सोमवार, 31 जुलाई 2023

हिंदी के पहले प्रगतिशील लेखक थे प्रेमचंद / नामवर सिंह



प्रेमचंद इस अर्थ में निश्चित रुप से हिंदी के पहले प्रगतिशील लेखक कहे जा सकते हैं कि उन्होंने प्रगतिशील लेखक संघ के पहले सम्मेलन की सदारत की थी.

उनका यही भाषण प्रगतिशील आंदोलन के घोषणा पत्र का आधार बना.

लेकिन स्वयं प्रेमचंद प्रगतिशीलता की परिभाषा करते हैं उस दृष्टि से देखा जाए तो हिंदी साहित्य का जब से आरंभ हुआ है, बड़े रचनाकारों में कबीर अपने दौर में वही भूमिका अदा कर रहे थे जिसका विकास लगभग पाँच सौ वर्ष बाद प्रेमचंद ने किया.

प्रेमचंद एक लंबी परंपरा को आगे बढ़ा रहे थे लेकिन उन्होंने 20वीं शताब्दी की भाषा में उसका विकास भी किया. इसलिए उन्हें पहला प्रगतिशील कथाकार कहें तो कोई आपत्ति नहीं है.

प्रेमचंद ने सन् 1930 के आसपास ऐलानिया तौर पर कहा था कि जो कुछ लिख रहे हैं वह स्वराज के लिए लिख रहे हैं. उपनिवेशवादी शासन से भारत को मुक्त करने के लिए. और दूसरा उन्होंने यह भी लिखा है कि केवल जॉन की जगह गोविंद को बैठा देना ही स्वराज्य नहीं है बल्कि सामाजिक स्वाधीनता भी होना चाहिए.

सामाजिक स्वाधीनता से उनका तात्पर्य सांप्रदायवाद, जातिवाद, छूआछूत और स्त्रियों की स्वाधीनता से भी था. तो इस अर्थ में वे स्वाधीनता की परिभाषा करते थे और इसलिए उनकी प्रगतिशीलता का जो आधार था उसे बहुत बुनियादी क्राँतिकारी कहना चाहिए.

गाँधी से आगे

उनकी रचनाओं पर नज़र डालें तो उसमें ज़मींदार के ख़िलाफ़ ग़रीब किसानों की लड़ाई है. जाति व्यवस्था के ख़िलाफ़ और दबे कुचले लोगों की लड़ाई है.

यद्यपि लोग उन्हें गाँधीवादी कहते थे, लेकिन वे गाँधी जी से दो कदम आगे बढ़कर आंदोलन और क्राँति की बात करते हैं.

प्रेमचंद अपने ज़माने के साहित्यकारों से ज़्यादा बुनियादी परिवर्तन की बात करते हैं.

लंदन में पढ़कर सज्जाद ज़हीर जैसे लोग जब यहाँ आए और उन्होंने प्रगतिशील लेखक संघ का प्रस्ताव रखा तो उनकी नज़र सबसे पहले प्रेमचंद पर गई और उन्होंने बड़े संकोच के साथ स्वीकार किया कि उनसे भी बड़े लोग हो सकते हैं, लेकिन कोई बात नहीं मैं तैयार हूँ.

इससे लगता है कि वे इंतज़ार कर रहे थे कि नई पीढ़ी के लेखक आएँ. लंदन कांग्रेस से जो लोग आए थे वे तो फ़ासिज़्म, बरबर्ता के ख़िलाफ़ सभ्यता को बचाने वाला आंदोलन था, लेकिन उस आंदोलन ने भारत में आकर एक नई शक्ल ले ली और वह पूंजीवादी देशों में पिछड़े हुए समाज के संघर्ष की कहानी बन बैठी.

महासागर

वैसे प्रगतिशील लेखकों के उस सम्मेलन में जैनेंद्र कुमार भी गए थे लेकिन प्रेमचंद के शिष्य और प्रिय होते हुए भी उनकी दुनिया दूसरी थी. उन्होंने नारी की मुक्ति का पक्ष लिया और बाकी पक्षों पर उनकी रचनाओं पर जोर दिखाई नहीं पड़ता.

यशपाल यद्यपि क्राँतिकारी भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद की क्राँति के पृष्ठभूमि से आए थे, तो भी वे प्रेमचंद की परंपरा को आगे बढ़ाते हैं. आगे चलकर नागार्जुन आते हैं और वे प्रेमचंद के किसानों की लड़ाई वाला पहलू लेते हैं.

यद्यपि फणीश्वरनाथ रेणु समाजवादी विचारधारा वाले थे लेकिन उनका मैला आँचल, प्रेमचंद के गोदान के बाद का सबसे महत्वपूर्ण उपन्यास माना जाता है.

प्रेमचंद की लड़ाई का मतलब था धर्मनिरपेक्षता की लड़ाई, सेक्यूलरिज़्म की लड़ाई. आज़ादी की लड़ाई से पहले सांप्रदायिकता की पृष्ठभूमि कुछ और थी. बँटवारे के बाद राही मासूम रजा ने आधा गाँव लिखा तो शानी ने काला पानी लिखा.

प्रेमचंद का एक विषय बहुत महत्वपूर्ण था सांप्रदायिक सद्भाव. चाहे मुस्लिम कट्टरतावाद हो या हिंदू सांप्रदायिकतावाद. अमृतलाल नागर ने भी बूंद और समुद्र लिखा है जो लखनऊ के आधार पर एक सांप्रदायिक सद्भाव दिखता है.

प्रेमचंद तो महासागर थे, उतनी व्यापक भूमि तो एक किसी लेखक के पास नहीं है. लेकिन उसके हिस्से को लेकर प्रगतिशीलता की लड़ाई में आगे बढ़ने वाले लोग हिंदी और ऊर्दू दोनों में हैं.


(जैसा नामवर सिंह ने विनोद वर्मा को बताया)


 
 
इससे जुड़ी ख़बरें
 
 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

साहित्य के माध्यम से कौशल विकास ( दक्षिण भारत के साहित्य के आलोक में )

 14 दिसंबर, 2024 केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा के हैदराबाद केंद्र केंद्रीय हिंदी संस्थान हैदराबाद  साहित्य के माध्यम से मूलभूत कौशल विकास (दक...