लेखक तो कई लेकिन आज का प्रेमचंद कौन?
- अमरेश द्विवेदी
- बीबीसी संवाददाता
प्रेमचंद को हिंदी का सबसे बड़ा साहित्यकार माना जाता है. भारत की आज़ादी के पहले देश के यथार्थ का जैसा चित्रण प्रेमचंद के साहित्य में मिलता है वैसा किसी अन्य लेखक के साहित्य में नहीं मिलता.
औपनिवेशिक शासन के प्रभाव स्वरूप भारत के ग्रामीण जीवन में जो बदलाव आए उसका प्रेमचंद ने आम लोगों की भाषा में गोदान, गबन, निर्मला, कर्मभूमि, सेवासदन, कायाकल्प, प्रतिज्ञा जैसे उपन्यासों और कफ़न, पूस की रात, नमक का दारोगा, बड़े घर की बेटी, घासवाली, ईदगाह जैसी कई कहानियों में यथार्थ चित्रण किया.
तत्कालीन ग्रामीण समाज की ग़रीबी, जहालत, शोषण, उत्पीड़न, वंचना, भेदभाव, धार्मिक विसंगति, महिलाओं की बदहाली जैसी सच्चाइयां और अंग्रेज़ी शासन के शोषण का असली चेहरा प्रेमचंद की लेखनी का संस्पर्श पाकर जीवंत हो उठे.
कालजयी साहित्य
प्रेमचंद के समय में और उसके बाद जैनेंद्र, अज्ञेय, फणीश्वरनाथ रेणु, मोहन राकेश, धर्मवीर भारती, यशपाल जैसे हिंदी के कई बड़े लेखक हुए लेकिन लोकप्रियता और प्रभाव दोनों ही मानदंडों पर प्रेमचंद के क़द के क़रीब कोई नहीं पहुंच सका.
लेकिन इसकी वजह क्या है. हिंदी के प्रसिद्ध आलोचक मैनेजर पांडेय कहते हैं, प्रेमचंद जितने बड़े लेखक थे, उतने बड़े लेखक हमेशा पैदा नहीं होते. ये लगभग वैसा ही है कि अंग्रेज़ी साहित्य में दूसरा शेक्सपियर आज तक पैदा नहीं हुआ. प्रेमचंद ने जिन समस्याओं पर कहानियों और उपन्यासों का लेखन किया था वो सभी समस्याएं आज भी मौजूद हैं और उनमें से कुछ तो प्रेमचंद के ज़माने से अधिक भीषण रूप में आज मौजूद हैं.
नई समस्याएं
लेकिन इसकी वजह क्या है कि समस्याएं तो प्रेमचंद के दौर से ज्यादा जटिल और व्यापक रूप में मौजूद हैं लेकिन लेखक उन्हें शब्दों में उतार नहीं पा रहे.
हिंदी के प्रख्यात आलोचक और साहित्यकार पुरुषोत्तम अग्रवाल इसकी वजह बताते हुए कहते हैं, जिस तरह का कथालेखन इस समय हिंदी में हो रहा है, ऐसा लगता है जैसे किसी विचार को प्रसारित करने के लिए किया जा रहा है.
उन चमकते सितारों की कहानी जिन्हें दुनिया अभी और देखना और सुनना चाहती थी.
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समाज से कटा लेखक
वो कहते हैं कि लेखक का जैसा गहरा रिश्ता समाज से होना चाहिए वैसा आज नहीं है. लेखक को जिस तरह अपनी परंपरा, अपने आज और अपने भावी कल के बीच का पुल होना चाहिए वैसा पुल वो नहीं बन पा रहा.
इसे और स्पष्ट करते हुए प्रोफेसर अग्रवाल जुजे सारामागो के उपन्यास 'लिस्बन की घेरेबंदी का इतिहास' की पंक्तियां याद करते हुए कहते हैं, वहां तीन प्रेतात्माएं थीं. एक उसकी जो हुआ. एक उसकी जो हो सकता था लेकिन नहीं हुआ और एक उसकी जो होगा. ये तीन प्रेतात्माएं थीं लेकिन आपस में बात नहीं कर रही थीं. जब ये तीनों प्रेतात्माएं आपस में बात करती हैं तब महान साहित्य उत्पन्न होता है.
आज प्रेमचंद जैसी प्रतिभा वाला लेखक, समाज के बड़े हिस्से को छूने वाला लेखक क्यों नहीं बन पा रहा, इसका जो संकेत प्रोफ़ेसर अग्रवाल ने दिया उसे आज के लोकप्रिय साहित्यकार उदय प्रकाश समझाते हुए कहते हैं, ''आज का लेखक आत्मचेतस है, अपनी सफलता के बारे में तो सोचता है लेकिन उसके पास प्रेमचंद जैसी विश्वदृष्टि का अभाव है."
पाठकों की चिंता
आज़ादी के बाद के हिंदी साहित्य में श्रीलाल शुक्ल के उपन्यास 'रागदरबारी', मन्नु भंडारी के उपन्यास 'महाभोज' और 'आपका बंटी' और निर्मल वर्मा के उपन्यास 'वे दिन' की खूब चर्चा हुई. हाल के वर्षों में कमलेश्वर के 'कितने पाकिस्तान', निर्मल वर्मा के 'अंतिम अरण्य', कृष्णा सोबती के 'समय सरगम' जैसी कृतियों को खूब सराहा गया
लेकिन सबसे ज़्यादा चर्चा रही विनोद कुमार शुक्ल के उपन्यास 'दीवार में खिड़की रहती थी' और अलका सरावगी के उपन्यास 'कलिकथा वाया बाइपास' की. लेकिन ये रचनाएं भी लोक मानस में, हिंदी के वृहत पाठक समुदाय में प्रेमचंद जैसा व्यापक असर नहीं छोड़ सकीं. उन्हें सोचने पर मजबूर नहीं कर सकीं.
लोग आज के हिंदी साहित्य के बारे में क्या सोचते हैं. उनकी स्मृति में प्रेमचंद का स्थान दूसरा कोई लेखक क्यों नहीं बना पाता.
ग़ैर हिंदी भाषियों के लिए हिंदी मतलब का आज भी प्रेमचंद ही क्यों है?
इसका जवाब कुछ समय पहले दिल्ली पुस्तक मेले में मिले एक सज्जन अशोक राय ने कुछ यूं दिया, ''हिंदी में आज जो कुछ लिखा जा रहा है वो हमें कनेक्ट नहीं करता. हमारी ज़िंदगी को नहीं छूता. आज लोग चेतन भगत को पढ़ रहे हैं. मूल अंग्रेज़ी में और हिंदी अनुवाद में भी. आज की ज़िंदगी के बारे में कोई चेतन भगत की तरह भी लिखे ना तो लोग पढ़ेंगे. रचना में मनोरंजन हो, कुछ ज्ञान हो, कुछ आज की सच्चाई हो. हिंदी में मुझे ऐसा कुछ दिख नहीं रहा है.''
आज लेखकों की भीड़ है. प्रकाशक कहते हैं कई लेखकों की रचनाओं के संस्करण पर संस्करण छापने पड़ रहे हैं. लेकिन पाठक का कोश सूना है. उसे आज भी तलाश है एक प्रेमचंद की, कम से कम प्रेमचंद जैसे की जो भूमंडलीकरण और बाज़ारीकरण के दौर में भारतीय जीवन में आए बदलाव और स्थाई-सी हो चुकी समस्याओं के द्वंद्व और उससे उबरने की छटपटाहट को शब्दों में बयां कर सके.
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