रूप और यौवन के चंचल विलास के बाद कोकिला अब उस कलुषित जीवन के चिह्न को आँसुओं से धो रही थी। विगत जीवन की याद आते ही उसका दिल बेचैन हो जाता और वह विषाद और निराशा से विकल होकर पुकार उठती हाय ! मैंने संसार में जन्म ही क्यों लिया ? उसने दान और व्रत से उन कालिमाओं को धोने का प्रयत्न किया और जीवन के बसंत की सारी विभूति इस निष्फल प्रयास में लुटा दी। पर यह जागृति क्या किसी महात्मा का वरदान या किसी अनुष्ठान का फल था ? नहीं, यह उस नवजात शिशु के प्रथम दर्शन का प्रसाद था, जिसके जन्म ने आज पन्द्रह साल से उसकी सूनी गोद को प्रदीप्त कर दिया था। शिशु का मुख देखते ही उसके नीले होंठों पर एक क्षीण, करुण, उदास मुस्कराहट झलक गई पर केवल एक क्षण के लिए। एक क्षण के बाद वह मुस्कराहट एक लम्बी साँस में विलीन हो गयी। उस अशक्त, क्षीण, कोमल रुदन ने कोकिला के जीवन का रुख फेर दिया। वात्सल्य की वह ज्योति उसके लिए जीवन-सन्देश और मूक उपदेश थी।
कोकिला ने उस नवजात बालिका का नाम रखा श्रृद्धा। उसी के जन्म ने तो उसमें श्रृद्धा उत्पन्न की थी। वह श्रृद्धा को अपनी लड़की नहीं, किसी देवी का अवतार समझती थी। उसकी सहेलियाँ उसे बधाई देने आतीं; पर कोकिला बालिका को उनकी नजरों से छिपाती। उसे यह भी मंजूर न था कि उनकी पापमयी दृष्टि भी उस पर पड़े। श्रृद्धा ही अब उसकी विभूति, उसकी आत्मा, उसका जीवन-दीपक थी। वह कभी-कभी उसे गोद में लेकर साध से छलकती हुई आँखों से देखती और सोचती क्या यह पावन ज्योति भी वासना के प्रचंड आघातों का शिकार होगी ? मेरे प्रयत्न निष्फल हो जायेंगे ? आह ! क्या कोई ऐसी औषधि नहीं है, जो जन्म के संस्कारों को मिटा दे ? भगवान से वह सदैव प्रार्थना करती कि मेरी श्रृद्धा किन्हीं काँटों में न उलझे। वह वचन और कर्म से, विचार और व्यवहार से उसके सम्मुख नारी-जीवन का ऊँचा आदर्श रखेगी। श्रृद्धा इतनी सरल, इतनी प्रगल्भ, इतनी चतुर थी कि कभी-कभी कोकिला वात्सल्य से गद्गद होकर उसके तलवों को अपने मस्तक से रगड़ती और पश्चात्ताप तथा हर्ष के आँसू बहाती।
सोलह वर्ष बीत गये। पहले की भोली-भाली श्रृद्धा अब एक सगर्व, शांत, लज्जाशील नवयौवना थी, जिसे देखकर आँखें तृप्त हो जाती थीं। विद्या की उपासिका थी, पर सारे संसार से विमुख। जिनके साथ वह पढ़ती थी वे उससे बात भी न करना चाहती थीं। मातृ-स्नेह के वायुमंडल में पड़कर वह घोर अभिमानिनी हो गई थी। वात्सल्य के वायुमंडल, सखी-सहेलियों के परित्याग, रात-दिन की घोर पढ़ाई और पुस्तकों के एकांतवास से अगर श्रृद्धा को अहंभाव हो आया, तो आश्चर्य की कौन-सी बात है ! उसे किसी से भी बोलने का अधिकार न था। विद्यालय में भले घर की लड़कियाँ उसके सहवास में अपना अपमान समझती थीं। रास्ते में लोग उँगली उठाकर कहते 'क़ोकिला रंडी की लड़की है।' उसका सिर झुक जाता, कपोल क्षण भर के लिए लाल होकर दूसरे ही क्षण फिर चूने की तरह सफेद हो जाते। श्रृद्धा को एकांत से प्रेम था। विवाह को ईश्वरीय कोप समझती थी। यदि कोकिला ने कभी उसकी बात चला दी, तो उसके माथे पर बल पड़ जाते, चमकते हुए लाल चेहरे पर कालिमा छा जाती, आँखों से झर-झर आँसू बहने लगते; कोकिला चुप हो जाती। दोनों के जीवन-आदर्शों में विरोध था। कोकिला समाज के देवता की पुजारिन, श्रृद्धा को समाज से, ईश्वर से और मनुष्य से घृणा। यदि संसार में उसे कोई वस्तु प्यारी थी, तो वह थी उसकी पुस्तकें। श्रृद्धा उन्हीं विद्वानों के संसर्ग में अपना जीवन व्यतीत करती, जहाँ ऊँच-नीच का भेद नहीं, जाति-पाँति का स्थान नहीं सबके अधिकार समान हैं। श्रृद्धा की पूर्ण प्रकृति का परिचय महाकवि रहीम के एक दोहे के पद से मिल जाता है
प्रेम सहित मरिबो भलो, जो विष देय बुलाय।
अगर कोई सप्रेम बुलाकर उसे विष दे देता, तो वह नतजानु हो अपने मस्तक से लगा लेती क़िन्तु अनादर से दिये हुए अमृत की भी उसकी नजरों में कोई हकीकत न थी।
एक दिन कोकिला ने आँखों में आँसूभर कर श्रृद्धा से कहा, 'क्यों मन्नी, सच बताना, तुझे यह लज्जा तो लगती ही होगी कि मैं क्यों इसकी बेटी हुई। यदि तू किसी ऊँचे कुल में पैदा हुई होती, तो क्या तब भी तेरे दिल में ऐसे विचार आते ? तू मन-ही-मन मुझे जरूर कोसती होगी। '
श्रृद्धा माँ का मुँह देखने लगी। माता से इतनी श्रृद्धा कभी उसके दिल में पैदा नहीं हुई थी। काँपते हुए स्वर में बोली, 'अम्माँजी, आप मुझसे ऐसा प्रश्न क्यों करती हैं ? क्या मैंने कभी आपका अपमान किया है ? '
कोकिला ने गदगद होकर कहा, 'नहीं बेटी, उस परम दयालु भगवान् से यही प्रार्थना है कि तुम्हारी जैसी सुशील लड़की सबको दे। पर कभी-कभी यह विचार आता है कि तू अवश्य ही मेरी बेटी होकर पछताती होगी। '
श्रृद्धा ने धीर कंठ से कहा, 'अम्माँ, आपकी यह भावना निर्मूल है। मैं आपसे सच कहती हूँ, मुझे जितनी श्रृद्धा और भक्ति आपके प्रति है, उतनी किसी के प्रति नहीं। आपकी बेटी कहलाना मेरे लिए लज्जा की बात नहीं,रव की बात है। मनुष्य परिस्थितियों का दास होता है। आप जिस वायुमंडल में पलीं, उसका असर तो पड़ना ही था; किन्तु पाप के दलदल में फॅसकर फिर निकल आना अवश्य गौरव की बात है। बहाव की ओर से नाव खेले जाना तो बहुत सरल है; किन्तु जो नाविक बहाव के प्रतिकूल खे ले जाता है, वही सच्चा नाविक है। '
कोकिला ने मुस्कराते हुए पूछा, 'तो फिर विवाह के नाम से क्यों चिढ़ती है ? '
श्रृद्धा ने आँखें नीची करके उत्तर दिया 'बिना विवाह के जीवन व्यतीत नहीं हो सकता ? मैं कुमारी ही रहकर जीवन बिताना चाहती हूँ। विद्यालय से निकलकर कालेज में प्रवेश करूँगी, और दो-तीन वर्ष बाद हम दोनों स्वतन्त्र रूप से रह सकती हैं। डाक्टर बन सकती हूँ, वकालत कर सकती हूँ; औरतों
के लिए सब मार्ग खुल गये हैं। '
कोकिला ने डरते-डरते पूछा, 'क्यों, क्या तुम्हारे ह्रदय में कोई दूसरी इच्छा नहीं होती ? किसी से प्रेम करने की अभिलाषा तेरे मन में नहीं पैदा होती ? '
श्रृद्धा ने एक लम्बी साँस लेकर कहा, 'अम्माँजी, प्रेम-विहीन संसार में कौन है ? प्रेम मानव-जीवन का श्रेष्ठ अंग है। यदि ईश्वर की ईश्वरता कहीं देखने में आती है, तो वह केवल प्रेम में। जब कोई ऐसा व्यक्ति मिलेगा; जो मुझे वरने में अपनी मानहानि न समझेगा, तो मैं तन-मन-धन से उसकी पूजा करूँगी,पर किसके सामने हाथ पसारकर प्रेम की भिक्षा माँगूँ ? यदि किसी ने सुधर के क्षणिक आवेश में विवाह कर भी लिया, तो मैं प्रसन्न न हो सकूँगी। इससे तो कहीं अच्छा है कि मैं विवाह का विचार ही छोड़ दूँ। '
इन्हीं दिनों महिला-मंडल का एक उत्सव हुआ। कालेज के रसिक विद्यार्थी काफी संख्या में सम्मिलित हुए। हाँल में तिल-भर भी जगह खाली न थी। श्रृद्धा भी आकर स्त्रियों की सबसे अंत की पंक्ति में खड़ी हो गयी। उसे
यह सब स्वाँग मालूम होता था। आज प्रथम ही बार वह ऐसी सभा में सम्मिलित हुई थी।
सभा की कार्रवाई शुरू हुई। प्रधान महोदय की वक्तृता के पश्चात् प्रस्ताव पेश होने लगे और उनके समर्थन के लिए वक्तृताएं होने लगीं; किन्तु महिलाएं उनकी वक्तृताएं भूल गयीं, या उन पर सभा का रोब ऐसा छा गया कि उनकी वक्तृता-शक्ति लोप हो गयी। वे कुछ टूटे-फूटे जुमले बोलकर बैठने लगीं। सभा का रंग बिगड़ने लगा। कई लेडियाँ बड़ी शान से प्लेटफार्म पर आयीं; किन्तु दो-तीन शब्दों से अधिक न बोल सकीं। नवयुवकों को मजाक उड़ाने का अवसर मिला। कहकहे पड़ने लगे; तालियाँ बजने लगीं। श्रृद्धा उनकी यह दुर्जनता देखकर तिलमिला उठी, उसका अंग-प्रत्यंग फड़कने लगा। प्लेटफार्म पर जाकर वह कुछ इस शान से बोली, कि सभा पर आतंक छा गया। कोलाहल शांत हो गया। लोग टकटकी बाँधकर उसे देखने लगे। श्रृद्धा स्वर्गीय बाला की भाँति धरावाहिक रूप में बोल रही थी। उसके प्रत्येक शब्द से नवीनता, सजीवता और दृढ़ता प्रतीत होती थी। उसके नवयौवन की सुरभि भी चारों ओर फैलकर सभा मंडप को अवाक् कर रही थी। सभा समाप्त हुई। लोग टीका-टिप्पणी करने लगे।
एक ने पूछा, 'यह स्त्री कौन थी भई ! '
दूसरे ने उत्तर दिया- 'उसी कोकिला रंडी की लड़की। '
तीसरे व्यक्ति ने कहा, 'तभी यह आवाज और सफाई है। तभी तो जादू है। जादू है जनाब मुजस्सिम जादू ! क्यों न हो, माँ भी तो सितम ढाती थी। जब से उसने अपना पेशा छोड़ा, शहर बे-जान हो गया। अब मालूम होता
है कि यह अपनी माँ की जगह लेगी। '
इस पर एक खद्दरधारी काला नवयुवक बोला, 'क्या खूब कदरदानी फरमाई है जनाब ने, वाह ! '
उसी व्यक्ति ने उत्तर दिया, 'आपको बुरा क्यों लगा ? क्या कुछ सह्रठ-गाँठ तो नहीं है ? '
काले नवयुवक ने कुछ तेज होकर कहा, 'आपको ऐसी बातें मुँह से निकालते लज्जा भी नहीं आती। '
दूसरे व्यक्ति ने कहा, 'लज्जा की कौन बात है जनाब ? वेश्या की लड़की अगर वेश्या हो, तो आश्चर्य की क्या बात है ? '
नवयुवक ने घृणापूर्ण स्वर में कहा, 'ठीक होगा, आप जैसे बुद्धिमान व्यक्तियों की समझ में ! जिस रमणी के मुख से ऐसे विचार निकल सकते हैं, वह देवी है, रूप को बेचनेवाली नहीं। '
श्रृद्धा उसी समय सभा से जा रही थी। यह अंतिम शब्द उसके कानों में पड़ गये। वह विस्मित और पुलकित होकर वहीं ठिठक गयी। काले नवयुवक की ओर कृतज्ञतापूर्ण दृष्टि से निहारा और फिर बड़ी तेजी से आगे बढ़ गयी; लेकिन रास्ते-भर उसके कानों में उन्हीं शब्दों की प्रतिध्वनि गूँजती रही। अब तक श्रृद्धा की प्रशंसा करनेवाली, उसे उत्साहित करनेवाली केवल उसी की माँ कोकिला थी और चारों ओर वही उपेक्षा थी; वही तिरस्कार ! आज एक अपरिचित, काले किन्तु गौर ह्रदयवाले खद्दरधारी नवयुवक व्यक्ति के मुख का चित्र बराबर उसकी आँखों के सामने नाच रहा था। मन में प्रश्न उठा वह कौन है ? क्या फिर कभी उसके दर्शन होंगे ?
कालेज जाते समय श्रृद्धा उस नवयुवक को खोई हुई आँखों से खोजती। घर पर रोज चिक की आड़ से, रास्ते के आते-जाते लोगों को देखती; लेकिन वह नवयुवक नजर न आता।
कुछ दिनों बाद महिला-मंडल की दूसरी सभा का विज्ञापन निकला। अभी सभा होने को चार दिन बाकी थे। वह चारों दिन श्रृद्धा ने अपना भाषण तैयार करने में बिताये। एक-एक शब्द की खोज में घंटों सिर मारती। एक-एक
वाक्य को बार-बार पढ़ती। बड़े-बड़े नेताओं की स्पीचें पढ़ती और उसी तरह लिखने की कोशिश करती। जब सारी स्पीच पूरी हो गयी, तो श्रृद्धा अपने कमरे में जाकर कुर्सियों और मेजों को संबोधित करके जोर-जोर से पढ़ने लगी। भाषण-कला के सभी लक्षण जमा हो गये थे। उपसंहार तो इतना सुन्दर था कि उसे अपने ही मुख से सुनकर वह मुग्ध हो गयी। इसमें कितना संगीत था, कितना आकर्षण, कितनी क्रांति !
सभा का दिन आ पहुँचा। श्रृद्धा मन-ही-मन भयभीत होती हुई सभा-मंडप में घुसी। हाँल भरा हुआ था और पहले दिन से भी अधिक भीड़ थी। श्रृद्धा को देखते ही जनता ने तालियाँ पीटकर उसका स्वागत किया। कोलाहल होने
लगा और सभी एक स्वर से चिल्ला उठे आप अपनी वक्तृता शुरू करें। श्रृद्धा ने मंच पर आकर एक उड़ती हुई निगाह से जनता की ओर देखा। वह काला नवयुवक जगह न मिलने के कारण अन्तिम पंक्ति में खड़ा हुआ
था। श्रृद्धा के दिल में गुदगुदी-सी होने लगी। उसने काँपते स्वर में अपनी वक्तृता शुरू की। उसकी नजरों में सारा हाँल पुतलियों से भरा हुआ था; अगर कोई जीवित मनुष्य था, तो वही सबसे पीछे खड़ा हुआ काला नवयुवक। उसका मुख उसी की ओर था। वह उसी से अपने भाषण की दाद माँग रही थी। हीरा परखने की आशा जौहरी से ही की जाती है। आधा घंटे तक श्रृद्धा के मुख से फूलों की वर्षा होती रही। लोगों को बहुत कम ऐसी वक्तृता सुनने को मिली थी। श्रृद्धा जब सभा समाप्त होने पर घर चली तो देखा, वही काला नवयुवक उसके पीछे तेजी से चला आ रहा है। श्रृद्धा को यह मालूम था कि लोगों ने उसका भाषण बहुत पसन्द किया है; लेकिन इस नवयुवक की राय सुनने का अवसर उसे नहीं मिला था। उसने अपनी चाल धीमी कर दी। दूसरे ही क्षण वह नवयुवक उसके पास पहुँच गया ! दोनों कई कदम चुपचाप चलते रहे।
अंत में नवयुवक ने झिझकते हुए कहा, 'आज तो आपने कमाल कर दिया ! '
श्रृद्धा ने प्रफुल्लता के ऱेत को दबाते हुए कहा, 'धन्यवाद ! यह आपकी कृपा है। '
नवयुवक ने कहा, 'मैं किस लायक हूँ। मैं ही नहीं, सारी सभा सिर धुन रही थी। '
श्रृद्धा-' 'क्या आपका शुभ-स्थान यहीं है ? '
नवयुवक -'ज़ी हाँ, यहाँ मैं एम.ए. में पढ़ रहा हूँ। यह ऊँच-नीच का भूत न जाने कब तक हमारे सिर पर सवार रहेगा। अभाग्य से मैं भी उन लोगों में हूँ, जिन्हें संसार नीच समझता है। मैं जाति का चमार हूँ। मेरे पिता
स्कूल के इंस्पेक्टर के यहाँ अर्दली थे। उनकी सिफारिश से स्कूल में भरती हो गया। तब से भाग्य से लड़ता-भिड़ता चला आ रहा हूँ। पहले तो स्कूल के मास्टर मुझे छूते ही न थे। वह हालत तो अब नहीं रही किन्तु लड़के अब भी मुझसे खिंचे रहते हैं। '
श्रृद्धा -'मैं तो कुलीनता को जन्म से नहीं, धर्म से मानती हूँ। '
नवयुवक -'यह तो आपकी वक्तृता ही से सिद्ध हो गया है। और इसी से आपसे बातें करने का साहस भी हुआ, नहीं तो कहाँ आप और कहाँ मैं ! '
श्रृद्धा ने अपनी आँखें नीची करके कहा, 'शायद आपको मेरा हाल मालूम नहीं। '
नवयुवक-' बहुत अच्छी तरह से मालूम है। यदि आप अपनी माताजी के दर्शन करवा सकें, तो आपका बड़ा आभारी होऊँगा। '
'वह आपसे मिलकर बड़ी प्रसन्न होंगी ! शुभ नाम ! '
'मुझे भगतराम कहते हैं।'
यह परिचय धीरे-धीरे स्थिर और दृढ़ होता गया; मैत्री प्रगाढ़ होती गयी। श्रृद्धा की नजरों में भगतराम एक देवता थे और भगतराम के समक्ष श्रृद्धा मानवी रूप में देवी थी।
एक साल बीत गया। भगतराम रोज देवी के दर्शन को जाता। दोनों घंटों बैठे बातें किया करते। श्रृद्धा कुछ भाषण करती, तो भगतराम सब काम छोड़कर सुनने जाता। उनके मनसूबे एक थे, जीवन के आदर्श एक, रुचि एक, विचार एक। भगतराम अब प्रेम और उसके रहस्यों की मार्मिक विवेचना करता। उसकी बातों में 'रस' और 'अलंकार' का कभी इतना संयोग न हुआ था। भावों को इंगित करने में उसे कमाल हो गया था। लेकिन ठीक उन अवसरों पर, जब श्रृद्धा के ह्रदय में गुदगुदी होने लगती, उसके कपोल उल्लास से रंजित हो जाते, भगतराम विषय पलट देता और जल्दी ही कोई बहाना बनाकर वहाँ से खिसक जाता। उसके चले जाने पर श्रृद्धा हसरत के आँसू बहाती और सोचती क्या इन्हें दिल से मेरा प्रेम नहीं ?
एक दिन कोकिला ने भगतराम को एकान्त में बुलाकर कहा, 'बेटा ! अब तो मुन्नी से तुम्हारा विवाह हो जाय, तो अच्छा। जीवन का क्या भरोसा। कहीं मर जाऊँ तो यह साध मन ही में रह जाय। '
भगतराम ने सिर हिलाकर कहा, 'अम्माँ, जरा इस परीक्षा में पास हो जाने दो। जीविका का प्रश्न हल हो जाने के बाद ही विवाह शोभा देता है। '
'यह सब तुम्हारा ही है; क्या मैं साथ बाँध ले जाऊँगी ?'
'यह आपकी कृपा है, अम्माँजी; पर इतना निर्लज्ज न बनाइये। मैं तो आपका हो चुका, अब तो आप दुतकारें भी तो इस द्वार से नहीं टल सकता। मुझ जैसा भाग्यवान् संसार में और कौन है। लेकिन देवी के मंदिर में जाने
से पहले कुछ पान-फूल तो होना ही चाहिए।'
साल-भर और गुजर गया। भगतराम ने एम.ए. की उपाधि ली और अपने ही विद्यालय में अर्थशास्त्र का अध्यापक हो गया। उस दिन कोकिला ने खूब दान-पुण्य किया। जब भगतराम ने आकर उसके पैरों पर सिर झुकाया तो उसने उसे छाती से लगा लिया। उसे विश्वास था कि आज भगतराम विवाह के प्रश्न को जरूर छेड़ेगा। श्रृद्धा प्रतीक्षा की मूर्ति बनी हुई थी। उसका एक-एक अंग मानो सौ-सौ तार होकर प्रतिध्वनित हो रहा था। दिल पर एक नशा छाया हुआ था, पाँव जमीन पर न पड़ते थे। भगतराम को देखते ही माँ से बोली, 'अम्माँ, अब हमको एक हलकी-सी मोटर ले दीजिएगा। '
कोकिला ने मुस्कराकर कहा, 'हलकी-सी क्यों ? भारी-सी ले लेना। पहले कोई अच्छा-सा मकान तो ठीक कर लो। '
श्रृद्धा भगतराम को अपने कमरे में बुला ले गयी। दोनों बैठकर नये मकान की सजावट के मनसूबे बाँधने लगे। परदे, फर्श, तस्वीरें सबकी व्यवस्था की गयी। श्रृद्धा ने कहा, 'रुपये भी अम्माँजी से ले लेंगे। '
भगतराम बोला, 'उनसे रुपये लेते मुझे शर्म आएगी। '
श्रृद्धा ने मुस्कराकर कहा, 'आखिर मेरे दहेज के रुपये तो देंगी। '
दोनों घंटे-भर बातें करते रहे। मगर वह मार्मिक शब्द, जिसे सुनने के लिए श्रृद्धा का मन आतुर हो रहा था, आज भी भगतराम के मुँह से न निकला और वह विदा हो गया।
उसके जाने पर कोकिला ने डरते-डरते पूछा, 'आज क्या बातें हुईं ? '
श्रृद्धा ने उसका आशय समझकर कहा, 'अगर मैं ऐसी भारी हो रही हूँ तो कुएं में क्यों नहीं डाल देतीं ? '
यह कहते-कहते उसके धैर्य की दीवार टूट गयी। वह आवेश और वह वेदना, जो भीतर-ही-भीतर अब तक टीस रही थी, निकल पड़ी। वह फूट-फूट कर रोने लगी !
कोकिला ने झुँझलाकर कहा, 'ज़ब कुछ बातचीत ही नहीं करना है, तो रोज आते ही क्यों हैं ? कोई ऐसा घराना भी तो नहीं है, और न ऐसे धन्नासेठ ही हैं। '
श्रृद्धा ने आँखें पोंछकर कहा, 'अम्माँजी, मेरे सामने उन्हें कुछ न कहिए। उनके दिल में जो कुछ है, वह मैं जानती हूँ। वह मुँह से चाहे कुछ न कहें; मगर दिल से कह चुके। और मैं चाहे कानों से कुछ न सुनूँ पर दिल से सब कुछ सुन चुकी। '
कोकिला ने श्रृद्धा से कुछ भी न कहा,; लेकिन दूसरे दिन भगतराम से बोली, 'अब किस विचार में हो, बेटा ? '
भगतराम ने सिर खुजलाते हुए कहा, 'अम्माँजी, मैं तो हाजिर हूँ, लेकिन घरवाले किसी तरह राजी नहीं होते। जरा फुरसत मिले, तो घर जाकर राजी कर लूँ। माँ-बाप को नाराज करना भी तो अच्छा नहीं ! '
कोकिला कुछ जवाब न दे सकी।
भगतराम के माँ-बाप शहर से दूर रहते थे। यही एक उनका लड़का था। उनकी सारी उमंगें उसी के विवाह पर अवलम्बित थीं। उन्होंने कई बार उसकी शादी तय की। पर भगतराम बार-बार यही कहकर निकल जाता कि जब तक नौकर न हो जाऊँगा, विवाह न करूँगा। अब वह नौकर हो गया था, इसलिए दोनों माघ के एक ठण्डे प्रात:काल में लदे-फॅदे भगतराम के मकान पर आ पहुँचे। भगतराम ने दौड़कर उनकी पद-धूलि ली और कुशल आदि पूछने के बाद कहा, 'आप लोगों ने इस जाड़े-पाले में क्यों तकलीफ की ? मुझे बुला लिया होता। '
चौधरी ने अपनी पत्नी की ओर देखकर कहा, 'सुनती हो बच्चा की अम्माँ ! जब बुलाते हैं, तो कहते हैं कि इम्तिहान है, यह है, वह है। जब आ गये, तो कहता है, बुलाया क्यों नहीं ! तुम्हारा विवाह ठीक हो गया है।
अब एक महीने की छुट्टी लेकर हमारे साथ चलना होगा। इसीलिए दोनों आये हैं। '
चौधराइन -- 'हमने कहा, कि बिना गये काम नहीं चलेगा। तो आज ही दरखास दे दो। लड़की बड़ी सुन्दर, पढ़ी-लिखी, अच्छे कुल की है। '
भगतराम ने लजाते हुए कहा, 'मेरा विवाह तो यहीं एक जगह लगा हुआ है, अगर आप राजी हों, तो कर लूँ। '
चौधरी -'इस शहर में हमारी बिरादरी का कौन है, क्यों बच्चा की अम्माँ ?
चौधराइन -'यहाँ हमारी बिरादरी का तो कोई नहीं है। '
भगतराम -'माँ-बेटी हैं। घर में रुपया भी है। लड़की ऐसी है कि तुम लोग देखकर खुश हो जाओगे। मुफ्त में शादी हो जायगी। '
चौधरी -'क्या लड़की का बाप मर गया है ? उसका क्या नाम था ? कहाँ का रहनेवाला है। कुल-मरजाद कैसा है ज़ब तक यह सारी बातें मालूम न हो जायँ, तब तक ब्याह कैसे हो सकता है ! क्यों बच्चा की अम्माँ ? '
चौधराइन -'हाँ, बिना इन बातों का पता लगाये कैसे हो सकता है ? '
भगतराम ने कोई जवाब नहीं दिया।
चौधरी -'यहाँ किस मुहल्ले में रहती हैं माँ-बेटी ? सारा शहर हमारा छाना पड़ा है, हम यहाँ कोई बीस साल रहे होंगे, क्यों बच्चा की अम्माँ ? '
चौधराइन -'बीस साल से ज्यादा रहे हैं। '
भगतराम -'उनका घर नखास पर है। '
चौधरी -'नखास से किस तरफ ? '
भगतराम -'नखास की सामनेवाली गली में पहला मकान उन्हीं का है। सड़क से दिखाई देता है।
चौधरी -'पहला मकान तो कोकिला रण्डी का है। गुलाबी रंग से पुता हुआ है न ? '
भगतराम ने झेंपते हुए कहा, 'ज़ी हाँ, वही मकान है !'
चौधरी -'तो उसमें कोकिला रण्डी नहीं रहती क्या ? '
भगतराम -'रहती क्यों नहीं। माँ बेटी, दोनों ही तो रहती हैं। '
चौधरी -'तो क्या कोकिला रण्डी की लड़की से ब्याह करना चाहते हो ? नाक कटवाने पर लगे हो क्या ? बिरादरी में तो कोई पानी पियेगा नहीं।'
चौधराइन -'लूका लगा दूँगी मुँह में रॉड़ के ! रूप-रंग देखकर के लुभा गये क्या ? '
भगतराम -'मैं तो इसे अपना भाग्य समझता हूँ कि वह अपनी लड़की की शादी मेरे साथ करने को राजी है। अगर वह आज चाहे, तो किसी बड़े-से-बड़े रईस के घर में शादी कर सकती है। '
चौधरी-' रईस उससे ब्याह न करेगा रख लेगा। तुम्हें भगवान् समाई दे तो एक नहीं चार रखो। मरदों के लिए कौन रोक है ! लेकिन जो ब्याह के लिए कहो तो ब्याह वही है, जो बिरादरी में हो। '
चौधराइन -'बहुत पढ़ने से आदमी बौरा जाता है। '
चौधरी -'हम तो गँवार आदमी हैं, पर समझ में नहीं आता कि तुम्हारी यह नीयत कैसे हुई ? रण्डी की बेटी चाहे इन्नर की परी हो, तो भी रण्डी की बेटी है। हम तुम्हारा विवाह वहाँ न होने देंगे। अगर तुमने विवाह किया, तो हम दोनों तुम्हारे ऊपर जान दे देंगे। इतना अच्छी तरह से समझ लेना क्यों बच्चा की अम्माँ ? '
चौधराइन -'ब्याह कर लेंगे, जैसे हँसी-ठट्ठा है ! झाड़ू मार के भगा दूँगी रॉड़ को ! अपनी बेटी अपने घर में रखे। '
भगतराम -'अगर आप लोगों की आज्ञा नहीं है, तो मैं विवाह नहीं करूँगा; मगर मैं किसी दूसरी औरत से भी विवाह न करूँगा। '
चौधराइन -'हाँ, तुम कुँवारे रहो, यह हमें मंजूर है। पतुरिया के घर में ब्याह न करेंगे। '
भगतराम ने अबकी झुँझलाकर कहा, 'आप उसे बार-बार पतुरिया क्यों कहती हैं। किसी जमाने में यह उसका पेशा रहा होगा। आज दिन वह जितने आचार-विचार से रहती है, शायद ही कोई और रहती हो। ऐसा पवित्र आचरण तो मैंने आज तक देखा ही नहीं। '
भगतराम का सारा यत्न विफल हो गया। चौधराइन ने ऐसी जिद पकड़ी कि जौ-भर अपनी जगह से न टली।
रात को जब भगतराम अपने प्रेम-मन्दिर में पहुँचा, तो उसका चेहरा उतरा हुआ था। एक-एक अंग से निराशा टपक रही थी। श्रृद्धा रास्ता देखती हुई घबरा रही थी कि आज इतनी रात तक आये क्यों नहीं। उन्हें क्या मालूम कि मेरे दिल की क्या हालत हो रही है। यार-दोस्तों से छुट्टी मिलेगी, तो भूलकर इधर भी आ जायेंगे।
कोकिला ने कहा, 'मैं तो तुझसे कह चुकी कि उनका अब वह मिजाज नहीं रहा। फिर भी तो तू नहीं मानती। आखिर इस टालमटोल की कोई हद भी है। '
श्रृद्धा ने दुखित होकर कहा, 'अम्माँजी, मैं आपसे हजार बार विनय कर चुकी हूँ कि चाहे लौकिक रूप में कुमारी ही क्यों न रहूँ; लेकिन ह्रदय से उनकी ब्याहता हो चुकी। अगर ऐसा आदमी विश्वास करने के काबिल नहीं है, तो फिर नहीं जानती कि किस पर विश्वास किया जा सकता है। '
इसी समय भगतराम निराशा की मूर्ति बने हुए कमरे के भीतर आये। दोनों स्त्रियों ने उनकी ओर देखा। कोकिला की आँखों में शिकायत थी और श्रृद्धा की आँखों में वेदना। कोकिला की आँखें कह रही थीं, यह क्या तुम्हारे
रंग-ढंग हैं ? श्रृद्धा की आँखें कह रही थीं इतनी निर्दयता !
भगतराम ने धीमे, वेदनापूर्ण स्वर में कहा, 'आप लोगों को आज बहुत देर तक मेरी राह देखनी पड़ी; मगर मैं मजबूर था; घर से अम्माँ और दादा आये हुए हैं; उन्हीं से बातें कर रहा था। '
कोकिला बोली, 'घर पर तो सब कुशल है न ? '
भगतराम ने सिर झुकाये हुए कहा, 'ज़ी हाँ, सब कुशल है। मेरे विवाह का मसला पेश था। पुराने खयाल के आदमी हैं, किसी तरह भी राजी नहीं होते।
कोकिला का मुख तमतमा उठा। बोली, 'हाँ, क्यों राजी होंगे ? हम लोग उनसे भी नीच हैं न; लेकिन जब तुम उनकी इच्छा के दास थे, तो तुम्हें उनसे पूछकर यहाँ आना-जाना चाहिए था। इस तरह हमारा अपमान करके तुम्हें क्या मिला ? यदि मुझे मालूम होता कि तुम अपने माँ-बाप के इतने गुलाम
हो, तो यह नौबत ही काहे को आती ? '
श्रृद्धा ने देखा कि भगतराम की आँखों से आँसू गिर रहे हैं। विनीत भाव से बोली, 'अम्माँजी, माँ-बाप की मरजी का गुलाम होना कोई पाप नहीं है। अगर मैं आपकी उपेक्षा करूँ, तो क्या आपको दु:ख न होगा ? यही हाल उन लोगों का भी तो होगा। ' श्रृद्धा यह कहती हुई अपने कमरे की ओर चली और इशारे से भगतराम को भी बुलाया। कमरे में बैठकर दोनों कई मिनट तक पृथ्वी की ओर ताकते रहे। किसी में भी साहस न था कि उस सन्नाटे को तोड़े। अन्त में भगतराम ने पुरुषोचित वीरता से काम लिया और कहा, 'श्रृद्धा, इस समय मेरे ह्रदय के भीतर तुमुल युद्ध हो रहा है। मैं शब्दों में अपनी दशा बयान नहीं कर सकता। जी चाहता है कि विष खाकर जान दे दूँ। तुमसे अलग रहकर जीवित नहीं रह सकता, केवल तड़प सकता हूँ। मैंने न-जाने उनकी कितनी खुशामद की, कितना रोया, कितना गिड़गिड़ाया; लेकिन दोनों अपनी बातों पर अड़े रहे। बार-बार यही कहते रहे कि अगर यह ब्याह होगा, तो हम दोनों तुम पर अपनी जान दे देंगे। उन्हें मेरी मौत मंजूर है; लेकिन
तुम मेरे ह्रदय की रानी बनो, यह मंजूर नहीं। '
श्रृद्धा ने सान्त्वना देते हुए कहा, 'प्यारे, मुझसे उनका घृणा करना उचित है। पढ़े-लिखे आदमियों में ही ऐसे कितने निकलेंगे। इसमें उनका कोई दोष नहीं। मैं सबेरे उनके दर्शन करने जाऊँगी, शायद मुझे देखकर उनका दिल पिघल जाय। मैं हर तरह से उनकी सेवा करूँगी, उनकी धोतियाँ धोऊँगी, उनके पैर दाबा करूँगी, मैं वह सब करूँगी, जो उनकी मनचाही बहू करती। इसमें लज्जा की कौन-सी बात। उनके तलवे सहलाऊँगी भजन गाकर सुनाऊँगी मुझे बहुत-से दिहाती गीत आते हैं। अम्माँजी के सिर के सफेद बाल चुनूँगी। मैं दया नहीं चाहती, मैं तो प्रेम की चेरी हूँ। तुम्हारे लिए मैं सब कुछ करूँगी। सब कुछ।'
भगतराम को ऐसा मालूम हुआ, मानो उसकी आँखों की ज्योति बढ़ गयी है, अथवा शरीर में कोई दूसरी ज्योतिर्मय आत्मा आ गयी है। उसके ह्रदय का सारा अनुराग, सारा विश्वास, सारी भक्ति आँखों से उमड़कर श्रृद्धा
के पैरों की ओर जाती हुई मालूम हुई, मानो किसी घर से नन्हे-नन्हे लाल कपोलवाले, रेशमी कपड़ोंवाले, घुँघराले बालोंवाले बच्चे हँसते हुए निकलकर खेलने जा रहे हों।
चौधरी और चौधराइन को शहर आये हुए दो सप्ताह बीत गये। वे रोज जाने के लिए कमर कसते; लेकिन फिर रह जाते। श्रृद्धा उन्हें जाने न देती। सबेरे जब उनकी आँखें खुलतीं, तो श्रृद्धा उनके स्नान के लिए पानी तपाती हुई होती, चौधरी को अपना हुक्का भरा हुआ मिलता। वे लोग ज्योंही नहाकर उठते, श्रृद्धा उनकी धोती छाँटने लगती। दोनों उसकी सेवा और अविरत परिश्रम देखकर दंग रह जाते। ऐसी सुन्दर, ऐसी मधुभाषिणी, ऐसी हँसमुख और चतुर रमणी चौधरी ने इंस्पेक्टर साहब के घर में भी न देखी थी। चौधरी को वह देवी मालूम होती और चौधराइन को लक्ष्मी। दोनों श्रृद्धा की सेवा और टहल व प्रेम पर आश्चर्य करते थे; किन्तु तो भी कलंक और बिरादरी का प्रश्न उनके मुँह पर मुहर लगाये हुए था। पन्द्रहवें दिन जब श्रृद्धा दस बजे रात को अपने घर चली गयी, तो चौधरी ने चौधराइन से कहा, 'लड़की तो साक्षात् लक्ष्मी है। '
चौधराइन-' ज़ब मेरी धोती छाँटने लगती है, तो मैं मारे लाज के कट जाती हूँ। हमारी तरह तो इसकी लौंडी होगी। '
चौधरी -'फ़िर क्या सलाह देती हो अपनी बिरादरी में तो ऐसी सुघर लड़की मिलने की नहीं। '
चौधराइन -'राम का नाम लेकर ब्याह करो। बहुत होगा रोटी पड़ जायगी। पाँच बीसी में तो रोटी होती है, कौन छप्पन टके लगते हैं। पहले हमें शंका होती थी कि पतुरिया की लड़की न जाने कैसी हो, कैसी न हो, पर अब सारी शंका मिट गई। '
चौधरी -'ज़ब बातें करती है, तो मालूम होता है, मुँह से फूल झड़ते हैं।'
चौधराइन -'मैं तो उसकी माँ को बखानती हूँ, जिसकी कोख में ऐसी लक्ष्मी जनमी। '
चौधरी -'क़ल चलो, कोकिला से मिलकर सब ठीक-ठाक कर आयें।'
चौधराइन -'मुझे तो उसके घर जाते सरम लगती है। वह रानी बनी बैठी होगी; मैं तो उसकी लौंडी मालूम होऊँगी। '
चौधरी -'तो फिर पाउडर मँगाकर मुँह में पोत लो ग़ोरी हो जाओगी। इंस्पेक्टर साहब की मेम भी तो रोज पाउडर लगाती थीं। रंग तो सांवला था;पर जब पाउडर लगा लेतीं तो मुँह चमकने लगता था। '
चौधराइन -'हँसी करोगे तो गाली दूँगी, हाँ। काली चमड़ी पर कोई रंग चढ़ता है, जो पाउडर चढ़ जायगा ? तुम तो सचमुच उसके चौकीदार से लगोगे। '
चौधरी -'तो कल मुँह-अँधेरे चल दें। अगर कहीं श्रृद्धा आ गयी तो फिर गला न छोड़ेगी। बच्चा से कह देंगे कि पंडित से सायत-मिती सब ठीक कर लो। ' फिर हँसकर कहा, 'उन्हें तो आप ही जल्दी होगी। '
चौधराइन भी पुराने दिन याद करके मुस्कराने लगी। चौधरी और चौधराइन का मत पाकर कोकिला विवाह का आयोजन करने लगी। कपड़े बनवाये जाने लगे। बरतनों की दूकानें छानी जाने लगीं और गहनों के लिए सुनार के पास 'आर्डर' जाने लगे। लेकिन न मालूम क्यों भगतराम के मुख पर प्रसन्नता का चिह्न तक न था। श्रृद्धा के यहाँ नित्य की भाँति जाता; किंतु उदास, कुछ भूला हुआ-सा बैठा रहता था। घंटों आत्म- विस्मृतिकी अवस्था में, शून्य दृष्टि से आकाश अथवा पृथ्वी की ओर देखा करता। श्रृद्धा उसे अपने कीमती कपड़े और जड़ाऊ गहने दिखलाती। उसके अंग-प्रत्यंग से आशाओं की स्फूर्ति छलकी पड़ती थी। इस नशे में वह भगतराम की आँखों
में छिपे हुए आँसुओं को न देख पाती थी। इधर चौधरी भी तैयारियाँ कर रहे थे। बार-बार शहर आते और विवाह के सामान मोल ले जाते। भगतराम के स्वतंत्र विचारवाले मित्र उसके भाग्य पर ईर्ष्या करते थे। अप्सरा-जैसी सुन्दर स्त्री, कारूँ के खजाने-जैसी दौलत, दोनों साथ ही किसे मयस्सर होते हैं ? किन्तु वह, जो मित्रों की ईर्ष्या, कोकिला की प्रसन्नता, श्रृद्धा की मनोकामना और चौधरी और चौधराइन के आनन्द का कारण था, छिप-छिपकर रोता था, अपने जीवन से दु:खी था। चिराग तले अँधेरा छाया हुआ था। इस छिपे हुए तूफान की किसी को भी खबर न थी; जो उसके ह्रदय में हाहाकार मचा रहा था।
ज्यों-ज्यों विवाह का दिन समीप आता था, भगतराम की बनावटी उमंग भी ठण्डी पड़ती जाती थी। जब चार दिन रह गये, तो उसे हलका-सा ज्वर आ गया। वह श्रृद्धा के घर भी न जा सका। चौधरी और चौधराइन तथा
अन्य बिरादरी के लोग भी आ पहुँचे थे; किन्तु सब-के-सब विवाह की धुन में इतने मस्त थे कि किसी का भी ध्यान उसकी ओर न गया। दूसरे दिन भी वह घर से न निकल सका। श्रृद्धा ने समझा कि विवाह की रीतियों से छुट्टी न मिली होगी। तीसरे दिन चौधराइन भगतराम को बुलाने गई, तो देखा कि वह सहमी हुई विस्फारित आँखों से कमरे के एक कोने की ओर देखता हुआ दोनों हाथ सामने किये, पीछे हट रहा है, मानो अपने
को किसी के वार से बचा रहा हो। चौधराइन ने घबराकर पूछा, 'बच्चा, कैसा जी है ? पीछे इस तरह क्यों चले जा रहे हो ? यहाँ तो कोई नहीं है। '
भगतराम के मुख पर पागलों-जैसी अचेतना थी। आँखों में भय छाया हुआ था। भीत स्वर में बोला, 'नहीं अम्माँजी, देखो, वह श्रृद्धा चली आ रही है ! देखो, उसके दोनों हाथों में दो काली नागिनें हैं। वह मुझे उन नागिनों से डसवाना चाहती है ! अरे अम्माँ ! वह नजदीक आ गयी। श्रृद्धा ? श्रृद्धा !! तुम मेरी जान की क्यों बैरिन हो गयी ? क्या मेरे असीम प्रेम का यही परिणाम है ? मैं तो तुम्हारे चरणों पर बलि होने के लिए सदैव तत्पर था। इस जीवन का मूल्य ही क्या है ! तुम इन नागिनों को दूर फेंक दो। मैं यहाँ तुम्हारे चरणों
पर लेटकर यह जान तुम पर न्योछावर कर दूँगा। ... हैं, हैं, तुम न मानोगी ! '
यह कहकर वह चित गिर पड़ा। चौधराइन ने लपककर चौधरी को बुलाया। दोनों ने भगतराम को उठाकर चारपाई पर लिटा दिया। चौधरी का ध्यान किसी आसेब की ओर गया। वह तुरन्त ही लौंग और राख लेकर आसेब उतारने का आयोजन करने लगे ! स्वयं मन्त्र-तन्त्र में निपुण थे। भगतराम का सारा शरीर ठण्डा था; किन्तु सिर तवे की तरह तप रहा था। रात को भगतराम कई बार चौंककर उठा। चौधरी ने हर बार मन्त्रा
फूँककर अपने खयाल से आसेब को भगाया। चौधराइन ने कहा, 'क़ोई डाक्टर क्यों नहीं बुलाते ? शायद दवा से कुछ फायदा हो। कल ब्याह और आज यह हाल। '
चौधरी ने नि:शंक भाव से कहा, 'ड़ाक्टर आकर क्या करेगा। वही पीपलवाले बाबा तो हैं। दवा-दारू करना उनसे और रार बढ़ाना है। रात जाने दो। सबेरा होते ही एक बकरा और एक बोतल दारू उनकी भेंट की जायगी।
बस और कुछ करने की जरूरत नहीं। डाक्टर बीमारी की दवा करता है कि हवा-बयार की ? बीमारी उन्हें कोई नहीं है, कुल के बाहर ब्याह करने ही से देवता लोग रूठ गये हैं। '
सबेरे चौधरी ने एक बकरा मँगाया। स्त्रियाँ गाती-बजाती हुई देवी के चौतरे की ओर चलीं। जब लोग लौटकर आये, तो देखा कि भगतराम की हालत खराब है। उसकी नाड़ी धीरे-धीरे बन्द हो रही थी। मुख पर
मृत्यु-विभीषिका की छाप थी। उसके दोनों नेत्रों से आँसू बहकर गालों पर ढुलक रहे थे, मानो अपूर्ण इच्छा का अन्तिम सन्देश निर्दय संसार को सुना रहे हों। जीवन का कितना वेदना-पूर्ण दृश्य था अह्रसू की दो बूँदें !
अब चौधरी घबराये। तुरन्त ही कोकिला को खबर दी। एक आदमी डाक्टर के पास भेजा। डाक्टर के आने में तो देर थी वह भगतराम के मित्रों में से थे; किन्तु कोकिला और श्रृद्धा आदमी के साथ ही आ पहुँचीं। श्रृद्धा
भगतराम के सामने आकर खड़ी हो गयी। आँखों से आँसू बहने लगे। थोड़ी देर में भगतराम ने आँखें खोलीं और श्रृद्धा की ओर देखकर बोले ' तुम आ गयीं श्रृद्धा, मैं तुम्हारी राह देख रहा था। यह अन्तिम प्यार
लो। आज ही सब 'आगा-पीछा' का अन्त हो जायगा; जो आज से तीन वर्ष पूर्व आरम्भ हुआ था। इन तीनों वर्षों में मुझे जो आत्मिक-यन्त्राणा मिली है, ह्रदय ही जानता है। तुम वफा की देवी हो; लेकिन मुझे रह-रहकर यह भ्रम होता था, क्या तुम खून के असर का नाश कर सकती हो ? क्या तुम एक ही बार में अपनी परम्परा की नीति छोड़ सकोगी ? क्या तुम जन्म के प्राकृतिक नियमों को तोड़ सकोगी ? इन भ्रमपूर्ण विचारों के लिए शोक न करना। मैं तुम्हारे योग्य न था क़िसी प्रकार भी और कभी भी तुम्हारे-जैसा महान् ह्रदय
न बन सका। हाँ, इस भ्रम के वश में पड़कर संसार से मैं अपनी इच्छाएं बिना पूर्ण किये ही जा रहा हूँ। तुम्हारे अगाध, निष्कपट, निर्मल प्रेम की स्मृति सदैव ही मेरे साथ रहेगी। किन्तु हाय अफसोस ...
कहते-कहते भगतराम की आँखें फिर बन्द हो गयीं। श्रृद्धा के मुख पर गाढ़ी लालिमा दौड़ गयी। उसके आँसू सूख गये। झुकी हुई गरदन तन गई। माथे पर बल पड़ गये। आँखों में आत्म-अभिमान की झलक आ गयी। वह
क्षण-भर वहाँ खड़ी रही और दूसरे ही क्षण नीचे आकर अपनी गाड़ी में बैठ गयी। कोकिला उसके पीछे-पीछे दौड़ी हुई आयी और बोली, 'बेटी, यह क्रोध करने का अवसर नहीं है। लोग अपने दिल में क्या कहेंगे। उनकी दशा बराबर बिगड़ती ही जाती है ! तुम्हारे रहने से बुङ्ढों को ढाढ़स बँधा रहेगा।'
श्रृद्धा ने कुछ उत्तर न दिया। कोचवान से कहा, 'घर चलो। कहकर कोकिला भी गाड़ी में बैठ गयी। असह्य शीत पड़ रहा था। आकाश में काले बादल छाये हुए थे। शीतल वायु चल रही थी। माघ के अन्तिम दिवस थे। वृक्ष, पेड़-पौधो भी शीत से अकड़े हुए थे। दिन के आठ बज गये थे, अभी तक लोग रजाई के भीतर मुँह लपेटे हुए थे। लेकिन श्रृद्धा का शरीर पसीने से भीगा हुआ था। ऐसा मालूम होता था कि सूर्य की सारी उष्णता उसके शरीर की रगों में घुस गयी है। उसके होठ सूख गये थे, प्यास से नहीं, आंतरिक धाधाकती हुई अग्नि की
लपटों से। उसका एक-एक अंग उस अग्नि की भीषण आँच से जला जा रहा था। उसके मुख से बार-बार जलती हुई गर्म साँस निकल रही थी, मानो किसी चूल्हे की लपट हो। घर पहुँचते-पहुँचते उसका फूल-सा मुख मलिन हो गया, होंठ पीले पड़ गये, जैसे किसी काले साँप ने डस लिया हो। कोकिला बार-बार अश्रुपूर्ण नेत्रों से उसकी ओर ताकती थी; पर क्या कहे और क्या कहकर समझाये।
घर पहुँचकर श्रृद्धा अपने ऊपर के कमरे की ओर चली, किन्तु उसमें इतनी शक्ति न थी कि सीढ़ियाँ चढ़ सके। रस्सी को मजबूती से पकड़ती हुई किसी तरह अपने कमरे में पहुँची। हाय, आधा ही घंटे पूर्व यहाँ की एक-एक
वस्तु पर प्रसन्नता, आह्लाद, आशाओं की छाप लगी हुई थी; पर अब सब-की-सब सिर धुनती हुए मालूम होती थीं। बड़े-बड़े सन्दूकों में जोड़े सजाये हुए रखे थे, उन्हें देखकर श्रृद्धा के ह्रदय में हूक उठी और वह गिर पड़ी, जैसे विहार करता हुआ और कुलाचें भरता हुआ हिरन तीर लग जाने से गिर पड़ता है।
अचानक उसकी दृष्टि उस चित्र पर जा पड़ी, जो आज तीन वर्ष से उसके जीवन का आधार हो रही थी। उस चित्र को उसने कितनी बार चूमा था; कितनी बार गले लगाया था, कितनी बार ह्रदय से चिपका लिया था।
वे सारी बातें एक-एक करके याद आ रही थीं; लेकिन उनके याद करने का भी अधिकार उसे न था।
ह्रदय के भीतर एक दर्द उठा, जो पहले से कहीं अधिक प्राणांतकारी था ज़ो पहले से अधिक तूफान के समान भयंकर था। हाय ! उस मरनेवाले के दिल को उसने कितनी यंत्रणा पहुँचायी ! भगतराम के अविश्वास का यह
जवाब, यह प्रत्युत्तर कितना रोमांचकारी और ह्रदय-विदारक था। हाय ! वह कैसे ऐसी निठुर हो गयी ! उसका प्यारा उसकी नजरों के सामने दम तोड़ रहा था ! उसके लिए उसकी सान्त्वना के लिए एक शब्द भी मुँह से न
निकला ! यही तो खून का असर है इसके अतिरिक्त और हो ही क्या सकता था। आज पहली बार श्रृद्धा को कोकिला की बेटी होने का पछतावा हुआ। वह इतनी स्वार्थरत, इतनी ह्रदयहीन है आज ही उसे मालूम हुआ। वह त्याग, वह सेवा, वह उच्चादर्श, जिस पर उसे घमंड था, ढहकर श्रृद्धा के सामने गिर पड़ा; वह अपनी ही दृष्टि में अपने को हेय समझने लगी। उस स्वर्गीय प्रेम का ऐसा नैराश्यपूर्ण उत्तर वेश्या की पुत्री के अतिरिक्त और कौन दे सकता है।
श्रृद्धा उसी समय कमरे से बाहर निकलकर, वायु-वेग से सीढ़ियाँ उतरती हुई नीचे पहुँची और भगतराम के मकान की ओर दौड़ी। वह आखिरी बार उससे गले मिलना चाहती थी, अन्तिम बार उसके दर्शन करना चाहती थी। वह अनंत प्रेम के कठिन बंधनों को निभायेगी और अंतिम श्वास तक उसी की ही बनकर रहेगी !
रास्ते में कोई सवारी न मिली। श्रृद्धा थकी जा रही थी। सिर से पाँव तक पसीने से नहाई हुई थी ! न मालूम कितनी बार वह ठोकर खाकर गिरी और फिर उठकर दौड़ने लगी ! उसके घुटनों से रक्त निकल रहा था, साड़ी
कई जगह से फट गई थी, मगर उस वक्त अपने तन-बदन की सुध तक न थी। उसका एक-एक रोआँ सहऱ् कंठ हो-होकर ईश्वर से प्रार्थना कर रहा था कि उस प्रात:काल के दीपक की लौ थोड़ी देर और बची रहे। उनके मुँह
से एक बार 'श्रृद्धा' का शब्द सुनने के लिए उसकी अंतरात्मा कितनी व्याकुल हो रही थी। केवल यही एक शब्द सुनकर फिर उसकी कोई भी इच्छा अपूर्ण न रह जायगी, उसकी सारी आशाएं सफल हो जायँगी, सारी साध पूर्ण हो जायगी।
श्रृद्धा को देखते ही चौधराइन ने उसका हाथ पकड़ लिया और रोती हुई बोली, 'बेटी, तुम कहाँ चली गई थी ? दो बार तुम्हारा नाम लेकर पुकार चुके हैं।'
श्रृद्धा को ऐसा मालूम हुआ, मानो उसका कलेजा फटा जा रहा है। उसकी आँखें पथरा गयीं। उसे ऐसा मालूम होने लगा कि वह अगाध, अथाह समुद्र की भॅवर में पड़ गयी है। उसने कमरे में जाते ही भगतराम के ठंडे
पैरों पर सिर रख दिया और उसे आँखों के गरम पानी से धोकर गरम करने का उपाय करने लगी। यही उसकी सारी आशाओं और कुछ अरमानों की समाधि थी।
भगतराम ने आँख खोलकर कहा, 'क्या तुम हो श्रृद्धा ? मैं जानता था कि तुम आओगी, इसीलिए अभी तक प्राण अवशेष थे। जरा मेरे ह्रदय पर अपना सिर रख दो। हाँ, मुझे अब विश्वास हो गया कि तुमने मुझे क्षमा कर दिया। जी डूब रहा है। तुमसे कुछ माँगना चाहता हूँ, पर किस मुँह से माँगूँ। जब जीते-जी न माँग सका तो अब क्या है ? हमारी अंतिम घड़ियाँ किसी अपूर्ण साध को अपने हिय के भीतर छिपाये हुए होती हैं। मृत्यु पहले हमारी सारी ईर्ष्या, सारा भेदभाव, सारा द्वेष नष्ट करती है। जिनकी सूरत से हमें घृणा होती है, उनसे फिर वही पुराना सौहार्द, पुरानी मैत्री करने के लिए, उनको गले लगाने के लिए हम उत्सुक हो जाते हैं। जो कुछ कर सकते थे और न कर सके उसी की एक साध रह जाती है।' भगतराम ने उखड़े हुए विषादपूर्ण स्वर में अपने प्रेम की पुनरावृत्ति श्रृद्धा के सामने की। उस स्वर्गीय निधि को पाकर वह प्रसन्न हो सकता था, उसका
उपयोग कर सकता था; किन्तु हाय, आज वह जा रहा है, अपूर्ण साधों की स्मृति लिये हुए ! हाय रे, अभागिन साध ! श्रृद्धा भगतराम के वक्षस्थल पर झुकी हुई रो रही थी । भगतराम ने सिर उठाकर उसके मुरझाये हुए, आँसुओं से धोये हुए स्वच्छ कपोलों को चूम लिया; मरती हुई साध की वह अंतिम हँसी थी।
भगतराम ने अवरुद्ध कंठ से कहा, 'यह हमारा और तुम्हारा विवाह है श्रृद्धा यह मेरी अंतिम भेंट है। यह कहते हुए उसकी आँखें हमेशा के लिए बंद हो गयीं ! साध भी मरकर गिर पड़ी।'
श्रृद्धा की आँखें रोते-रोते लाल हो रही थीं। उसे ऐसा मालूम हुआ मानो भगतराम उसके सामने प्रेमालिंगन का संकेत करते हुए मुस्करा रहे हैं। वह अपनी दशा, काल, स्थान, सब भूल गयी। जख्मी सिपाही अपनी जीत का समाचार पाकर अपना दर्द, अपनी पीड़ा भूल जाता है। क्षण भर के लिए मौत भी हेय हो जाती है। श्रृद्धा का भी यही हाल हुआ। वह भी अपना जीवन प्रेम की निठुर वेदी पर उत्सर्ग करने के लिए तैयार हो गयी, जिस पर लैला और मजनूँ, शीरीं और फरहाद नहीं, हजारों ने अपनी बलि चढ़ा दी। उसने चुम्बन का उत्तर देते हुए कहा, 'प्यारे, मैं तुम्हारी हूँ और सदा तुम्हारी ही रहूँगी।'
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