कल स्मृति ईरानी ने राहुल गांधी के लिए एक शब्द इस्तेमाल किया- मिसोजिनिस्टिक, यानी जिसमें मिसोजिनी यानी स्त्री द्वेष हो. उन्हें शायद इसका मतलब नहीं पता. संघ जो अपनी शाखाओं में और संगठन में महिलाओं का प्रवेश रोकता है, बजरंग दल जो महिलाओं को पार्क की बेंच पर किसी लड़के के साथ देख बेइज़्ज़त करता है उससे ज़्यादा मिसोजिनिस्टिक कोई नहीं. ख़ैर, यह शब्द फेमिनिस्ट डिस्कोर्स और बात-चीत में इस्तेमाल होता है लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि फेमिनिज्म को कोई स्मृति ईरानी की तरह अपनी आड़ बनाकर जबरन विक्टिम दिखा सकता है ख़ुद को. एक पॉवरफ़ुल पोज़ीशन पर होकर वह महिला पहलवानों के यौन उत्पीड़न पर एकदम चुप रहीं. सोनिया गाँधी पर उन्माद के रोगी की तरह दहाड़ीं, विपक्ष की महिलाएँ महिलाएँ नहीं हैं, बिल्किस बानो उनके लिए महिला नहीं है. असल में मिसोजिनी उनके ख़ुद के भीतर है. हर वह औरत जो दूसरी औरतों से नफ़रत करती है मिसोजिनिस्ट है.
क्या है मिसोजिनी का मतलब?
'नारी की झाँई परत अंधा होत भुजंग'
प्लेटो हों, सुकरात, रूसो या फ्रॉयड या कवि-साहित्यकार सबने दुनिया भर का ज्ञान छाँटते हुए प्रत्यक्ष या प्रकारान्तर से 'स्त्री- द्वेष' को अभिव्यक्त किया है।' स्त्री दरअसल अपूर्ण पुरुष है'- यह कहना या कंधे उचकाते हुए कहना-' पता नहीं स्त्रियां क्या चाहती हैं' या यह कि सारे फसाद की जड़ है 'जर, जोरू और ज़मीन' मिसोजिनी है।
एक शब्द 'मिसोजिनी' यानी स्त्री-द्वेष आजकल बहुत इस्तेमाल हो रहा है। मिसोजिनी यानी औरत से ,उसके औरत होन के सभी कारकों से नफ़रत करना। यह जानना ज़रूरी है कि इसकी शुरुआत होती कैसे होती है। यह शुरू होता है श्रेष्ठता बोध से। इस प्रिमाइस के साथ कि हम बेहतर हैं। हमें महीने दर महीने रक्तस्राव नहीं होता। खून-वून में लथपथ। हम काम के वक़्त पेट और कमर दर्द का बहाना (?)लेकर नहीं बैठते। लो बताओ, प्रेम करो तो गर्भवती हो जाती हैं। हम बड़े पेट के साथ बेचारी की तरह घर की सुरक्षा में परजीवी नहीं बने रहते। और यह कि दुनिया मर्द ने अपनी मेहनत से बनाई है वही, सबके रोल और ज़रूरत तय करेगा। 'जिसे भी पूंछ उठा कर देखा, मादा पाया' ऐसे ही खुद को क्रांतिकारी समझने वाले के मुँह से नहीं निकल सकता।
यानी वह भिन्नता जो पुरुष को स्त्री की ओर आकृष्ट करती है, वही भिन्नता स्त्री के लिए पुरुष के मन में शंकाएं भी पैदा करती है, द्वेष भी और भिन्नता को समझ न पाने की वजह से भय और सम्मान देने की असमर्थता की वजह से नफरत भी।
स्त्री के प्रति इस नफरत को पहचानना आसान नहीं क्योंकि मर्दवाद को अपनी असुरक्षा से डील करने में भाषा, व्यवहार, संस्कृति सबकी सहायता लेनी पड़ती है। जो बेवकूफ है वह '@#%या' है। जो पत्नी को महत्व दे जोरू का ग़ुलाम है। जो सलाह-मशविरा करे हर बात में स्त्री से वह पल्लू में घुसा रहता है, डरपोक है। कम मर्द है।
योनि नरक का द्वार है। लेकिन लिंग पूजनीय है। स्त्री-देह और उससे जुड़ी तमाम बातें छुपाने योग्य हैं। दुपट्टा ओढो, पल्ला करो, ब्रा-पैंटी छिपा कर सुखाओ, हँसो नहीं, बाल न लहराओ। वगैरह- वैगेरह।
इस नफ़रत को पहचानना आसान नहीं। लेकिन ध्यान से देखिए। किसी भी यौनिक- हिंसा में स्त्री की ग़लती तलाशना, स्त्री के लिए चरित्र और मर्यादा के अपने-अपने समाज, संस्कृति और धर्म पर आधारित विशिष्ट संस्करण तैयार करना और तुलनाएं करना- पश्चिमी औरतें नङ्गी घूमती हैं, तुम भी वही चाहती हो ?? निजी जीवन में अगर आपकी मर्दवादी ट्रेनिंग फेल हो जाए एक स्त्री के संदर्भ में तो समस्त स्त्री-जाति कुलटा और महाठगिनी हो जाए।
यह मज़ेदार है कि मैंने उन मर्दों को भी मिसोजिनिस्ट पाया जिनकी उम्र अभी 16 से 22 बरस के बीच थी। उन्हें जीवन में ज़्यादा से ज़्यादा अपनी माँ या बहन के रूप में ही स्त्री का सबसे क़रीबी अनुभव हुआ होगा। आप समझ सकते हैं कि उनके भाषण और व्यवहार में यह नफ़रत कहाँ से आती होगी कि 'अवेलेबल' लड़की के साथ वे कुछ भी व्यवहार करें और अपनी बहन ऐसे घूमने चली जाए लड़के के साथ तो 'टाँगे तोड़ दें'?
सबसे महत्वपूर्ण बात ---
यह मिसोजिनी सिर्फ मर्दों की औरत के प्रति नफरत नहीं है। इस मिसोजिनी को सामाजिक अनुकूलन की तरह खुद स्त्री को भी बचपन से घुट्टी में पिला दिया जाता है। हर जगह मर्दवाद औरत को कंट्रोल में नहीं रख सकता आप समझ सकते हैं। जब मर्द बाहर रहेंगे हस वक़्त घर की ट्रेंड औरतें नई औरतों पर निगरानी करेंगी और उन्हें मिसोजिनिस्ट बनाएंगी। आख़िर, खुद से नफ़रत करने वाली कौम को ही लम्बे समय तक ग़ुलाम बनाया जा सकता है न।स्त्री को उसकी वासना के लिए नीचा दिखाना( मित्रो मरजानी याद है न) उसके कपड़ों, अंतरवस्त्रों वगैरह के लिए, और अन्य मर्दों से दूर के लिए डपट के रखना (माँ, सास, जेठानी, बड़ी बहन ही करती आई हैं)
आप धर्म को माने या न मानें, लेकिन सबरीमाला में घुसने की इच्छा रखने वाली एक्टीविस्ट अगर आपको पागल दिखती हैं और उन्हें रोकने वालों की बजाय आप उन एक्टीविस्ट्स की आलोचना में रत हैं तो आप मिसोजिनिस्ट हैं। आप मी टू को बकवास कह रहे हैं तो मिसोजिनिस्ट हैं। आप बलात्कार के लिए कोर्ट में सेक्सी अंतरवस्त्रों को, लड़की के दुष्चरित्र होने का प्रमाण बता रहे हैं , तो आप मिसोजिनी के शिकार हैं।
स्त्री-द्वेष पर बने चुटकुलों पर हँसना, जब अपने पति या प्रेमी दूसरी औरतों के लिए सेक्सिस्ट बातें कहें तो उसे सामान्य समझना... और फ़ेसबुक के ज़माने में जो स्त्री 'फ्री सेक्स' जैसे किसी भी मसले पर तार्किक पोस्ट लिखे और संस्कारी मर्द उसे तमाम मर्दवादी गालियों से नवाज़े तो यह सोचना कि 'बढ़िया हुआ, ऐसी औरत के साथ यही होना चाहिए' यह सब अपने अस्तित्व से घृणा ही है। दूसरी औरतों को अपने आज़ाद फैसले के लिए पछताते, रोते, गिरते, पिटते, गाली खाते देखने, अपमानित होते देखने, मी टू जैसे प्रकरण में अपनी अभिव्यक्ति के लिए अकेले पड़ते देखने,बाक़ी औरतों से थोड़ा अलग होने की वजह से घर, ऑफिस या समाज में मर्दों के उपहास या मनोरंजन का मुद्दा बनते देखने में अगर आपको ज़रा भी अच्छा लगा हो कभी, तो यह मिसोजिनी है।
Kumar Narendra Singh
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