शनिवार, 11 जून 2022

उमाकांत दीक्षित की 12 गीत ग़ज़लें

 रे  दीप !   तुम्हारा   धन्यवाद !

रे  दीप !   तुम्हारा   धन्यवाद !


तुम लड़े तिमिर से पूर्ण निशा

आलोकित कर दीं दशों दिशा

सीखी प्रकाश  की  परिभाषा

यूँ   उदित  हुई   नूतन  आशा

जीवन का प्रथम उदाहरण हो

जीवन  जीने  का  कारण  हो


रे  दीप !   तुम्हारा   धन्यवाद !

रे  दीप !   तुम्हारा   धन्यवाद !


ठेला  था  तुमने   घोर  तिमिर

टूटी  थी  आशा भी फिर फिर

लेकर  अपनी   हर  थाती को

जो संग  जली  उस  बाती को

वह तैल तरल था जीवन जल

पर  युद्ध  तुम्हारा  था  एकल


रे  दीप !   तुम्हारा   धन्यवाद !

रे  दीप !   तुम्हारा   धन्यवाद !


अब संग खड़ी नव स्वर्णभोर

तुम थमा सूर्य को अंगुष्ठ पोर

यह कठिन भार शीश पर धर

जीवन की  राह  उजागर कर

विश्वास विजय का तम पर ले

यह प्रकृति स्वयं झोली भर ले


रे  दीप !   तुम्हारा   धन्यवाद !

रे  दीप !   तुम्हारा   धन्यवाद !


सामर्थ्य ना  सब कुछ होता है

साहस  ही   विजया  बोता है

संघर्ष  समय   से  सतत सदा

संदेश  सहित   हो  रहे  विदा

तम तौल तुम्हें  तद त्राहिमाम

प्रकाशित पल्लव  पद प्रणाम


रे  दीप !   तुम्हारा   धन्यवाद !

रे  दीप !   तुम्हारा   धन्यवाद !


2


: कुछ दोहे मिठास पर...


चीनी में  चींटी घुसीं,  गुड़ में  घुसी गिंडार,

ज्यादा मीठा होन सों,  कीड़ों की भरमार।


मक्खी, चींटे, सुरसुरी,  कीड़े  और तितार,

मीठे बनकर परखिये, मिलिहें मित्र हजार।


गन्ना  मीठा  क्या  भया,  कोल्हू  दीना  पेर,

जो भल  चाहवे आपनो,  मीठे सौं मुंह फेर।


मधुमक्खी ने भूल की, मधु गुण का भंडार, 

या ही  मधु  के  कारणे,  खो  बैठी घरबार।


आसमान  से  टूटकर, उबला  खूब  खजूर,

मीठे हो ना बचोगे, चाहे जाय बसो तुम दूर।


ईख औ माणस एकसे, गति भाग इकसार,

तब लग पेरे जाएंगे,  जब लग  बाकी सार।


खोद जमीं से कंद को, भूना धरकर आग,

सारे   मीठे   जनन  के,   ऐसे  फूटे  भाग।


मीठे माणस, आम की, गती एक सी जान।

यूं  ही  निचौड़े  जायेंगे,  होते  ही  पहचान।


3

:

एक   पेड   पर  कितने  घर।  

फिर  भी  है  कटने  का डर। 


कीड़े, चिड़िया और गिलहरी 

करते  इस  पर  गुजर  बसर। 

 

फल,  फूल,  लकडी,  छाया,   

मुफ्त  में  देते   सभी  शज़र।

 

संग  चिता  में  पहले जलता 

फिर भी  ना समझा ये बशर।  


बिन   पेडों   के  होगा  क्या? 

होना  है   मौसम  का  कहर। 


प्राणी   सांस   ना  ले  पायेगें,

हवा  में   होगा  सिर्फ  ज़हर।

4


 कहो, मुझे  पहचाना  क्या ? 

याद   नहीं   दीवाना  क्या ?   


आँख  उठाकर  देख  जरा,

मुझसे  भी  शरमाना  क्या ?  


राजनीति   के   जंगल   में,

अँधा क्या और काना क्या ?

                  

सब   चोरों   के  घर  जैसे, 

कोर्ट, कचहरी, थाना  क्या ?


सब   रक्खा   रह  जाएगा,      

माल,असबाब,खजाना क्या ?


दुनिया   भूल   भुलैया   है,

वापस घर नहीं जाना क्या ?


 5


: एक प्रश्न चिन्ह ...?


कौन है जो  वक़्त के  पहिये को घुमाता है ?

कौन दीपक की तरह सूरज को जलाता है ?


धूप दबे पाँव चली आती है जगाने मुझको,

चांद  हर   रात   मुझे  लोरियाँ   सुनाता  है ।


भूख  के वक़्त बख्शता है निवाला सबको,

प्यास  के  वक़्त  वो  प्यास  भी  बुझाता है ।


जिंदगी  के  लिए  अहम  है सांस लेना भी,

हर शय  के  लिए  बराबर  हवा  चलाता है ।


कौन आएगा, किसे जाना है,  रजा उसकी,

कौन  है  जो  सारे  जहाँ   को   बताता  है ?


उसके ही हुक्म से आग उगलती है ये जमीं,

कौन  जो  आसमां  से  पानी भी गिराता है ?


कोई तो है, जो  महसूस भी  होता है, मगर,

बहुत   ढूंढा,   बस   नज़र   नही  आता  है


6

कुछ दोहे....


समय  चक्र  गतिशील है, है  यह  विधि  विधान।

परिवर्तन    स्वीकारिये,   स्वागत    से   श्रीमान।।


क्या, कैसे, कब हो गया? किसने किया कमाल।

सूक्ष्म बीजकण मात्र से, विकसित वृक्ष विशाल।।


लघु  को  लघु  ना  जानिये, लघु  की भारी चोट।

नागा  साकी  याद  है? और  वो  अणु विस्फोट।।


आज शिशु, कल युवक है, परसों  वृद्ध  कहाय।

कब आया कब चल दिया, ये कोई जानत नाय।।


नयन  मूंद   साजन  लखै,  मूक   रह  बतियाय।

परिमल   सौं   पहचानिये,  प्रेम   परे  पतियाय।।


जल  सौं  सींची  लाकड़ी,  काठ  भई  अब देह।

अपनी   पत   तो   राखिबै,  कैसे   बूड़न   देह।।


धूल  धूसरित  हो गया,  स्वर्णिम  सा  व्यक्तित्व। 

रजनी  ने  बिसरा  दिया,  चंदे   का   अस्तित्व।।


रात   चांदनी   छत्त   पर,  मुझे   रही   थी   टेर।

बादल  आकर  ले गया,  सब  किस्मत का फेर।।


व्यवहारिक  होता  नहीं,  बिना  गुरू  का  ज्ञान।

अंतरमन  बाजी   करे,  कर  ना   पाऊं   ध्यान।।


अवगुण  मम  बिसराइए, पतित पावन  उद्धार। 

पातक  प्राणी  प्यास  ले,   शरणागत  है  द्वार।।


7


 काला  ये  सवेरा  क्यों  है ? 

होते   सूरज  के  अंधेरा  क्यों  है ? 


मैने  तो  राज  को  राज ही रखा,

कत्ल  में  मेरे  नाम तेरा  क्यों  है ? 


अजब  सवाल  है  इन  परिंदो से, 

बिजली के तारों पे बसेरा क्यों है ? 


पेड  पर  फल  नहीं  मुर्दे  लटके,

सख्त ऐसा कर्ज का घेरा क्यों है ? 


माना तुम्हें मुझसे वास्ता ही नहीं, 

मेरा  हर  गम  फिर  तेरा क्यों है ? 


सांप आकर कुर्सियों पे बैठ गए,

बंद  पिटारी  में  सपेरा  क्यों  है ?


8

 

तुम सागर मैं बूंद तिहारी।

तुम सौं निकस समानी तुमहि, क्षण पहचान निकारी।

भाप  भई, भई  भुुवन  बदरिया, पाखी  पंख  पछारी।

सीत  सताय  सरि   सौं  सोई,   सच्ची  सरण  सहारी।

गुन औगुन  हमरी  परछाई, सब  विधि  की बलिहारी।

शोध  शोध  करि  हारी  प्रभु जी, मैं  खारी  की खारी।

आतम  लौट  आतम सो मिलिहै, बूंद मिलै ज्यों वारी।

'कंंत'  कहै  कलि काल  करावै,  कर  में कसे कुठारी।



9


साधौ नाय सधौ इकतारा।

वीणा और सितार बजाए,  मिला ना सुर आधारा।

गठरी भरभर पाप कमायौ,  मिलि है परखनहारा।

जब  गठरी की  होय तलाशी,  भेद खुलेगा सारा।

बचपन बीता,  गई  जवानी,  आवन को हरकारा।

जितना अपने  अंतर उतरूँ,  है केवल अंधियारा।

ना कोई  राह,  ना  पगडंडी,  ना  कोई गलियारा।

ना साथी,  ना कोई सतगुरु,  तुम ही एक सहारा।

आपई दीप, आपही ज्योति, आप करो उजियारा।

मूरख "कंत",  अज्ञानी प्राणी,  तुम ही तारणहारा।


10


इस  रहमो करम  पर  ऐ  खुदा  कुर्बान  हो जाऊं ।

ख्वाहिश  ये है,  इक  मुकम्मल  इंसान  हो जाऊं ।


कोशिश  तो  है  इंसानियत  की  हद  में रहने की, 

मगर   दुनिया   चाहती   है  मैं   हैवान  हो  जाऊं ।


इरादा  बदल  लिया  मैने,  जुनूने जिहाद देखकर,  

वर्ना  दिल  था  कि  मैं  भी  मुसलमान हो जाऊं ।


बदन  नंगा,  खेत  नंगे  और   पथरा  गई   आंखे,

किसी तरहा  किसानों के लिए भगवान हो जाऊं ।


जीने   दे   गर   दुनिया   मुझे    मेरे   सलीके  से,

कहीं  मैं  राम  हो जाऊं,  कहीं  रहमान हो जाऊं ।


जिस  घर   का   चुल्हा   कई  दिन  नहीं  जलता,

उस  घर  की  रोटियों  का  इत्मिनान  हो  जाऊं ।


गम  ने  तह्जीब  से  पूछा,  तो  कैसे मना करता?

“इजाजत हो तो आपके दिल का मेहमान हो जाऊं ।”


11


मैं   रहा   तुम   से  अपने   गम   छिपाने   में। 

भीड़  बढ़ती  ही  गई  दिल  के  आशियाने में।


वही तसल्ली,वही दिलासा,वही वादा,वही इंतजार 

मेरे  लिए  यही  बचा  था  तेरे  मय  खाने  में। 


मैंने कब पूछा तुझसे तेरी बेवफाई का  सबब,

हाँ  मगर  कुछ  राज  था  तेरे  सकपकाने  में।


चार  दिन  की  ज़िंदगी  थी इस तरह पूरी हुई, 

ढूँढने  में  दो  लगे   और  दो  तुझे  मनाने  में।


दो पल में खारिज की तूने दास्ताने दिल-लगी,

उम्र पूरी  लग  गई  जिसको  तुम्हें  सुनाने  में। 


हमको मालूम था अंजाम तलाशे-वफा लेकिन 

ढूँढने  फिर  भी  चले  थे  हम  इस  जमाने में। 


12


अँधियारा मुख चूम गया 

जब से अल्हड़ नवभोर का 

सकुचाई घबराई 

उषा के मुख पर देख अरुणाई 

क्रोध सातवें आसमान पर 

साथी सूरज किशोर का..... 


खिसियाकर फोड़ रहा अब

दुनिया के सिर पर अंगारे

इसीलिए डर के मारे 

छांव छिपी छप्पर के नीचे 

दौड़ी दुबकी दीवार के पीछे 

बैठ गई ओढ़ पेड़ों की चुनरिया...

  

संगी सूरज संग

पगलाया पवन भी 

बौखलाए बवंडर बोल

डोल रहा यहाँ वहाँ 

खोजता हो जैसे 

अँधियारा है कहाँ…..

@ उमाकांत दीक्षित

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