाड़ी बस्ती एक अपार और पीले धुँधलके में डूब-सी गयी थी। छिपे हुए सुनसान रास्ते, बदनुमा खेत, छोटे-छोटे एकरस मकान - सब उस पीली धुन्ध के साथ मिलकर जैसे एकाकार हो गए थे।
औरतें घरों के दरवाजे बन्द किए सूत सुलझा रही थीं। आदमी पास के एक गाँव में गए थे। वहाँ मिशन का क्वार्टर था और एक भट्टी। वाकई, वहाँ बारिश की धीमी, एकरस और मुलायम छपाछप की कोई आवाज नहीं आ रही थी।
चार बजने से कुछ ही मिनट पहले एक कॉटेज का दरवाजा खुला। यह कॉटेज मामूली मकानों से भी नीची और छोटी थी। उसके चरमराते हुए लकड़ी के जीने से पाँच-छ: लड़के-लड़कियाँ उतर, बूढ़े किसानों की तरह झुककर, अपने बस्तों से बारिश बचाते, चुपचाप, घुमावदार रास्ते पर चलकर आँखों से ओझल हो गए। जब तक वह दिखलाई देते रहे, उनकी मास्टरनी तनी हुई चुपचाप खड़ी उसी ओर देखती रही। फिर वह दरवाजे को मजबूती और अवज्ञा से बन्द कर भीतर चली गयी।
वह एक अधेड़ ईसाई औरत थी - कठिन और गंभीर। दो साल पहले ईसाइयों के इस गाँव में आकर, एक हिन्दुस्तानी मिशनरी की मदद से, उसने यह स्कूल खोला था। इन दो सालों में उसका चेहरा और भी लम्बा, और भी पीला, और भी चिड़चिडा हो गया था। गाँव में रहते हुए भी वह गाँव से जैसे अलग थी। स्त्रियाँ उससे डरती थीं, मर्द उसको एक मर्दानी अवज्ञा से देखते थे।
आज के इतने नीले-नीले पहाड़ों और घनी धुन्ध के सामने वह काँप-सी उठी और दिन-भर अपने दोनों हाथों को बगल में इधर-उधर फिराती रहीं।
इसके बाद बस्ती फिर सुनसान हो गयी। सिर्फ एक बार मास्टरनी ने अपना द्वार खोलकर झाँका और तुरन्त ही फिर बन्द कर लिया।
करीब छ: बजे जब धुन्ध का पीलापन पहाड़ों के साथ नीला हो रहा था, आखिरकार बस्ती में एक मानव दिखाई दिया। लम्बा रोगी-सा एक सोलह-सत्रह साल का लड़का। पुराना फौजी कोट पहने था। कॉलर के बाहर उसने अपनी मैली कमीज निकाल रखी थी। कीचड़ बचाने के लिए वह सड़क के इस तरफ से उस तरफ मेढकों की तरह फुदक रहा था। लकड़ी के घुने हुए जीने पर आकर उसने संतोष की साँस ली और एक भीगे कुत्ते की तरह अपने आपको झाड़कर जीने पर चढ़ गया।
लूसी बहन, बड़ा अँधेरा है।पास आते ही वह चिल्ला उठा था।
टुटू।मास्टरनी ने अपने हाथ छोड़कर कहा और फिर धीरे-धीरे चलकर छत से टँगी हुई लालटेन जला दी। उस छोटे से गन्दे और अँधेरे कमरे में रोशनी लालटेन से खून की तरह बहने लगी।
इस बीच टुटू बारिश और रास्ते पर भुनभुनाकर अपने बड़े और भारी कोट को टाँगने की जगह खोज रहा था।
मैं कहता हूँ, तुम्हारे पास कोई कपड़ा है - कम्बल का टुकड़ा-उकड़ा। मैं जूते साफ करूँगा।
मास्टरनी ने चुपचाप झुककर उसके जूते साफ कर दिए। टुटू बराबर अपने जूतों की तरफ देखता हुआ नहीं-नहींकर रहा था।
मास्टरनी ने वैसे ही झुके-झुके पूछा, ‘घर पर सब अच्छे हैं।
मेरे पास तुम्हारे लिए सैकड़ों खत हैं, सिर्फ मुरली तुमसे खफा है। तुमने उसके मो़जे खूब बुने। वह जाड़े से नीली पड़ी जा रही है।
उसने अपनी बहन को खत दे दिये और रोशनी के पास जाकर अपने भीगे बालों पर हाथ फेरने लगा। बीच-बीच में वह कुछ बुदबुदा उठता था। मास्टरनी पत्रों से सिर उठाकर उसकी तरफ देखती और फिर पढ़ने लग जाती थी।
अब उसने खत एक ओर रखकर इस सोलह साल के लम्बे-चिकने युवक की तरफ देखना और उसके बारे में सोचना शुरू किया। वह उसके बिलकुल बचपन के बारे में सोचने लगी। जबकि उसके गरम-मुलायम जिस्म को चिमटाकर वह एक पके हुए फल की तरह हो जाती थी।
तुम खत नहीं पढ़ रही हो।उसने सहसा घूमकर कहा।
पढ़ लिया, और वह फिर उसी तरह हथेलियों को बगल में भींचे इधर-उधर टहलने लगी।
उसका भाई खड़ा-खड़ा उसकी तरफ देखता रहा और यह देखकर कि वह खत पढ़ चुकी है, बुदबुदा-सा उठा, ‘मुरली के मोजे। और ममी ने कहा है...।
मास्टरनी ने जैसे चाकू से काटा, ‘और पापा कैसे हैं?’
टुटू ने भाँड़ों-सा मुँह बनाकर कहा, ‘वैसे ही।
पापा रोगी, परित्यक्त, उपेक्षित - उसे कभी न लिखते थे और इसलिए उससे कुछ माँगते भी न थे।
तुम क्या करते हो ?
मैं, मैं तो रोज सबेरे-शाम पादरी तिवाड़ी के साथ काम करता हूँ। ममी जान ले लें, अगर मैं काम न करूँ। मुरली और ममी झमकती फिरती हैं।
तुम मर्द हो।उसकी बहिन ने जैसे स्वप्न में कहा और वह फिर वैसे ही टहलने लगी।
मैं दो साल में पादड़ी हो... जाऊँगा,’ टुटू ने कुछ गर्व और कुछ दिल्लगी में कहा।
कुछ देर वह दोनों चुप रहें। मास्टरनी ने एक सन्दूक पर बैठकर जल्दी-जल्दी बुनना शुरू किया। बीच-बीच में एक अजीब और कड़वी मुस्कान उसके पीले और दागदार होंठों पर छा जाती थी।
टुटू ऐन उसी वक्त अपने चारों ओर के गन्दे कमरे की टूटी कुर्सियों और मैले तकिये की तरफ देखकर बार-बार सहम-सा जाता था।
यह क्या! मुरली की स्टाकिंग है।उसने अज्ञात भय से भरे हुए मन से कहा।
देखते नहीं हो।और मास्टरनी भौंक-सी उठी।
जब से वह यहाँ आया था, टुटू का दिल भीगते हुए कम्बल की तरह हर मिनट भारी होता जा रहा था। वह अपनी बहिन, अपने घर के बारे में इस तरह सोच रहा था, जैसे दूरबीन से वह नए नक्षत्र देख रहा हो।
खिड़कियाँ बिलकुल अन्धी हो रही थीं। मैले और ऊनी बादल जैसे ठीक धरती पर ही आ जमे थे।
किसी के पैरों को जीने पर शोर हुआ। दो छोटी-छोटी लड़कियाँ हाथ पकड़े हुए अन्दर आर्इं। वह गबरुन की ऊँचे-ऊँचे फ्रॉकें पहने थीं, और उनके चेहरों पर किसानों की-सी झुलस थी।
उनमें से बड़ी लड़की ने खाटपर एक मैली तामचीनी की प्लेट रख दी। उस पर एक लाल रूमाल पड़ा था। फिर अपनी छोटी बहिन का हाथ पकड़कर वह खड़ी हो गयी।
तुम क्या प्लेट चाहती हो?’ मास्टरनी ने बिला सिर उठाए पूछा। दोनों लड़कियों ने एक साथ सिर हिलाकर कहा, ‘हाँ।
उसने उठकर उसमें से चार अंडे और अध-पके टमाटर और एक सस्ता पीतल का ब्रूच निकाल लिया।
अपने बाप से कहना कि टीचर ने कहा है - हाँ?’ और उसने खड़े होकर फिर दोनों हाथ बगलों में भींच लिये।
लड़कियाँ चुपचाप, जैसे आई थीं, चली गर्इं।
टुटू उनको बराबर एक विचित्र दिलचस्पी से देखता रहा। उनके जाने पर वह उठकर पूरा-पूरा खिड़की की तरफ मुँह कर बोला, ‘तुम चाय नहीं पीती, लूसी बहिन।
मास्टरनी एकाएक बीच कमरे में खड़ी हो गयी।
सुनो, यह पाँच रुपये हैं और यह मुरली का स्टाकिंग और यह ममी का सिंगारदान और कहना कि कोई मुझसे और कुछ न माँगे। सब मर जाएँ, गिरजे में जा पड़ें।
वह पागलों की तरह दो छोटे-छोटे और सिकुड़े हाथों से रुपये, स्टाकिंग और सिंगारदान का अभिनय कर रही थी, और बोल ऐसे रही थी जैसे उसका सारा खून जम रहा हो।
मैं... मैं कहती हूँ, वह गिरजे में जा पड़ें, मिशन में मरें।
टुटू ने बड़ी पीड़ा से कहा, ‘लूसी बहन।
लूसी ने जरा नरम होकर कमरे की उत्तरी खिड़की खोल दी। खिड़की के खुलते ही कमरे का प्रकाश पिंजरे की चिड़िया की तरह चंचल हो उठा।
मेरे पास कुछ नहीं है - कुछ नहीं है। तुम मेरा घर झाड़ लो,’ और उसने खिड़की धमाके से बन्द कर दी।
टुटू एकबारगी उस धमाके से चौंक पड़ा। पर कह कुछ भी न सका।
मास्टरनी अपने पलंग पर जाकर बैठ गई। उसके दोनों हाथ उसकी पट्टियों को जकड़े थे। आज सारी जिन्दगी के छोटे-बड़े घाव अचानक धसक गए थे। कुछ सोचने की ताब उसमें न थी। सिर्फ एक गुट्ठल-धीमा दर्द उसके सारे अस्तित्व में लहराने लगा था। और अब बाहर रिसकर जैसे उसे डुबा देना चाहता था।
टुटू ने सहसा कड़ाई से कहा, ‘लूसी बहन।
पर इसके साथ ही किसी ने बाहर से भर्राई हुई आवाज में कहा, ‘टीचर, मैं आ सकता हूँ।
टुटू उस तरफ बढ़ा। पर घृणा से दौड़ते हुए मास्टरनी ने दरवाजा आधा खोल, बाहर जा, बन्द कर लिया। टुटू ने उसकी झलक ही देखी थी। वह एक बुझे हुए चेहरे का अधेड़ किसान था - ऐसे जैसे संडे को गिरजों में टोपियाँ उतारकर भीख माँगते हैं। एक मिनट में मास्टरनी लौट आई। उसका चेहरा पहले से भी सख्त था। उसने टुटू को देखकर उधर से मुँह फेर लिया और अपने आप बुदबुदाकर कहा, ‘‘मैं ही क्यों... तुमसे कोई मुझे सरोकार नहींतुम लोगों से मैं पूछती हूँ...। और वह हथेलियों को बगलों में भींचकर और तेजी से टहलने लगी।
मैं जैसे जिन्‍दा दफना दी गयी हूँ। पर मुझे कब्र की शान्ति तो दे दो।वह वाकई हाथ फैलाकर शान्ति माँग रही थी।
टुटू गुमसुम बैठा हुआ रोशनी को घूर रहा था। सहसा उसने टुटू का हाथ पकड़ लिया।
जाओ, सोओ।
टुटू ने आज्ञा का पालन किया। लेकिन जब वह लेट गया तो मैली और सीली दीवार की तरफ मुँह करके रो उठा। पहले तो धीरे-धीरे और फिर जोर-जोर से।
मास्टरनी वैसे ही टहल रही थी। फिर चूर होकर उसी चारपाई पर गिर पड़ी। टुटू आखिर चुप हो रहा। कमरे में सन्नाटा छा गया था।
केवल दूर-दूर पर रात के पोर वो - पहरेदारों... के विचित्र स्वर चारों तरफ पहाड़ों से टकराकर इस कमरे में गिर-गिर पड़ते थे।




 

 

 

 

 

बन्द कमरे में क़ब्रगाह / 7

 

 

 कुछ कहना चाहता है मगर एक ऐसा क्षण भी आता है जब उसकी आवाज सीने में दबी रह जाती है और वह कह नहीं पाता। कह भी दे तो कोई उसकी बात समझ नहीं पाता। जरूरी नहीं कि वह बात प्यार की ही हो। प्यार जरूरी नहीं है; जरूरी है जिन्सी हविस-वह जंगली पागलपन जिसने सभ्यता के इस दौर में भी हमें सभ्य नहीं रहने दिया है। औरत और शराब, शराब और वहशत, वहशत और औरत और फिर शराब! जिंदगी एक ऐसा मर्सिया बन जाती है, जिसे आदमी खुद अपनी मौत के लिए रचता है। मौत आदमी की मंजिल है, मौत आदमी की इंतहा है। आदमी मौत के भय से ही जंगल का जानवर बन जाता है और अंधेरे में भागता रहता है। वह भागता है हर आवाज से, उजाले की हर किरण से, दिल की हर पुकार से, अपने आप से भी।

वह जगली जानवर मैं हूं, और कोई नहीं। आदम-कद शीशे में अपनी शक्ल देखता हूं तो वहां कोई आदमी नहीं पाता, एक नंगा और पागल जानवर पाता हूं। उसकी निगाहों में नफरत होती है-नफरत, दुनिया की हर चीज के लिए, सिर्फ नफरत! इस नफरत की दवा है शराब, शराब और औरत।
रंगमहल स्टूडियो के अपने दफ्तर में बैठा हुआ मैं ऐसी ही बातें सोच रहा था। मेरे सामने टेबिल पर पांव रखे हुए बैठा अमरनाथ ला-कॉरोना सिगार पी रहा था। अमरनाथ की बगल में बैठी नीलगिरि कभी मेरी ओर और कभी अमरनाथ की ओर अपनी बेजरूरत मुस्कराहट फेंक रही थी। उसके जूड़े के सफेद फूल उस बेहद गर्मी में मुरझा रहे थे और चेहरे का मेकअप पसीने में गीला हुआ जा रहा था। नीलगिरि का असली नाम शायद कुछ और था-मिस सिल्विया या मिस सोफिया, या ऐसा ही कोई और नाम। वह सांवली-सी मद्रासी लड़की थी और अमरनाथ ने यों ही उसे नीलगिरि पुकारना शुरू कर दिया था। यह नाम मुझे पसंद आ गया था। हमने तय कर लिया कि यही नाम पुकारा जाएगा। बहरहाल, नाम में क्या रखा है? नीलगिरि ही सही!
वह पहले किसी दफ्तर में टाइपिस्ट थी। वह हर शाम अपने दफ्तर के नए अफसरों के साथ ब्लूरूम रेस्तरां में जाती थी और मुस्कराती रहती थी। फिर वह अमरनाथ को पसंद आ गई-मुस्कराहटों के कारण नहीं, अपने शरीर के कारण। भरे हुए शरीर में वह बेहद कुंवारी दिखती थी। चेहरे पर बच्चों की तरह भोलापन। आंखों में नशा नहीं, केवल सादगी। कभी-कभी सादगी भी पूरी ताकत से अपनी तरफ खींचती है। अमरनाथ खिंच गया।
एक दिन वह सुबह-सुबह मेरे पास आया और बोला, “कमल बाबू, तुम्हें एक कहानी लिखनी है। मैं आदिवासियों के जीवन पर एक फिल्म बनाने जा रहा हूं। तुम हफ्ते भर में एक कहानी तैयार कर दोगे?”
कितने पैसे दोगे, और कैसी कहानी चाहिए, मुझे बता दो। फिर कम-से-कम पांच सौ रुपए एडवांस दे दो। कहानी तैयार हो जाएगी।” -मैंने लेखक की तरह नहीं, किसी सौदागर की तरह कहा। मैं जानता हूं, अमरनाथ से ऐसे ही कहना चाहिए। नहीं तो कहानी नहीं बनेगी, पैसे नहीं मिलेंगे। वैसे यह सिर्फ फिल्म प्रोड्यूसर ही नहीं, मेरा दोस्त भी है और जरूरत के वक्त मदद करता है। पैसे रहें तो अच्छी शराब से इनकार नहीं करता। लाखों रुपए फिल्मों से पैदा कर चुका है। लाखों रुपए ऐसे धोखों में गंवा चुका है। कहता है-जिंदगी जुआ है और मैं दांव पर अपनी हर चीज लगा सकता हूं।
उसने हर चीज दांव पर लगा दी। उसकी बड़ी लड़की पागल होकर रांची के एसाइलम में पड़ी है। उसकी पहली बीवी ने तलाक ले लिया है। दूसरी बीवी अलग रहती है। पैसे लेने हों, तभी वह अमरनाथ के पास आती है। अमरनाथ किसी ंबात की परवाह नहीं करता। शराब और औरत, और इन सबके लिए रेसकोर्स और फिल्म स्टूडियो! सात नंबर का किंग ऑफ होनोलूल, प्रोडक्शन नंबर ग्यारह की फिल्म रात बीत जाएगीतेज दौड़ने वाले घोड़े, तेज नशे वाली शराब, तेज चलने वाली फिल्में, तेज औरतें! अमरनाथ को तेजी का नशा है। तेज चलो, और तेज! एक्सीडेंट की परवाह अमरनाथ नहीं करता।
उसने चेकबुक निकाली, “बेयरर चेक दे रहा हूं। रुपए निकाल लेना। हफ्ते भर बाद कहानी के साथ रंगमहल स्टूडियो में मिलो। मैं सोचता हूं, हीरो के लिए रामकुमार को बुक कर लूं। चंदनसिंह का म्यूजिक और फिरदौसी की फोटोग्राफी...क्यों ठीक रहेगा न?”
हीरोइन किसे बनाओगे?” मैं पूछता हूं, “हीरोइन जैसी होगी, वैसी ही मैं कहानी लिखूंगा। श्यामाकुमारी हीरोइन होती है तो मेरी कहानी रूप के बाजार के इर्द-गिर्द घूमती रहती है और कनकलता होती है तो मैं अपनी कहानी को दार्जिलिंग और आसाम की पहाड़ियों में ले जाता हूं। कहानी को हीरोइन के आसपास रहना चाहिए ताकि फिल्म को अपनी एक खास पर्सनैलिटी मिल सके।अमरनाथ कहता है, “हीरोइन होगी मिस नीलगिरि।
यह लड़की कौन है ? किसी एक्स्ट्रा को लिफ्ट देना चाहते हो क्या?” मुझे आश्चर्य होता है। अमरनाथ कभी ऐसी-वैसी लड़की को लिफ्ट नहीं देता है।
अरे वही लड़की है, जो ब्लूरूम रेस्तरां में आती है ! मद्रासी लड़की है, भरतनाट्यम जानती है। फिलहाल एक दफ्तर में टाइपिस्ट है। क्यों, तुम्हें पसंद नहीं? कल उसे मैं स्टूडियो ले गया था। आवाज ठीक है। फोटोग्राफ भी अच्छे आते हैं। टेस्ट अच्छा ही रहा है। क्यों, तुम्हें पसंद नहीं?” -अमरनाथ कहता है और फोलियोबैग से नीलगिरि की तस्वीरें निकालकर दिखाने लगता है। तस्वीरों में उसका सांवलापन और भी घना हो गया है। आंखों में सादगी नहीं, खुशी की चमक है। अजंता की लड़कियों की तरह होठ, भुवनेश्वर की यक्षिणियों की तरह नितंब। हल्के कपड़ों में शरीर के चढ़ाव-उतार और भी उभर आए हैं। नीलगिरि औरत नहीं, औरत की एक बेहद खूबसूरत तस्वीर है।
और आज यह तस्वीर कभी मेरी ओर और कभी अमरनाथ की ओर देखकर मुस्करा रही है। रंगमहल स्टूडियो का मैनेजर अजीत बनर्जी आ गया। आते ही बोलने लगा, “कल और परसों दो दिन आप लोगों के लिए स्टूडियो-थ्री और स्टूडियो-फाइव बुक करा दिया है। आप नंबर सिक्स में शाट्स ले लीजिए। अभी आपका कौन-सा सेट चल रहा है?”
अमरनाथ चुप रह जाता है। कुछ बोलता नहीं। वह सोच रहा है। अगर ब्रह्मदत्त मिस्त्रीवाला नहीं आया, अगर उसने फिनान्स नहीं किया तो कल शूटिंग नहीं हो सकेगी। रामकुमार हीरो है। उसे कल सुबह कम-से-कम तीस हजार रुपए एडवांस चाहिए। अगर ब्रह्मदत्त मिस्त्रीवाला राजी नहीं हुआ तो? तो मिस नीलगिरि और रामकुमार की फिल्म, अमरनाथ की फिल्म, आदिवासियों के जीवन की क्लासिक फिल्म जंगल का गीतनहीं बन पाएगी। अमरनाथ चालीस हजार रुपए लगा चुका है। अजंता डिस्ट्रीब्यूटर्स वाले साठ हजार रुपए लगा चुके हैं। अभी तुरंत पचास हजार रुपए तो चाहिए ही। बाद में मध्य प्रदेश और बंगाल की टेरिटरी बिक जाएगी तब फिल्म पूरी हो जाएगी और रिलीज भी हो जाएगी। मगर अभी पचास हजार रुपए!
अजीत बनर्जी चला गया। टेबिल पर पांव फैलाए अमरनाथ मन-ही-मन हिसाब लगाता रहा। नीलगिरि मुस्कराती रही। सिर के ऊपर सीलिंग फैन की हवा कितनी गर्म है! दूर, स्टूडियो के मैदान में किसी फिल्म की आउटडोर शूटिंग चल रही है। ऐतिहासिक फिल्म की लड़ाई। कमर में तलवार बांधे, नकली दाढ़ी-मूंछें लगाए एक्स्ट्राओं की फौज यहां-वहां दौड़ रही है। कैमरामैन चीख रहा है, डायरेक्टर चीख रहा है। नकली जख्म खाए हुए सिपाही चीख रहे हैं।
तभी स्टूडियो के फाटक के सामने बड़ी-सी किंग्सवे रुकी। फाटक खोल दिया गया। गाड़ी अंदर चली आई। गाड़ी में बैठा हुआ मोटा सेठ ब्रह्मदत्त मिस्त्रीवाला अंदर चला आया। ब्रह्मदत्त पांच जूट मिलों और दो इस्पात के कारखानों का मालिक है। अब पहली बार फिल्म में पैसा लगा रहा है। क्यों लगा रहा है? अमरनाथ ने मिस्त्रीवाला से कहा है कि मिस नीलगिरि कुल सत्रह साल की है, एकदम अनछुई, बिल्कुल फ्रेश! मैंने भी अमरनाथ की बात की ताईद की है, हालांकि मुझे पता नहीं! मैंने नीलगिरि को कभी खास नजर से देखा नहीं। आधी फिल्म की शूटिंग हो चुकी है। सभी गानों के टेकहो चुके हैं। आउटडोर पूरा हो चुका है। अमरनाथ की फिल्म-यूनिट के साथ नीलगिरि सुंदरबन के जंगलों, नैनीताल की झीलों और आसाम की पहाड़ी घाटियों में जा चुकी है। वह मुस्करा देती है, और लोगों का गुस्सा ठंडा पड़ जाता है। वह मुस्करा देती है और लोगों की आग बुझ जाती है मगर, ब्रह्मदत्त मिस्त्रीवाला?
ब्रह्मदत्त बेहद मोटा है। उसकी आवाज बेहद भारी है। सूट पहनता है और पगड़ी बांधता है। सिगार नहीं पीता, शराब पीता है। मैं उससे कुल दो बार मिला हूं, और दोनों बार वह मुझे जूट और इस्पात का मालिक नहीं, किसी पवित्र हिंदू भोजनालय का पंडित दिखा है। इस पंडित के आते ही अमरनाथ उछलकर बरामदे से नीचे कूद गया और बोला, “ब्रह्मदत्त! तुम गाड़ी में ही बैठे रहो। हम अभी चलते हैं, पार्क स्ट्रीट में चलकर बैठेंगे।
बात पहले से तय थी। अमरनाथ दरवाजा खोलकर ड्राइवर के पासवाली सीट पर बैठ गया। मैंने पिछला दरवाजा खोल दिया। डरी हुई बिल्ली की तरह नीलगिरि कार के स्प्रिंगदार गद्दे में धंस गई। मैं उसकी बगल में बैठा। मिस्त्रीवाला खुद गाड़ी चला रहा था। किंग्सवे वापस सड़क पर आ गई। सुभाष बोस स्ट्रीट, टालीगंज, रासबिहारी एवेन्यू, लैंसडाउन रोड, हैरिंग्टन रोड और पार्क स्ट्रीट। पार्क स्ट्रीट में एक बहुत बड़ा मकान है-करनानी मैन्शन। राजकपूर की फिल्म जागते रहोकी पूरी शूटिंग इसी एक बिल्डिंग में हुई थी। पूरी बिल्डिंग में लगभग दो हजार फ्लैट हैं। आठ मंजिल का मकान, लंबे-लंबे बरामदे, ऊंची सीढ़ियां, लिफ्ट, कोरीडोर, बालकनी, बरामदे, अंधेरा, उजाला, धुंधलापन। एंग्लोइंडियन औरतें खड़ी हैं। नीचे लगातार मोटर गाड़ियां। लोग आ रहे हैं, जा रहे हैं। इसी मकान में ब्रह्मदत्त मिस्त्रीवाला ने अपने लिए एक प्राइवेट फ्लैट ले रखा है। बात पहले से तय है, पहले से तय रहती ही है। बोलने की जरूरत नहीं, इशारा काफी है। और अभी तो शाम ही हुई है!
मुझे वह शाम याद आती है, जब आउटडोर शूटिंग के वक्त नीलगिरि ने फोटोग्राफर फिरदौसी के गालों पर लगातार तमाचे जड़ दिए थे और खुद रोने लगी थी। मुझे कई शामें याद आती हैं, मगर बात पहले से तय है। मैं जानता हूं, अमरनाथ जानता है पर नीलगिरि नहीं जानती। उसे बताया नहीं गया है।
फ्लैट का दरवाजा खुल गया। मिस्त्रीवाला का खास बेयरा यहां तैनात रहता है। हम लोग ड्राइंगरूम में बैठ गए। ड्राइंगरूम में ही एक ओर बड़ा-सा पलंग है। पलंग एक सिंबल है, एक प्रतीक है। नाव की शक्ल का पलंग और फर्श पर रंगीन पत्थरों की लहरें बनाई गई हैं। क्या यह नाव डूब जाएगी? पत्थरों में डूब जाएगी?
नीलगिरि मुस्कराती है और कहती है, “अमरनाथ भाई, मुझे प्यास लगी है। उफ कितनी गर्मी है!
अभी मंगवाता हूं” -सोफे पर नीलगिरि की बगल में कुछ धंसता हुआ सेठ मिस्त्रीवाला कहता है। नीलगिरि पसीने से भीग रही है। लो-कट ब्जाउज बदन से चिपक गया है। ब्लाउज के नीचे से मेंडेस की ब्रेसरी के गोल तिकोने कप झांक रहे हैं। बेयरा कपबोर्ड से चार गिलास और स्कॉच की चौड़ी बोतल निकालकर बीच के टेबिल पर रखता है। बोतल देखकर नीलगिरि थरथराने लगती है-जैसे वह थरथराती हुई सोफे से फिसलकर फर्श पर गिर पड़ेगी। बेयरा बड़े ही अदब और प्यार से बोतल खोलकर गिलासों में बराबर-बराबर शराब डालता है। मिस्त्रीवाला कहता है, अब प्यास बुझ जाएगी।
और अमरनाथ कहता है, “नर्वस मत हो, नीलगिरि! यह ठर्रा नहीं, असली स्कॉच है।
मैं किसी का इंतजार नहीं करता, गिलास उठाता हूं और गले से नीचे उतार लेता हूं। सोडा डालने की मुझे जरूरत नहीं है। मगर नीलगिरि? अमरनाथ की आंखें नीलगिरि से कहती हैं, “पूरे पचास हजार की बात है, नीलगिरि! पचास हजार रुपए बहुत होते हैं।
नीलगिरि मेरी ओर देखती है, दो क्षण देखती रहती है और ग्लास उठाकर पूरी शराब पी जाती है। गले में शराब जाते ही वह नीलगिरि मर गई जिसने फिरदौसी की, डिस्ट्रीब्यूटर श्यामलाल की और असिस्टेंट डायरेक्टर धीरज मेहता की बार-बार इन्सल्ट की थी-ठीक ऐसे ही जैसे जंगल की शेरनी हाथी के बच्चे की इन्सल्ट करती है। मगर, स्कॉच के ग्लास के बाद शेरनी ने कहा, “एक सिगरेट तो पिलाओ अमरनाथ!
और, बात तय हो गई। शराब के दूसरे दौर के बाद अमरनाथ ने एग्रीमेंट के कागज अपने फोलियोबैग से निकाले। ब्रह्मदत्त ने कोट की जेब से चेकबुक और फाउंटेनपेन निकाला और कागजात पर दस्तख्त हो गए। सेठ ब्रह्मदत्त मिस्त्रीवाला फिल्म जगल का गीतमें पचास हजार रुपए लगा रहा है। कल सुबह दस बजे मिस्त्रीवाला इंडस्ट्रीज के पचास हजार रुपए अमरनाथ फिल्म्स के एकाउंट में चले जाएंगे। बात तय होते ही मिस्त्रीवाला ने बेयरा से कहा, बाहर से दरवाजा बंद कर दो। जरूरत होगी तो तुम्हें पुकार लूंगा।
हम लोग भी बाहर चले जाएं, ब्रह्मदत्त भाई!अमरनाथ ने पूछा। मिस्त्रीवाला हंसने लगा। बोला, “यहां बैठो यार, और स्कॉच पियो। आसपास दोस्त रहते हैं तो ज्यादा मजा आता है।
ब्रह्मदत्त की इस बात पर भी नीलगिरि शरमाई नहीं। आंखें फैलाए, सोफे पर बांहें खोले मुझे और अमरनाथ को देखती रही। मैं डरने लगा, मैंने कहा, मैं बाहर जाता हूं।
मुझे रोकती हुई, नीलगिरि बोली, “कहां जाओगे जी? यहीं बैठो!
मैं बैठा रहा। हम दोनों स्कॉच की बोतल खाली करते रहे। मेरे लिए यह एकदम नई बात थी। आदमी एकांत चाहता है, अंधेरा चाहत है, रहस्य चाहता है। मगर मिस्त्रीवाला? यह नीलगिरि? पार्क स्ट्रीट की यह शाम? सेठ ब्रह्मदत्त उठा और बड़े तरीके से हैंगर पर अपना कोट, शर्ट, टाई और ट्राउजर डालने लगा। फिर उसने सारी बत्तियां बुझा दीं। सिर्फ जलता रहा एक नीला बल्व। नीली रोशनी में नीली आग की तरह जलती रही नीलगिरि। वह चुपचाप बैठी रही बांहें फैलाए, गीत गुनगुनाती हुई-जंगल का गीत, आदिम गीत।
ब्रह्मदत्त ने कहा, “कपड़े उतार डालो, नीलू। क्रीज मसक जाएगी।
नहीं!” -नीलगिरि ने कहा और हमारी ओर देखती हुई मुस्कराती रही। मैं डरता रहा। अमरनाथ हाथ में गिलास लिए हुए शरमाता रहा। ब्रह्मदत्त पास आ गया। उसने अमरनाथ का गिलास छीन लिया और एक ही सांस में खाली कर दिया। फिर वह सोफे की ओर मुड़ा। वह अंडरवियर बनियान पहने था। नीलगिरि वैसे ही बैठी थी मुस्कराती हुई, बांहें फैलाए। दोनों हाथों से उसने सोफे को कसकर पकड़ रखा था। मिस्त्रीवाला ने कहा, “पलंग पर चलो नीलू, यहां तुम्हें तकलीफ होगी।
नहीं,” नीलू ने कहा, और हमारी ओर देखती हुई मुस्कराती रही जैसे वह स्टूडियो के सेट पर हो और द्रौपदी चीरहरण की शूटिंग में हिस्सा ले रही हो, जैसे वह द्रौपदी नहीं, कृष्ण हो, कृष्ण भी नहीं, दुश्शासन हो। वह नीलगिरि नहीं, दुश्शासन है और ब्रह्मदत्त मिस्त्रीवाला, द्रौपदी है। नाटक उल्टा चल रहा है। शूटिंग गलत हो रही है। डायरेक्टर चीखना चाहता है, ‘कट करो, शूटिंग रोक दोमगर गले से आवाज नहीं निकल रही है। अमरनाथ चुपचाप अपने गिलास में स्कॉच डाल रहा है। नीलगिरि मुस्कराए जा रही है।
मिस्त्रीवाला को अचानक बहुत गर्मी महसूस हुई। चालीस साल का अधेड़ राक्षस ब्रह्मदत्त मिस्त्रीवाला, सत्रह साल की परियों की राजकुमारी नीलगिरि! नाटक उल्टा चल रहा है। शूटिंग गलत हो रही है। डायरेक्टर के गले से आवाज नहीं निकल रही। ऐसा क्षण आ गया है जब आवाज सीने के अंदर ही गूंजती-तड़पती रह जाती है, बाहर नहीं निकल पाती। कोई कुछ बोल नहीं पाता। बोलने की जरूरत नहीं है। हवा रुक गई है, मौसम थम गया है, आवाजें और वक्त, और यह जिंदगी पार्क स्ट्रीट के एक मकान के एक बंद कमरे में रुक गई है।
नीलगिरि खिलखिलाने लगती है, जैसे दुनिया की हर बात से बेफिक्र बच्चे खिलखिलाते हैं। ब्रह्मदत्त उसकी ओर बढ़ता है मगर नीलगिरि की पीठ सोफे की दीवार से जुड़-सी गई है। प्यार आसान नहीं, वहशत आसान है, जंगली जानवर बनना बहुत आसान है।
नीलगिरि अपना बचाव नहीं कर रही। वह अचानक चुप हो जाती है, पत्थर की तरह सख्त हो जाती है, सिकुड़ जाती है और ठंडी पड़ जाती है-जैसे मर चुकी हो। जैसे नीलगिरि नहीं, मिस्त्रीवाला की गोद में एक लाश है, एक पत्थर की मूरत, अजंता या भुवनेश्वर या खजुराहो की प्रस्तर मूरत। मैं शर्म से मर चुका हूं और अमरनाथ पचास हजार रुपयों में मर चुका है। रात हो गई है-काली रात, मौत जैसी रात!
तभी एकाएक नीलगिरि आंखें खोल देती है और रेशम के गोले की तरह मिस्त्रीवाला की गोद से नीचे फर्श पर फिसल पड़ती है। फिसल पड़ती है और मुस्कराती हुई बड़े प्यारे लहजे में कहती है, “धूर्त! बस इतनी ही मर्दुमी रखते हो?”
ब्रह्मदत्त सोफे से नीचे उतरने की कोशिश करता है मगर उसके पांव थरथराने लगते हैं। वह नीलगिरि का हाथ खींचना चाहता है। मगर वक्त बीत गया है और जंगल का गीतफिल्म के दस्तावेज पर दस्तखत हो चुके हैं!


 

 

 

 

 

लड़ाई / 8


चाँदपुर से गाड़ी पूरे पच्चीस मिनट लेट चली। पी.डब्ल्यू.आई. की ट्रॉली लद रही थी और स्टेशन मास्टर की दयनीय निकम्मी शकल हमारी खिड़की के सामने से निकल गई। खद्दरपोश ने अपना अखबार महारत से मोड़कर उससे हवा करते हुए खिड़की के बाहर मुँह निकाल लिया। तीसरी बार गोरखे सोल्जर ने अपना सामान ऊपर से उतारकर फिर से लगाना शुरू किया। ऊँचे-ऊँचे फौजी बैग जिसमें ताले लग सकते थे, पीले बेलबूटोंवाला ट्रंक जिसके बेलबूटे मैले हो चले थे, चमड़े की पेटियों से बँधा हुआ बिस्तरा और नेपाली टोकरा, वह शायद छुट्टी से वापस जा रहा था - बंदूक को पोंछकर उसे रखने के लिए वह धीरे-धीरे बुदबुदाकर मंजिल और बट्सपढ़ रहा था - वह बंदूक इस तरह थामे था जैसे कोई दरिन्दा हो जिसे जईफी ने पालतू बना दिया है... सिगनल के इन्तजार में गाड़ी हूँ-हूँ-हूँ करती हुई खड़ी हो गयी... और पूरा डिब्बा गुनगुना उठा। बाहर दूर के दरख्त घने नीले होकर छोटी पहाड़ियों की तरह मालूम होते थे, गाड़ी की रोशनी अभी नहीं हुई थी। खद्दरपोश ने पूरा-पूरा झुककर बाहर झाँका और फिर जैसे अपने-आपसे कह दिया - सिगनल नहीं है।कोने से स्टूडेंट ने अपनी खुसटी हुई अचकन तहाकर अपने सिर के नीचे रख ली और छत की तरफ एकटक देखता हुआ धुँए के लच्छे बनाने लगा। वह विदूषकों की तरह विचित्र मुँह बनाता था। कोई अच्छा लच्छा बन जाने पर वह सामनेवाली बेंच के कोने पर बैठी हुई महिला की तरफ विजय के साथ देखता था। महिला का पति ऊँघ गया था, पर गाड़ी के रुकते ही वह चौंककर जगे रहने की कोशिश कर रहा था। चुपचाप बैठे हुए बच्चे की तरफ एक मिनट घूरकर उसने अपनी स्त्री से एकबारगी पूछा - इन्दर की बऊ का बप्पा बई होगा खतौली में कि वो जागी अपने सौहरे।उसकी आवाज में एक बेवजह कर्कशता थी। महिला ने अनमने गर्दन हिलाकर एक अनिश्चित-सा जवाब दिया - गाड़ी चल दी और वह पूरे-पूरे पैर साड़ी से ढँककर बाहर झाँकने लगी।
खद्दरपोश ने जँभाई ली और अँगूठियोंवाली उँगलियाँ से चुटकी बजाई - चट, छट, च्छट। स्टूडेंट का सिगरेट खत्म हो चुका था और वह अपना पर्स निकाले उसके अन्दर उँगलियाँ डाले गिन रहा था।
अँधेरा ज्यादा हो गया था और बत्ती अब तक नहीं जली थी। पर्स को जेब में रखते हुए स्टडेंट ने कहा - चोर हैं, साले चोर।खद्दरपोश ने उसकी तरफ देखा और महारत से मुस्कराकर फौरन मुँह दूसरी तरफ कर लिया। बाहर से अँधेरा जैसे बहकर डब्बे में आ रहा था। लोगों के चेहरे फीके पड़ गये थे, सोल्जर ने अपना बिस्तरा बिछा लिया था और अब फट-फट-फट उसकी शिकनें मिटा रहा था। लड़का बेंच पर खड़े होकर उसकी तरफ अजीब लालसा से देखने लगा, बिस्तरा ठीक कर सोल्जर ने लड़के की तरफ देखा। वह उसे और उससे ज्यादा उसकी माँ को हँसाने की कोशिश में भाँड़ों-सा मुँह बना रहा था।
खद्दरपोश ने आखिर पूछा
‘‘तुम कौन रेजीमेंट में हो ?”
‘‘146 गुरखा राइफल्स”, - सोल्जर वैसे ही बच्चे से उलझा हुआ था।
‘‘कहाँ है तुम्हारा रेजीमेंट ?”
‘‘मऊ कैंट में।
‘‘लड़ाई होने वाली है।” - स्टूडेंट ने सिगरेट जलाते हुए कहा।
खद्दरपोश फिर महारत से मुस्कराया, महिला का पति जो फिर ऊँघ-सा गया था, जगकर खाँसने लगा। लड़के को खिड़की से खींचकर बैठाते उसने महिला से कहा - देवी, सरधनेवाले ने मेरठ में घाँस का ठेका लिया है।
महिला ने गंभीर मुँह बनाए कमर खुजलाते हुए कहा - हाँ।
सोल्जर बोल रहा था... वह हाल में पेंशन पा जाएगा - मैं था दरबार सिंह की रेजीमेंट में, दरबार सिंह वही, जिसे विक्टोरिया क्रॉस मिला था...।
महिला के पति ने कहा - लड़ाई हुई तो देवी बन जाएगा बड़ा साब, सबसे बड़ा करनैल मिहरवान है, जो...महिला ने जँभाते हुए कहा - अब लो फौज का ठीका, मजा तो अब है...सोल्जर अपने छोटे-छोटे पीले झुर्रीदार हाथ हवा में फहराकर कुछ कह रहा था - इन्हीं हाथों में सन् 14 में चार राष्ट्रों ने एक राइफल थमा दी थी कि वह अपने ही जैसे दो हाथ-पैरवाले जानवरों का शिकार करे...महिला ने कुछ चमक से भर्त्सीना की... डले धरे हैं इस गांधीजी की गर्दी में... गांधी ने तो अपनी मिलें खड़ी कर लीं...बच्चा डिब्बे भर में घूम-घूमकर खिड़कियों को बार-बार गिन रहा था। खद्दरपोश ने उसे अपने सामने से हटाकर महिला की तरफ देखा और फिर महारत से मुस्कराया।
स्टूडेंट ने जोर से कहा - लेकिन तुम किसलिए लड़े थे, तुम्हें क्या पल्ले पड़ा, चमकीले बटन, मुर्दे के तन से उतारी हुई वर्दियाँ, गरमी, सूजाकवाली बदचलन नर्सें?” ... सोल्जर (डिब्बे में फीकी नीली रोशनी हो गयी थी) जोर से बोलकर प्रतिवाद कर रहा था - जर्मन हस्पताल, खाइयाँ... इंग्रेज तो भूलनेवाले ठहरे...
और मैं खिड़की पर सर रखकर ऊँघ गया।
जगा। डिब्बे में तीखी गरम रोशनी थी, खद्दरपोश उतर चुका था, महिला और उसके पति सो रहे थे, स्टूडेंट वैसे ही धुएँ के लच्छे बना रहा था। लड़का सोल्जतर के बिस्तरे पर बैठा था, उसने जले हुए सिगरेट जमा किए थे। वह उन्हें गिन रहा था। एक, दो, तीन... पाँच।
वह कुल दस थे।
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मौसी / 9



मानव-जीवन के विकास में एक स्थल ऐसा आता है, जब वह परिवर्तन पर भी विजय पा लेता है। जब हमारे जीवन का उत्थान या पतन, न हमारे लिए कुछ विशेषता रखता है, न दूसरों के लिए कुछ कुतूहल। जब हम केवल जीवित के लिए ही जीवित रहते हैं और वह मौत आती है; पर नहीं आती।
बिब्बो जीवन की उसी मंजिल में थी। मुहल्लेवाले उसे सदैव वृद्धा ही जानते, मानो वह अनन्त के गर्भ में वृद्धा ही उत्पन्न होकर एक अनन्त अचिन्त्य काल के लिए अमर हो गयी थी। उसकी 'हाथी के बेटों की बात', नई-नवेलियाँ उसका हृदय न दुखाने के लिए मान लेती थीं। उसका कभी इस विस्तृत संसार में कोई भी था, यह कल्पना का विषय था। अधिकांश के विश्वास-कोष में वह जगन्नियन्ता के समान ही एकाकी थी; पर वह कभी युवती भी थी, उसके भी नेत्रों में अमृत और विष था। झंझा की दया पर खड़ा हआ रूखा वृक्ष भी कभी धरती का हृदय फाड़कर निकला था, वसन्त में लहलहा उठता था और हेमन्त में अपना विरही जीवनयापन करता था, पर यह सब वह स्वयं भूल गयी थी। जब हम अपनी असंख्य दुखद स्मृतियाँ नष्ट करते हैं, तो स्मृति-पट से कई सुख के अवसर भी मिट जाते हैं। हाँ, जिसे वह न भूली थी उसका भतीजा, बहन का पुत्र - वसन्त था। आज भी जब वह अपनी गौओं को सानी कर, कच्चे आँगन के कोने में लौकी-कुम्हड़े की बेलों को सँवारकर प्रकाश या अन्धकार में बैठती, उसकी मूर्ति उसके सम्मुख आ जाती।
वसन्त की माता का देहान्त जन्म से दो ही महीने बाद हो गया था और पैंतीस वर्ष पूर्व उसका पिता पीले और कुम्हलाए मुख से यह समाचार और वसन्त को लेकर चुपचाप उसके सम्मुख खड़ा हो गया था... इससे आगे की बात बिब्बो स्वप्न में भी नहीं सोचती थी। कोढ़ी यदि अपना कोढ़ दूसरों से छिपाता है तो स्वयं भी उसे नहीं देख सकता - इसके बाद का जीवन उसका कलंकित अंग था।
वसन्त का पिता वहीं रहने लगा। वह बिब्बों से आयु में कम था। बिब्बो, एकाकी बिब्बो ने भी सोचा, चलो क्या हर्ज है, पर वह चला ही गया और एक दिन वह और वसन्त दो ही रह गए। वसन्त का बाप उन अधिकांश मनुष्यों में था, जो अतृप्ति के लिए ही जीवित रहते हैं, तो तृप्ति का भार नहीं उठा सकते। वसन्त को उसने अपने हृदय के रक्त से पाला; पर वह पर लगते ही उड़ गया और वह फिर एकाकी रह गयी। वसन्त का समाचार उसे कभी-कभी मिलता था। दस वर्ष पहले वह रेल की काली वर्दी पहने आया था और अपने विवाह का निमंत्रण दे गया, इसके पश्चात् सुना, वह किसी अभियोग में नौकरी से अलग हो गया और कहीं व्यापार करने लगा। बिब्बो कहती कि उसे इन बातों में तनिक भी रस नहीं है। वह सोचती कि आज यदि वसन्त राजा हो जाए, तो उसे हर्ष न होगा और उसे कल फाँसी हो जाए, तो न शोक। और जब मुहल्लेवालों ने प्रयत्न करना चाहा कि दूध बेचकर जीवन-यापन करनेवाली मौसी को उसके भतीजे से कुछ सहायता दिलाई जाए तो उसने घोर विरोध किया।
दिन दो घड़ी चढ़ चुका था, बिब्बो की दोनों बाल्टियाँ खाली हो गयी थीं। वह दुधाड़ी का दूध आग पर चढ़ाकर नहाने जा रही थी, कि उसके आँगन में एक अधेड़ पुरुष 5 वर्ष के लड़के की उँगली थामे आकर खड़ा हो गया।
'अब न होगा कुछ, बारह बजे...' वृद्धा ने कटु स्वर में कुछ शीघ्रता से कहा।
'नहीं मौसी...'
बिब्बो उसके निकट खड़ी होकर उसके मुँह की ओर घूरकर स्वप्निल स्वर में बोली - वसन्त! - और फिर चुप हो गई।
वसन्त ने कहा - मौसी, तुम्हारे सिवा मेरे कौन है? मेरा पुत्र बे-माँ का हो गया? तुमने मुझे पाला है, इसे भी पाल दो, मैं सारा खरचा दूँगा।
'भर पाया, भर पाया', - वृद्धा कम्पित स्वर में बोली।
बिब्बो को आश्चर्य था कि वसन्त अभी से बूढ़ा हो चला था और उसका पुत्र बिलकुल वसन्त के और अपने बाबा... के समान था। उसने कठिन स्वर में कहा - वसन्त, तू चला जा, मुझसे कुछ न होगा। वसन्त विनय की मूर्ति हो रहा था और अपना छोटा-सा सन्दूक खोलकर मौसी को सौगातें देने लगा।
वृद्धा एक महीने पश्चात् तोड़नेवाली लौकियों को छाकती हुई वसन्त से जाने को कह रही थी; पर उसकी आत्मा में एक विप्लव हो रहा था उसे ऐसा भान होने लगा, जैसे वह फिर युवती हो गयी और एक दिन रात्रि की निस्तब्धता में वसन्त के पिता ने जैसे स्वप्न में उसे थोड़ा चूम-सा लिया और... वह वसन्त को वक्ष में चिपकाकर सिसकने लगी।
हो... पर वह वसन्त के पुत्र की ओर आँख उठाकर भी नहीं देखेगी। वह उसे कदापि नहीं रखेगी, यह निश्चय था। वसन्त निराश हो गया था पर सबेरे जब वह बालक मन्नू को जगाकर ले जाने के लिए प्रस्तुत हुआ, बिब्बो ने उसे छीन लिया और मन्नू और दस रुपये के नोट को छोड़कर वसन्त चला गया।
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बिब्बो का दूध अब न बिकता था। तीनों गायें एक के बाद एक बेच दीं। केवल एक मन्नू की बछिया रह गई थी। कुम्हड़े और लौकी के ग्राहकों को भी अब निराश होना पड़ता था। मन्नू - पीला, कान्तिहीन, आलसी, सिन्दूरी, चंचल और शरारती हो रहा था। ...
महीने में पाँच रुपया का मनीऑर्डर वसन्त भेजता था; पर एक ही साल में बिब्बो ने मकान भी बन्धक रख दिया। मन्नू की सभी इच्छाओं की पूर्ति अनिवार्य थी। बिब्बो फिर समय की गति के साथ चलने लगी। मुहल्ले में फिर उसकी आलोचना, प्रत्यालोचना प्रारम्भ हो गयी। मन्नू ने उसका संसार से फिर सम्बन्ध स्थापित कर दिया; जिसे छोड़कर वह आगे बढ़ गयी थी पर एक दिन साँझ को अकस्मात् वसन्त आ गया। उसके साथ एक ठिंगनी गेहुएँ रंग की स्त्री थी, उसने बिब्बो के चरण छुए। चरण दबाए और फिर कहा - मौसी, न हो मन्नू को मुझे दे दो, मैं तुम्हारा यश मानूँगी।
वसन्त ने रोना मुँह बनाकर कहा - हाँ, किसी को जीवन संकट में डालने से तो यह अच्छा है, ऐसा जानता, तो मैं ब्याह ही क्यों करता?
मौसी ने कहा - अच्छा, उसे ले जाओ।
मन्नू दूसरे घर में खेल रहा था। वृद्धा ने काँपते हुए पैरों से दीवार पर चढ़कर बुलाया।
वह कूदता हुआ आया। नई माता ने उसे हृदय से लगा लिया। बालक कुछ न समझ सका, वह मौसी की ओर भागा।
बिब्बो ने उसे दुतकारा - जा, दूर हो।
बेचारा बालक दुत्कार का अर्थ समझने में असमर्थ था, वह रो पड़ा।
वसन्त हतबुद्धि-सा खड़ा था। बिब्बो ने मन्नू का हाथ पकड़ा, मुँह धोया और आँगन के ताख से जूते उतारकर पहना दिए।
वसन्त की स्त्री मुस्कराकर बोली - मौसी, क्या एक दिन भी न रहने दोगी? अभी क्या जल्दी है। पर, बिब्बो जैसे किसी लोक में पहुँच गयी हो। जहाँ यह स्वर-संसार का कोई स्वर-न पहुँच सकता हो। पलक मारते मन्नू को खेल की, प्यार की, दुलार की सभी वस्तुएँ उसने बाँध दीं। मन्नू को भी समझा दिया कि वह सैर करने अपनी नई माँ के साथ जा रहा था।
मन्नू उछलता हुआ पिता के पास खड़ा हो गया। बिब्बो ने कुछ नोट और रुपये उसके सम्मुख लाकर डाल दिए - ले अपने रुपये।
वसन्त धर्म-संकट में पड़ा था, पर उसकी अर्द्धांगिनी ने उसका निवारण कर दिया। उसने रुपये उठा लिये। मौसी, इस समय हम असमर्थ हैं; पर जाते ही अधिक भेजने का प्रयत्न करूँगी, तुमसे हम लोग कभी उऋण नहीं हो सकते।
मन्नू माता-पिता के घर बहुत दिनों तक सुखी न रह सका। महीने में दो बार रोग-ग्रस्त हुआ। नई माँ भी मन्नू को पाकर कुछ अधिक सुखी न हो सकी। अन्त में एक दिन रात-भर जागकर वसन्त स्त्री के रोने-धोने पर भी मन्नू को लेकर मौसी के घर चल दिया।
वहाँ पहुँचकर उसने देखा कि मौसी के जीर्ण द्वार पर कुछ लोग जमा हें। वसन्त के एक्के को घेरकर उन्होंने कहा - आपकी यह मौसी हैं। आज पाँच दिन से द्वार बन्द हैं, हम लोग आशंकित हैं।
द्वार तोड़कर लोगों ने देखा - वृद्धा पृथ्वी पर एक चित्र का आलिंगन किये नीचे पड़ी है, जैसे वह मरकर अपने मानव होने का प्रमाण दे रही हो।
वसन्त के अतिरिक्त किसी ने न जाना कि वह चित्र उसी के पिता का था पर वह भी यह न जान सका कि वह वहाँ क्यों था! ।।.



जीवन की झलक / 10

 

बाल पक गए हैं। सामने के दो दाँत निकम्मे हो गए हैं। पर, शरीर पर झुर्रियाँ अभी तक नहीं आई हैं। मेरी उम्र के 65 वर्ष 6 महीने २ दिन बीत चुके हैं, आज तीसरा दिन है। सिर में धीमा-धीमा दर्द हो रहा है। युवावस्था में मैंने काशी के एक ज्योतिषी को अपना हाथ दिखाया था। उसने कहा था - तुम्हारी उम्र 65 वर्ष 6 महीने 3 दिन की है। उसके कथनानुसार आज मेरी जीवन-यात्रा का अन्तिम दिवस है। मुझे भी पूर्ण विश्वास है कि आज मेरे प्राण पखेरू उड़ जायेंगे। इस माया-महल से आज हमें छुटकारा मिल जाएगा। मैंने संसार देखा और खूब अच्छी तरह देखा। कुछ दिन पहले मैं बड़े आराम से अपनी जिन्दगी बसर करता था। सैकड़ों आदमी हमारे पीछे चला करते थे। बड़े-बड़े लोगों तक मेरी पहुँच थी। सारा शहर मेरी प्रशंसा करता था; परन्तु आज मेरे अभिन्न-हृदय मित्रगण कपूर की तरह न जाने किस हवा में विलीन हो गए। मेरे रिश्तेदार - जो महीने में एक बार मेरे घर अवश्य पधारते थे - इन कई वर्षों से मुझे पहचानते भी नहीं। रास्ते में कहीं मुलाकात होती है, तो वे अपना सिर नीचा कर लेते है। कुछ दिन पहले जो मेरी जी-हुजूरी करते थे, आज वे मेरी परछाईं से भागते हैं, परन्तु आज भी मैं आनन्दित हूँ। सांसारिक सुख हमें प्राप्त नहीं होता, तथापि हृदय सदा आह्लादित रहता है। भर पेट अन्न भी मुझे नहीं मिलता; परन्तु मैं बहुत से धनी-मानी लोगों से अधिक सुखी हुँ। मेरे सुख का केन्द्र वही देवी है, जिसकी बाईं जाँघ पर मैं सिर रखकर लेटा हूँ। उसने सुख तथा दुख में साथ दिया है; बल्कि इस दुख की घड़ी में वह पहले से अधिक स्नेह रखती है। वह मेरी धर्मपत्नी है। मेरी शादी हुए 45 वर्ष हो गए। उसने मुझे सदा प्रसन्न रखा, मैं भी सदा इसे प्रसन्न रखने की कोशिश करता था।
आज जब मैं जीवन की अन्तिम साँसें गिन रहा हूँ, अतीत जीवन की बहुत-सी घटनाएँ आँखों के निकट घूम रही हैं। मेरे जीवन की प्रत्येक घटना नए सिरे से फिर एक बार घटित हो रही है। मैं माता-पिता का इकलौता पुत्र था। लाड़-प्यार में पला था। पिताजी ने कभी मुझे डाँटा भी न था। मैं नहीं जानता; पर माँ कहती थी उन्होंने मुझे एक बार दो तमाचे लगाए थे। मैं घंटों रोता रहा था, और जब पिताजी आए उन्होंने माँ को डाँटा, तो मैं चुप हुआ। कुछ दिनों के बाद मैं बाहर पढ़ने के लिए भेजा गया। पढ़ने में भी मैं कुछ खराब न था। बराबर फर्स्‍ट, सेकेंड होता ही था। उस समय की एक घटना उल्लेखनीय है। मैंने किशोरावस्था में पदार्पण किया था। हृदय उमंग से भरा रहता था, संसार हरा नजर आता था। इसी समय एक नवकिशोरी से मेरी घनिष्ठता हो गयी। मैं उसे बहुत चाहता था। वह भी मुझे बहुत चाहती थी। मेरे भाव पवित्र थे। मैं किसी वस्तु की प्राप्ति के लिए उसे प्यार नहीं करता था, परन्तु प्यार अवश्य करता था। वह मेरी ही उम्र की थी। बड़ी तीक्ष्ण-बुद्धि थी। शायद उसकी बुद्धि की तीक्ष्णता ही ने मुझे अपनी ओर खींचा था। वह बहुत सुन्दर न थी। मैं आज तक उसे भूल न सका हूँ। मैं नहीं जानता, वह जीवित है या नहीं। मेरी हार्दिक इच्छा है परमात्मा उसे सुखी रखे। धीरे-धीरे हम लोगों का हृदय प्रेम की ओर अग्रसर होने लगा। अब मुझमें कुछ सोचने की शक्ति आ गयी थी। मैं कभी-कभी सोचा करता यदि हम लोग विवाह-सूत्र में बँध जाएँ, तो हमारा जीवन कितना सुखी हो जाए। एक दिन की बात भुलाए नहीं भूलती। उस समय का प्रत्येक दृश्य स्पष्ट तथा मेरी आँखों के सामने प्रस्तुत है। हम दोनों अकेले थे। मैं खड़ा था और मेरे सामने वह खड़ी थी। हम लोग दोनों हाथ से पंजा लड़ा रहे थे। बहुत दिनों से हम लोग साथ खेलते थे, परन्तु उस दिन मैंने जैसे ही अपना हाथ उसके हाथों में दिया कि सारे शरीर में विचित्र-सी गुदगुदी होने लगी। नस-नस में एक बिजली-सी दौड़ गई। मैंने अपना हाथ छुड़ा लिया। उसके मुखमण्डल की ओर दृष्टिपात किया, तो देखता हूँ उसके मुख पर फीका गुलाबी रंग चढ़ गया है। मैं इस आकस्मिक परिवर्तन को न समझ सका। उसने युवावस्था में पैर रखा था। उसके विवाह की बातचीत होने लगी। मैं चाहता था उसकी शादी मुझसे ही हो। शायद वह भी मुझसे विवाह करना चाहती होगी; परन्तु न मैंने ही उससे कुछ कहा, न उसी ने कुछ कहा। प्रेम की अभिव्यक्ति कभी नहीं हुई यह मूक प्रेम था। उसका विवाह हो गया। मुझसे नहीं, दूसरे से। मैं निर्धन था। उसके माता-पिता ने मुझसे विवाह करने की कभी सोची भी नहीं होगी; परन्तु मेरी धर्मपत्नी होकर जितना आन्तरिक सुख उसे होता, वह हम दोनों के सिवा कौन जान सकता था। उसका पति सुन्दर था। मैं समझता था कि वह सुखी होगी। मैं भी उसके सुख में अपने को सुखी समझता था; परन्तु मैं भ्रम में था, वह सुखी नहीं थी - उसके दिन बहुत दुख से कट रहे थे। उसे मानसिक दुख था, शारीरिक नहीं। मेरा विवाह अभी नहीं हुआ था। एक दिन उससे भेंट हुई। उसने कहा - तुम अपना विवाह कर लो। मैं कुछ कह न सका। फिर एक-दो वर्ष व्यतीत हो गये। एक दिन मैं उससे मिलने गया। उसके प्रति अब मेरे भाव निर्मल तथा पवित्र थे। मैंने कभी बुरी भावना से उसकी ओर नहीं देखा। उस दिन उससे बातचीत कर उसकी फुलवाड़ी में चला गया। खाने के लिए कुछ फल खोजने लगा; परन्तु कहीं कुछ नजर न आया।
एक बहुत सुन्दर पका हुआ अमरूद फुनगी में लगा हुआ था। मुझे वृक्ष पर चढ़ना न आता था, तो भी मैं चढ़ा। बहुत कठिनाई से उस अमरूद को तोड़ सका। बस एक ही अमरूद था। मैं तोड़कर उतर गया। मेरे पीछे-पीछे वह भी फुलवाड़ी में चली आई थी। अमरूद तोड़ने में मेरा शरीर भी कुछ छिल गया था। मैंने अमरूद उसके हाथों में दे दिया।
उसने कहा - ’’भैया, तुम नहीं खाओगे? मैं बिना कुछ कहे वहाँ से बाहर चला गया। कुछ बोलने की शक्ति मुझमें न थी। मेरी छाती फूल रही थी। मैं आनन्द-सागर में गोते लगा रहा था। सच कहता हूँ, जितना आनन्द मुझे उस समय मिल रहा था, उतना जीवन में कभी न मिला।
आठ-दस साल बीत गए, बीच में उससे कभी मुलाकात नहीं हुई। एक दिन अचानक उसके पति से भेंट हुई। मुझे एक क्लर्क की आवश्यकता थी। पत्रों में मैंने विज्ञापन दे दिया। उसके पति ने भी आवेदन-पत्र भेजा; परन्तु उन्हें मालूम न था कि मैं ही उनका अफसर हूँ। उन्होंने मुझसे कहा - ’’मैंने दरख्वास्त दी है, यदि आपसे बन पड़े, तो कुछ कोशिश कर दीजिएगा।नियुक्त करने का पूर्ण अधिकार मुझे ही था। मैंने कहा - ’’घबराने की आवश्यकता नहीं, आप नियुक्त हो जाएँगे।कुछ दिन बाद उनकी पत्नी भी आ गईं। उसने एक दिन मुझे भेंट करने के लिए बुलाया था। वह मेरे पाँव पकड़कर रोने लगी। उसने कहा - ’’भैया, इनकी नौकरी आप ही के हाथ में है, मेहरबानी रखिएगा।
मैंने उसे सान्त्वना दी। वह बहुत दुबली हो गयी थी। इस भीषण परिवर्तन को देख, मैं बहुत दुखी हुआ। मैंने उसके पति की उन्नति के लिए बहुत कोशिश की, और उन्हें हेड क्लर्क बना दिया। आज वे कहाँ हैं, क्या करते हैं, नहीं मालूम। परमात्मा उनकी रक्षा करे।
किशोरावस्था की यह घटना आज भी कभी-कभी मेरी सूखी नसों में मन्दाकिनी की धारा प्रवाहित कर देती है। हृदय में एक विचित्र हिलोर पैदा हो उठती है। वे कैसे स्वर्गीय सुख के दिन थे! इस दृश्य के समाप्त होते ही विवाह की फिल्म आँखों के सामने आती है। प्रेम का साइलेंट फिल्म टॉकी में परिवर्तित हो गया। यह दृश्य भी कितना मनोहर तथासुखद है। नवोढ़ा पत्नी का प्रेम कितना ही मधुर तथा मतवाला होता है। पत्नी तथा पति के सिवा संसार में कुछ दिखलाई नहीं पड़ता। वियोगावस्था कैसी भीषण होती है! गृहस्थाश्रम का प्रथम परिच्छेद भी कैसा मजेदार होता है! जीवन में एक नए आनन्द का संचार हो जाता है। मनुष्य सुख की धारा में निमग्न हो जाता है। मेरी इस पत्नी की षोडशी कला क्या भुलाए भूल सकती है? वह मानचित्र मेरे हृदय-पट पर एक अमिट रोशनाई से अंकित हो गयी है। उस समय मैं बी.ए. में पढ़ता था। मेरे श्वसुरजी अपने लड़की के लिए दूल्हे की खोज में परेशान थे। जब तक युवती पुत्री की शादी नहीं होती, तब तक माता-पिता चैन नहीं पाते। एक दिन श्वसुरजी ने मुझसे ही पूछा - आपकी नजर में कहीं अच्छा लड़का है?’
मैं युवावस्था में पदार्पण कर रहा था। मुझे भी एक मजाक सूझा। मैंने कहा - मुझसे अच्छा लड़का और कहाँ मिलेगा।मैं सचमुच उनकी नजर में गड़ गया। आखिर हजार कोशिश कर उन्होंने मुझे दामाद बना लिया।
मेरी शादी हो गई। सिन्दूर दान के समय जब मैंने अपनी पत्नी के सिर का स्पर्श किया, तब मेरे हृदय में यही भाव उत्पन्न हो रहे थे कि आज से यह मेरी है। मैं प्रसन्न था। मैंने जैसे ही सिन्दूर भरा हाथ उसके मस्तक पर रखा कि रिमझिम-रिमझिम झींसी पड़ने लगी। लोगों ने कहा - देवतागण वर-वधू को अशीर्वाद दे रहे हैं।’’
बी.ए. पास करने के पश्चात् मैं एक ऊँचे पद पर नियुक्त हुआ। 20 वर्ष तक मैंने खूब आनन्द से अपने दिन बिताए। मुझे पाँच सौ रुपये मासिक मिलते थे। मेरी पत्नी पतिव्रता तथा सुशीला थी। उस समय की कोई भी घटना मेरा ध्यान आकर्षित नहीं करती; परन्तु रमेश की याद, आह! हृदय को तिलमिला देती है। उसके इस गौर-वर्ण-कलेवर, और उसके ऊँचे ललाट तथा चौड़ी छाती पर तो दूसरे की आँखें ठहर जाती थीं, फिर भला मुझ अभागे को उसकी याद क्यों न पीड़ा पहुँचाएगी! रमेश मेरा पुत्र था। वह इस पाप-पूर्ण संसार में रहने योग्य न था; इसलिए देवताओं ने उसे अपने निकट बुला लिया। परमात्मा ने 23 वर्ष के नौजवान पुत्र को मेरी गोद से छीन लिया। रमेश का भविष्य बड़ा उज्ज्वल था। वह अपने जीवन में कभी सेकेंड हुआ ही नहीं। बी.ए. इंगलिश ऑनर्स में तथा एम.ए. में वह फर्स्‍ट क्लास हुआ था। आई.सी.एस. के लिए वह इंग्लैण्ड गया। परीक्षा समाप्त होने के बाद उसने मुझे लिखा था कि यूरप की सैर करने के बाद मैं भारत के लिए रवाना होऊँगा। वह रवाना हो चुका था। उसकी माता उसके आने की बाट बड़ी उत्सुकता से देख रही थी। एक दिन अचानक एक पत्र आया, रमेश का ही लिखा मालुम होता था। खोलकर देखा, तो बदन काठ हो गया। रमेश ने जहाज पर से लिखा था -
पूज्य पिताजी तथा माताजी,
आपके चरणों के दर्शन की उत्कट अभिलाषा मेरे हृदय में थी; परन्तु ईश्वर को यह मंजूर न था। मैं जीवन की अन्तिम साँसें गिन रहा हूँ। मेरे अपराधों को क्षमा करेंगे। माताजी! ईश्वर की यही मरजी थी, किसी का क्या चारा है।
आपका प्रिय पुत्र
रमेश
इस लिफाफे में एक और भी पत्र था। जहाज के कप्तान ने लिखा था - इस पत्र के लिखने के बाद ही रमेश चल बसा।
यह हृदय-विदारक पत्र पढ़ ही रहा था Telegraph messenger तार लिये हुए पहुँचा। तार में लिखा था - Congratulation Ramesh, you get the first position in the I.C.S. इन पत्रों को पढ़कर मैं खड़ा न रह सका। जमीन पर बेसुध होकर गिर पड़ा। इस घटना के बाद रमेश की माँ तो कुछ पगली-सी ही गयी, और मेरी भी बुद्धि ठीक नहीं रहने लगी। एक दिन आफिस के काम में कुछ गड़बड़ी हो गयी और मुझे इस्तीफा दे देना पड़ा। रमेश की माँ अब अच्छी हो गई है। मैंने बंगला छोड़ दिया तथा शहर के किनारे एक कोठरी ले ली है, जिसमें अपनी धर्मपत्नी के साथ पिछले दस वर्षों से रहता हूँ। रुपये-पैसे पास में नहीं हैं। मैंने जो भी कमाया, सभी गरीबों के पीछे खर्च कर दिया था। युवावस्था में मुझे लिखने का एक व्यसन-सा हो गया था। उन्हीं पुराने लेखों को मेरी धर्मपत्नी पत्रों में भेज दिया करती हैं। इससे जो कुछ मिलता है, उसी में गुजारा करना पड़ता है। मेरी धर्मपत्नी को पुत्र वियोग से बड़ा दुख हुआ। उसका हृदय टूट गया है। आह! मुझे खूब याद है, शादी के एक वर्ष बाद ही एक दिन मेरी पत्नी किसी के बच्चे को गोद में लिये मेरे निकट आई तथा कहने लगी - मेरे भी एक ऐसा ही सुन्दर बालक होता, तो कितना अच्छा होता!उसके ये शब्द मेरे हृदय पर आज वज्र की तरह प्रहार करते हैं। परमात्मा ने उसे सर्वगुण-सम्पन्न बालक दिया था; परन्तु छीन लेने के लिए। मरते समय एक बात और भी याद आती है। हमारे दो साले हैं, दोनों ने खूब उन्नति की है। छोटा साला हाईकोर्ट में जज है। मुझे कहते भी डर लगता है। भला गरीब आदमी भी जज का बहनोई होता है। दूसरा साला पुलिस का एडिशनल सुपरिन्टेंडेंट है। एक दिन की बात खूब अच्छी तरह याद है। पत्नी ने कहा था–’अवधेश को लड़का होने वाला है, जरा दरियाफत कर आइये।मैं, गरीब, जाने में हिचकता था। परन्तु फिर भी सीधा जज साहब की कोठी के अन्दर चला गया।
उस दिन बड़े-बड़े आदमियों की पार्टी थी। कई अंग्रेज भी आए थे। अवधेश उन्हीं के बीच बैठा था। मुझे आते देख उसने सिर झुका लिया। Mr. Justice Stout ने कहा - ’Who is this nasty old fellow in rags?  (यह गुदड़ी लपेटे कौन मौजूद है?)
जस्टिस सिन्हा ने कहा - Might be some beggar. (कोई भिखमंगा होगा) कहते हुए मुझसे कहा - अभी जाओ, दूसरी रोज आना।
मैं अपना-सा मुँह लिये लौट पड़ा। बाहर आने पर मालूम हुआ कि जज साहब को पुत्र-रत्न उत्पन्न हुआ है। और उसी की खुशी में आज पार्टी दी गयी है। मैं चला जा रहा था कि कोठे पर से किसी ने पुकारा - अजी ओ मियाँ, जरा इधर कोठे पर भी मेहरबानी कीजिए।
मैंने आँखें उठाई्ं, तो देखा कि जज साहब की बीबी कोठे पर खड़ी मुझे पुकार रही हैं। मैंने कहा - साहब ने दूसरे दिन बुलाया है, अभी जाता हूँ। - इतना कहकर मैं चलने लगा कि दाई ने आकर कहा - मेमसाहब आपको बुलाती हैं।
मैंने कहा - मैं लाचार हूँ और मेमसाहब की ओर घूमकर देखा। उनकी आँखों में बेबसी के चिन्ह दिखाई पड़ते थे। घर जाकर सब समाचार पत्नी को कह सुनाया। अपने छोटे भाई के आचरण पर उसे बहुत दुख हुआ।
पतिदेव मेरी जाँघ पर सिर रखे उपर्युक्त बातें बोल रहे थे, मैं लिख रही थी। जब किसी पत्र के लिए उन्हें कुछ लिखना होता है, तो वे इसी तरह बोलते जाते हैं और मैं लिखती जाती हूँ। उपर्युक्त बातें कहने के पश्चात उनके शरीर में कुछ बेचैनी मालूम पड़ने लगी। उन्होंने मुझे सम्बोधन करके कहा - प्रिये! अब मेरी मृत्यु की घड़ी नजदीक आ गयी है। अब मुझे तुमसे ही कुछ कहना है। मैं तो जा ही रहा हूँ; परन्तु तुम्हारे भविष्य का ध्यान कर चिन्तित हो जाता हूँ। तुम इस संसार में अकेली कैसे रहोगी? तुम अपने भाई के निकट चली जाना। प्रियतमे, मैं अपने जीवन की सारी घटनाओं को सरसरी निगाह से देख गया। मैंने कोई बुरा कर्म नहीं किया है। मैं सदा निष्कलंक रहा। मुझे इसकी बड़ी प्रसन्नता है। मैं मृत्यु का आलिंगन करने के लिए प्रस्तुत हूँ; परन्तु बस तुम्हारी चिन्ता मुझे दुखी कर देती है। विवाह के पश्चात् इन 45 वर्षों तक तुमने मेरी अथक सेवा की। तुम्हारे बिना मैं कई वर्ष पहले ही स्वर्गधाम को सिधार गया होता; परन्तु तुम्हारी सेवा-सुश्रूषा ने मुझे बहुत दिनों तक बचाया।
प्रिये! जब मैं कॉलेज में पढ़ता था, उस समय मेरे एक मित्र कहा करते थे कि पवित्र प्रेम अथवा निःस्वार्थ प्रेम नाम की कोई चीज संसार में है ही नहीं। हम लोगों में प्रायः इस विषय पर बहस होती थी; परन्तु किसी ने कभी हार न मानी। मेरे प्रति तुम्हारा जो प्रेम रहा, उसमें तो स्वार्थ की बू तक नहीं आती। इस कलिकाल में तुम्हारी-सी पतिव्रता स्त्री भी मैंने कहीं न देखी। तुम्हें पत्नी-रूप में पाकर मैं अपने को धन्य समझता हूँ। तुम सचमुच कोई अभिशप्त देवी हो। तुमसे बिछुड़ते हुए मुझे बहुत दुख होता है; परन्तु कोई चारा नहीं है। मैंने तुम्हें बहुत दुख दिया है। क्षमा करना देवी!
पतिदेव इस तरह बोल रहे थे और मेरी आँखों से आँसुओं की अविरल धारा बह रही थी। भला कौन ऐसी कठोर-हृदया स्त्री होगी, जो ऐसे समय में स्थिर रह सके। मेरा सौभाग्य-सूर्य अस्ताचल की ओर अग्रसर हो रहा था। मेरे प्राणों से प्यारे पतिदेव मुझसे विलग हो रहे थे। मेरा सौभाग्य-सिन्दूर मिट रहा था। मेरी जीवन-नौका के कर्णधार चले जा रहे थे, तो भला मुझे शान्ति कहाँ। मैं सिसक रही थी। इसी समय मेरा भाई जो पुलिस में काम करता है, आता हुआ दिखलाई पड़ा। उसके साथ अवधेश का लड़का भी था। इन लोगों ने कोठरी में आकर मुझे प्रणाम किया। मैं इन्हें देख अपने को रोक न सकी, फूट-फूटकर रोने लगी।
मैंने कहा - भैया गणेश, आज बहुत दिन पर आए! मेरा सौभाग्य-सिन्दूर मिट रहा है, किसी प्रकार मेर डूबती किश्ती को बचा लो। गणेश ने मेरे पतिदेव की ओर देखते हुए पूछा - भाई साहब, कैसी हालत है?
पतिदेव ने मस्कुराते हुए कहा - गणेश! मृत्युकाल में तुमसे भेंट हो गयी, मैं बहुत प्रसन्न हूँ। यह मेरी अन्तिम घड़ी है। डॉक्टर बुलाना व्यर्थ है। कहो, अकेले आए हो, या सपरिवार?
गणेश - सपरिवार ही आया हूँ। मेरे साथ बड़ी दीदी भी आई हैं।
पतिदेव - बहुत खुशी हुई। क्या तुम बड़ी दीदी को यहाँ ला सकते हो? उनका दर्शन कर मुझे बड़ी प्रसन्नता होगी। लड़कों को मत लाना। सब व्यर्थ का शोर मचा डालेंगे। (अवधेश के लड़के की ओर देखते हुए) बेटा जगत, तुम घर जाओ, मैं तुम्हें आशीर्वाद देता हूँ। परमात्मा तुम्हें सुखी रखें। जाओ अपनी माता तथा चाची से कह देना कि फूफा ने मरती बेर तुम लोगों को याद किया था। अपनी बड़ी बुआ को जल्द भेज देना। जाओ, देखते क्या हो?
इतना सुन बालक जगत रोता हुआ चला गया। बालक-हृदय कितना कोमल होता है - कौन समझ सकता है। थोड़ी देर में मेरी बड़ी दीदी भी पहुँच गयी। यह सब हाल सुनकर वह घबरा गई थीं। वह पतिदेव के सिरहाने जाकर खड़ी हो गईं। उन्होंने हाथ बढ़ा चरणों की धूलि अपने माथे पर लगाते हुए कहा - दीदीजी, मेरा पुण्य कर्म प्रबल था, जो आपसे भेंट हो गयी। मुझे तो उम्मीद न थी। बस, जरा उसे देखिएगा।
दीदी - ऐसा क्यों कहते हैं, आप अच्छे हो जाएँगे।
पति - यह व्यर्थ की सान्त्वना है। मेरा बचना असंभव समझिये।
गणेश कहाँ गए?’
गणेश - कहिए, मैं हाजिर हूँ।
पति - भैया गणेश, अब तो मैं जा रहा हूँ। तुमसे मेरी एक प्रार्थना है - मैंने तुम्हारे दिल पर चोट पहुँचाई है, क्षमा करना। अपनी बहन को देखना। इस दुखिया के तुम्हीं लोग एकमात्र सहारे हो। मैं नहीं समझता, तुम लोग मुझसे क्यों नाराज हो। जो कुछ भी हो, मैं क्षमा चाहता हूँ। जो मृत्यु की गोद में जा रहा है, उससे कैसा वैमनस्य? छी:! तुम रोते हो। कायर क्यों बन रहे हो - धीरज धरो।
गणेश - मैं पापी हूँ। मेरी असावधानी के कारण ही आज आपक ऐसी दशा है। मैं इस लायक भी नहीं रहा कि आपसे क्षमा माँग सकूँ। भला, जो अपने आदमियों की खबर न ले, वह भी क्या मनुष्‍य है?
पति - नहीं, गणेश, यह सब कर्मों का फल है। यदि तुम्हारा कुछ दोष भी था, तो वह पश्चाताप की अग्नि से उज्ज्वल हो गया।
मैं गणेश के बगल ही में खड़ी थी। मेरी ओर नजर पड़ते ही वह कहने लगा - सुधा! तुम्हें देखकर मैं स्थिर नहीं रह सकता। मेरे हृदय के बाँध टूट जाते हैं। मेरे बिना तुम एक उखड़ी हुई लता की भाँति हो जाओगी। जाने दो, मृत्यु के समय अधिक चिन्ता की क्या आवश्यकता। तुम्हें शान्त करने के लिए मेरे पास शब्द नहीं हें। लो, मैं चला। (हाथ जोड़कर) आशा है, आप लोग सभी मुझे क्षमा करेंगे। यह कहते हुए उन्होंने सबको अभिवादन किया और आँखें मूँद लीं। इसके पश्चात् दो हिचकियाँ आर्इं और उनके प्राण-पखेरू उड़ गए। मैं उनकी लाश पर धड़ाम से गिर पड़ी और मूर्च्छित हो गई। उस समय मुझे कुछ सूझ ही न पड़ता था। आज मैं सोचती हूँ, तो एक बात याद आती है। वे प्राय: इस शेर को पढ़ा करते थे -
दो ही हिचकी में हुआ बीमारेगम का फैसला।
एक हिचकी मौत की थी, एक तुम्हारी याद की।
शायद मेरे पतिदेव को भी एक हिचकी मौत की थी, एक तुम्हारी याद की। मुझे देव-तुल्य पति मिले थे। मैं अगले जन्म में भी उसी देव की किंकरी बनने की इच्छा करती हूँ। उनकी मृत्यु हुए एक साल हो गया। उन्होंने कहा था - मेरे अन्तिम उद्गारों को किसी पत्र में छपवा देना। उन्हीं के कथनानुसार मैं इस लेख को भेज रही हूँ। पतिदेव की मृत्यु के पश्चात् मैं अपने भाई के ही साथ रहती थी; परन्तु मेरा दिल वहाँ नहीं लगता था। पति-गृह ही स्त्रियों का वास-स्थान है। कुछ दिनों के पश्चात् मैं उसी तीर्थ स्थान को चली आई। उसी कोठरी में, जहाँ मैंने दुख के 10 वर्ष बिताए थे। वहीं अपने जीवन की शेष घड़ियाँ बिताने की ठान ली है। मैं अब संन्यासिनी का-सा जीवन व्यतीत करती हूँ तथा पतिदेव की पूजा किया करती हूँ। मुझे भी इस संसार में अधिक दिन नहीं रहना है। जब ईश्वर ही चला गया, तो उसके पुजारी के रहने की क्या आवश्यकता है। ।..।।.
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समाप्त 10 कहानी
अनामी शऱण बबल



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