सोमवार, 31 जुलाई 2023

पत्रकार प्रेमचंद जैसा भी कोई नहीं / अनामी शरण बबल

 


हिंदी के कालजयी कथाकार प्रेमचंद को पढ़े बगैर भारत और ग्रामीण जीवन की दशा दिशा की असलियत को समझना नामुकिन है. इनके देहांत के 87 साल गुजर  जाने के बावजूद असली भारत  आज भी लगभग वही है जो प्रेमचंद के काल में था.  विकास के तमाम सरकारी दावे के बावजूद भारतीय गांव और  अभावग्रस्त ग्रामीण रहन सहन लोकचार सामाजिक बंधनों और शोषण का अभिशाप जस का तस है. प्रेमचंद की ज्यादातर कहानियो और कुछ उपन्यास के पढ़ने के बाद मुझे इनके राजनीतिक सामाजिक आर्थिक विदेशी खबरों गठविधियों पर सैकड़ों लेखों को देखने का अवसर मिला. जिन्हें बारीकी से कोई तीन साल में पढ़ा  कुछ नोट बनाया और निबंधों की प्रासंगिकता पर विमर्श किया. संचार साधनों के अभावकाल में खबरों को फैलने मेँ काफी दिक्क़तो से गुजरना पड़ता होगा. फिर भी प्रेमचंद की नजर सामाजिक हलचलो  पर बनी रहती थी. यह मेरी मान्यता है कि  वे जितने बड़े कथाकार है उतने ही सजग  वे पत्रकार भी थे. प्रेमचंद के इस पक्ष पर कभी चर्चा नहीं होती है,  साहित्यक आभा मंडल मेँ पत्रकारिय पक्ष छिप गया है मेरे मन मेँ तभी ख्याल आ किया क्यों न उनके पत्रकारिप गुणों को सामने प्रस्तुत किया जाए. पत्रकार प्रेमचंद पर तीन खंडो मेँ इस किताब को 2011 मेँ लाया गया और बड़े स्तर पर इस किताब  की चर्चा के साथ मांग भी हुई और आज भी पत्रकार के रूप मेँ प्रेमचंद की छवि को सामने लाने वाली यह पहली किताब की तरह है और देखी  जाती है. 31 जुलाई 1880 को बनारस के समीप लमही गांव मेँ पैदा हुए प्रेमचंद का सफर 08 अक्टूबर 1936 को थम गया. देहांत के 87 साल के बाद भी प्रेमचंद की प्रासंगिकता बनी हुई है ऐसे दुर्लभ साहित्यकार को विनम्र श्रद्धांजलि के साथ याद करते हुए खुद को उनकी यादो और पन्नो मेँ लिपटा हुआ पाता हूँ. सादर नमन 🙏💐🌹🙏


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