गुरुवार, 23 जून 2022

काला पहाड़ : मेवात की कथा और संस्कृति का जीवंत दस्तावेज / धीरेन्द्र asthanab

 मैं पहले ही स्वीकार कर लेता हूं कि वरिष्ठ उपन्यासकार भगवान दास मोरवाल का सन् 1999 में प्रकाशित और चर्चित उपन्यास काला पहाड़ विराट फलक वाले उपन्यासों की परंपरा का सशक्त पायदान होने के बावजूद मेरे पाठकीय स्वाद के उस पार रहता है।

यही वजह रही कि इसे पढ़ने में मुझे पूरे बीस दिन लगे,रुक रुक कर। चार सौ छह पन्नों में घुसने की हिम्मत बटोरने में ही दो साल गुजर गए। लेकिन अब जब मैं यह उपन्यास पढ़ चुका हूं तो कह सकता हूं कि अगर मैं यह उपन्यास नहीं पढ़ता तो मेवात की कथा, संस्कृति और जीवन को मिस करता।

 पूरा उपन्यास पढ़ने के दौरान मुझे ऐसा महसूस होता रहा कि मैं अपनी आंख में कौतूहल लिए एक विशाल कस्बाई मेले में घूम भटक रहा हूं। कितने लोग, कितने अरमान, कितने संघर्ष, कितने सपने,कितनी निराशाएं, कितने ध्वंस और कितने कितने दुर्भाग्य लेकर विचरण कर रहा है इसका कथानक। पचासों चरित्रों वाले इस उपन्यास में क्या नहीं है? सांप्रदायिक वैमनस्य की आहटें हैं, बेरोजगारी के कारण गांव कस्बों से होता युवा पलायन है, स्त्री मन की उलझनें और मुश्किलें हैं। दैनंदिन जीवन की दिक्कतें और दैन्य है। स्वस्थ शांत कस्बाई जीवन को जहरीला बनातीं राजनीतिक दुरभिसंधियां और चालबाज शरारतें हैं।

 सबसे अंत में एक करुण पटाक्षेप के तहत उपन्यास के केंद्रीय पात्र सलेमी का मरना है जिसकी कब्र के सिरहाने और पांयते दो पत्थर गाड़ दिये गये हैं।इस शिनाख्त के लिए ताकि भविष्य में यह पता रहे कि सलेमी यहां एक लंबी नींद में सोया हुआ है।सलेमी जैसों का काले पहाड़ के यही पत्थर तो बरसों तक साथ देते हैं वरना कौन उन्हें याद रखता है।

उपन्यास की बैक पर दिग्गज आलोचक उपस्थित हैं अपनी प्रशंसात्मक टिप्पणी के साथ। होना भी चाहिए।

 क्षमा कि किताब के पास पहुंचने में मुझे पूरे तेईस साल लग गए।

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