सप्तपदीयम् /// सात कवि
#सप्तपदीयम् हिंदी के सात ऐसे कवियों की कविताओं का संकलन है जो पारंपरिक रूप से कवि यश: प्रार्थी नहीं रहे कभी। जिन्हें जीवन और उनके पेशे ने कवि होने, दिखने की सहूलियत उस तरह नहीं दी। एक दौर में और जब-तब उन्होंने कविता के फॉर्मेट में कुछ-कुछ लिखा कभी-कभार, कहीं भेजा, कुछ छपे-छपाये पर कवि रूप में अपनी पहचान के लिए उतावले नहीं दिखे।
लंबे समय से मैं इनके इस रचनाकर्म का साक्षी रहा। इनमें अपने पड़ोसी राजू रंजन प्रसाद के साथ पिछली बैठकियों में यह विचार उभरा कि क्यों न ऐसे गैर-पेशेवर कवियों की कविताओं का एक संकलन लाया जाए। फिर यह विचार स्थिर हुआ और ऐसे समानधर्मा रचनाकारों के नाम पर विचार हुआ, एक सूची तैयार हुई जिसमें से सात कवि इस संकलन में शामिल किये गये।
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लेकर सीधा नारा
कौन पुकारा
अंतिम आशा की सन्ध्याओं से ...
शमशेर की उपर्युक्त पंक्तियों के निहितार्थ को DrRaju Ranjan Prasad की कविताएं बारहा ध्वनित करती हैं। राजूजी की कई कविताएं मुझे प्रिय हैं जिनमें ‘मैं कठिन समय का पहाड़ हूं’ मुझे बहुत प्रिय है -
मैं कठिन समय का पहाड़ हूं
वक्त के प्रलापों से बहुत कम छीजता हूं
…
मैं वो पहाड़ हूं
जिसके अंदर दूर तक पैसती हैं
वनस्पतियों की कोमल, सफेद जड़ें
…
मैं पहाड़ हूं
मजदूरों की छेनी गैतियों को
झूककर सलाम करता हूं।
यह कविता राजूजी के व्यक्तित्व को रूपायित करती है। वक्त की मार को एक पहाड़ की तरह झेलने के जीवट का नाम राजू रंजन प्रसाद है। पर समय की मार को झेलने को जो कठोरता उन्होंने धारण की है वह कोमल वनस्पतियों के लिए नहीं है फिर यहां पथरीली जड़ता भी नहीं है। यह
विवेकवान कठोरता श्रम की ताकत को पहचानती है और उसका हमेशा सम्मान करती है।
खुद को पहाड़ कहने वाले इस कवि को पता है कि कठोरता उसका आवरण है कि उसके पास भी अपना एक ‘सुकुमार’ चेहरा है और कोमल, सफेद जड़ों के लिए, जीवन के पनपने के लिए, उसके विस्तार के लिए वहां हमेशा जगह है।
तमाम संघर्षशील युवाओं की तरह Sudhir Suman भी सपने देखते हैं और उनके सपने दुनिया को बदल देने की उनकी रोजाना की लड़ाई का ही एक हिस्सा हैं। जन राजनीति के ज्वार-भाटे में शामिल रहने के कारण उनकी कविताओं की राजनीतिक निष्पत्तियाँ ठोस और प्रभावी बन पड़ी हैं। उदाहरण के लिए, उनकी ‘गांधी’ कविता को देखें कि कैसे एक वैश्विक व्यक्तित्व की सर्वव्यापी छाया सुकून का कोई दर्शन रचने की बजाय बाजार के विस्तार का औजार बनकर रह जाती है—
‘अहिंसा तुम्हारी एक दिन अचानक
कैद नजर आई पाँच सौ के नोट में
उसी में जड़ी थी तुम्हारी पोपली मुसकान
उस नोट में
तुम्हारी तसवीर है तीन जगह
एक में तुम आगे चले जा रहे पीछे हैं कई लोग
तुम कहाँ जा रहे हो
क्या पता है किसी को?’
सुधीर के यहाँ प्यार अभावों के बीच भावों के होने का यकीन और ‘दुःख भरी दुनिया की थाह’ और ‘उसे बदलने की चाह’ है—
‘सोचो तो जरा
वह है क्या
जिसमें डूब गए हैं
अभावों के सारे गम...
...
जी चाहता है
मौत को अलविदा कह दें।’
हमारे यहाँ प्यार अकसर सामनेवाले पर गुलाम बनाने की हद तक हक जताने का पर्याय बना दिखता है, पर सुधीर का इश्क हक की जबान नहीं जानता। सुधीर की कविताओं से गुजरना अपने समय के संघर्षों और त्रासदियों को जानना है। यह जानना हमें अपने समय के संकटों का मुकाबला निर्भीकता से करने की प्रेरणा देता है।
जैसे किसान जीवन का जमीनी दर्द कवि Chandra की कविताओं में दर्ज होता है उसी तरह एक मजदूर की त्रासदी को Khalid A Khan स्वर देते हैं –
मैं नहीं जनता था
कि मैं एक मज़दूर हूँ
जैसे मेरी माँ नहीं जानती थी
कि वो एक मज़दूर है, मेरे पिता की
मार खाती, दिन भर खटती
सिर्फ दो जून रोटी और एक छत के लिए
जैसे चंद्र के यहां आया किसान जीवन उससे पहले हिंदी कविता में नहीं दिखता अपनी उस जमीनी धज के साथ, खालिद के यहां चित्रित मजदूरों की जटिल मनोदशा भी इससे पहले अपनी इस जटिलता के साथ नहीं दिखती। इस अर्थ में दोनों ही हिंदी के क्रांतिकारी युवा कवि हैं। दोनों से ही हिंदी कविता आशा कर सकती है पर उस तरह नहीं जैसी वह आम मध्यवर्गीय कवियों से करती है। क्योंकि दोनों ही की कविताओं की राह में बाधाएं हैं जैसी बाधाएं उनके जीवन में हैं। यह अच्छी बात है कि दोनों का ही कैनवस विस्तृत है और क्रांतिकारी कविता का विश्वराग दोनों के यहां बजता है –
मैंने पूछा उनसे कि
क्यों चले जाते हो
हर बार सरहद पर
फेंकने पत्थर
जबकि तुम्हारा पत्थर नहीं पहुंचता
उन तक कभी
पर उनकी गोली हर बार तुम्हरे
सीने को चीरती हुई निकलती है…।
Anupama Garg की कविताएं इस समय समाज के प्रति एक स्त्री के सतत विद्रोह को दर्ज करती हैं। यह सबला जीवन की कविताएं हैं जो आपकी आंखों में आंखें डाल आपसे संवाद करती हैं –
क्योंकि, जब समझ नहीं आती,
तरीखें, न कोर्ट की, न माहवारी की।
…
तब भी,
समझ जरूर आता है,
बढ़ता हुआ पेट,
ये दीगर बात है,
कि उसका इलाज या उपाय तब भी समझ नहीं आता।
अनुपमा की कविताएं पितृसत्ता से बारहा विद्रोह करती हैं, तीखे सवाल करती हैं पर पिता के मनुष्यत्व को रेखांकित करने से चूकती भी नहीं –
तुम हो पिता जिसकी खोज रहती है, विलग व्यक्तित्त्व के पार भी
वो कैसा पुरुष होगा, जो कर सकेगा मुझे, तुम जैसा स्वीकार भी?
जो सह सकेगा तेज मेरे भीतर की स्त्री का, मेरा मुंडा हुआ सर, और मेरे सारे विचार भी?
वो तुम जैसा होगा पिता,
जो मेरे साथ सजा, सींच सकेगा, सिर्फ अपना घर नहीं, पूरा संसार ही |
अनुपमा की आत्मसजगता परंपरा की रूढिवादी छवियों को हर बार अपनी कसौटी पर जांचती है और उनका खंडन-मंडन करती है। इस रूप में उनकी आत्मसजगता राजनीतिक सजगता का पर्याय बनती दिखती है –
जब संन्यासी चलाने लगें दुकान,
तो मेरी सोच में,
क्यों न रह जाए सिर्फ,
रोटी कपड़ा, मकान …।
#आभा की कविताएं ऐसी स्त्री की कविताएं हैं जिसके सपने पितृसत्ता के दबाव में बिखरते चले जाते हैं। पराया धन से सुहागन बन जाती है वह पर अपने होने के मानी नहीं मिलते उसे। पारंपरिक अरेंज मैरेज किस तरह एक लड़की के व्यक्तित्व को ग्रसता चला जाता है इसे आभा की कविताएं बार-बार सामने रखती हैं –
हरे पत्तों से घिरे गुलाब की तरह
ख़ूबसूरत हो तुम
पर इसकी उम्मीद नहीं
कि तुम्हें देख सकूँ
इसलिए
उद्धत भाव से
अपनी बुद्धि मंद करना चाहती हूँ।
कैसे हमारा रुढिवादी समाज एक स्त्री की स्वतंत्र चेतना को नष्ट कर एक गुलाम समाज के लिए जमीन तैयार करता है इसे आभा की कविताएं स्पष्ट ढंग से सामने रखती हैं। आभा की कविताएं भारतीय आधी आबादी के उस बड़े हिस्से के दर्द को जाहिर करती हैं जिनके शरीर से उनकी आत्मा को सम्मान, लाज, लिहाज आदि के नाम पर धीरे-धीरे बेदखल कर दिया जाता है और वे लोगों की सुविधा का सामान बन कर रह जाती हैं –
कभी कभी
ऐसा क्यों लगता है
कि सबकुछ निरर्थक है
कि तमाम घरों में
दुखों के अटूट रिश्ते
पनपते हैं
जहाँ मकड़ी भी
अपना जाला नहीं बना पाती...।
Navin Kumar की कविताओं में आप कवियों के कवि शमशेर और मुक्तिबोध को एकमएक होता देख सकते हैं। उन्होंने अधिकतर लंबी कविताएं लिखी हैं जो आम अर्ध शहरी, कस्बाई जीवन को उसकी जटिलताओं और विडंबनाओं के साथ प्रस्तुत करती हैं। वे आलोक धन्वा की लंबी कविताओं की तरह दिग्वजय का शोर नहीं रचतीं बल्कि अपने आत्म को इस तरह खोलती हैं कि हम उसके समक्ष मूक पड़ते से उसे निहारने में मग्न होते जाते हैं –
मैं रोना चाहता था और
सो जाना चाहता था
कल को
किसी प्रेम पगी स्त्री का विलाप सुन नहीं सकूँगा
पृथ्वी पर हवाएं उलट पलट जाएंगी
समुद्र की लहरें बिना चांदनी के ही
अर्द्धद्वितीया को तोड़-तोड़ उर्ध्वचेतस् विस्फोट करेंगी
अपनी एक कविता में आभा लिखती हैं कि वे उद्धत भाव से अपनी बुद्धि मंद करती हैं। नवीन की कविताओं और उनके एक्टिविज्म से भरे जीवन को देख कर ऐसा लगता है कि उन्हेांने भी कविता और लोकोन्मुख जीवन में जीवन को चुना और कविता की उमग को आम जन की दिशा में मोड़ दिया -
नई नई जगहों में
लाचारी का, सट्टा का, दारू भट्टी का
नहीं तो बिल्डिंगों का कारोबार है
चारों तरफ होम्योपैथ की दवा सी तुर्श गंध है
या नहीं तो सड़ रहे
पानी, कीचड़, गोबर की
यहां की कविता में तो इतना गुस्सा है
कि यह अपने पसीने-मूत्र की धार में ही
बहा देना चाहती है सब कुछ …।
Amrendra Kumar की कविताएं पढते लगा कि अरसा बाद कोई सचमुच का कवि मिला है, अपनी सच्ची जिद, उमग, उल्लास और समय प्रदत्त संत्रासों के साथ। काव्य परंपरा का बोध जो हाल की कविता पीढी में सिरे से गायब मिलता है, अमरेन्द्र की कविताओं में उजागर होता दिखता है। इन कविताओं से गुजरते निराला-पंत-शमशेर साथ-साथ याद आते हैं। चित्रों की कौंध को इस तरह देखना अद्भुत है –
आसमान से
बरसती चांदनी में
अनावृत सो रही थी श्यामला धरती
शाप से कौन डरे ?
रामधारी सिंह दिनकर की कविता पंक्तियां हैं –
झड़ गयी पूंछ, रोमांत झड़े
पशुता का झड़ना बाकी है
बाहर-बाहर तन संवर चुका
मन अभी संवरना बाकी है।
अपनी कुछ कविताओं में अमरेन्द्र पशुता के उन चिह्नों की ना केवल शिनाख्त करते हैं बल्कि उसके मनोवैज्ञानिक कारकों और फलाफलों पर भी विचार करते चलते हैं –
खेल-खेल में ...
सीख लो यह
कि तुम्हें घोड़ा बनकर जीना है !
यह जान लो कि
तुमसे बराबर कहा जाता रहेगा
कि तुम कभी आदमी थे ही नहीं !
अपने समय की साजिशों की पहचान है कवि को और उस पर उसकी सख्त निगाह है। बहुत ही बंजर और विध्वंसकारी दौर है यह फिर ऐसे में कोई कवि इस सबसे गाफिल कैसे रह सकता है सो अमरेन्द्र के यहां भी मुठभेड़ की कवियोचित मुद्राएं बारहा रूपाकार पाती दिखती हैं –
खेत बंजर होते जा रहे हैं
लेकिन, भूख बंजर नहीं हो सकती ...
और भड़कती भूख की आग
कुछ भी चबा सकती है।
- #कुमार_मुकुल
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