बुधवार, 26 जुलाई 2023

अपनी बात / अनीता कर्ण

 


अपनी बात



अज्ञेय के शब्दों में कहे तो " इंसान जो कुछ भी बनता है, उसकी नींव बचपन में पड़ जाती." कुछ ऐसा ही मेरे साथ था.  मैं तब से किताबें पढ़ रही हूं, जब मैं पढ़ना नहीं जानती थी. पहले चित्रों को पहचानना सीखा और फिर शब्दों को, और वर्षों बाद उनके अर्थों को समझ पायी.  


कहीं पढ़ा था, शायद पत्रिका 'कादंबनी' में, " किसी को कुछ कहने से अच्छा है, खत लिख लो और खत लिखने से अच्छा है गजल लिख लो" ये पंक्ति मेरे लिए प्रेरणा बन गयी. 'किसी से कुछ न कहने का संकल्प ही मेरी कविता है, पूर्णत: स्वांत: सुखाए. अन्य साहित्यकारों की तरह मेरी भी पहली अभिव्यक्ति कविता थी. 12-14 साल की उम्र में मैंने पहली कविता लिखी पर कहां खो गयी पता नहीं. मेरी सकड़ों कविताएं कबाड़ी वाले की तराजू पर चढ़ गयीं. उसी उम्र में मैंने किताबों की एक सूची बनाई, जिसपर मैं लिखना चाहती थी. वह भी कहीं गुम गयी. मैं खुशनसीब हूं, मैं जो हूं, वही बनना चाहती थी.   


भावनाएं परिपक्‍व हुईं तो अभिव्‍यक्ति गद्यात्‍मक गयी साथ ही स्वांत: सुखाए से बहुजन हिताए भी. लगा कविता सिर्फ मेरे मन के भावा की अभिव्यक्ति है पर दूसरों को क्या फायदा. तब भावनाएं इतनी परिपक्वय नहीं थी कि राष्ट्रहित और जनहित की बात सोच पाती. स्नातक तक कविताएं लिखती रही.  शायद मैथिलिशरण गुप्त से प्रभावित होकर दो कविताएं लिखीं, 

"अबले भार नहीं ये जीवन का हार

छोड़ प्रसाधन का ये अस्त्र,

अब युग नहीं करने का श्रृंगार,

हम शास्त्रार्थ करेंगे उनसे,

चाहे द्वंद युद्ध करें वो हम से,

चाहे ले वो हमारा सर उतार."


आगे की पंक्ति मुझे याद नहीं, एक और कविता, जिसकी एक पंक्ति ही याद है...

"मैं उड़ जाऊं मुक्त गगन में,"

ये दोनों कविताएं मैंने अपनी हिन्दी की एक प्रोफेसर मंजुला सिन्हा जी को चेक करने के लिए दिया. उन्होंने मेरी कविताओं को ठीक करने के साथ-साथ एक कविता मेरे लिए लिखी, वो कहीं खो गयी, ठीक से याद भी नहीं है.-

"तुम उड़ जाओ मुक्त गगन में...

...मिलता न अधिकार तुम्हें तो,

कर्मों के बल पर ले लो,

भाग्य जगमगाएगा तुम्हारा,

अबले नहीं सबले नाम तुम्हारा."

उनकी यह पंक्ति मेरे जीवन का मूलमंत्र बन गया और फिर मेरे पंख दिन-ब-दिन सशक्त होते गये. तब मेरी मां जानती थी मैं लिखती हूं, वैस ऐसे ही. मुझे पढ़ने का शौक है, ये तो उसे पता था. हां उसकी नजर मेरी डायरी पर हुआ करती थी. क्या लिखती है? जब मुझे पता चला तो मैंने लिखना बंद कर दिया.

डायरी लेखन का शौक मुझे पांचवीं-सातवीं क्लास से ही चढ़ गया था. इसके पीछे भी एक मजेदार घटना है. एक दिन मुझे कूड़े पर एक पुरानी डायरी मिली. शायद मोहल्ले के किसी आदमी की होगा. रोज की घटनाओं के साथ-साथ कुछ मजेदार किस्से और किसने क्या कहा लिखा था. मैंने पूरी डायरी पढ़ी, कई बार पढ़ी. कुछ समझ में आया, कुछ नहीं. पर इतना जान लिया कि डायरी में घटनाएं और कथन लिखे जाते हैं. फिर मैंने कॉपियों को काटकर डायरी बनाई और फिर लिखना शुरू किया.

मेरे घर में ऐसा कोना था, जहां शहतूत का एक पेड़ था, पेड़ की एक डाली से तीन जगह साफ दिखाई देती थी. बायीं तरफ समंदर सी गंगा, सामने साम्राट अशोक की भित्ति पर बना शेरशाह का किला और दायीं तरफ गोशाला. यहां नीम, बरगद और पीपल के सदियों पुराने कई पेड़ आज भी पूल है. मां के मुताबिक ये उसके दादा जी ने भी वैसे ही देखे थे जैसे अब भी है. उस पर सैकड़ों तरह-तरह के पंछियों का बसेरा है. सुबह मेरी आंखें उसी की चहचहाट से खुलतीं थी. मैंने इन पेड़ों के अगगिनत बसंत और पतझड़ देखे. यही से मेरे मन में संस्कृति, प्रकृति और धरोहर से प्रेम का बीज पनपा.

मैं इसी शहतूत के पेड़ पर बैठकर कभी , 'झांसी की रानी', 'पुष्प की अभिलाषा' तो कभी 'यह कदंब का पेड़ अगर मां होता यमुना तीरे' कविताएं पढ़ा करती और कभी डायरी में रोज की घटनाएं और लोगों का कथन लिखा करती. कभी मैं लोगों के कथन को जोर-जोर पढ़ती. शायद यही से साहित्य और पत्रकारिता की नींब मुझ में पड़ गयी थी.

सूर, तुलसी, जायसी, कबीर, नानक, महादेवी बर्मा, पंत, निराला, प्रसाद जैसे कवियों का मन पर बड़ा छाप रहा. भावनाएं परिवक्व होने लगीं, भाषा कुछ सुदृठ, विचारों में विविधता और आयाम आने लगे थे. अभिव्यक्त गद्यात्मक हो गयी थी और विचार व्यष्टि से समष्टि. स्नातकोत्तर तक कविताओं के साथ कहानियां भी लिखने लगी. पहली कहानी मैंने स्नातक में ही लिखी जिसे बहुत साल तक संभाल कर रखा था, बाद में कहीं गुम हो गयी. 

पत्रकारिता की पढ़ाई के दौरान दूसरी कहानी लिखी जिसे किसी को पढ़ने के लिए दिया वो मुझे वापस नहीं मिली. तीसरी या चोथी कौन सी है मुझे याद नहीं, लेकिन उसके बाद एक सिलसिला शुरू हो गया कहानियां लिखने की और लिखती गई कई साल तक. बीजे की और शोध कार्य के दौरान कहानियों के साथ-साथ फीचर, लेख, अग्रलेख लिखना शुरू कर दिया. एक अखबार में मुझे संपादकीय लिखने की भी जिम्मेदारी दी गई. जिसमें मुझे बाइलाईन नहीं मिलता था.

मेरे लेखन में सबसे बड़ा सहयोग मेरी मां का रहा. उसने अक्षर ब्रह्म से मेरा परिचय तो कराया ही जीवन के आखिरी वक्त तक, जब तक वह सक्षम रही मेरी रचनाओं की भाषा-व्याकरण और वर्तनी के साथ-साथ मेरी गलतियों को सुधारती रही. मेरी मां के लिए 'मां' शब्द प्रर्याप्त नहीं है, लेकिन 'मां' शब्द से बड़ा कोई शब्द भी नहीं है. वो सही मायने में मेरी जीवन-रेखा थी. इसके लिए मैं ईश्वर को धन्यवाद देती हूं, जिन्होंने अद्भुत 'मां' और लेखन की शक्ति दी.

मैं अपने गुरुजनों, वरिष्ठ सहयोगियों और मित्रों को आभार प्रकट करती हूं, जिन्होंने हमें प्रोत्साहित किया. इनमें सबसे पहला श्रेय मेरे पत्रकार गुरु रामजी मिश्र मनोहर जी को जाता है. ये सही मायने में एक पिता तुल्य गुरु थे, इन्होंने मेरी लेखनी को तलाशा, तराशा और उत्कृष्ठ बनाया. वरिष्ठ पत्रकार-साहित्यकार श्रद्धेय विभांशु दिव्याल जी का भी स्नेह और आशीर्वाद प्राप्त हुआ. 

गुरुजनों में आदरणीय सत्यप्रकाश किरण जी, हीरा प्रसाद चतुर्वेदी जी, रविरंजन सिन्हा जी, निर्मल चौधरी जी, जितेन्द्र सिंह जी, चतुर्भुज जी, साधन मलिक जी,  श्रीमती भूपेन्द्र कलसी जी, श्रीमती कुमकुम श्रीवास्तव जी, श्रीमती मंजुला सिन्हा जी, श्रीमती शशि जैन गुप्ता जी की का मुझ पर विशेष स्नेह रहा. खासकर श्री संदीप मारवाह साहब, जिन्होंने ग्लैमर की दुनिया "फिल्म मेंकिंग" की पढ़ाई के दौरान, मुझे महानगरीय छात्रों से पृथ्क रखकर, "सहज पके सो मीठा होए" कह कर मुझे स्वयं पर विश्वास रखने और ईमानदार रहने की प्रेरणा दी. कवि-साहित्यकार सुरेन्द्र स्निग्ध और उनकी पत्नी आलोका जी का सहयोग-स्नेह तो अविस्मरणीय है, 

मुझे अपने वरिष्ठों का भी सहयोग मिला, जिनमें  श्री नागेन्द्र जी, श्री चंद्र प्रकाश जी, श्री राकेश प्रवीर जी, श्री संजय श्रीवास्तव जी, श्री मृगाङ्क शेखर जी, अनामी शरण बबल जी, विनोद चंद्रा जी, नवीन कुमार मिश्र जी, अमरेश कुमार जी, अमित कुमार जी, कुदंन सिंह कैडा जी, इनके अलावा कई वरिष्ठों को आभार प्रकट करती, जिनका नाम विस्मृत हो गया है.

मैं अपने दोस्तों के प्रति भी ऋणी हूं, जिन्होंने मुझे प्रेरणा दी, उनमें देवानंद दुबे जी, सुधांशु रधुवंशी जी, डौली वाधवा जी, गीतांजलि शर्मा और विशेषकर विषधर शंकर गुप्त जी को जिन्होंने संकलन निकाले का विचार ही नहीं दिया बल्कि पूरी मदद भी की. इनके बगैर मेरा किताब निकालना मुश्किल ही नहीं नामुकिन था. इनके प्रति मैं दिल से आभार व्यक्त करती हूं.

साथ-ही-साथ मैं उनका भी आभार व्यक्त करना चाहती हूं, जिन लोगों ने मेरे जीवन में अवरोध पैदा किया. मेरी गति को रोकने या मोडने की कोशिश की, जिसकी वजह से मेरा प्रवाह और प्रवल होता गया. 

धन्यवाद

अनिता कर्ण

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