संबंधों के घुटन-भरे इस जंगल-पथ पर / डॉ. विनोद कुमार राज 'विद्रोही'
प्रसिद्ध साहित्यकार शीलेंद्र कुमार वशिष्ठ आगरा में रहते हैं। निरंतर साहित्य-सृजन कर रहे हैं। अब तक इनकी एक दर्जन पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है। 1994 से साहित्यिक संस्था 'चर्वणा' का संचालन करने के अलावा 2002 से साहित्यिक पत्रिका 'चर्वणा' का संपादन भी कर रहे हैं। इन्होंने अब तक लगभग दो हजार से अधिक कवि सम्मेलनों में काव्य पाठ किया, साहित्यिक संगोष्ठियों एवं राजभाषा सेमिनारों में साहित्यिक एवं राजभाषा संबंधी व्याख्यान प्रस्तुत किया है। जून 1980 से फरवरी 1985 तक एन.एस.एस.ओ. भारत सरकार में हिंदी अनुवादक रहे। तत्पश्चात 1985 से पंजाब नेशनल बैंक में राजभाषा अधिकारी के पद पर कार्य किया। 2014 में सेवा निवृत होकर आगरा स्थित अपने आवास 'काव्यधाम' में स्वतंत्र रूप से साहित्य सेवा में समर्पित हैं। इनकी एक कविता संग्रह 'चरैवेति चरैवेति' नाम से अमन प्रकाशन, कानपुर से प्रकाशित हुई है, जिसमें कुल 51 कविताएं संकलित है। सभी कविताएं काफी उम्दा और पठनीय है।
संग्रह की पहली कविता है - 'हे पिताश्री', जिसमें कवि ने पिता की महत्ता का वर्णन किया है। वे कहते हैं कि सृजन में जो उद्गार है, हृदय का जो विस्तार या संस्कारों की जो धरोहर है, प्रेम का जो उपहार है, वे सब पिता की ही देन है। कवि की पंक्तियां देखिए -
हे पिताश्री !
मैं तुम्हारे
भाव का विश्वास हूं
मैं तुम्हारे
चाव का उल्लास हूं
आज तुम इतिहास
तो मैं हूं भविष्यत
मैं तुम्हारे
पूज्य चरणों में समर्पित !
'प्रकृति की शाश्वत कृर्ति' नामक कविता में कवि कहते हैं कि प्रकृति की शाश्वत कृर्ति है वसुंधरा। जहां पर्वतों की गगनचुंबी चोटियां अपना वैभव लुटा रही है। समुद्र की मचलती हुई लहरें नवजीवन का संचार कर रहे हैं। चप्पा-चप्पा नैसर्गिक सुषमा से आच्छादित है। कवि मां वसुंधरा से इल्तिजा करते हैं कि धरा के तमाम जनों में मानवता, इंसानियत और भाईचारे की जज्बात भर दे। शुभ कर्मों की ओर अग्रसर करें। सभी जाति-धर्म से ऊपर उठे। उनके अंदर सद्भावना का संचार हो। कवि कहते हैं कि -
नित्य ऐसी सुबह हो
जिसकी महक में
मार्ग के संघर्ष की सब वेदनाएं
सुधा-सम जीवंत हो !
कंटकों में भी मनुजता
सत्य-निष्ठा से नहीं पथ-विमुख हो!
'दीप निरंतर तू हंसता चल' कविता में कवि दीपक की महत्ता को प्रतिपादित किया है। साथ ही अंधेरे से उजाले की ओर अग्रसर रहने के लिए उत्प्रेरित करते हैं। वे दीपक को अविरल, अविचल, हर पल, हर क्षण, हंसते-मुस्कुराते हुए, चलते रहने को कहते हैं। बिना रुके, बिना थके। अंतर्मन की डिबिया में स्वाभिमान का तेल लबालब भरने की बात तो करते ही हैं, जीवटता की बाती बनाकर तूफानों से लड़ने को ललकारते हैं। तिमिर के स्याह अंधेरे में रोशनी की लकीरें खींचने की बात करते हैं। कवि कहते हैं कि-
संबंधों के घुटन-भरे
इस जंगल-पथ पर
यात्रा के आतंकित अथ पर
दूर-दूर तक छाए
कर्कश अंधकार की
हर अनिष्ट की, हर प्रहार की
माथे पर आरोपित
निर्मम दुष्प्रचार की
कालरात्रि यह जाएगी ढल
दीप!
निरंतर तू हंसता चल!
'दंभ का यह क्रूर नर्तन' कविता को कवि ने 1980 में लिखा था। उस समय देश में जो मौजूदा हालात थे। कमोबेश आज भी वही स्थितियां दृष्टिगोचर होती है। आज चारों ओर जुल्म, अन्याय, अत्याचार हो रहा है। आज भी साम्यवादी, सांप्रदायिक, नक्सली, साम्राज्यवादी शक्तियां टकरा रही है परस्पर। आतंकवादी घटनाओं की फेहरिस्त लंबी होती जा रही है। राजनीति का चाल-चरित्र बदल गया है। अगर इन सब पर सम्यक दृष्टिपात नहीं किया गया, इनपर रोक नहीं लगाया गया तो आने वाला समय बहुत ही वीभत्स और भयावह होगा। इसलिए कवि आगाह करते हैं कि -
यदि कहीं
विस्फोट होगा विश्व में
शोषण, दमन, अधिकार
या अन्याय का लेकर बहाना
जल उठेगा जग सुहाना
यह समूचा सौर-मंडल
ज्ञान के निर्माण सारे
और मानव सभ्यता !
इस सभ्यता की भव्यता!!
कवि जब देखता है कि चारों ओर भ्रष्टाचार की गंगोत्री बह रही है। पूंजीवाद का जहर सबको काल-कल्वित कर रहा है। सत्ता के भूखे, न्याय के सिंहासन पर बैठकर भी आंखें मूंदे हुए हैं। गरीब जन रोटी, कपड़ा और मकान के लिए तरस रहे हैं। तब कवि कहता है-
लेखनी! उठ
भ्रांतियों का छोड़ क्रंदन
द्वंद्वगत अनुभूतियों का तोड़ बंधन
पूछ मन के मन से
क्या हेतु तेरे सृजन का है
और अंत:पथिक तेरा
बढ़ रहा किस ओर है?
वहीं दूसरी ओर जब कवि देखता है कि आजादी के बाद भी लोगों की स्थितियां नहीं बदली। गरीबी, फटेहाली, मुफलिसी का विशाल अजगर सबको लिलता जा रहा है। निर्वस्त्र भूखा व्यक्ति दिन-रात रिक्शा चलाने को मजबूर है। वहीं विश्व का यह सभ्यतम नेतृत्व भीषण स्वार्थ स्पर्धा में मग्न होकर अपने वर्चस्व स्थापना के लिए बुनता जा रहा है अनेक षड्यंत्र। तब कवि कहता है कि -
लेखनी!
तू है नहीं निष्पक्ष
अब तक विरुद्ध-गायन
सबल का करती रही
धर्म-सत्ता-बाहुबल के
मोह में रमती रही
अब छोड़ अत्याचार का आलाप ज्वाला बरसने दे
मूक वाणी को
समय का सत्य बनकर गरजने दे।
ऐतरेय ब्राह्मण ग्रंथ के अध्याय 3 खंड 3 में एक कथा आती है जो सायण भाष्य पर आधारित है। इस कथा के क्रम में पांच श्लोक आते हैं। प्रत्येक अश्लोक के अंत में 'चरैवेति' शब्द आता है। इस प्रकार कथा में चरैवेति शब्द का प्रयोग पांच बार हुआ है। इस कथा में इक्ष्वाकु वंश के राजा हरिश्चंद्र, उनके पुत्र रोहित, वरुणदेव, इंद्रदेव, अजीगर्त, शुन:शेष और विश्वामित्र प्रमुख पात्र हैं। कवि ने इसी ग्रंथ की कथा से प्रेरित होकर इस संग्रह का नाम रखा है- 'चरैवेति चरैवेति', जिसका अर्थ होता है- 'चलते रहो, चलते रहो।' इन्होंने चरैवेति कथा के श्लोकों का बहुत ही सुंदर भावानुवाद किया है। पंक्तियां देखिए -
श्रम-श्लथ मानव को ही मिलती
भांति-भांति की श्री-समृद्धि
सुना ज्ञानियों से, जो श्रम-रत,
सुलभ उसे होती संसिद्धि।
है निष्क्रिय विद्वान तुच्छ,
निन्दित वह पाता नहीं प्रसिद्धि
चरैवेति तुम चलो निरंतर
ईश-कृपा की होगी वृद्धि।।
कवि लंबे समय तक झारखंड के गिरिडीह जिला में प्रवास किए हैं। और यहां की प्राकृतिक सौंदर्य, जनजातियों की दयनीय स्थिति और संस्कृति उन्हें बहुत ही प्रभावित किया है। तब यह इलाका पूरी तरह पहाड़ियों से घिरा हुआ था। नक्सलियों की सामानांतर सत्ता कायम थी। यह बिहार का ही एक हिस्सा था। झारखंड नहीं बना था। गिरिडीह का बड़ा ही सजीव वर्णन कवि ने इस किताब की भूमिका में किया है। वे लिखते हैं कि - "पहाड़ियों और घने जंगलों से घिरा इलाका! लाल बजरीदार पहाड़ी मिट्टी! चारों ओर मायका और कोयले की खदानें! छोटी-बड़ी पहाड़ियां! ऊंचे-ऊंचे पहाड़! पहाड़ों से गिरते झरने! इठलाती-बलखाती नदियां!, नाले और अन्य जल स्रोत!! कटहल, जामुन, आम, अमरूद, आंवला, शहतूत, तेंदू, बेल, बरगद, सागवान, शीशम, चीड़, पीपल, करौंदे, नींबू, ताड़, महुआ, नीम, कनेर, अमलतास के पेड़! चारों ओर पेड़ों से लिपटी लताओं और गुलाब, गेंदा आदि पुष्पों से धरती पर अच्छादित हरियाली!! रुक-रुक कर होती कभी बूंदा-बांदी... कभी सामान्य... तो कभी मूसलाधार वर्षा...! वर्षा के बाद धूलकर चमकती हुई लाल, गेरुआ, रंग की पगडंडियां, पथरीली धरती, काली सड़कें और नहाई हुई हरी-भरी वनस्पतियां...! चारों और नैसर्गिक सौंदर्य का नयनाभिराम नजारा!! बांसों के झुरमुट में जगह-जगह खपरैल के कच्चे मकान और छोटे-छोटे गांव!! उन मकानों में दयनीय अवस्था में रहने वाले और शोषण की आग में झुलस रहे सीधे-साधे सच्चे आदिवासी लोग!!" कवि यहां रहते हुए दर्जनों कविताओं का सृजन किया है। यहां की गरीबी, फटेहाली, जनजातियों की पीड़ा, संवेदना, दर्द और खामोशी को अपने कलम की नोक से कागज के पन्नों पर शब्दों में ढाला है। 'हरे-भरे वन-वृक्षों...' नामक कविता में कवि ने लिखा है कि -
हरे-भरे वन-वृक्षों...
पादप-लताओं...
ऊध्व-वर्तुल चोटियों पर
उमड़ते... अविरल थिरकते...
अभ्रखंडों में घिरा यह
आदि संस्कृति की
सनातन वेदना का भार-वाहक आदिवासी
क्यों कुटिल अभिशाप-मय
है दास-जीवन ढोल रहा?
वहीं दूसरी ओर यहां का जनजातीय समाज नशा में जिस तरह से लिप्त है, वह कवि को बेचैन करता है। वे कहते हैं कि अशिक्षा के कारण, अज्ञानता के कारण, अपने दर्द को, पीड़ा को, शोषण को भूल जाने के लिए भले ही वे महुआ पीकर आनंद की अनुभूति प्राप्त करते हैं। लेकिन यह ठीक नहीं है। आने वाले दिनों में वे कर्ज में डूब जाएंगे। शारीरिक रूप से कमजोर हो जाएंगे और असमय ही काल-कवलित हो जाएंगे। इसीलिए कवि कहते हैं कि -
मत पियो महुआ
तुम्हें यह क्या हुआ ?
है मुझे लगता -
कि तुम भयभीत हो
तुम सहमे हुए हो
तुम गरीबी और
कर्ज में डूबे हुए हो
इसीलिए कर रहे हो
खीझ- खीझकर नशा
और इसी नशे ने
कर दी है तुम्हारी याद दुर्दशा!!
बहरहाल, शीलेंद्र कुमार वशिष्ठ जी की यह पुस्तक 'चरैवेति चरैवेति' कई मायने में पठनीय और संग्रहणीय है। कई कविताएं संवेदना के तारों को बरबस ही झंकृत करती है। उद्वेलित करती है। बहुत कुछ सोचने पर मजबूर करती है। इस संग्रह में देश है, समाज है, व्यवस्था है, आमजन की पीड़ा है, उनकी खामोशी है, व्यवस्था के प्रति आक्रोश है, विसंगतियों से मुठभेड़ है। हार्दिक शुभकामनाएं अग्रज कवि को।
-डॉ. विनोद कुमार राज 'विद्रोही'
टंडवा, चतरा -825321 (झारखंड)
1994
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