मंगलवार, 10 नवंबर 2015

मीर तकी मीर की रचनाएं





कविताएँ
मीर तकी मीर


1.
अंदोह से हुई न रिहाई तमाम शब।
मुझ दिल-जले को नींद न आई तमाम शब।

चमक चली गई थी सितारों की सुब्‍ह तक,
की आस्माँ से दीदा-बराई तमाम शब।

जब मैंने शुरू क़िस्सा किया आँखें खोल दीं,
यक़ीनी थी मुझको चश्म-नुमाई तमाम शब।

वक़्त-ए-सियह ने देर में कल यावरी सी की,
थी दुश्मनों से इनकी लड़ाई तमाम शब।
2
जीते-जी कूचा-ए-दिलदार से जाया न गया
उसकी दीवार का सर से मेरे साया न गया

गुल में उसकी सी जो बू आई तो आया न गया
हमको बिन दोश-ए-सबा बाग से लाया न गया

दिल में रह दिल में कि मे मीर-ए-कज़ा से अब तक
ऐसा मतबूअ मकां कोई बनाया न गया

क्या तुनुक हौसला थे दीदा-ओ-दिल अपने, आह
एक दम राज़ मोहब्बत का छुपाया न गया

शहर-ए-दिल आह अजब जगह थी पर उसके गए
ऐसा उजड़ा कि किसी तरह बसाया ना गया
3.
अपने तड़पने की मैं तदबीर पहले कर लूँ
तब फ़िक्र मैं करूँगा ज़ख़्मों को भी रफू का।

यह ऐश के नहीं हैं या रंग और कुछ है
हर गुल है इस चमन में साग़र भरा लहू का।

बुलबुल ग़ज़ल सराई आगे हमारे मत कर
सब हमसे सीखते हैं, अंदाज़ गुफ़्तगू का।
4
अश्क आंखों में कब नहीं आता
लहू आता है जब नहीं आता।

होश जाता नहीं रहा लेकिन
जब वो आता है तब नहीं आता।

दिल से रुखसत हुई कोई ख्वाहिश
गिरिया कुछ बे-सबब नहीं आता।

इश्क का हौसला है शर्त वरना
बात का किस को ढब नहीं आता।

जी में क्या-क्या है अपने ऐ हमदम
हर सुखन ता बा-लब नहीं आता।
5
अब जो इक हसरत-ए-जवानी है
उम्र-ए-रफ़्ता की ये निशानी है।

ख़ाक थी मौजज़न जहाँ में, और
हम को धोखा ये था के पानी है।

गिरिया हर वक़्त का नहीं बेहेच
दिल में कोई ग़म-ए-निहानी है।

हम क़फ़स ज़ाद क़ैदी हैं वरना
ता चमन परफ़शानी है।

याँ हुए 'मीर' हम बराबर-ए-ख़ाक
वाँ वही नाज़-ओ-सर्गिरानी है।
6.
चाक करना है इसी ग़म से गिरेबान-ए-कफ़न
कौन खोलेगा तेरे बन्द-ए-कबा मेरे बाद

वो हवाख़्वाह-ए-चमन हूँ कि चमन में हर सुब्ह
पहले मैं जाता था और बाद-ए-सबा मेरे बाद

तेज़ रखना सर-ए-हर ख़ार को ऐ दश्त-ए-जुनूं
शायद आ जाए कोई आबला पा मेरे बाद

मुँह पे रख दामन-ए-गुल रोएंगे मुर्ग़ान-ए-चमन
हर रविश ख़ाक उड़ाएगी सबा मेरे बाद

बाद मरने के मेरी क़ब्र पे आया वो 'मीर'
याद आई मेरे ईसा को दवा मेरे बाद
7.
आ जायें हम नज़र जो कोई दम बहुत है याँ
मोहलत हमें बसाने शरर कम बहुत है याँ

यक लहज़ा सीना कोबी से फ़ुरसत हमें नहीं
यानी कि दिल के जाने का मातम बहुत है याँ

हम रहरवाँ-ए-राह-ए-फ़ना देर रह चुके
वक़्फ़ा बसाँ-ए-सुबह् कोई दम बहुत है याँ

हासिल है क्या सिवाय तराई के दहर में
उठ आस्माँ तले से के शबनम बहुत है याँ

इस बुतकदे में माना का किस से करें सवाल
आदम नहीं है सूरत-ए-आदम बहुत है याँ

आलम में लोग मिलने की गौं अब नहीं रहे
हरचन्दं ऐसा वैसा तो आलम बहुत है यॉं
मेरे हलाक करने का ग़म है अबस तुम्हें
तुम शाद ज़िंदगानी करो ग़म बहुत है याँ

शायद के काम सुबह् तक अपना खिंचे न 'मीर'
अहवाल आज शाम से दरहम बहुत है याँ
8.
आरज़ूएं हज़ार रखते हैं
तो भी हम दिल को मार रखते हैं

बर्क़ कम हौसला है हम भी तो
दिल एक बेक़रार रखते हैं

ग़ैर है मूराद-ए-इनायत हाए
हम भी तो तुम से प्यार रखते हैं

न निगाह न पयाम न वादा
नाम को हम भी यार रखते हैं

हम से ख़ुश ज़म-ज़मा कहाँ यूँ तो
लब-ओ-लहजा हज़ार रखते हैं

छोटे दिल के हैं बुताँ मशहूर
बस यही ऐतबार रखते हैं

फिर भी करते हैं "मीर" साहिब इश्क़
हैं जवाँ इख़्तियार रखते हैं
9.
इधर से अब्र उठकर जो गया है
हमारी ख़ाक पर भी रो गया है

मसाइब और थे पर दिल का जाना
अजब इक सानिहा सा हो गया है

मुकामिर-खाना-ए-आफाक वो है
के जो आया है याँ कुछ खो गया है

सरहाने 'मीर' के आहिस्ता बोलो
अभी टुक रोते-रोते सो गया है
10.
इब्तिदा-ए-इश्क है रोता है क्या
आगे आगे देखिये होता है क्या

काफिले में सुबह के इक शोर है
यानी गाफिल हम चले सोता है क्या

सब्ज़ होती ही नहीं ये सरज़मीं
तुख्म-ए-ख्वाहिश दिल में तू बोता है क्या

ये निशान-ए-इश्क हैं जाते नहीं
दाग छाती के अबस धोता है क्या

गैरत-ए-यूसूफ है ये वक़्त-ए-अजीज़
'मीर' इस को रायेगां खोता है क्या
11.
इश्क़ में जी को सब्र-ओ-ताब कहाँ
उस से आँखें लगीं तो ख्वाब कहाँ

बेकली दिल ही की तमाशा है
बर्क़ में ऐसे इज़्तेराब कहाँ

हस्ती अपनी, है बीच में पर्दा
हम न होवें तो फिर हिजाब कहाँ

गिरिया-ए-शब से सुर्ख़ हैं आँखें
मुझ बलानोश को शराब कहाँ

इश्क़ है आशिक़ों के जलने को
ये जहन्नुम में है अज़ाब कहाँ

महव हैं इस किताबी चेहरे के
आशिक़ों को सर-ए-किताब कहाँ

इश्क़ का घर है 'मीर' से आबाद
ऐसे फिर ख़ानुमाँख़राब कहाँ
12.
इस अहद में इलाही मोहब्बत को क्या हुआ
छोड़ा वफ़ा को उन्ने मुरव्वत को क्या हुआ

उम्मीदवार वादा-ए-दीदार मर चले
आते ही आते यारों क़यामत को क्या हुआ

जाता है यार तेग़ बकफ़ ग़ैर की तरफ़
ए कुश्ता-ए-सितम तेरी ग़ैरत को क्या हुआ
13.
उम्र भर हम रहे शराबी से
दिल-ए-पुरखूं की इक गुलाबी से

जी डहा जाये है सहर से, आह
रात गुज़रेगी किस ख़राबी से

खिलना कम-कम कली ने सीखा है
उसकी आँखों की नीम ख़्वाबी से

काम थे इश्क़ में बहुत पर मीर
हम ही फ़ारिग़ हुए शिताबी से

याँ हुए 'मीर' हम बराबर-ए-ख़ाक
वाँ वही नाज़-ओ-सर्गिरानी है।
14.
आए हैं मीर मुँह को बनाए जफ़ा से आज
शायद बिगड़ गयी है उस बेवफा से आज

जीने में इख्तियार नहीं वरना हमनशीं
हम चाहते हैं मौत तो अपने खुदा से आज

साक़ी टुक एक मौसम-ए-गुल की तरफ़ भी देख
टपका पड़े है रंग चमन में हवा से आज

था जी में उससे मिलिए तो क्या क्या न कहिये 'मीर'
पर कुछ कहा गया न ग़म-ए-दिल हया से आज
15.
कहा मैंने कितना है गुल का सबात
कली ने यह सुनकर तबस्सुम किया

जिगर ही में एक क़तरा खूं है सरकश
पलक तक गया तो तलातुम किया

किस वक्त पाते नहीं घर उसे
बहुत 'मीर' ने आप को गम किया
16.
अए हम-सफ़र न आब्ले को पहुँचे चश्म-ए-तर
लगा है मेरे पाओं में आ ख़ार देखना

होना न चार चश्म दिक उस ज़ुल्म-पैशा से
होशियार ज़ीन्हार ख़बरदार देखना

सय्यद दिल है दाग़-ए-जुदाई से रश्क-ए-बाग़
तुझको भी हो नसीब ये गुलज़ार देखना

गर ज़मज़मा यही है कोई दिन तो हम-सफ़र
इस फ़स्ल ही में हम को गिरफ़्तार देखना

बुल-बुल हमारे गुल पे न गुस्ताख़ कर नज़र
हो जायेगा गले का कहीं हार देखना

शायद हमारी ख़ाक से कुछ हो भी अए नसीम
ग़िर्बाल कर के कूचा-ए-दिलदार देखना

उस ख़ुश-निगाह के इश्क़ से परहेज़ कीजिओ 'मीर'
जाता है लेके जी ही ये आज़ार देखना
17.
क़द्र रखती न थी मता-ए-दिल
सारे आलम में मैं दिखा लाया

दिल, कि इक क़तरा खूँ नहीं है बेश
एक आलम के सर बला लाया

सब पे जिस बार ने गिरानी की
उस को ये नातवाँ उठा लाया

दिल मुझे उस गली में ले जाकर
और भी खाक में मिला लाया

इब्तिदा ही में मर गए सब यार
इश्क़ की कौन इंतिहा लाया

अब तो जाते हैं बुतकदे से मीर
फिर मिलेंगे अगर खुदा लाया
18.
काबे में जाँबलब थे हम दूरी-ए-बुताँ से
आये हैं फिर के यारों अब के ख़ुदा के याँ से

जब कौंधती है बिजली तब जानिब-ए-गुलिस्ताँ
रखती है छेड़ मेरे ख़ाशाक-ए-आशियाँ से

क्या ख़ूबी उसके मूँह की ए ग़ुन्चा नक़्ल करिये
तू तो न बोल ज़ालिम बू आती है वहाँ से

ख़ामोशी में ही हम ने देखी है मसलहत अब
हर इक से हाल दिल का मुद्दत कहा ज़बाँ से

इतनी भी बदमिज़ाजी हर लहज़ा 'मीर' तुम को
उलझाव है ज़मीन से, झगड़ा है आसमाँ से
19.
कुछ करो फ़िक्र मुझ दीवाने की
धूम है फिर बहार आने की

वो जो फिरता है मुझ से दूर ही दूर
है ये तरकीब जी के जाने की

तेज़ यूँ ही न थी शबे-आतिशे-शौक़
थी खबर गर्म उसके आने की

जो है सो पाइमाले-ग़म है मीर
चाल बेडोल है ज़माने की
20.
कोफ़्त से जान लब पे आई है
हम ने क्या चोट दिल पे खाई है

दीदनी है शिकस्तेगी दिल की
क्या इमारत ग़मों ने ढाई है

दिल से नज़दीक और इतना दूर
किस से उसको कुछ आश्नाई है

याँ हुए ख़ाक से बराबर हम
वाँ वही नाज़-ए-ख़ुदनुमाई है

मर्ग-ए-मजनूँ पे अक़्ल गुम है 'मीर'
क्या दीवाने ने मौत पाई है
21.
क्या कहूँ तुम से मैं के क्या है इश्क़
जान का रोग है, बला है इश्क़

इश्क़ ही इश्क़ है जहाँ देखो
सारे आलम में भर रहा है इश्क़

इश्क़ माशूक़ इश्क़ आशिक़ है
यानी अपना ही मुब्तिला है इश्क़

इश्क़ है तर्ज़-ओ-तौर इश्क़ के तईं
कहीं बंदा कहीं ख़ुदा है इश्क़

कौन मक़्सद को इश्क़ बिन पहुँचा
आरज़ू इश्क़ वा मुद्दा है इश्क़

कोई ख़्वाहाँ नहीं मोहब्बत का
तू कहे जिन्स-ए-नारवा है इश्क़

मीर जी ज़र्द होते जाते हैं
क्या कहीं तुम ने भी किया है इश्क़?
22.
गम रहा जब तक कि दम में दम रहा
दिल के जाने का निहायत गम रहा

हुस्न था तेरा बहुत आलम फरेब
खत के आने पर भी इक आलम रहा

मेरे रोने की हकीकत जिस में थी
एक मुद्दत तक वो कागज नम रहा

जामा-ऐ-एहराम-ऐ-ज़ाहिद पर न जा
था हरम में लेकिन ना-महरम रहा
23.
गुल को महबूब में क़यास किया
फ़र्क़ निकला बहोत जो बास किया

दिल ने हमको मिसाल-ए-आईना
एक आलम से रूशिनास किया

कुछ नहीं सूझता हमें उस बिन
शौक़ ने हम को बेहवास किया

सुब्ह तक शम्अ सर को धुनती रही
क्या पतंगे ने इल्तिमास किया

ऐसे वहुशी कहाँ हैं अय ख़ूबाँ
'मीर' को तुम अबस उदास किया
24.
ज़ख्म झेले दाग़ भी खाए बहुत
दिल लगा कर हम तो पछताए बहुत

दैर से सू-ए-हरम आया न टुक
हम मिजाज अपना इधर लाये बहुत

फूल, गुल, शम्स-ओ-क़मर सारे थे
पर हमें उनमें तुम्ही, भाये बहुत

मीर से पूछा जो मैं आशिक हो तुम
हो के कुछ चुपके से शरमाये बहुत
25.
जिस सर को ग़रूर आज है याँ ताजवरी का
कल जिस पे यहीं शोर है फिर नौहागरी का

आफ़ाक़ की मंज़िल से गया कौन सलामात
असबाब लुटा राह में याँ हर सफ़री का

ज़िन्दाँ में भी शोरिशन गयी अपने जुनूँ की
अब संग मदावा है इस आशुफ़्तासरी का

हर ज़ख़्म-ए-जिगर दावर-ए-महशर से हमारा
इंसाफ़ तलब है तेरी बेदादगरी का

इस रंग से झमके है पलक पर के कहे तू
टुकड़ा है मेरा अश्क अक़ीक़े-जिगरी का

ले साँस भी आहिस्ता से नाज़ुक़ है बहुत काम
आफ़ाक़ है इस कारगाहे-शीशागरी का

टुक मीरे-जिगर सोख़्ता की जल्द ख़बर ले
क्या यार भरोसा है चराग़े-सहरीका
26.
जो इस शोर से 'मीर' रोता रहेगा
तो हम-साया काहे को सोता रहेगा

मैं वो रोनेवाला जहाँ से चला हूँ
जिसे अब्र हर साल रोता रहेगा

मुझे काम रोने से हरदम है नासेह
तू कब तक मेरे मुँह को धोता रहेगा

बसे गिरिया आंखें तेरी क्या नहीं हैं
जहाँ को कहाँ तक डुबोता रहेगा

मेरे दिल ने वो नाला पैदा किया है
जरस के भी जो होश खोता रहेगा

तू यूं गालियाँ गैर को शौक़ से दे
हमें कुछ कहेगा तो होता रहेगा

बस ऐ 'मीर' मिज़गां से पोंछ आंसुओं को
तू कब तक ये मोती पिरोता रहेगा
27.
तुम नहीं फ़ितना-साज़ सच साहब
शहर पुर-शोर इस ग़ुलाम से है

कोई तुझसा भी काश तुझको मिले
मुद्दा हमको इन्तक़ाम से है

शेर मेरे हैं सब ख़्वास पसंद
पर मुझे गुफ़्तगू आवाम से है

सहल है 'मीर' का समझना क्या
हर सुख़न उसका इक मक़ाम से है
28.
था मुस्तेआर हुस्न से उसके जो नूर था
खुर्शीद में भी उस ही का ज़र्रा-ऐ-ज़हूर था

पहुँचा जो आपको तो मैं पहुँचा खुदा के तईं
मालूम अब हुआ कि बहोत मैं भी दूर था

कल पाँव इक कासा-ऐ-सर पर जो आ गया
यक-सर वो इस्ताख़्वान शिकस्तों में चूर था

कहने लगा के देख के चल राह बे-ख़बर
मैं भी कभी किसी का सर-ऐ-पुर-गुरूर था

था वो तो रश्क-ऐ-हूर-ऐ-बहिश्ती हमीं में 'मीर'
समझे न हम तो फ़हम का अपने कसूर था
29.
दम-ए-सुबह बज़्म-ए-ख़ुश जहाँ शब-ए-ग़म से कम न थी मेहरबाँ
कि चिराग़ था सो तो दर्द था जो पतंग था सो ग़ुबार था

दिल-ए-ख़स्ता जो लहू हो गया तो भला हुआ कि कहाँ तलक
कभी सोज़्-ए-सीना से दाग़ था कभू दर्द-ओ-ग़म से फ़िग़ार था

दिल-ए-मुज़तरिब से गुज़र गई शब-ए-वस्ल अपनी ही फ़िक्र में
न दिमाग़ था न फ़राग़ था न शकेब था न क़रार था

ये तुम्हारी इन दिनों दोस्ताँ मिज़्ह्ग़ाँ जिसके ग़म में है ख़ूँ-चकाँ
वही आफ़त-ए-दिल-ए-आशिक़ाँ किसु वक़्त हमसे भी यार था

कभू जायेगी उधर् सबा तो ये कहियो उससे कि बेवफ़ा
मगर एक "मीर"-ए-शिकस्ता-पा तेरे बाग़-ए-ताज़ा में ख़ार था
30.
दिखाई दिये यूं कि बेख़ुद किया
हमें आप से भी जुदा कर चले

जबीं सजदा करते ही करते गई
हक़-ए-बन्दगी हम अदा कर चले

परस्तिश की यां तक कि अय बुत तुझे
नज़र में सभों की ख़ुदा कर चले

बहुत आरज़ू थी गली की तेरी
सो यां से लहू में नहा कर चले
31.
दिल की बात कही नहीं जाती, चुप के रहना ठाना है
हाल अगर है ऐसा ही तो जी से जाना जाना है

सुर्ख़ कभू है आँसू होके ज़र्द कभू है मुँह मेरा
क्या क्या रंग मोहब्बत के हैं, ये भी एक ज़माना है

फ़ुर्सत है यां कम रहने की, बात नहीं कुछ कहने की
आँखें खोल के कान जो खोले बज़्म-ए-जहां अफ़साना है

तेग़ तले ही उसके क्यूँ ना गर्दन डाल के जा बैठें
सर तो आख़िरकार हमें भी हाथ की ओर झुकाना है
32.
चलते हो तो चमन को चलिये कहते हैं कि बहाराँ है
पात हरे हैं फूल खिले हैं कम कम बाद-ओ-बाराँ है

रंग हवा से यूं ही टपके है जेसे शराब चुआते है
आगे हो मैख़ाने को निकलो अहद-ए-बादा गुसाराँ है

कोहकन-ओ-मजनूं की ख़ातिर, दश्त--ओ-कोह में हम न गये
इश्क़ में हमको "मीर" निहायत पास-ए-इज़्ज़त-दारॉं है
33.
दिल से शौक़-ए-रुख़-ए-निकू न गया
झाँकना - ताकना कभू न गया

हर क़दम पर थी उसकी मंज़िल लेक
सर से सौदा-ए-जुस्तजू न गया

सब गये होश-ओ-सब्र-ओ-ताब-ओ-तवाँ
लेकिन अय दाग़ दिल से तू न गया

हम ख़ुदा के कभी क़ायल तो न थे
उनको देखा तो ख़ुदा याद आ गया

दिल में कितने मसौदे थे वले
एक पेश उसके रू-ब-रू न गया

सुब्‍ह गर्दा ही 'मीर' हम तो रहे
दस्त-ए-कोताह ता सुबू न गया
34.
दुश्मनी हमसे की ज़माने ने
कि जफ़ाकार तुझसा यार किया

ये तवह्हुम का कारख़ाना है
याँ वही है जो ऐतबार किया

हम फ़क़ीरों से बेअदाई क्या
आन बैठे जो तुमने प्यार किया

सद रग-ए-जाँ को ताब दे बाहम
तेरी ज़ुल्फ़ों का एक तार किया

सख़्त काफ़िर था जिसने पहले "मीर"
मज़हब-ए-इश्क़ इख़्तियार किया
35.
देख तो दिल कि जाँ से उठता है
ये धुआं सा कहाँ से उठता है

गोर किस दिल-जले की है ये फलक
शोला इक सुबह याँ से उठता है

खाना-ए-दिल से ज़ीनहार न जा
कोई ऐसे मकां से उठता है

नाला सर खेंचता है जब मेरा
शोर इक आसमान से उठता है

लड़ती है उस की चश्म-ऐ-शोख जहाँ
इक आशोब वां से उठता है

सुध ले घर की भी शोला-ऐ-आवाज़
दूद कुछ आशियाँ से उठता है

बैठने कौन दे है फिर उस को
जो तेरे आस्तां से उठता है

यूं उठे आह उस गली से हम
जैसे कोई जहाँ से उठता है

इश्क इक 'मीर' भारी पत्थर है
कब दिल - ए - नातवां से उठता है
36.
न दिमाग है कि किसू से हम,करें गुफ्तगू गम-ए-यार में
न फिराग है कि फकीरों से,मिलें जा के दिल्ली दयार में

कहे कौन सैद-ए-रमीद: से, कि उधर भी फिरके नजर करे
कि निकाब उलटे सवार है, तिरे पीछे कोई गुबार में

कोई शोल: है कि शरार: है,कि हवा है यह कि सितार: है
यही दिल जो लेके गड़ेंगे हम,तो लगेगी आग मजार में
37.
न सोचा न समझा न सीखा न जाना
मुझे आ गया ख़ुदबख़ुद दिल लगाना

ज़रा देख कर अपना जल्वा दिखाना
सिमट कर यहीं आ न जाये ज़माना

ज़ुबाँ पर लगी हैं वफ़ाओं की मुहरें
ख़मोशी मेरी कह रही है फ़साना

गुलों तक लगायी तो आसाँ है लेकिन
है दुशवार काँटों से दामन बचाना

करो लाख तुम मातम-ए-नौजवानी
प 'मीर' अब नहीं आयेगा वो ज़माना
38.
नहीं वसवास जी गँवाने के
हाय रे ज़ौक़ दिल लगाने के

मेरे तग़ईर-ए-हाल पर मत जा
इत्तेफ़ाक़ात हैं ज़माने के

दम-ए-आखिर ही क्या न आना था
और भी वक़्त थे बहाने के

इस कुदरत को हम समझते हैं
ढब हैं ये ख़ाक में मिलाने के

दिल-ओ-दीन, होश-ओ-सब्र, सब ही गए
आगे-आगे तुम्हारे आने के
39 .
नाला जब गर्मकार होता है
दिल कलेजे के पार होता है

सब मज़े दरकिनार आलम के
यार जब हमकिनार होता है

जब्र है, क़ह्र है, क़यामत है
दिल जो बेइख़्तियार होता है
40.
पत्ता-पत्ता, बूटा-बूटा हाल हमारा जाने है
जाने न जाने गुल ही न जाने, बाग़ तो सारा जाने है

लगने न दे बस हो तो उस के गौहर-ए-गोश के बाले तक
उस को फ़लक चश्म-ए-मै-ओ-ख़ोर की तितली का तारा जाने है

आगे उस मुतक़ब्बर के हम ख़ुदा ख़ुदा किया करते हैं
कब मौजूद् ख़ुदा को वो मग़रूर ख़ुद-आरा जाने है

आशिक़ सा तो सादा कोई और न होगा दुनिया में
जी के ज़िआँ को इश्क़ में उसके अपना वारा जाने है

चारागरी बीमारि-ए-दिल की रस्म-ए-शहर-ए-हुस्न नहीं
वर्ना दिलबर-ए-नादाँ भी इस दर्द का चारा जाने है

क्या ही शिकार-फ़रेबी पर मग़रूर है वो सय्यद बच्चा
त'एर उड़ते हवा में सारे अपनी उसारा जाने है

मेहर-ओ-वफ़ा-ओ-लुत्फ़-ओ-इनायत एक से वाक़िफ़ इन में नहीं
और तो सब कुछ तन्ज़-ओ-किनाया रम्ज़-ओ-इशारा जाने है

क्या क्या फ़ितने सर पर उसके लाता है माशूक़ अपना
जिस बेदिल बेताब-ओ-तवाँ को इश्क़ का मारा जाने है

आशिक़ तो मुर्दा है हमेशा जी उठता है देखे उसे
यार के आ जाने को यकायक उम्र दो बारा जाने है

रख़नों से दीवार-ए-चमन के मुँह को ले है छिपा यानि
उन सुराख़ों के टुक रहने को सौ का नज़ारा जाने है

तश्‍ना-ए-ख़ूँ है अपना कितना 'मीर' भी नादाँ तल्ख़ीकश
दमदार आब-ए-तेग़ को उस के आब-ए-गवारा जाने है
41.
बात क्या आदमी की बन आई
आस्माँ से ज़मीन नपवाई

चरख ज़न उसके वास्ते है मदाम?
हो गया दिन तमाम रात आई

माह-ओ-ख़ुर्शीद-ओ-बाद सभी?
उसकी ख़ातिर हुए हैं सौदाई

कैसे कैसे किये तरद्दद जब
रंग रंग उसको चीज़ पहुँचाई

उसको तरजीह सब के उपर दे
लुत्फ़-ए-हक़ ने की इज़्ज़त अफ़ज़ाई

हैरत आती है उसकी बातें देख
ख़ुद सरी ख़ुद सताई ख़ुदराई

शुक्र के सज्दों में ये वाजिब था?
ये भी करता सदा जबीं साई

सो तो उसकी तबीयत-ए-सरकश
सर न लाई फ़रो के टुक लाई

'मीर' नाचीज़ मुश्त-ए-ख़ाक अल्लाह
उन ने ये किबरिया कहाँ पाई ?
42.
बारहा गोर दिल झुका लाया
अबके शर्ते-वफ़ा बजा लाया

क़द्र रखती न थी मताए-दिल
सारे आलम को मैं दिखा लाया

दिल कि यक क़तरा-ए-ख़ूँ नहीं है बेश
एक आलम के सर बला लाया

सब पे जिस बार ने गिरानी की
उसको यह नातवाँ उठा लाया

दिल मुझे उस गली में ले जाकर
और भी ख़ाक में मिला लाया

अब तो जाते हैं बुतक़दे ऐ 'मीर'!
फिर मिलेंगे अगर ख़ुदा लाया
43.
बेकली बेख़ुदी कुछ आज नहीं
एक मुद्दत से वो मिज़ाज नहीं

दर्द अगर ये है तो मुझे बस है
अब दवा की कुछ एहतेयाज नहीं

हम ने अपनी सी की बहुत लेकिन
मर्ज़-ए-इश्क़ का कोई इलाज नहीं

शहर-ए-ख़ूबाँ को ख़ूब देखा मीर
जिंस-ए-दिल का कहीं रिवाज नहीं
44.
बेखुदी कहाँ ले गई हमको,
देर से इंतज़ार है अपना

रोते फिरते हैं सारी सारी रात,
अब यही रोज़गार है अपना

दे के दिल हम जो गए मजबूर,
इसमें क्या इख्तियार है अपना

कुछ नही हम मिसाल-ऐ- उनका लेक
शहर - शहर इश्तिहार है अपना

जिसको तुम आसमान कहते हो,
सो दिलो का गुबार है अपना
45.
ब-रंग-ए-बू-ए-गुल, इस बाग़ के हम आश्‍ना होते
कि हम-राह-ए-सबा टुक सैर करते, और हवा होते

सरापा आरज़ू होने ने बंदा कर दिया हमको
वगरना हम ख़ुदा थे, गर दिल-ए-बेमुद्दआ होते

फ़लक, ऐ काश्! हमको ख़ाक ही रखता, कि उस में हम
ग़ुबार-ए-राह होते या किसी की ख़ाक-ए-पा होते

इलाही कैसे होते हैं जिन्हें है बंदगी ख़्वाहिश
हमें तो शर्म दामन-गार होती है, ख़ुदा होते

कहें जो कुछ मलामतगार, बजा है 'मीर' क्या जाने
उन्हें मालूम तब होता, कि वैसे से जुदा होते
46.
मरते हैं हम तो आदम-ए-ख़ाकी की शान पर
अल्लाह रे दिमाग़ कि है आसमान पर

कुछ हो रहेगा इश्क़-ओ-हवस में भी इम्तियाज़
आया है अब मिज़ाज तेरा इम्तिहान पर

मोहताज को ख़ुदा न निकाले कि जू हिलाल
तश्हीर कौन शहर में हो पारा-नान पर

शोख़ी तो देखो आप कहा आओ बैठो "मीर"
पूछा कहाँ तो बोले कि मेरी ज़ुबान पर
47.
मेहर की तुझसे तवक़्क़ो थी सितमगर निकला
मोम समझे थे तेरे दिल को सो पत्थर निकला

दाग़ हूँ रश्क-ए-मोहब्बत से के इतना बेताब
किस की तस्कीं के लिये घर से तू बाहर निकला

जीते जी आह तेरे कूचे से कोई न फिरा
जो सितमदीदा रहा जाके सो मर कर निकला

दिल की आबादी की इस हद है ख़राबी के न पूछ
जाना जाता है कि इस राह से लश्कर निकला

अश्क-ए-तर, क़तरा-ए-ख़ूँ, लख़्त्-ए-जिगर, पारा-ए-दिल
एक से एक अदू आँख से बेहतर निकला

हम ने जाना था लिखेगा तू कोई हर्फ़ अय 'मीर'
पर तेरा नामा तो एक शौक़ का दफ़्तर निकला
48.
मानिंद-ए-शमा मजलिस-ए-शब अश्कबार पाया
अल क़िस्सा 'मीर' को हमने बेइख़्तियार पाया

शहर-ए-दिल एक मुद्दत उजड़ा बसा ग़मों में
आख़िर उजाड़ देना उसका क़रार पाया

इतना न दिल से मिलते न दिल को खो के रहते
जैसा किया था हमने वैसा ही यार पाया

क्या ऐतबार याँ का फिर उस को ख़ार देखा
जिसने जहाँ में आकर कुछ ऐतबार पाया

आहों के शोले जिस् जाँ उठे हैं 'मीर' से शब
वाँ जा के सुबह देखा मुश्त-ए-ग़ुबार पाया
49.
मामूर शराबों से कबाबों से है सब देर
मस्जिद में है क्या शेख़ पियाला न निवाला

गुज़रे है लहू वाँ सर-ए-हर-ख़ार से अब तक
जिस दश्त में फूटा है मेरे पांव का छाला

देखे है मुझे दीदा-ए-पुरचश्म से वो "मीर"
मेरे ही नसीबों में था ये ज़हर का प्याला
50.
मिलो इन दिनों हमसे इक रात जानी
कहाँ हम, कहाँ तुम, कहाँ फिर जवानी

शिकायत करूँ हूँ तो सोने लगे है
मेरी सर-गुज़िश्त अब हुई है कहानी

अदा खींच सकता है बहज़ाद उस की
खींचे सूरत ऐसी तो ये हमने मानी

मुलाक़ात होती है तो है कश-म-कश से
यही हम से है जब न तब खींचा तानी
51
'मीर' दरिया है, सुने शेर ज़बानी उस की
अल्लाह अल्लाह रे तबियत की रवानी उसकी

बात की तर्ज़ को देखो तो कोई जादू था
पर मिली ख़ाक में सब सहर बयानी उसकी

अब गये उसके जो अफ़सोस नहीं कुछ हासिल
हैफ़ सद हैफ़ कि कुछ क़द्र न जानी उसकी
52.
मुँह तका ही करे है जिस-तिस का
हैरती है ये आईना किस का

शाम से ही बुझा सा रहता है
दिल है गोया चिराग मुफलिस का

थे बुरे मुगबचा के तेवर लेक
शैख़ मयखाने से भला खिसका

ताब किस को जो हाल-ए-'मीर' सुने
हाल ही और कुछ है मजलिस का
53.
मेरे संग-ए-मज़ार पर फ़रहाद
रख के तेशा कहे है 'या उस्ताद'

हमसे बिन मर्ग क्या जुदा हो मलाल
जान के साथ है दिल-ए-नाशाद

ख़ाक भी सर पे डालने को नहीं
किस ख़राबे में हम हुए आबाद

सुनते हो तुक सुनो कि फिर मुझ बाद
न सुनोगे ये नाला-ओ-फ़रियाद

हर तरफ़ हैं असीर हम-आवाज़
बाग़ है घर तेरा तो ऐ सय्याद

हमकोमरना ये है के कब होवे
अपनी क़ैद-ए-हयात से आज़ाद
54.
यार बिन तल्ख़ ज़िंदगानी थी
दोस्ती मुद्दई-ए-जानी थी

शेब में फ़ायदा त'म्मुल का
सोचना तब था जब जवानी थी

मेरे क़िस्से से सब की नींदें गईं
कुछ अजब तौर की कहानी थी

कू-ए-क़ातिल से बच के निकला ख़िज़्र
इसी में उसकी ज़िंदगानी थी

फ़ित्र पर भी था 'मीर' के इक रंग
कफ़नी पहनी तो ज़ाफ़रानी थी
55.
यारो मुझे मु'आफ़ करो मैं नशे में हूँ
अब दो तो जाम खाली ही दो मैं नशे में हूँ

माज़ूर हूँ जो पांव मेरा बेतरह पड़े
तुम सरगिरॉं तो मुझसे न हो, मैं नशे में हूँ

या हाथों हाथ लो मुझे मानिन्द -ए-जाम-ए-मय
या थोड़ी दूर साथ चलो मैं नशे में हूँ

भागी नमाज-ए-जुमा तो जाती नहीं है कुछ
चलता हूं मैं भी, टुक तो रहो, मैं नशे में हूं
56.
रही नगुफ़्ता मेरे दिल में दास्ताँ मेरी
न इस दयार में समझा कोई ज़बाँ मेरी

बरंग-ए-सौत-ए-जरस तुझ से दूर हूँ तनहा
ख़बर नहीं है तुझे आह कारवाँ मेरी

उसी से दूर रहा अस्ल-ए-मुद्दा जो था
गई ये उम्र-ए-अज़ीज़ आह रायगाँ मेरी

तेरे फ़िराक़ में जैसे ख़याल मुफ़्लिस का
गई है फ़िक्र-ए-परेशाँ कहाँ कहाँ मेरी

दिया दिखाई मुझे तो उसी का जल्वा "मीर"
पड़ी जहां में जा कर नज़र जहाँ मेरी
57.
शब वह जो पिये शराब निकला
जाना यह कि आफ़्ताब निकला

क़ुरबान-ए-पियाला-ए-मै-ए-नाब
जिससे कि तेरा हिजाब निकला

मस्ती में शराब की जो देखा
आलम ये तमाम ख़्वाब निकला

शैख़ आने को मै-क़दे आया
पर हो के बहुत ख़राब निकला

था ग़ैरत-ए-बादा अक्स-ए-गुल से
जिस जू-ए-चमन से आब निकला
58.
शिकवा करूँ मैं कब तक उस अपने मेहरबाँ का
अल-क़िस्सा रफ़्ता रफ़्ता दुश्मन हुआ है जाँ का

दी आग रंग-ए-गुल ने वाँ ऐ सबा चमन को
याँ हम जले क़फ़स में सुन हाल आशियाँ का

हर सुबह मेरे सर पर इक हादिसा नया है
पैवंद हो ज़मीं का, शेवा इस आसमाँ का

कम-फ़ुर्सती जहाँ के मज्मा की कुछ न पूछो
अहवाल क्या कहूँ मैं, इस मज्लिस-ए-रवाँ का

या रोये, या रुलाये, अपनी तो यूँ ही गुज़री
क्या ज़िक्र हम सफ़ीरां याराँ-ए-शादमाँ का

क़ैद-ए-क़फ़स में हैं तो ख़िदमत है नालिगी की
गुलशन में थे तो हमको मंसब था रौज़ाख्‍वाँ का

पूछो तो 'मीर' से क्या कोई नज़र पड़ा है
चेहरा उतर रहा है कुछ आज उस जवाँ का
59.
शेर के पर्दे में मैंने ग़म सुनाया है बहुत
मर्सिये ने दिल को मेरे भी रुलाया है बहुत

वादी-ओ-कोहसर में मैं रोता हूँ धाड़े मार-मार
दिलबरान-ए-शहर ने मुझको सताया है बहुत

वा नहीं होता किसी से दिल गिरिफ़्ता इश्क़ का
ज़ाहिरा ग़म-गीं उसे रहना ख़ुश आया है बहुत
60.
सहर गह-ए-ईद में दौर-ए-सुबू था
पर अपने जाम में तुझ बिन लहू था

जहाँ पुर है फ़साने से हमारे
दिमाग़-ए-इश्क़ हमको भी कभू था

गुल-ओ-आईना क्या ख़ुर्शीद-ओ-माह क्या
जिधर देखा उधर तेरा ही रू था
61.
हम जानते तो इश्क न करते किसू के साथ,
ले जाते दिल को खाक में इस आरजू के साथ।

नाजां हो उसके सामने क्या गुल खिला हुआ,
रखता है लुत्फे-नाज भी रू-ए-निकू के साथ।

हंगामे जैसे रहते हैं उस कूचे में सदा,
जाहिर है हश्र होगी ऐसी गलू के साथ।

मजरूह अपनी छाती को बखिया किया बहुत,
सीना गठा है 'मीर' हमारा रफू के साथ.
62.
हमारे आगे तेरा जब किसी ने नाम लिया
दिल-ए-सितम-ज़दा को हमने थाम थाम लिया

खराब रहते थे मस्जिद के आगे मयखाने
निगाह-ए-मस्त ने साक़ी का इंतक़ाम लिया

वो कज-रविश न मिला मुझसे रास्ते में कभू
न सीधी तरह से उसने मेरा सलाम लिया

मेरे सलीक़े से मेरी निभी मोहब्बत में
तमाम उम्र मैं नाकामियों से काम लिया

अगरचे गोशा-गुज़ीं हूँ मैं शाइरों में 'मीर'
पर मेरे शोर ने रू-ए-ज़मीं तमाम किया
63.
हर जी हयात का, है सबब जो हयात का
निकले है जी उसी के लिए, कायनात का

बिखरे हैं जुल्फी, उस रूख-ए-आलम फ़रोज पर
वर्न:, बनाव होवे न दिन और रात का

उसके फ़रोग-ए-हुस्न से, झमके है सबमें नूर
शम्म-ए-हरम हो या कि दिया सोमनात का

क्यों मीर तुझ को नाम: सियाही की फ़िक्र है
ख़त्मे-ए-रूसुल सा शख्स है, जामिन नजात का
64.
हस्ती अपनी हबाब की सी है ।
ये नुमाइश सराब की सी है ।।

नाज़ुकी उसके लब की क्या कहिए,
पंखुड़ी इक गुलाब की सी है ।

बार-बार उस के दर पे जाता हूँ,
हालत अब इज्तेराब की सी है ।

मैं जो बोला कहा कि ये आवाज़,
उसी ख़ाना ख़राब की सी है ।

'मीर' उन नीमबाज़ आँखों में,
सारी मस्ती शराब की सी है ।
65.
होती है अगर्चे कहने से यारों पराई बात
पर हमसे तो थमी न कभू मुँह पे आई बात

कहते थे उससे मिलते तो क्या-क्या न कहते लेक
वो आ गया तो सामने उसके न आई बात

बुलबुल के बोलने में सब अंदाज़ हैं मेरे
पोशीदा क्या रही है किसू की उड़ाई बात

इक दिन कहा था ये के ख़ामोशी में है वक़ार
सो मुझसे ही सुख़न नहीं मैं जो बताई बात

अब मुझ ज़ैफ़-ओ-ज़ार को मत कुछ कहा करो
जाती नहीं है मुझसे किसू की उठाई बात
66.
उल्‍टी हो गईं सब तदबीरें, कुछ न दवा ने काम किया
देखा इस बीमारी-ए-दिल ने आख़िर काम तमाम किया

अह्द-ए-जवानी रो-रो काटा, पीरी में लीं आँखें मूँद
यानी रात बहुत थे जागे थे सुबह हुई आराम किया

नाहक़ हम मजबूरों पर ये तोहमत है मुख़्तारी की
चाहते हैं सो आप करें हैं, हमको अबस बदनाम किया

सरज़द हमसे बे-अदबी तो वहशत में भी कम ही हुई
कोसों उस की ओर गए पर सिज्दा हर हर गाम किया

किसका काबा, कैसा किब्ला, कौन हरम है क्या एहराम
कूचे के उसके बाशिन्दों ने, सबको यहीं से सलाम किया

याँ के सुपैद-ओ-सियह में हमको दख्‍ल जो है सो इतना है
रात को रो-रो सुबह किया, या दिन को जूं-तूं शाम किया

'मीर' के दीन-ओ-मज़हब को अब पूछते क्या हो उनने तो
क़श्क़ा खींचा, दैर में बैठा, कब का तर्क इस्लाम किया

1.
नाहक़ हम मजबूरों पर यह तुहमत है मुख़्तारी की
चाहते हैं सो आप करें हैं, हमको अबस बदनाम किया

2.
दिल वो नगर नहीं कि फिर आबाद हो सके
पछताओगे सुनो हो , ये बस्ती उजाड़कर

3.
मर्ग इक मांदगी का वक़्फ़ा है
यानी आगे चलेंगे दम लेकर

4.
कहते तो हो यूँ कहते , यूँ कहते जो वोह आता
सब कहने की बातें हैं कुछ भी न कहा जाता

5.
तड़पै है जब भी सीने में उछले हैं दो-दो हाथ
गर दिल यही है 'मीर' तो आराम हो चुका

6.
सरापा आरज़ू होने ने बन्दा कर दिया हमको
वगर्ना हम ख़ुदा थे,गर दिले-बे-मुद्दआ होते

7.
एक महरूम चले 'मीर' हमीं आलम से
वर्ना आलम को ज़माने ने दिया क्या-क्या कुछ?

8.
हम ख़ाक में मिले तो मिले लेकिन ऐ सिपहर !
उस शोख़ को भी राह पे लाना ज़रूर था

9.
अहदे-जवानी रो-रो काटी, पीरी में लीं आँखें मूँद
यानी रात बहुत थे जागे सुबह हुई आराम किया

10.
रख हाथ दिल पर मीर के दरियाफ़्त कर लिया हाल है
रहता है अक्सर यह जवाँ, कुछ इन दिनों बेताब है

11.
सुबह तक शम्अ सर को धुनती रही
क्या पतंगे ने इल्तमास किया

12.
दाग़े-फ़िराक़-ओ-हसरते-वस्ल, आरज़ू-ए-शौक़
मैं साथ ज़ेरे-ख़ाक़ भी हंगामा ले गया

13.
शुक्र उसकी जफ़ा का हो न सका
दिल से अपने हमें गिला है यह

14.
अपने जी ही ने न चाहा कि पिएं आबे-हयात
यूँ तो हम मीर उसी चश्मे-पे हुए

15.
चमन का नाम सुना था वले न देखा हाय
जहाँ में हमने क़फ़स ही में ज़िन्दगानी की

16.
कैसे हैं वे कि जीते हैं सदसाल हम तो 'मीर'
इस चार दिन की ज़ीस्त में बेज़ार हो गए

17.
तुमने जो अपने दिल से भुलाया हमें तो क्या
अपने तईं तो दिल से हमारे भुलाइये

18.
परस्तिश की याँ तक कि ऐ बुत! तुझे
नज़र में सभू की ख़ुदा कर चले

19.
यूँ कानों कान गुल ने न जाना चमन में आह
सर लो पटक के हम सरे बाज़ार मर गए

20.
सदकारवाँ वफ़ा है कोई पूछ्ता नहीं
गोया मताए-दिल के ख़रीदार मर गए

21.
अपने तो होंठ भी न हिले उसके रू-ब-रू
रंजिश की वजह 'मीर' वो क्या बात हो गई?

22.
'मीर' साहब भी उसके याँ थे पर
जैसे कोई ग़ुलाम होता है

23.
हम सोते ही न रह जाएँ ऐ शोरे-क़यामत !
इस राह से निकले तो हमको भी जगा देना

24.
मस्ती में लग़्ज़िश हो गई माज़ूर रक्खा चाहिए
ऐ अहले मस्जिद ! इस तरफ़ आया हूँ मैं भटका हुआ

25.
आने में उसके हाल हुआ जाए है तग़ईर
क्या हाल होगा पास से जब यार जाएगा ?

26.
बेकसी मुद्दत तलक बरसा की अपनी गोर पर
जो हमारी ख़ाक़ पर से हो के गुज़रा रो गया

27.
हम फ़क़ीरों से बेअदाई क्या
आन बैठे जो तुमने प्यार किया

29.
सख़्त क़ाफ़िर था जिसने पहले 'मीर'
मज़हबे-इश्क़ अख़्तियार किया

30.
आवारगाने-इश्क़ का पूछा जो मैं निशाँ
मुश्तेग़ुबार ले के सबा ने उड़ा दिया

31.
'मीर' बन्दों से काम कब निकला
माँगना है जो कुछ ख़ुदा से माँग

32.
कहता है कौन तुझको याँ यह न कर तू वोह कर
पर हो सके तो प्यारे दिल में भी टुक जगह कर

33.
ताअ़त[ कोई करै है जब अब्र ज़ोर झूमे ?
गर हो सके तो ज़ाहिद ! उस वक़्त में गुनह कर

34.
क्यों तूने आख़िर-आख़िर उस वक़्त मुँह दिखाया
दी जान 'मीर' ने जो हसरत से इक निगह कर

35.
आगे किसू के क्या करें दस्तेतमअ़ दराज़
ये हाथ सो गया है सिरहाने धरे-धरे

36.
न गया 'मीर' अपनी किश्ती से
एक भी तख़्ता पार साहिल तक

37.
गुल की जफ़ा भी देखी,देखी वफ़ा-ए-बुलबुल
इक मुश्त पर पड़े हैं गुलशन में जा-ए-बुलबुल

38.
आग थे इब्तिदा-ए-इश्क़ में हम
हो गए ख़ाक इन्तिहा है यह

40.
पहुँचा न उसकी दाद को मजलिस में कोई रात
मारा बहुत पतंग ने सर शम्अदान पर

41.
न मिल 'मीर' अबके अमीरों से तू
हुए हैं फ़क़ीर उनकी दौलत से हम

42.
काबे जाने से नहीं कुछ शेख़ मुझको इतना शौक़
चाल वो बतला कि मैं दिल में किसी के घर करूँ

43.
काबा पहुँचा तो क्या हुआ ऐ शेख़ !
सअई कर,टुक पहुँच किसी दिल तक

44.
नहीं दैर अगर 'मीर' काबा तो है
हमारा क्या कोई ख़ुदा ही नहीं

45.
मैं रोऊँ तुम हँसो हो, क्या जानो 'मीर' साहब
दिल आपका किसू से शायद लगा नहीं है

46.
काबे में जाँ-ब-लब थे हम दूरी-ए-बुताँ से
आए हैं फिर के यारो ! अब के ख़ुदा के याँ से

47.
छाती जला करे है सोज़े-दरूँ बला है
इक आग-सी रहे है क्या जानिए कि क्या है

48.
याराने दैरो-काबा दोनों बुला रहे हैं
अब देखें 'मीर' अपना रस्ता किधर बने है

49.
क्या चाल ये निकाली होकर जवान तुमने
अब जब चलो दिल पर ठोकर लगा करे है

50.
इक निगह कर के उसने मोल लिया
बिक गए आह, हम भी क्या सस्ते

51.
मत ढलक मिज़्गाँ से मेरे यार सर-अश्के-आबदार
मुफ़्त ही जाती रहेगी तेरी मोती-की-सी आब

52.
दूर अब बैठते हैं मजलिस में
हम जो तुम से थे पेशतर नज़दीक़

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