प्रस्तुति _ रेणु दत्ता / आशा सिन्हा
देखि बुद्धि बल निपुन कपि कहेउ जानकीं जाहु।
रघुपति चरन हृदयँ धरि तात मधुर फल खाहु॥
भावार्थ:- हनुमान्जी को बुद्धि और बल में निपुण देखकर जानकीजी ने कहा, जाओ।
हे तात! श्री रघुनाथजी के चरणों को हृदय में धारण करके मीठे फल खाओ॥
हनुमान जी का सीता माता से मिले हैं और प्रभु का समाचार सुनाया है।
फिर हनुमान जी ने माता से फल खाने के आज्ञा ली है।
हनुमान जी बाग़ में घुस गए हैं और फल खाए और वृक्षों को तोड़ने लगे।
वहाँ बहुत से योद्धा रखवाले थे।
उनमें से कुछ को मार डाला और कुछ ने जाकर रावण से पुकार की और कहा,
हे नाथ! एक बड़ा भारी बंदर आया है।
उसने अशोक वाटिका उजाड़ डाली। फल खाए, वृक्षों को उखाड़ डाला और रखवालों को मसल मसलकर जमीन पर डाल दिया।
यह सुनकर रावण ने बहुत से योद्धा भेजे।
हनुमान्जी ने सब राक्षसों को मार डाला, कुछ जो अधमरे थे, चिल्लाते हुए गए।
फिर रावण ने अक्षयकुमार (रावण पुत्र) को भेजा।
वह असंख्य श्रेष्ठ योद्धाओं को साथ लेकर चला।
हनुमान जी ने इन सबको भी पल भर में मार गिराया।
पुत्र का वध सुनकर रावण क्रोधित हो उठा और उसने (अपने जेठे पुत्र) बलवान् मेघनाद को भेजा और आज्ञा दी ,
कि उस बंदर को बाँध कर लाना है, मारना नही है।
हनुमान् जी ने देखा कि अबकी भयानक योद्धा आया है।
तब वे कटकटाकर गर्जे और दौड़े।
उन्होंने एक बहुत बड़ा वृक्ष उखाड़ लिया और (उसके प्रहार से) लंकेश्वर रावण के पुत्र मेघनाद को बिना रथ का कर दिया।
फिर दोनों युद्ध करने लगे।
हनुमान्जी उसे एक घूँसा मारकर वृक्ष पर जा चढ़े।
उसको क्षणभर के लिए मूर्च्छा आ गई।
फिर उठकर उसने बहुत माया रची,
परंतु पवन पुत्र पर उसका कोई प्रभाव नही पड़ा।
अंत में उसने ब्रह्मास्त्र का संधान (प्रयोग) किया,
तब हनुमान्जी ने मन में विचार किया कि यदि ब्रह्मास्त्र को नहीं मानता हूँ ,
तो उसकी अपार महिमा मिट जाएगी। हनुमान जी को ब्रह्मबाण लगा और वे वृक्ष से नीचे गिर पड़े,
परंतु गिरते समय भी उन्होंने बहुत सी सेना मार डाली।
जब उसने देखा कि हनुमान्जी मूर्छित हो गए हैं,
तब वह उनको नागपाश से बाँधकर ले गया।
प्रभु के कार्य के लिए हनुमान्जी ने स्वयं अपने को बँधा लिया।
हनुमान को लेकर सभी रावण की सभा में गए हैं।
हनुमान्जी ने जाकर रावण की सभा देखी।
देवता और दिक्पाल हाथ जोड़े बड़ी नम्रता के साथ भयभीत हुए सब रावण की भौं ताक रहे हैं।
सभी नव ग्रह रावण के बंधी हैं।
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हनुमान्जी को देखकर रावण दुर्वचन कहता हुआ खूब हँसा।
फिर पुत्र वध का स्मरण किया तो उसके हृदय में विषाद उत्पन्न हो गया।
लंकापति रावण ने कहा,
रे वानर!
तू कौन है?
किसके बल पर तूने वन को उजाड़कर नष्ट कर डाला ?
क्या तूने कभी मुझे (मेरा नाम और यश) कानों से नहीं सुना?
तूने किस अपराध से राक्षसों को मारा? रे मूर्ख! बता, क्या तुझे प्राण जाने का भय नहीं है?
हनुमान्जी ने कहा, हे रावण!
सुन, जिनके बल से हे दशशीश! ब्रह्मा, विष्णु, महेश (क्रमशः) सृष्टि का सृजन, पालन और संहार करते हैं,
जिन्होंने शिवजी के कठोर धनुष को तोड़ डाला और उसी के साथ राजाओं के समूह का गर्व चूर्ण कर दिया।
जिन्होंने खर, दूषण, त्रिशिरा और बालि को मार डाला, जो सब के सब अतुलनीय बलवान् थे,
जिनके लेशमात्र बल से तुमने समस्त चराचर जगत् को जीत लिया और जिनकी प्रिय पत्नी को तुम (चोरी से) हर लाए हो,
मैं उन्हीं प्रभु श्री राम जी का दूत हूँ।
हनुमान जी कहते हैं, मैंने तुम्हारे बारे में भी सुना है।
सहस्रबाहु से तुम्हारी लड़ाई हुई थी और बालि से युद्ध करके तुमने यश प्राप्त किया था।
हनुमान्जी के (मार्मिक) वचन सुनकर रावण ने हँसकर बात टाल दी।
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मुझे भूख लगी थी इसलिए मैंने फल खाए और बंदर के स्वभाव के कारण वृक्षों को तोडा।
और जब दुष्ट राक्षस जब मुझे मारने लगे तो मैंने भी उन्हें मारा।
इस मारा मारी में कुछ यमलोक पहुंच गए।
और अपनी मर्जी से ही मैं बंधा हूँ।
काल भी जिनके डर से अत्यंत डरता है,
उनसे कदापि वैर न करो और मेरे कहने से जानकी जी को दे दो।
राम चरन पंकज उर धरहू।
लंका अचल राजु तुम्ह करहू॥
तुम श्री रामजी के चरण कमलों को हृदय में धारण करो और लंका का अचल राज्य करो।
हे रावण! सुनो, मैं प्रतिज्ञा करके कहता हूँ कि रामविमुख की रक्षा करने वाला कोई भी नहीं है।
अभिमान का त्याग कर दो और रघुकुल के स्वामी, कृपा के समुद्र भगवान् श्री रामचंद्रजी का भजन करो।
रावण बहुत हँसकर (व्यंग्य से) बोला कि हमें यह बंदर बड़ा ज्ञानी गुरु मिला!
रे दुष्ट! तेरी मृत्यु निकट आ गई है।
हनुमान्जी ने कहा, इससे उलटा ही होगा (अर्थात् मृत्यु तेरी निकट आई है, मेरी नहीं)।
रावण क्रोध से आग बबूला हो गया और बोला, अरे!
इस मूर्ख का प्राण शीघ्र ही क्यों नहीं हर लेते?
सुनते ही राक्षस उन्हें मारने दौड़े उसी समय मंत्रियों के साथ विभीषणजी वहाँ आ पहुँचे।
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विभीषण जी कहते हैं, दूत को मारना नहीं चाहिए,
यह नीति के विरुद्ध है। हे गोसाईं। कोई दूसरा दंड दिया जाए।
सबने कहा, भाई! यह सलाह उत्तम है।
यह सुनते ही रावण हँसकर बोला, अच्छा तो,
बंदर को अंग भंग करके भेज (लौटा) दिया जाए।
किसी ने कहा महाराज हमने सुना है की बंदर को अपनी पूंछ से बहुत प्यार होता है।
इसलिए तेल में कपड़ा डुबोकर उसे इसकी पूँछ में बाँधकर फिर आग लगा दो।
तो यह बात सुनते ही हनुमान्जी मन में मुस्कुराए।
जब हनुमान जी की पूंछ पर कपडा लपेटने लगे तो पूंछ लम्बी होती जा रही है।
बाढ़ी पूँछ कीन्ह कपि खेला।
पूंछ के लपेटने में इतना कपड़ा और घी तेल लगा कि नगर में कपड़ा, घी और तेल सब खत्म हो गए।
फिर जैसे तैसे हनुमान जी की पूंछ में आग लगा दी।
सभी नगरवासी तमाशा बने तमाशा देख रहे हैं।
अब हनुमान जी लंका जलाने लगे।
वे दौड़कर एक महल से दूसरे महल पर चढ़ जाते हैं।
नगर जल रहा है लोग बेहाल हो गए हैं,
आग की करोड़ों भयंकर लपटें झपट रही हैं।
सभी कहते हैं, इस अवसर पर हमें कौन बचाएगा ?
चारों ओर यही पुकार सुनाई पड़ रही है।
हमने तो पहले ही कहा था कि यह वानर नहीं है,
वानर का रूप धरे कोई देवता है!
साधु के अपमान का यह फल है,
कि नगर, अनाथ के नगर की तरह जल रहा है।
हनुमान्जी ने एक ही क्षण में सारा नगर जला डाला।
एक विभीषण का घर नहीं जलाया और हनुमान जी खुद भी नही जले हैं।
हनुमान्जी ने उलट पलटकर एक ओर से दूसरी ओर तक सारी लंका जला दी।
फिर वे समुद्र में कूद पड़े और अपनी पूंछ की आग बुझा ली।
पूँछ बुझाइ खोइ श्रम धरि लघु रूप बहोरि।
जनकसुता कें आगें ठाढ़ भयउ कर जोरि॥
भावार्थ:- पूँछ बुझाकर, थकावट दूर करके और फिर छोटा सा रूप धारण कर हनुमान्जी श्री जानकी जी के सामने हाथ जोड़कर जा खड़े हुए।
मातु मोहि दीजे कछु चीन्हा।
जैसें रघुनायक मोहि दीन्हा॥
चूड़ामनि उतारि तब दयऊ।
हरष समेत पवनसुत लयऊ॥
भावार्थ:- हनुमान्जी ने कहा, हे माता! मुझे कोई चिह्न (पहचान) दीजिए,
जैसे श्री रघुनाथजी ने मुझे दिया था।
तब सीताजी ने चूड़ामणि उतारकर दी। हनुमान्जी ने उसको हर्षपूर्वक ले लिया।
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जय श्री राम जी🙏
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