तुम्हारी क्या कीमत / अनंग
बेमौसम बरसात में तुम्हारी क्या क़ीमत
होने वाली रात , तुम्हारी क्या कीमत।।
जब देखो तुम , हंसने- रोने लगते
झूठे हैं जज्बात, तुम्हारी क्या कीमत।।
सोने की लंका का रावण, चला गया।
दिखा रहे औकात,तुम्हारी क्या कीमत।।
सच कहने वालों से,डरना सीखो अब।
आदर की है बात, तुम्हारी क्या कीमत।।
उगा रहे जो बीज , सृष्टि हैं -ब्रह्मा हैं।
तुम डाकू की जात,तुम्हारी क्या कीमत।।
असली नकली चेहरा,छुपता कहीं नहीं।
नजरों की सौगात , तुम्हारी क्या कीमत।।
क्या कर लोगे,पैसों वाली भीड़ लगाकर।
दिखावे की पांत , तुम्हारी क्या कीमत।।
चौपालों पर , गूंगे - अंधे - बहरे सब।
नकली है बारात,तुम्हारी क्या कीमत।।
ठग ना होते तो ,पहरे में क्यों रहते।
इतनी एहतियात,तुम्हारी क्या कीमत।।
महापुरुष की,गुरुजन की हरि भी सहते।
भृगु ने मारी लात , तुम्हारी क्या कीमत।।........
."अनंग "
["मुंह से आग उगलना होगा"
पूरा तो हर सपना होगा।
पर कांटों पर चलना होगा।।
सबके खातिर जीकर देखो।
कहीं तो कोई अपना होगा।।
चिंगारी हो निकलो बाहर।
बनकर आग दहकना होगा।।
आसमान पर छाना है तो।
बनकर चांद चमकना होगा।।
दीपक बाती बन जाओ तुम।
अंधेरों से लड़ना होगा।।
बैठे रहने से क्या होगा।
आगे -आगे बढ़ना होगा।।
काम बड़ा ना शूली चढ़ना।
जड़ से शूल कुचलना होगा।।
चुप रहने से मिट जाओगे।
मन से तुम्हें उबलना होगा।।
चट्टानों से कह दो जाकर।
अबतो तुम्हें पिघलना होगा।।
राजा अगर निरंकुश हो तो।
मुंह से आग उगलना होगा।।..........
भुने हुए आलू के खातिर
लुगरी ओढ़े कांप रहा है।
खूब व्यवस्था नाप रहा है।।
कब तक ठंडी रात बितेगी।
आसमान को ताक रहा है।।
खेत बचाने को पशुओं से।
दीवा-रात्रि वो हांफ रहा है।।
रामलला तुम कब आओगे।
गिन-गिन माला जाप रहा है।।
रखवाला बनकर वह बैठा।
बरसों से जो सांप रहा है।।
थाली छीन-छीनकर झूठा।
नोट रात-दिन छाप रहा है।।
भुने हुए आलू के खातिर।
बैठा बोरसी ताप रहा है।।
लौट गई बारात मरा जो।
बेटी का वह बाप रहा है।।
रिश्वत लेने को अधिकारी।
मातहतों को चांप रहा है।।
असुर बढ़ेंगे तुम आओगे।
शास्त्रों का आलाप रहा है।।............
" " मन की अभिलाषा "
जो अच्छा है,मैं उन सबका वरण करूं।
अच्छी बातों का सदैव,अनुसरण करूं।।
ततपर रहूं सदा ,चाहे जिसकी भी हो।
शोक और संताप,कष्ट का हरण करूं।।
अपना हृदय स्वतः ,निर्मल बन जाएगा।
जनहितकारी भाव जगा,आचरण करूं।।
कोई अनाथ रह जाए ना,इस धरती पर।
वंचित-शोषित जन का,पोषण-भरण करूं।।
नदियां प्यास बुझाने लायक , बन जाएं।
त्याज्य वस्तुओं का,बाहर ही क्षरण करूं।।
गौरवपूर्ण अतीत दबा , खंडहरों में।
ढूंढ-ढूंढकर उनका मैं,अनावरण करूं।।
वहम ,अहम ,लोभ, तृष्णा से दूर रहें।
हो जाऊं मैं शुद्ध , अंतःकरण करूं।।
नमन और वंदन , सदैव पूर्वजगण का।
कुछ भी करूं सदैव,उन्हें स्मरण करूं।।
स्वाभिमान की रक्षा में,मैं सफल रहूं।
वंदना पिता-माता के केवल चरण करूं।।....."अनंग "