बुधवार, 2 दिसंबर 2015

नासिर काजमी 1923-1972 की गजलें






प्रस्तुति- संत शरण



अपनी धुन में रहता हूँ
अव्वलीं चाँद ने क्या बात सुझाई मुझ को
आज तो बे-सबब उदास है जी
आराइश-ए-ख़याल भी हो दिल-कुशा भी हो
ओ मेरे मसरूफ़ ख़ुदा
क़फ़स को चमन से सिवा जानते हैं
कम-फ़ुर्सती-ए-ख़्वाब-ए-तरब याद रहेगी
किसी कली ने भी देखा न आँख भर के मुझे
कुछ तो एहसास-ए-ज़ियाँ था पहले
कुछ यादगार-ए-शहर-ए-सितमगर ही ले चलें
कौन उस राह से गुज़रता है
ख़मोशी उँगलियाँ चटख़ा रही है
ख़्वाब में रात हम ने क्या देखा
गए दिनों का सुराग़ ले कर किधर से आया किधर गया वो
ग़म-फ़ुर्सती-ए-ख़्वाब-ए-तरब याद रहेगी
गली गली आबाद थी जिन से कहाँ गए वो लोग
गली गली मिरी याद बिछी है प्यारे रस्ता देख के चल
गिरफ़्ता-दिल हैं बहुत आज तेरे दीवाने
जब ज़रा तेज़ हवा होती है
ज़बाँ सुख़न को सुख़न बाँकपन को तरसेगा
तिरे आने का धोका सा रहा है
तिरे ख़याल से लो दे उठी है तन्हाई
तिरे मिलने को बेकल हो गए हैं
तुझ बिन घर कितना सूना था
तू जब मेरे घर आया था
तू है या तेरा साया है
तेरी ज़ुल्फ़ों के बिखरने का सबब है कोई
थोड़ी देर को जी बहला था
दयार-ए-दिल की रात में चराग़ सा जला गया
दिन ढला रात फिर आ गई सो रहो सो रहो
दिल धड़कने का सबब याद आया
दिल में इक लहर सी उठी है अभी
दिल में और तो क्या रक्खा है
दुख की लहर ने छेड़ा होगा
दौर-ए-फ़लक जब दोहराता है मौसम-ए-गुल की रातों को
धूप थी और बादल छाया था
धूप निकली दिन सुहाने हो गए
नए कपड़े बदल कर जाऊँ कहाँ और बाल बनाऊँ किस के लिए
नए देस का रंग नया था
'नासिर' क्या कहता फिरता है कुछ न सुनो तो बेहतर है
निय्यत-ए-शौक़ भर न जाए कहीं
पिछले पहर का सन्नाटा था
फ़िक्र-ए-तामीर-ए-आशियाँ भी है
फिर सावन रुत की पवन चली तुम याद आए
मुमकिन नहीं मता-ए-सुख़न मुझ से छीन ले
मुसलसल बेकली दिल को रही है
मैं ने जब लिखना सीखा था
मैं हूँ रात का एक बजा है
याद आता है रोज़ ओ शब कोई
यूँ तिरे हुस्न की तस्वीर ग़ज़ल में आए
ये भी क्या शाम-ए-मुलाक़ात आई
ये रात तुम्हारी है चमकते रहो तारो
ये शब ये ख़याल ओ ख़्वाब तेरे
रह-नवर्द-ए-बयाबान-ए-ग़म सब्र कर सब्र कर
वो दिल-नवाज़ है लेकिन नज़र-शनास नहीं
वो साहिलों पे गाने वाले क्या हुए
शबनम-आलूद पलक याद आई
शहर सुनसान है किधर जाएँ
सफ़र-ए-मंज़िल-ए-शब याद नहीं
सर में जब इश्क़ का सौदा न रहा
हासिल-ए-इश्क़ तिरा हुस्न-ए-पशीमाँ ही सही
होती है तेरे नाम से वहशत कभी कभी

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