बड़े विनीत भाव से कहना चाहूंगा कि न तो मैं ओशो का शिष्य हूं, न ही ओशो दर्शन में मेरी कोई विशेष आस्था है।फिर भी जहां तक और जितना भी ओशो का साहित्य मैंने पढ़ा है, उसमें सिद्धार्थ ताबिश के आलेख का कथ्य कहीं मिला नहीं। इसलिए कहीं न कहीं आलेख से मेरी असहमति भी है। ऐसा प्रतीत होता है कि सिद्धार्थ भाई ने भी ओशो को नया-नया पढ़ा है, इसलिए “खुलकर लिख” रहे हैं।
ओशो दर्शन और साहित्य में इस बात का शायद ही कहीं उल्लेख हो कि अति की अवस्था से विरक्ति पैदा होती है।आलेख के मुताबिक अति मयनोशी, कामक्रीड़ा या हिंसाचार एक समय कर्ता में विरक्ति का भाव पैदा करता है। लेखक (सिद्धार्थ ताबिश) ने शायद ओशो की कृति “संभोग से समाधि तक” के कथ्य को इसी तरह से हृदयंगम किया है या समझा है। यह पुस्तक मैंने भी पढ़ी है, लेकिन इसमें मुझे तो ऐसा कहीं कुछ मिला नहीं। हां, संभोग क्रिया से विरक्ति या मोहभंग की बात इसमें ज़रूर है, लेकिन यह विरक्ति या वितृष्णा अति-काम से पैदा नहीं होती। दूसरी बात कि यह विरक्त भाव ही परमानंद की अवस्था का आरंभ है, सर्वशक्तिमान से साक्षात्कार का अनुभव है।
इस विरक्ति की प्राप्ति के लिए मनुष्य को संभोग के दौरान कठिन अभ्यास से गुजरना पड़ता है। कुछ इतना कठिन कि हम जैसे भोग में आकंठ लिप्त आम इंसान के लिए तो वह लगभग असंभव है। ओशो ने इसके लिए स्खलन पर संपूर्ण नियंत्रण के अभ्यास को निरंतर मज़बूत करने की बात कही है। इस अभ्यास के आरंभ में कुछ सेकेंडों का यह समय बढ़ाते-बढ़ाते घंटों तक और अंतत: आपकी इच्छा के वशवर्ती हो जाने तक ले जाना है। यह स्खलन से पार पाने की अवस्था होगी और तब आप निश्चित रूप से विरक्ति या अहोभाव के प्रांगण में प्रवेश पाएंगे। संभोग या सेक्स की अति से इस विरक्ति का दूर-दूर तक कोई लेना-देना नहीं है। प्रस्तुत पुस्तक या संपूर्ण ओशो दर्शन में ऐसा कहीं लिखा या कहा भी नहीं गया है।
बक़ौल ओशो, संभोग और स्खलन एक दूसरे से जुड़ी हुई, लेकिन दो भिन्न अवस्थाएं हैं। संभोग घंटा-दो घंटा चल सकता है, लेकिन स्खलन अधिकतम मिनट भर की क्रिया है। हमें संभोग नहीं, स्खलन को साधना है, उसका अभ्यास करना है, उसके पार जाना है। ध्यान रहे कि वियाग्रा या शिलाजीत जैसे कृत्रिम उपायों से हम संभोग क्रिया की अवधि तो बढ़ा सकते हैं, लेकिन स्खलन की अवस्था आते ही ये उपाय बेअसर साबित हो जाते हैं। ओशो के मुताबिक हमें स्खलन के ऐन चंद सेकेंड पहले के आनंदित क्षणों को दीर्घावधि और आखिरकार स्थायी बनाना है। इस क्षण के पहले की अवस्था कामक्रीड़ा है और इसके बाद की अवस्था स्खलन यानी प्रशांति और क्लांति की है। लिहाजा महत्वपूर्ण वह मध्यकाल है, जब स्खलन से ठीक पहले मेरूदंड में झुरझुरी या सिहरन शुरू होती है। सिहरन की इसी अवस्था को दीर्घकालिक और स्थायी बनाना है। तब जाकर खुलता है विरक्ति का दरवाजा। इस अवस्था में स्खलन कोई मुद्दा या विषय रह ही नहीं जाता है। आप संभोग करें या न करें, स्खलन पूर्व के आनंद का अहसास आपके मन-मस्तिष्क पर हमेशा रहता है। तब संभोग या स्खलन की आवश्यकता ही नहीं रह जाती है। ओशो ने इसके लिए श्वास और मस्तिष्क पर नियंत्रण समेत कई विधियां बताई हैं।
यदि स्खलन पर आपका वश नहीं है तो फिर आपका इस विरक्ति या परमानंद से साक्षात्कार असंभव है। एक साधारण मनुष्य तो संभोग से विरत नहीं हो पाता है! समय और सामर्थ्य उपलब्ध होने तक वह भोग में लिप्त ही रहता है या रहना चाहता है। भोग में इस कदर पिले पड़े रहने के बावजूद उसमें सेक्स से कभी विरक्ति पैदा ही नहीं होती। इसलिए बेतहाशा संभोग विरक्ति नहीं, भोगलिप्सा की अभिवृद्धि करता है। यही कारण है कि मनुष्य में भोग की लालसा जरायु तक जिंदा रहती है। उम्मीद है कि मेरी असहमति का कोई साथी अन्यथा नहीं लेंगे। सिद्धार्थ जी भी नहीं।
ए
एक पत्रकार द्वारा भेजे गए पत्र पर आधारित
साभार B4M.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें