शुक्रवार, 18 अगस्त 2023

सुभद्रा कुमारी चौहान को याद करते हुए /


आज सुभद्रा कुमारी चौहान का जन्मदिन है-


              

 हिन्दी आलोचकों में मुक्तिबोध के अलावा किसी बड़े समीक्षक ने सुभद्राजी पर कलहुएम चलाने की जहमत नहीं उठायी,जबकि वे स्वाधीनता संग्राम में महिलाओं और दलितों को संगठित करने में महात्मा गांधी के साथ अग्रणी कतारों में रहीं।

           प्रसिद्ध हिन्दी कवि गजानन माधव मुक्तिबोध ने सुभद्रा जी के राष्ट्रीय काव्य को हिन्दी में बेजोड़ माना है-" कुछ विशेष अर्थों में सुभद्रा जी का राष्ट्रीय काव्य हिन्दी में बेजोड़ है। क्योंकि उन्होंने उस राष्ट्रीय आदर्श को जीवन में समाया हुआ देखा है, उसकी प्रवृत्ति अपने अंतःकरण में पाई है, अतः वह अपने समस्त जीवन-संबंधों को उसी प्रवृत्ति की प्रधानता पर आश्रित कर देती हैं, उन जीवन संबंधों को उस प्रवृत्ति के प्रकाश में चमका देती हैं।… सुभद्राकुमारी चौहान नारी के रूप में ही रहकर साधारण नारियों की आकांक्षाओं और भावों को व्यक्त करती हैं। बहन, माता, पत्नी के साथ-साथ एक सच्ची देश सेविका के भाव उन्होंने व्यक्त किए हैं। उनकी शैली में वही सरलता है, वही अकृत्रिमता और स्पष्टता है जो उनके जीवन में है। उनमें एक ओर जहाँ नारी-सुलभ गुणों का उत्कर्ष है, वहाँ वह स्वदेश प्रेम और देशाभिमान भी है जो एक क्षत्रिय नारी में होना चाहिए।"

               सन् 1922 का जबलपुर का 'झंडा सत्याग्रह' देश का पहला सत्याग्रह था और सुभद्रा जी की पहली महिला सत्याग्रही थीं। रोज़-रोज़ सभाएँ होती थीं और जिनमें सुभद्रा भी बोलती थीं। 'टाइम्स ऑफ इंडिया' के संवाददाता ने अपनी एक रिपोर्ट में उनका उल्लेख लोकल सरोजिनी कहकर किया था। सुभद्रा जी में बड़े सहज ढंग से गंभीरता और चंचलता का अद्भुत संयोग था। वे जिस सहजता से देश की पहली स्त्री सत्याग्रही बनकर जेल जा सकती थीं, उसी तरह अपने घर में, बाल-बच्चों में और गृहस्थी के छोटे-मोटे कामों में भी रमी रह सकती थीं। लक्ष्मणसिंह चौहान जैसे जीवनसाथी और माखनलाल चतुर्वेदी जैसा पथ-प्रदर्शक पाकर वह स्वतंत्रता के राष्ट्रीय आन्दोलन में बराबर सक्रिय भाग लेती रहीं। कई बार जेल भी गईं।

14 फरवरी को उन्हें नागपुर में शिक्षा विभाग की मीटिंग में भाग लेने जाना था। डॉक्टर ने उन्हें रेल से न जाकर कार से जाने की सलाह दी। 15 फरवरी 1948 को दोपहर के समय वे जबलपुर के लिए वापस लौट रहीं थीं। उनका पुत्र कार चला रहा था। सुभद्रा ने देखा कि बीच सड़क पर तीन-चार मुर्गी के बच्चे आ गये थे। उन्होंने अचकचाकर पुत्र से मुर्गी के बच्चों को बचाने के लिए कहा। एकदम तेज़ी से काटने के कारण कार सड़क किनारे के पेड़ से टकरा गई। सुभद्रा जी ने ‘बेटा’ कहा और वह बेहोश हो गई। अस्पताल के सिविल सर्जन ने उन्हें मृत घोषित किया। उनका चेहरा शांत और निर्विकार था मानों गहरी नींद सो गई हों। 16 अगस्त 1904 को जन्मी सुभद्रा कुमारी चौहान का देहांत 15 फरवरी 1948 को 44 वर्ष की आयु में ही हो गया। एक संभावनापूर्ण जीवन का अंत हो गया।

                  उनकी मृत्यु पर माखनलाल चतुर्वेदी ने लिखा कि सुभद्रा जी का आज चल बसना प्रकृति के पृष्ठ पर ऐसा लगता है मानो नर्मदा की धारा के बिना तट के पुण्य तीर्थों के सारे घाट अपना अर्थ और उपयोग खो बैठे हों। सुभद्रा जी का जाना ऐसा मालूम होता है मानो ‘झाँसी वाली रानी’ की गायिका, झाँसी की रानी से कहने गई हो कि लो, फिरंगी खदेड़ दिया गया और मातृभूमि आज़ाद हो गई। सुभद्रा जी का जाना ऐसा लगता है मानो अपने मातृत्व के दुग्ध, स्वर और आँसुओं से उन्होंने अपने नन्हे पुत्र को कठोर उत्तरदायित्व सौंपा हो। प्रभु करे, सुभद्रा जी को अपनी प्रेरणा से हमारे बीच अमर करके रखने का बल इस पीढ़ी में हो।

              राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय भूमिका निभाते हुए, उस आनन्द और जोश में सुभद्रा जी ने जो कविताएँ लिखीं, वे उस आन्दोलन में एक नयी प्रेरणा भर देती हैं। स्त्रियों को सम्बोधन करती यह कविता देखिए--


"सबल पुरुष यदि भीरु बनें, तो हमको दे वरदान सखी।

अबलाएँ उठ पड़ें देश में, करें युद्ध घमासान सखी।

पंद्रह कोटि असहयोगिनियाँ, दहला दें ब्रह्मांड सखी।

भारत लक्ष्मी लौटाने को , रच दें लंका काण्ड सखी।।"

          

 सुभद्राजी का संदेश है कि लेखिकाओं को साहित्य को राजनीति से जोडना चाहिए.साथ ही लोकतांत्रिक राजनीति में भाग लेना चाहिए.सुभद्राजी ने कविता और राजनीति का अपने साहित्य में विलक्षण संबंध स्थापित किया था और अंग्रेजों के खिलाफ स्वाधीनता आंदोलन में अग्रणी कतारों में रहकर मुकाबला किया था। उनकी कुछ कविताएं पढ़ें-


ठुकरा दो या प्यार करो -सुभद्रा कुमारी चौहान


देव! तुम्हारे कई उपासक कई ढंग से आते हैं

सेवा में बहुमूल्य भेंट वे कई रंग की लाते हैं

धूमधाम से साज-बाज से वे मंदिर में आते हैं

मुक्तामणि बहुमुल्य वस्तुऐं लाकर तुम्हें चढ़ाते हैं

मैं ही हूँ गरीबिनी ऐसी जो कुछ साथ नहीं लायी

फिर भी साहस कर मंदिर में पूजा करने चली आयी

धूप-दीप-नैवेद्य नहीं है झांकी का शृंगार नहीं

हाय! गले में पहनाने को फूलों का भी हार नहीं

कैसे करूँ कीर्तन, मेरे स्वर में है माधुर्य नहीं

मन का भाव प्रकट करने को वाणी में चातुर्य नहीं

नहीं दान है, नहीं दक्षिणा ख़ाली हाथ चली आयी

पूजा की विधि नहीं जानती, फिर भी नाथ चली आयी

पूजा और पुजापा प्रभुवर इसी पुजारिन को समझो

दान-दक्षिणा और निछावर इसी भिखारिन को समझो

मैं उनमत्त प्रेम की प्यासी हृदय दिखाने आयी हूँ

जो कुछ है, वह यही पास है, इसे चढ़ाने आयी हूँ

चरणों पर अर्पित है, इसको चाहो तो स्वीकार करो

यह तो वस्तु तुम्हारी ही है ठुकरा दो या प्यार करो।


उपेक्षा / सुभद्राकुमारी चौहान


क्यों करते हो मतवाले!

आशा के कितने अंकुर,

मैंने हैं उर में पाले॥

विश्वास-वारि से उनको,

मैंने है सींच बढ़ाए।

निर्मल निकुंज में मन के,

रहती हूँ सदा छिपाए॥

मेरी साँसों की लू से

कुछ आँच न उनमें आए।

मेरे अंतर की ज्वाला

उनको न कभी झुलसाए॥

कितने प्रयत्न से उनको,

मैं हृदय-नीड़ में अपने

बढ़ते लख खुश होती थी,

देखा करती थी सपने॥

इस भांति उपेक्षा मेरी

करके मेरी अवहेला

तुमने आशा की कलियाँ

मसलीं खिलने की बेला॥


कलह-कारण / सुभद्राकुमारी चौहान


कड़ी आराधना करके बुलाया था उन्हें मैंने।

पदों को पूजने के ही लिए थी साधना मेरी॥

तपस्या नेम व्रत करके रिझाया था उन्हें मैंने।

पधारे देव, पूरी हो गई आराधना मेरी॥

उन्हें सहसा निहारा सामने, संकोच हो आया।

मुँदीं आँखें सहज ही लाज से नीचे झुकी थी मैं॥

कहूँ क्या प्राणधन से यह हृदय में सोच हो आया।

वही कुछ बोल दें पहले, प्रतीक्षा में रुकी थी मैं॥

अचानक ध्यान पूजा का हुआ, झट आँख जो खोली।

नहीं देखा उन्हें, बस सामने सूनी कुटी दीखी॥

हृदयधन चल दिए, मैं लाज से उनसे नहीं बोली।

गया सर्वस्व, अपने आपको दूनी लुटी दीखी॥

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