कथागाथा : बटरोही
ख्यात कथाकार बटरोही की ‘किम्पुरुष क्रमश:’ एक महत्वाकांक्षी कहानी है. उसे आख्यान कहना शायद ठीक होगा. एक औपन्यासिक आख्यान, जो जितना रोचक है उतना ही बौद्धिक खुराक से भरपूर. इधर साहित्य और समाज विज्ञान में किनारे कर दी गई अस्मिताओं की पहचान और अन्वेषण के महत्वपूर्ण कार्य समाने आए हैं. इस कहानी में पहाड़ का अतीत भारत के वर्तमान को अजब ढंग से आलोकित करता है. यह कहानी इतिहास, शोध, मिथ और कल्पना का अद्भुत मेल है. इसे धैर्य से पढ़ने की जरूरत है. बटरोही ने इस कहानी में अनेक सार्थक प्रयोग किए हैं.
किम्पुरुष: क्रमशः
बटरोही
इस
कहानी का संबंध दो विचित्र किंतु सत्य घटनाओं के साथ है. पहली घटना 30 अप्रेल, 2013 की है जब उत्तराखंड की राजधानी
देहरादून की नगर निगम पार्षद-प्रत्याशी किन्नर रजनी रावत का चुनाव परिणाम घोषित
हुआ था और दूसरी का संबंध काश्मीरी पंडितों की संस्था ‘पुनम
कश्मीर’ द्वारा 1993
में आयोजित ‘विश्व कश्मीरी पंडित कान्फरैंस’
के साथ है, जब हिंदी के प्रख्यात साहित्यकार
निर्मल वर्मा ने वहाँ मुख्य अतिथि के रूप में व्याख्यान दिया. हालांकि इन दोनों घटनाओं के बीच बीस
वर्षों का अंतराल है, मगर कल रात की बात है, ये दोनों घटनाएँ मेरे सपने में नैनीताल के जीबी पंत चैराहे पर टँगे
ऐसे विशाल घंटे के रूप में बदल गई जहाँ कोई अदृश्य शक्ति इस विशाल घंटे को घनघना
रही थी और वह आवाज़ समूचे ब्रह्मांड को कँपाती हुई चारों दिशाओं में अनंत तक फैली
लाल, हरे, नीले और बैंगनी
रंग की सुरंगों में घुसकर जाने कहाँ गायब हो जाती थीं!... उस वक्त चैराहे पर हमेशा
खड़ी रहने वाली भारत के पूर्व-गृहमंत्री भारतरत्न पंडित गोविंदबल्लभ पंत की,
उन्हीं के आकार की काले संगमरमर की मूर्ति 1858
में नैनीताल में स्थापित प्रथम चर्च ‘सेंट जाॅन इन द
वाइल्डरनैस’ के रूप में बदल गई थी और उसके
आकाशचुंबी नुकीले टावर पर टँगे घंटे के पैंडुलम की जगह पंत जी की मुंडी उसी तरह हिल
रही थी जैसी कि उनके जीवन के उत्तरार्द्ध में इसलिए हिलती रहती थी क्योंकि आज़ादी
की लड़ाई के दौरान उन्होंने पंडित नेहरू पर बरस रही लाठियों को अपनी गर्दन पर झेलकर
उनकी जान बचाई थी. समूचा आज़ाद भारत जानता है कि पंत जी की इसी कृपा की बदौलत भारत
के प्रथम प्रधानमंत्री ने उन्हें देश के सबसे बड़े प्रांत के प्रथम मुख्यमंत्री और
राष्ट्र के दूसरे गृहमंत्री के सम्मान सादर भेंट किया था.
फिलहाल,
‘सेंट जान इन द वाइल्डरनैस’ के टावर के
पैंडुलम रूपी पंत जी की मुंडी, जो इस वक्त महाकाल शिव का खल्वाट माथा लग रही थी, चारों दिशाओं में फैले चार रंगों के सूरजों को बिना एक पल की देर किए
गहरे नीलम के रंग के ब्लैकहोल से वापस खींचने में लगी हुई थी. महाकाल शिव उल्टी
दिशा में लावे की तरह उबल रहे ब्लैकहोल को पंतजी की खोपड़ी रूपी पैंडुलम में स्वाहा
की मुद्रा में झौंकना चाह रहे थे. उनकी जटाएँ, जिन्हें
हमारे समय में ‘शिवालिक’ के
भारतीय भूगोल का बेहद महत्वपूर्ण हिस्सा माना माना जाता था, जाने
कहाँ गायब हो गई थीं और जाने कैसे ब्लैकहोल के गुरुत्व ने अपनी दिशा उल्टी कर ली
थी! मैं समझ रहा था कि ब्लैकहोल के साथ ऐसी छेड़छाड़ कोई नहीं कर सकता था, मगर महाकाल तो कुछ भी कर सकते थे. यह सारा तामझाम उन्हीं का तो बनाया
हुआ था! और उस वक्त सपने में महाकाल का खल्वाट माथा ही तो गृहमंत्री की मुंडी था,
इसलिए कुछ भी दिखाई देना क्यों नहीं संभव हो सकता था!
उसी
वक्त गृहमंत्री की भूमिका निभा रहे महाकाल के मुंड के सामने एक विकट समस्या आ खड़ी
हुई. सैकड़ों वर्षों से राजनैतिक उथल-पुथल के बाद किसी तरह शांत हुई राजधानी दिल्ली
एक बार फिर नए तरह के संकट से जूझने लगी थी. कुछ ही समय पहले पश्चिमी पाकिस्तान से
अपना सब कुछ गँवाकर झुंड-के-झुंड आए हुए विस्थापितों में से सैकड़ों की संख्या में
लोग अपने लिए छत चाहते थे. गुहमंत्री को और तो कोई समाधान नहीं सूझा, उन्होंने बचे शरणार्थियों को ट्रकों में भरकर अपने गृहक्षेत्र
नैनीताल की तराई में भेज दिया. विस्थापितों के सामने अस्तित्व का सवाल था, इसलिए उन्होंने हजारों वर्षों से हिमालय के बर्फीले जल से तर-बतर
भूमि पर उगे विशालकाय वृक्षों, जंगली जानवरों, साँप-कीड़ों,
दैत्याकार मच्छरों और उस धरती पर जाने कब से रहने वाले थारू, बुक्सों और वनगूजरों को एक किनारे समेट कर देखते-देखते अपने आशियाने
बना दिए....
ब्लैकहोल
को अपने सूर्यों की ओर लौटते हुए देखना मेरे लिए एक अविश्वसनीय अनुभव था. अगर उस
वक्त वहाँ स्टीफन हाकिंस मौजूद होते तो वे भी यकीन नहीं करते, लेकिन मैं झूठ नहीं बोल रहा था. सपने में मैंने सचमुच यह देखा था. जब
किसी को मेरी बातों पर विश्वास नहीं हुआ, मैंने खुद ही
अपने-आप को समझाया, हे लक्ष्मण! (जो मेरा घरेलू नाम है)
अगर किन्नर रजनी रावत को किन्नौर की आदिवासी जाति का नाम दिया जा सकता है, हिंदी में नई-कहानी के पहले कहानीकार निर्मल वर्मा आज के काश्मीर को
सिर्फ दो हज़ार वर्ष का अतीत मान सकते हैं तो भारत के प्रथम प्रधानमंत्री की कृपा
से निर्मित गृहमंत्री की खोपड़ी ब्लैकहोल कैसे नहीं हो सकती थी और कैसे नेहरू जैसा
प्रधामंत्री और पंत जैसा गृहमंत्री मिलकर ब्लैकहोल की दिशा नहीं उलट सकते ?
मुझे भरोसा है कि अब आप इस विचित्र किंतु सत्य कहानी पर अवश्य यकीन
कर लेंगे और इसे एक सत्यकथा की तरह पढ़ेंगे.
कश्मीरी
पंडित जवाहरलाल नेहरू का पड़ोसी इलाका किन्नौर
और
राजधानी शिमला में पैदा हुए निर्मल वर्मा
किस्से
की शुरूआत होती है 1985 में प्रकाशित मेरी कहानी ‘किम्पुरुष’ से, जिसे
मैं पूरी तरह भूल चुका था, मगर जिस दिन मैंने गहरे नीलम के रंग
वाले ब्लैकहोल को अपने सूर्यों की ओर लौटने का सपना देखा था, लावे के एक छींटे के रूप में छिटक कर इस कहानी का पीडीएफ जाने कैसे
मेरे कंप्यूटर स्क्रीन पर आ गया. मैं कुछ सँभल पाता, इससे
पहले ही स्क्रीन पर से देहरादून की मेयर प्रत्याशी रजनी रावत का पुरुषनुमा जनाना
चेहरा उभरा और बड़े ही व्यंग्यात्मक लहजे में उसने सवाल दागा, ‘दाज्यू, कहानी तो लिख दी आपने, आपको मालूम भी हैं, ‘किम्पुरुष’ के
मायने क्या होते हैं.?’
मुझे
पसोपेश में पड़ा देखकर अपने हाथ नचाते हुए उसने फिर कहा, ‘कहानी
तो पैदा कर देते हो तुम लेखक लोग, नाम भी बढ़िया-बढ़िया रख लेते हो,
लेकिन बिना अपना नेग लिए मैं तो यहाँ से हटने वाली नहीं!... हाय-हाय,
कैसा जमाना आ गया है ? कौन जाने,
तुम्हारा किम्पुरुष हमारी बिरादरी का हुआ तो!... हाए-हाए... अंगरेजी
की कहानी होती तो मैं इक्यावन हज़ार से एक पैसा कम नहीं लेती. चलो, तुम इकत्तीस हज़ार दे दो. उससे एक भी रुपैया कम नहीं! हिंदी वालों की
हैसियत मुझे मालूम है, इसलिए इतनी रियायत कर रही हूँ....
लेकिन ये भी तब, जब ये कहानी हमारी बिरादरी की नहीं हुई....
‘किम्पुरुष’ का
मतलब बताकर पहले तुम मेरे सवाल का जवाब दो, वरना...
तुम जानते ही हो!...’ उसने ‘विक्रम-बेताल’
वाले कुटिल अंदाज़ में कहा.
मैं
सचमुच घबरा गया था. 1984-85 के उन दिनों को याद करने की कोशिश
करने लगा, जब मैंने कहानी लिखी थी. घबराहट में अपनी घरेलू
लाइब्रेरी टटोलने लगा. काफी उथल-पुथल के बाद आँखों के ठीक सामने वाले रैक में नीली
जमीन पर पीली लिखावट से लिखी इबारत ‘सड़क का भूगोल’
पर नजर पड़ी तो राहत की साँस ली. नई दिल्ली की अन्सारी रोड पर स्थित
नेशनल पब्लिशिंग हाउस के बैनर तले 1985 में यह
कहानी-संग्रह प्रकाशित हुआ था, जिसकी विषय-सूची में छठी कहानी ‘किम्पुरुष’ थी. कहानी का आरंभ रहस्यमय वातावरण के
बीच कुछ संवादों से होता है, जिसे मैंने फौरन रजनी रावत जी को सुना
दिया:
लंबी,
मगर सँकरी खोह के अंदर बसे हुए कोहरे से भरे शहर में प्रवेश करते ही
शिव को एक निर्वस्त्र स्त्री दिखाई दी. स्त्री ने अपना एक स्तन शिव के मुँह के
सामने कर दिया.
‘‘क्या तुमने कहीं व्यवस्था को देखा है ?’’ शिव
ने पसीना पौंछते हुए कहा.
‘‘हाँ, मैं ही तो हूँ’’, और वह गायब हो गई.
शिव
के सामने अब एक मोटा आदमी था - उसके शरीर पर कोई वस्त्र नहीं था. वह पैंट पहने हुए
एक युवक को डाँट रहा था, ’काले पहाड़ पर उगे हुए काफल के पेड़ पर
बैठी हुई लाल गौरैया चिड़िया के बच्चे, तुम जानते हो,
किससे बातें कर रहे हो ?’
पैंट
पहने हुए युवक ने दाहिनी ओर थूक छिटकाते हुए कहा, ‘कोई
नया आदमी मालूम होता है.’
मोटा
नंगा आदमी वहीं जमीन के अंदर धँस गया. युवक ने उस जगह की मिट्टी को अपने बाँए पाँव
से बराबर कर दिया और थूक छिटका कर शिव की ओर देखता हुआ बोला, ‘कोई नया आदमी मालूम होता है.’
पैंट
पहना युवक शिव के सामने आकर खड़ा हो गया. ‘मेरा नाम है
पुरोहित. तुम जानते हो, पुरोहित के क्या मायने होते हैं ?’
‘तुम
जानते हो व्यवस्था कहाँ गई ?’ शिव ने पुरोहित से कहा...
मेयर
प्रत्याशी रजनी रावत को मैंने कहानी का यह आरंभिक हिस्सा सुनाया. मगर उनकी समझ में
कुछ भी नहीं आया. ‘ऐसी ही कहानी लिखते हो तुम हिंदी वाले!’
इससे अच्छे तो दाज्यू हम लोग हुए.... कम-से कम हम लोग अपना नाम तो
जानते हैं! जैसे कि हम हुए किन्नर...’ वह एक खास लय
में गाते-गाते बता रही थीं.
‘कौन
कहता है, तुम्हारा नाम किन्नर है? किन्नर
तो किन्नौर के लोग हुए, हमारे बिरादर.’ मैंने
किसी तरह हिम्मत जुटाकर कहा.
‘तो
फिर तुम ही बताओ क्या माने होते हैं ‘किम्पुरुष’
के, तुम तो हिंदी के लेखक हुए ना!’
ʘʘʘʘʘ
जिन
दिनों मैंने यह कहानी लिखी थी, कई मित्रों ने मुझसे ‘किम्पुरुष’ शब्द का अर्थ पूछा था, क्योंकि यह शब्द कहीं भी प्रचलन में नहीं था. मित्रों की जिज्ञासा
स्वाभाविक थी, क्योंकि कहानी में जिज्ञासा तत्व ही
होता है, जो उसे कहानी बनाता है. अगर शब्द ही समझ में
नहीं आएगा तो आगे पढ़ने की इच्छा भला कैसे जागेगी ? उन
दिनों मुझे ‘किम्पुरुष’ शब्द का अर्थ, ‘‘किन्नर, दोगला, वर्णसंकर और नीच’’ (नालंदा विशाल शब्द सागर; संपादक:
नवल जी, पृष्ठ 235) मालूम था हालांकि मैंने अपनी कहानी में इस शब्द का प्रयोग व्यंजना
में किया था. उन्हीं दिनों जब मैंने हिंदी का सबसे मानक शब्दकोश ‘ज्ञानमंडल’ का ‘वृहत्
हिंदी कोश’ (संपादक: कालिका प्रसाद, राजवल्लभ सहाय और मुकुन्दी लाल श्रीवास्तव) टटोला, वहाँ मुझे इसका एक नया ही अर्थ मिला: ‘‘जम्बू
द्वीप का एक खंड’’ (पृष्ठ: 246). एक तो ‘जम्बू द्वीप’ की भौगोलिक और सांस्कृतिक स्थिति के बारे में मैं कुछ भी नहीं जानता
था; दूसरे, कहानी
के जरिए मैं जो कहना चाहता था, उसका इस ‘जंबू द्वीप’ से कुछ भी लेना-देना नहीं था, इसलिए मैंने किसी भी कोश के अर्थ के बजाय अपने मन से गढ़े गए
व्यंजना-अर्थ को महत्व दिया - ‘एक खंडित
व्यक्तित्व, जिसके शरीर के आवश्यक अंग काट दिए गए
हैं फिर भी वह ‘पूर्ण मनुष्य’ के रूप में अपनी पहचान बनाए रखना चाहता है.’ (अज्ञेय की कहानी ‘खितीन बाबू’
से मैं परिचित था, लेकिन मेरी कहानी का चरित्र उस तरह की भौतिक जिजीविषा वाला नहीं है.)
शायद यह प्रसंग मुझे इतना तंग न करता, अगर मेरे हाथ 1969 में ग्रंथम, कानपुर से प्रकाशित पद्मिनी मेनन द्वारा संपादित ‘पुराण संदर्भ कोश’ न लगा होता. इस कोश के पेज 58 और 235 में ‘जम्बूद्वीप’ और ‘किम्पुरुष’ का अर्थ दिया गया है: ‘‘सप्तद्वीपों (जम्बूद्वीप, प्लक्ष द्वीप, शालभक्ति द्वीप, इक्षुरस द्वीप, क्रौंच द्वीप, पुष्कर द्वीप, शाक द्वीप) में से एक, लवण समुद्र से घिरा हुआ. इसके नौ ‘वर्ष’ अर्थात् विभाग हैं - कुरु वर्ष, हिरण्यमय वर्ष, हरि वर्ष, किम्पुरुष (किन्नर) वर्ष, रम्यक वर्ष, इलाव्रत वर्ष, केतुमाल वर्ष, भद्रश्व वर्ष और भारत वर्ष. किम्पुरुष वर्ष के शासक महाराजा प्रियव्रत के पुत्र अग्नींध्र थे. इसके पाश्र्व में निषाध, हेमकूट, हिमालय आदि पर्वत स्थित हैं.’’ पुराण कोश में ही ‘किम्पुरुष’ का एक अन्य अर्थ दिया गया है, ‘‘कुछ-कुछ पुरुष के समान प्रतीत होने वाले देवता गण.’’
तो
भी, मेरी समस्या ‘जम्बूद्वीप’
या ‘किम्पुरुष’ का
अर्थ जानना नहीं थी. गूगल और विकीपीडिया के जमाने में शब्द के स्रोत का पता लगाना
भला क्या मुश्किल है! मगर मेरे लिए यह शब्द परेशानी का सबब तब बना जब रजनी रावत के
नगर निगम के मेयर का प्रत्याशी बनने के बाद उन्होंने चैदह में से दस प्रत्याशियों
को हराकर तीसरा स्थान प्राप्त किया, जिसमें
सत्ताधारी कांग्रेस भी शामिल है. (2012 के विधान सभा
चुनाव में उन्हें दूसरा स्थान प्राप्त हुआ था, जब
कि सत्ताधारी भाजपा का प्रत्याशी तीसरे नम्बर पर था.) नहीं, मैं
यहाँ भारत में नई उभर रही उस राजनीतिक संस्कृति की बात करने नहीं कर रहा, जिसमें नकारात्मक मत प्रत्याशियों के भाग्य का फैसला करने लगे हैं.
मेरी उलझन का कारण तो एकदम अलग तरह का था, जिसका समकालीन
राजनीति से कोई लेना-देना नहीं है. न तब था, जब
मैंने ‘किम्पुरुष’ कहानी
लिखी थी.
बात
शायद आई-गई हो गई होती, किस्मत का मारा मैं एक दिन गिरिराज
किराडू की एक कहानी से आकर्षित होकर उनकी वाल पर गया तो वहाँ मुझे यू ट्यूब से
शेयर किया हुआ ‘विश्व कश्मीरी पंडित समारोह 1993’
का वीडीओ http://panunkashmir.org/ दिखाई दिया, जिसमें
मुख्य अतिथि के रूप में हमारे समय के प्रख्यात कथाकार-विचारक निर्मल वर्मा का
व्याख्यान था. उनका व्याख्यान सुना तो मैं सचमुच ही चकरा गया. अपने व्याख्यान में
वह भारतीय समाज, स्मृति और परंपरा की जड़ों के बारे में
बता रहे थे और जोर देकर यह बात कह रहे थे कि विगत दो हजार साल पहले काश्मीर में
मौजूद संस्कृति ही भारतीय संस्कृति है. शायद इस बात पर भी मैं ध्यान नहीं देता,
चूँकि काश्मीर भारत का पहाड़ी क्षेत्र है, इसलिए
मैं उस व्याख्यान में खुद के समाज और स्मृति को खोजने लगा. बेहद अंतरंगता से वह
भारतीय स्मृति परंपरा की बातें कर रहे थे, लेकिन यह देखकर
में दंग रह गया कि वहाँ मेरे पर्वतीय समाज की कोई स्मृति ही नहीं थी. पहाड़ के नाम
पर वहाँ सिर्फ दो हजार साल पुराना काश्मीर था जिसे वह ‘भारत’
कह रहे थे. मगर इस भारत में न आज के भारत की कोई छवि थी और न आज के
काश्मीर की. हमारा पहाड़ तो था ही नहीं! मेरी स्मृति का भारत अपने पूर्वजों के ‘आर्यावर्त’ के रूप में आसाम से लेकर काश्मीर होते
हुए अफगानिस्तान तक फैला एक सम्पन्न पर्वतीय प्रदेश तो था ही, वाम-बंगाल और दक्षिण-गुजरात से होते हुए कन्याकुमारी के सागर तक फैला
हुआ अखंड भारत था. यह भारत काश्मीर से कहीं अधिक बड़ा, भव्य
और सांस्कृतिक-बहुलता का देश था. निर्मल वर्मा ने इस बहुलतावादी संस्कृति के भारत
की चर्चा अपने व्याख्यान में अवश्य की, लेकिन उसके
केंद्र में उस बहुसंख्यक हिंदू स्मृति को रखकर देखा, जिसे
उनके हिसाब से इस्लाम की घुसपैठ ने छिन्न-भिन्न कर डाला था. उस भारत में मेरे
पहाड़ी यात्रा-पथों में हजारों सालों से आवागमन कर रहे न तो रूसी, कजाकिस्तानी, दागिस्तानी, ईरानी,
अफगानिस्तानी थे और न यक्ष, गंधर्व, किन्नर, किरात, नाग,
खश, शक, वज्रपाणि,
वरुण और कुबेर जैसे मेरे वे परिजन जो आज भी मेरी स्मृति का अनिवार्य
हिस्सा थे. अपने इन परिजनों के चेहरों के साथ मैं इतना एकाकार हो चुका था कि अब न
उन्हें हमारे बगैर और न हमें उनके बिना अलग से पहचान पाना मुश्किल ही नहीं,
असंभव था.
निर्मल
जी के व्याख्यान का विषय था, ‘काश्मीर समस्या’; जाहिर है कि इसके अंतर्गत ‘समकालीन काश्मीर’
का बिंब होना चाहिए था, जो आज अनेक तरह
के अंतर्विरोधों और समस्याओं से घिरा हुआ होते हुए भी अपनी निजी पहचान की तलाश में
वैसी ही बेचैन करवट ले रहा था, जैसी पिछली चार-पाँच सहस्राब्दियों से
हर सौ-पचास सालों के अंतराल में लेता आ रहा था. इन हजारों सालों में काश्मीर के ही
बर्फीले यात्रा-पथों, दर्रों, ग्लेशियरों आदि को लांघते-फलांगते
कितने ही लोग हमारी धरती में आए, मगर फिर वापस लौटकर नहीं गए. अधिकांश
यहीं के होकर रह गए. निर्मल जी की पूरी चर्चा हिंदू-मुसलमान समस्या पर आकर ठहर गई
थी, जो सांस्कृतिक समन्वय की बातें तो करती थी,
मगर वहाँ रहने वाले लोगें के समन्वय की नहीं... उनकी चिंता का मूल
आधार बाहर से आई संस्कृतियों का यहाँ की मूल हिंदू संस्कृति के साथ समन्वय की थी.
समारोह में काश्मीर के तत्कालीन राज्यपाल जगमोहन के अलावा भारत के अनेक वरिष्ठ
नौकरशाह और चिंतक-लेखक उपस्थित थे.
आप खुद ही सुनें निर्मल वर्मा के व्याख्यान के मुख्य असंपादित
हिस्से:
मंच
पर बैठे हुए मेरे विद्वान् मित्रो और आप सब, जो
इतनी निष्ठा, धैर्य और उम्मीद के साथ सुबह से समूचे
कार्यक्रम को सुन रहे हैं. बहुत-सी महत्वपूर्ण बातें काश्मीर की दुविधा के बारे
में, ट्रेजेडी के बारे में, विडंबनाओं
के बारे में, जो इस प्रश्न के साथ जुड़ी हुई हैं,
सुबह से दुपहर तक, उनके अलग-अलग कोणों पर, बहुत ही विस्तार से रिंपोजे जी ने, जगमोहन
जी ने और आज दुपहर को अन्य विद्वानों ने कला के अनेक पक्षों का architecture,
language जो कि एक देश की, जाति की अस्मिता, identity के साथ जुड़ी हुई चीजें हैं, उन पर प्रकाश डाला है. मुझे इन पहलुओं पर विस्तार से कुछ नहीं कहना
है. मैं केवल उस चीज की ओर आपका ध्यान खींचना चाहूँगा जिस पर इस नाटक का व्यंग्य
निहित है; बड़ा दर्द भरा, बड़ा
पीड़ायुक्त! वह है भारतीय बुद्धिजीवियों की चुप्पी.... क्या कारण है इसका ? क्या डर है ?... तीन-चार लाख लोग अपने घर-बार, अपना देश, अपने परिवारों की स्मृतियाँ, जिनका इतना सुंदर वर्णन सुबह किया गया था... वह घोंसला, जिनमें देवी-देवता वास करते थे और जिन देवताओं के साथ कितनी ही
परंपराओं, कितने ही पुरखों, कितनी
ही पीढ़ियों की स्मृतियाँ जुड़ी थीं. जब हम उन्हें छोड़ते हैं तो आश्चर्य नहीं होना
चाहिए कि हमारे भीतर की आत्मा, हमारी स्मृति, हमारी
अस्मिता कहीं बहुत गरीब हो जाती है, विपन्न हो जाती है,
हम अपने भीतर अपने-आपको बहुत खोखला-सा महसूस करने लगते हैं....
मैं
समझता हूँ, इस पर हमें ध्यान से सोचना चाहिए क्योंकि यह
काश्मीर का ही प्रश्न नहीं है. पिछले 15-20-30
वर्ष से हम बराबर एक झूठी किस्म की राजनीति बरतते रहे हैं जिसका सबसे बड़ा शिकार आज
हमारे काश्मीरी भाई (?-बट.) हैं. और उसका कारण यह है कि हम जो
भारत में रहने वाले बुद्धिजीवी या अपने-आपको चिंतक मानते हैं, लेखक मानते हैं, वो खुद अपनी संस्कृति और परंपरा से
इतने ज्यादा निर्वासित हो गए हैं... कि निर्वासित व्यक्तियों का दुख समझने की
बुद्धि व अंतर्दृष्टि हमारे पास नहीं रह गई है. कितनी बड़ी विडंबना है कि भारत में
तो अल्पसंख्यकों के प्रति इतना ज्यादा प्यार, उन्हें
इतने अधिकार, उनकी सुविधाओं को सुरक्षित रखने के लिए
पूरा एक आंदोलन शुरू करते हैं हमारे सेक्युलर बुद्धिजीवी, लेकिन
जब हमारे देश के एक अंश के अल्पसंख्यकों पर अत्याचार होता है तो वहाँ उनका तर्क
चुप हो जाता है. वहाँ उनका लाजिक नहीं चलता. इस तरह के तर्क की दो कसौटियाँ बरती
जाती हैं....
मैं
आज कितना भारतीय हूँ, ये इस पर निर्भर करता है कि मेरे भीतर
काश्मीर के अतीत की, और जितनी संचित विरासत रही है, उसका कितना अंश मेरे भीतर है.... वह सब संस्कृतियों से थोड़ा-थोड़ा
मिलता-जुलता है, लेकिन उसकी अपनी एक विशिष्ट आत्मा है
और यह विशिष्टता उसे तभी प्राप्त होती है जबकि वह जानता है कि उसके पास अलग-अलग
संप्रदायों की, देश के अलग-अलग हिस्सों की जो विशिष्ट
सांस्कृतिक धरोहर है, उसे प्राप्त करने की क्षमता है!... आज
हम न तो सही अर्थों में भारतीय रहे हैं और न ही उस धार्मिक-आध्यात्मिक उन्मेष को
बचाए रख सके हैं....
हम
काश्मीर का जिक्र इसलिए नहीं करते कि कोई कहेगा कि तिब्बत के बारे में आप क्या
सोचते हैं ? हममें यह हिम्मत नहीं है कि हम कह सकें
कि तिब्बत और काश्मीर दो अलग-अलग समस्याएँ हैं. तिब्बत हमेशा एक स्वायत्त राष्ट्र
रहा है जिसे आज जबरदस्ती चीन का हिस्सा बनाने की कोशिश की जा रही है. जब कि
काश्मीर हमेशा से भारत का अभिन्न अंग रहा है जिसे आज उसे अलग करने की कोशिश की जा
रही है.... (तालियाँ) लेकिन हमारे राजदूत, हमारे diplomat हमारे foreign minister, UNO में हमारे प्रतिनिधि ये बात कहते हुए
कतराते हैं. हमें लगता है कि कहीं चीन रुष्ट न हो जाय, अमरीका
रुष्ट न हो जाय....
सत्य
को पालन करने की राजनीति जब तक हम नहीं अपनाएंगे तब तक हम बराबर अपने को भय का
शिकार बनाते रहेंगे. काश्मीर की समस्या, जैसा कहा गया है,
बहुत आसान है. यह केवल मुसलमानों की, बहुसंख्यकों
की समस्या नहीं है. एक देश का चरित्र इससे नहीं बनता कि वहाँ पर रहने वाले
बहुसंख्यक हैं. उस प्रांत या उस प्रदेश का चरित्र इससे बनता है कि पिछले दो हजार
वर्षों से जो मरे हुए लोग हैं, उसकी स्मृतियाँ भी उस देश की धरती में
वास करती हैं. A culture of a country does’nt cosist of living
people, but also population of people which is dead, memory which is carried by
the cutture and literature of the country. और इसी दृष्टि से मेरी प्रार्थना है आपसे कहीं ज्यादा अपने पर कि
कश्मीर में पहली बार आप सब लोगों ने इस मीटिंग को रखकर, इस
गोष्ठी को रखकर अपने लिए जो किया है वह तो किया ही है, हमारा
बहुत भला किया है....
काश्मीर की समस्या अगर भारतीय संचेतना को एक बार फिर आलोड़ित कर सके तो मैं समझता हूँ, हम सब लोगों को एक बार पुनः काश्मीर के प्रति अपनी कृतज्ञता जतानी होगी....
व्याख्यान
का वीडीओ मैंने कई बार ध्यान से सुना. हिंदी समाज का हिस्सा होने के नाते मैं
निर्मल वर्मा से असहमति जताना चाहता हूँ, मगर क्या मैं आज
के दिन ऐसा कर सकता हूँ ? क्या मेरी बातें हिंदी समाज सुनेगा ?
दरअसल, निर्मल जी की स्थिति उच्च मध्यवर्गीय
अंग्रेजी पढ़े-लिखे भारतीय समाज में वैसी ही है, जैसी
हमारे निम्न मध्यवर्गीय समाज में तुलसीदास की. मैं पसोपेश में हूँ. इस वीडिओ ट्यूब
पर निर्मल जी के अलावा डॉ. नामवर सिंह, डॉ. अंबेडकर,
राजेंद्र यादव, गुलजार, अहमद
फराज, शिव कुमार बलवी, शीन
काफ निजाम, भरत वर्मा, धर्मवीर
भारती, बलराज साहनी आदि के भी फोटो हैं, जो एक-दूसरे के साथ परस्पर असहमतियों के बावजूद हिंदी समाज में वही
प्रतिष्ठा प्राप्त हैं, जो निर्मल जी को है.
ʘʘʘʘʘ
मेरा
इतिहास-बोध गड़बड़ा गया है और मैं एक बार फिर उसी तरह की हीनता-ग्रंथि का शिकार हो
गया हूँ जैसी मुझे संस्कृत के आचार्यों की धाराप्रवाह वक्तृता को सुनते हुए अनुभव
होने लगती है. देखिए न, मेरी चिंता किम्पुरुष, किन्नौर और किन्नर रजनी रावत की थी, और
इनकी चिंता है अतीत का चमकता भारत, गुजरात, सोमनाथ,
कोणार्क और खजुराहो के मंदिर और ग्लोबल साहित्य!... एक चमचमाता,
सम्पन्न, जनेऊ-चोटीधारी, तिलक-त्रिपुंडधारी,
धरती छूती झक्क सफेद धोती पहनने वाला गौरवर्ण भारत!... बहुत आकर्षक
और अनुकरणीय है यह भारत; मगर यह तो मेरा भारत नहीं है! मेरे
परिजनों - गंधर्वों, किन्नरों,
यक्षों, खसों,
दानवों, पिशाचों,
नागों, अप्सराओं,
कंदर्पों, किंपुरुषों...
और उन असंख्य लोगों का भारत कहाँ है जो इन्हीं
पहाड़ों की कठिन धरती के बीच कभी पैदा हुए थे... लोग बाहर से आते गए... अलग-अलग
प्रवरों के अपने यज्ञोपवीतों के साथ, कुछ काश्मीर के
दर्रों-हिमपथों से, कुछ गंगा के तटवर्ती इलाकों से... कभी
इन्हीं पर्वतों की असुरक्षा से मुक्ति पाने के लिए दक्षिण के समुद्री तटों में
छिपे हुए, वर्षों की साधना के बाद अपने हाथों में योग,
वैशेषिक, न्याय, वेदांत
आदि के भारी-भरकम पोथों के साथ लौटते हुए... मगर सैकड़ों वर्षों तक इन बर्फीले
पहाड़ों की धरती को जिन्होंने पवित्र और उर्वर बनाए रखा, सामथ्र्य
भर उनके साथ संघर्ष किया, कुछ को प्यार से मनाया और कुछ को
लड़-झगड़ कर... गौरवर्ण त्रिपुंडधारी लोगों ने यहाँ की उस स्थानीयता को अपनी धरती से
अपदस्त करके, उनके चेहरे और पहचान बिगाड़ कर उन
सीमावर्ती घने जंगलों में खदेड़ दिया, जहाँ उन्हें
अपने बूते एक नई ज़िंदगी शुरू करनी पड़ी... उन एकांत जंगलों में उन्होंने नए सिरे से
अपनी वनवासी संस्कृति अंकुरित की, मगर जब ये गौरवर्णी सत्तासीन हुए,
इन्कें जनजातियों की दया और आरक्षण तो दिया, तब
भी उन्हें अपने ढंग से जीने का अधिकार नहीं दिया.
शायद
यह भी उतना बुरा नहीं हुआ, बुरा अगर हुआ तो उन धरती-पुत्रों को
अपनी स्मृतियों से हमेशा-हमेशा के लिए काट दिया गया. संसार के श्रेष्ठतम नैसर्गिक
सौंदर्य में से अंकुरित किन्नर, किरात, नाग,
यक्षिणियाँ और अप्सराएँ... प्रकृति के सहज संगीत के साथ थिरकने वाले
गंधर्व, कुबेर, दानव, असुर, पिशाच... गौरवर्णों ने इनके चेहरे,
इनकी अस्मिता बदल दी... मुख्यधारा की एक ऐसी संस्कृति पनपा दी जिसके
बीच न इनके लिए जगह थी और न उनके लिए!... एक त्रिशंकु जाति का उदय था यह... जिनके
पास न अपना अतीत था, न स्मृतियाँ और न अपना स्वतंत्र
अस्तित्व. शताब्दियों तक उनके निजीपन को, उनके चेहरों को,
अस्मिता को घिस-घिस कर इतना बदल दिया गया कि वे अपना निजी नाम,
अपनी संज्ञा ही भूल गए... मानो परजीवी लताएँ बन गए... और फिर सैकड़ों
वर्षों के बाद दूसरे गौरवर्ण आए अपने हाथों में मोटी-मोटी पोथियाँ लेकर जिन्होंने
यहाँ मौजूद गौर-वर्णों के साथ मिलकर मूल निवासियों को नए सिरे से परिभाषित किया,
उनका नया नामकरण किया, मगर ये लोग पहले
की ही तरह अपनी जड़ों से कटे रहे! जितना ही अपनी पहचान खोजने की कोशिश करते,
इतना ही एक नई भूल-भुलैया में खोते चले गए! उनके पास इसके अलावा कोई
विकल्प नहीं था कि नई आयातित पहचान के अंग बन पाएँ....
दानपुर के दानवों के वंशज: ठाकुर नरपत सिंह दानू और महेंद्र सिंह
धौनी की लकड़दादी भागा धौन्यानी
छोड़िए
इन बड़े लोगों की बातें. मुझे तो शरण अपने लोगों के बीच ही मिलेगी. मेरे पूर्वज
उत्तराखंड के काली कुमाऊँ क्षेत्र के हैं जो पश्चिमी नेपाल की सीमा को भारत से
जोड़ने वाली काली नदी के किनारे का वन-बहुल क्षेत्र है. (यहाँ पर इस बात का उल्लेख
करने में कोई हर्ज नहीं है कि भारतीय क्रिकेट कप्तान महेंद्र सिंह धौनी के पुरखे
भी यहीं के थे, जिनका आगे विस्तार से वर्णन है.) गाँव
में अभी भी हम दोनों की सैकड़ों नाली जमीन है, हालांकि
उसमें से अधिकांश को दूसरों ने कब्जा लिया है. मेरे और महेंद्र धौनी के पुरखे काली
कुमाऊँ के ‘गुमदेश’ से
सल (चीड़) तथा सेमल (सं. शाल्मलि) वृक्षों की बहुलता के कारण ‘सालम’ नाम से जाना जाने वाले क्षेत्र में आ
गए जो काली कुमाऊँ का पश्चिमी कोना है. इस क्षेत्र की मुख्य नदी पनार के किनारे
महकने वाली ‘सालम की बासमती’ पूरे
इलाके में प्रसिद्ध है. कोई पहाड़ी ऐसा नहीं होगा जो सालम की बासमती के बारे में न
जानता हो. देहरादून की बासमती की तरह यह देखने में सुंदर (तराशी गई-सी) तो नहीं
होती, (इसके दाने हल्के लाल रंग के चैड़े-चपटे आकार के
होते हैं) मगर इसकी खुशबू का मुकाबला संसार की शायद ही कोई बासमती कर सके. हालांकि
अब हालात बदल गए हैं. अधिकांश ग्रामीणों का शहरों की ओर पलायन हो चुका है, सारा इलाका युवाओं से खाली हो चुका है, इसलिए
बासमती बोने का कोई सवाल नहीं है. (महेंद्र सिंह के पिता ठाकुर पान सिंह धौनी
राँची चले गए और इन पंक्तियों के लेखक के पिता ने नैनीताल के भाबर इलाके में शरण
ली.)
हम
दोनों परिवारों की रिश्तेदारी बहुत पुराने समय से दानव वंश के ठाकुर नरपत सिंह
दानू और उसी वंश के मातृ-पक्ष की भागा धौन्यानी से थी और लोक-विश्वासों के अनुसार
नरपत दानू और भागा धौन्यानी के समय के आसपास ही दरद-पैशाची भाषा-परिवार से जुड़ी
पिशाच जाति के हिडिंब की बहिन हिडिंबा के साथ भी अवश्य रही होगी, जो काली कुमाऊँ की ही रहने वाली थी. मगर भाषा-वैज्ञानिक दृष्टि से
सत्य होते हुए भी हममें से कोई भी इन प्राचीन जातियों के साथ अपना संबंध नहीं
जोड़ना चाहता. (‘दानव’ का ‘दानू’ या ‘धौनी’
शब्द-परिवर्तन इसी मानसिकता की उपज रहा होगा.... जैसे किन्नौर के
रहने वालों को ‘किन्नर’ बना
दिया गया.) आज कोई खुद को न ‘किन्नर’ कहलाना
पसंद करता, न दानव और न पिशाच! इस इलाके को आज ‘गुमदेश’ जरूर कहा जाता है जहाँ के
लोक-विश्वासों का स्थानीय लोक गीतों और गाथाओं में क्षेत्र का बड़ा रहस्यमय वर्णन
है. पहले लोग पढ़े-लिखे नहीं थे, इसलिए स्थानीय विश्वास और परंपराएँ समाज को संचालित करते थे...
क्योंकि शेष संसार से कटा हुआ ‘गुम’ देश
था यह... दुर्गम पथरीली पहाड़ियों में फैले घने जंगल, गरजती-उफनती
नदियाँ, उत्तर में हिमालय का अजेय श्वेत विस्तार,
और इस गुमदेश के किनारे से बहती हुई गंगा और उसके गर्भ से उत्पन्न दो
शाखाएँ ‘काली’ और ‘गोरी’!...
बेहद रोचक कहानी है ‘दानवकोट’ के ‘दौंनकोट’ और वहाँ रहने वाले ‘दानव’, ‘दानू’ और ‘दाण’ बन जाने की!
(नीचे
दिए गए तथ्यों को मैंने प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. राम सिंह की किताब ‘राग-भाग काली कुमाऊँ’ से लिया है. डॉ. राम सिंह ने 1962 से 65-66 तक, और
उसके बाद भी समय-समय पर इस क्षेत्र की पैदल यात्रा की, वहाँ
के लोगों के बीच रहकर उनकी परंपराओं, प्रचलित
लोकविश्वासों वहाँ मौजूद पुरातात्विक
अवशेषों, शिलालेखों, ताम्रपत्रों,
पांडुलिपियों आदि का संकलन किया और उसके आधार पर 2002 में 400 पृष्ठों की एक पुस्तक लिखी: ‘राग-भाग काली कुमाऊँ’. ‘राग-भाग’
का मतलब है, लोगों के अपने बारे में संचित विश्वास,
जो उन्हें उनके पुरखों के द्वारा पीढ़ी-दर-पीढ़ी प्राप्त हुए थे. लेखक
के अनुसार, ‘‘इतिहास शब्द जनसामान्य में राजाओं तथा
उनके परिवारों के जीवन, क्रियाकलाप एवं उनसे प्रभावित परिवारों
का लेखा-जोखा माना जाता है. ‘राग-भाग’ कुछ
ऐसी अभिव्यक्ति है जो इतिहास की प्रचलित अवधारणाओं से कुछ हटकर है. वह है, व्यक्तियों, घटनाओं और स्थलों के अतीत के बारे में
अपने पुरखों से सुने गए परंपरागत आख्यान जो कहीं लिखे नहीं गए हैं, मगर समाज के बीच अधिक प्रामाणिक इतिहास की तरह मान्यता-प्राप्त हैं.’’)
उत्तराखंड
के चंपावत कस्बे के विकास-खंड कार्यालय के सिरे वाले टीले को दौंनकोट अथवा दानवकोट
कहा जाता है. इस स्थान का इस उपत्यका की प्राचीन दानव जाति से ऐतिहासिक संबंध है.
सन् 1962 में जब विकास क्षेत्र में कार्यालय एवं आवासीय
भवन बनाए गए थे, कुछ भवनों की नींव खोदते समय मजदूरों
को 7’-8’ लम्बे मिट्टी के पाइप जमीन के भीतर गड़े हुए
मिले थे, ऐसा लोग बताते हैं.... लगातार एक ही सीध में
पकी मिट्टी के पाइपों का चूरा, पुरानी ईंटों के टुकड़े, पत्थर, सभी जंगलों से सेलाखोला की ओर बह रहे
नाले का पानी मिट्टी के पाइपों के जरिए चम्पावत के दुर्ग राजबुङ्ङी (राजप्रासाद)
के आसपास की बस्तियों और बालेश्वर के देवालयों तक के क्षेत्र के लोगों के पेयजल की
आपूर्ति करता होगा....
कुमाऊँ
में चंद राजाओं की गढ़ी चंपावत के वर्तमान बाज़ार वाली पहाड़ी की धार (शिखर) पर मौजूद
है. इसको ‘राजबुङ्ङी’ अर्थात्
‘राजा की गढ़ी’ कहा
जाता है. राजबुङ्ङी का कुल क्षेत्रफल इक्कीस नाली नौ मुट्ठी है, जिसकी आधुनिक नाप 4350 वर्गमीटर है. यह एक अंडाकार टीले पर
बसाया गया है. किले की दीवारों अथवा प्राचीरों की चैड़ाई 3.90
मीटर तक है. इस प्राचीर को बड़ी-बड़ी शिलाओं को तराश कर व्यवस्थित रूप दिया गया है.
इसमें लगे बड़े पत्थरों की नाप इस प्रकार है: 2.50
मीटर लंबाई ग 50 सेमी. ऊँचाई ग 60 मी. चैड़ाई (चैड़ाई एक पहल की). कुछ शिलाओं की माप इससे अधिक भी हो
सकती है. दुर्ग (राजबुङ्ङी) में दक्षिण-पश्चिम की ओर से मुख्य प्रवेश द्वार
(सिंहद्वार) बना है. द्वार 2 मी. खुला, 3
मी. ऊँचा और 4.90 मी. भीतर की ओर अर्थात् उसका गर्भ है,
जो यहाँ पर किले की दीवार की चैड़ाई को भी सूचित करता है. दूसरा द्वार
एकदम पश्चिमोत्तर में है जिसका खुला भाग 1.20
मी. और गर्भ किले की दीवार की चैड़ाई के अनुसार 3.90
मी. है. कहते हैं कि इस द्वार से राज परिवार की स्त्रियाँ दुर्ग से बाहर स्थित
नौले (बावडीनुमा जलघर) में स्नान के लिए जाती थीं. नौला ध्वस्त हो चुका है. द्वार
को बंद करने के लिए लकड़ी के दो कपाट अभी भी विद्यमान हैं, जो
शायद बाद में कभी बनाकर लगाए गए होंगे क्योंकि उनकी बनावट अति साधारण है. द्वार के
अगल-बगल कोठरियाँ-सी बनी हुई हैं जो दुर्ग रक्षकों के लिए बनी होंगी. दुर्ग के ठीक
पूर्व में भी एक साधारण लघु द्वार था, वह भी लगभग
ध्वस्त हो चुका है.
हाल
के वर्षों में दुर्ग के प्राचीरों में लगे पत्थर बड़ी मात्रा में लुढ़क कर गिर गए
हैं. किले का गिरना तो सदियों से चल रहा है. संभवतः पहले लुढ़कने वाली शिलाओं को
लोग अपने मकानों में चुन लेते होंगे जिससे उसका पुराना मलवा कम दीखता है. इधर के
वर्षों में प्राचीन विरासतों के प्रति आई जागरूकता से इन शिलाओं को उठाने का साहस
कम ही लोगों को होने से हाल में गिरी पड़ी शिलाएँ ही अधिक दिखाई देती हैं. सड़कों
बनने और वृक्षों के कट जाने से भी तेजी से राजबुङ्ङी की प्रचीरें प्रतिवर्ष
वर्षाऋतु में मिट्टी पिघलने से लुढ़कती जा रही हैं. इनको संभालकर पूर्ववत् स्थापित
करने की दिशा में कोई प्रयत्न नहीं हुआ है, जिससे
उत्तराखंड की एक अमूल्य धरोहर पर शीघ्र विलुप्ति का खतरा मँडरा रहा है.
लोगों
के बीच प्रचलित जानकारी के अनुसार इस स्थान पर बहुत पहले बहुत बड़ा ‘ऐर का केड़’ (जंगली गुलाब की झाड़ियाँ) था, जिसे चंद राजा (?) ने काटकर बुङ्ङे का निर्माण करवाया.
राजबुङ्ङी के चयन और उसकी स्थापना के बारे में भी अनेक किंवदंतियाँ हैं. तामली के
कंडोला जोशी लोगों की ‘भाग’ है
कि उनके पूर्वज ने, जो बाँसुलीसेरा से आए थे, उक्त स्थान पर राजा को अपना गढ़ बनाने की राय दी थी. कंडोला जोशियों
के पूर्वज ने उस स्थान पर लोहे की कील को इतना गहरा गढ़वा दिया था कि वह शेषनाग के
फन पर आकर गड़ गई थी और उन्होंने राजा के राज्य के अचल होने की घोषणा की थी. किंतु
राजा ने उस कील को उखड़वा कर देख लिया, जिससे चंदों का
राज्य स्थिर नहीं रह सका.
दूसरी
ओर चंपावत के पास ही ‘चानो’ गाँव
के ‘चनै’ (ब्राह्मण,
भट्ट) लोगों का भी इसी प्रकार का दावा है. चंपावत की मूल बस्ती ‘हाट’ कहलाती थी. राजबुङ्ङी के दक्षिणी
सिंहद्वार पर ही चंदों के इष्टदेवता नागनाथ का मंदिर है. इस मंदिर के भीतर नागनाथ
बाबा की समाधि भी बनी हुई है. यहाँ पर राजा कल्याण चंद के काल में ‘सुरराज सद्म तुल्य भवन’ नागनाथ की
स्मृति में बनवाया गया था और इस अवसर से संबंधित एक शिलालेख भी मकानों के मलवे में
कहीं विलीन हो गया होगा. नागनाथ के मंदिर के समीप स्थित भैरव के लिए ‘जतिया’ (भंैसा) काटा जाता था, जिस पर मेलकोट के तड़ागियों का प्रमुख व्यक्ति पहला वार करता था.
नागनाथ
के दक्षिणी ढलान पर नाथों के निवास, प्राचीन झिझाड़
गाँव के अवशेष विद्यमान हैं. राजबुङ्ङी की पहाड़ी के उत्तर-पश्चिमी ढलान में
सेलाखोला गाँव स्थित है. झिझाड़ और सेलाखोला के जोशियों की चंदों के राजकाज में
प्रमुख भूमिका मंत्री, सचिव, बख्शी,
ज्योतिषी के रूप में थी. राजबुङ्ङी के दक्षिण-पूर्वी ढलान पर ‘पौरी’ या प्रहरी लोगों की बस्ती है. किले से
वर्तमान बस स्टेशन के आसपास तक की भूमि का काफी भाग चंद राजाओं के समय से इनको
करमुक्त मिला था. इनकी ‘भाग’ (कथा)
है कि 22 पिड़ाई, 22
नाली और 22 मुट्ठी भूमि के पौरी या पहरी लोग माफीदार थे.
इनका मुख्य कार्य किले की चैकसी रखना अर्थात् दरोगा या कोतवाल का दायित्व संभालना
था. राजाओं के समय संदेशवाहक का काम यही करते थे. इतनी बड़ी जिम्मेदारियों के कारण
चंदों के समय इनका बड़ा सम्मान था. कहते हैं कि गोरखों को कुमाऊँ से बाहर भगाने में
भी राजप्रहरियों ने योगदान दिया था. इनकी भूमि पर ब्राह्मण, क्षत्रिय
तथा अन्य सभी जातियों के लोग ‘खायकर’, ‘सिरतान’
इत्यादि थे. पहरी लोग कुम्हार का कार्य भी अपनी आजीविका के लिए करते
थे. इनके मोहल्ले को इनकी बहुतायत के कारण ‘पहरस्यूड़ा’
या ‘पौरस्यूड़ा’ भी
कहते थे.
दौंनकोट
से हिंगुलादेवी के रास्ते के जंगल में एक नौला और मंदिर के खंडहर हैं जो रुदु
कुमांई (या रुदु कुमयाँ) के बताए जाते हैं. रुदु कुमयाँ ऐतिहासिक व्यक्ति है,
जिसका उल्लेख राजा ज्ञानचंद के ताम्रपत्र शाके 1340 तदनुसार 1428 ई. में उल्लेख है. उसके बारे में
प्रसिद्ध है कि गर्मियाँ आरम्भ होते ही, जब काली कुमाऊँ के
लोग पहाड़ों में अपने घरों को लौट आते थे, रुदु कुमाईं माल
(तराई- भाबर का गर्म इलाका) को चल देता था. आज भी यदि कोई व्यक्ति सामान्य प्रचलन
से विपरीत आचरण करके स्वयं को जोखिम में डालता है, तो
उसके लिए कहा जाता है - ’रुदु कुमाई की माल जाए’ अर्थात् रुदु कुमाई के माल जाने जैसा उल्टा काम करना....
चंपावत
से दक्षिण की ओर गिड्या नदी के उद्गम स्थल की दिशा में कफलाङ से कुछ ऊपर नदी के
पूर्वी ढाल पर एक गाँव चैकुनी है, जिसमें बोरा (क्षत्रिय) लोग रहते हैं.
लोगों का कहना है कि राजा के असहनीय अत्याचार से परेशान होकर उन्होंने ‘लखोर’ कर लिया था, जिसका
खंडहर आज भी मौजूद है. (किसी के अत्याचारों के असह्य हो जाने और उसका प्रतिकार कर
पाने में असमर्थ हो जाने पर पीड़ित परिवार अपने बाल-बच्चों सहित अपने घर के सभी
दरवाजों को बंद करके घर में आग लगाकर जल मरता था, जिसे
‘लखोर’ करना कहा जाता था.
लोगों का विश्वास था कि जीते-जी तो वे कुछ नहीं कर सके, मर
कर वे अपना बदला लेंगे.)...
काली कुमाऊँ के पश्चिम में खिलपित्ती पट्टी, उत्तर में रेगडूबान, उत्तर के पूर्व की ओर प्रवाहित सरयू नदी, दक्षिण में तल्ला देश और एकदम पूर्व में काली नदी के बीच का क्षेत्र गुमदेश पट्टी का है. चंद राजाओं के समय इस इलाके का अत्यधिक सैनिक महत्व था. प्रत्येक चंद-राजा के लिए अपनी शक्ति और सामथ्र्य के प्रदर्शन के लिए डोटी (नेपाल) पर आक्रमण ही प्राथमिकता होती थी. इसलिए इस पूरे क्षेत्र में निवास करने वाले लोगों का बड़ा महत्व था. जनसंख्या और प्रभाव, दोनों दृष्टियों से यहाँ धौनी सबसे आगे हैं. इन लोगों में प्रचलित ‘भाग’ के अनुसार ये लोग उत्तर भारत के किसी ऐतिहासिक नगर से आकर पहले पिथौरागढ़-टनकपुर मार्ग पर ‘धौन’ नामक स्थान पर रुके. इनके पूर्वज दो भाई थे. दोनों भाई राजा के पास आते-जाते रहते थे. एक दिन एक ‘मौन’ (मधुमक्खी) का झुंड उड़ रहा था. बड़े भाई ने राजा से कहा, ये मेरा है. राजा को इस पर आश्चर्य हुआ. उसने पूछा, यह कैसे सम्भव है ? बड़े भाई ने एक मौन के पैर में धागा बाँध दिया. सायंकाल वह मौन उसके पास आ गया. राजा को वह दिखाया गया. राजा उसकी सच्चाई पर प्रसन्न हुआ. तब से छोटा भाई ‘धौन’ में रहने कारण ‘धौनी’ और बड़ा भाई ‘मौनी’ कहलाने लगा. धौनियों के पूर्वज काली कुमाऊँ के सबसे विश्वस्त क्षत्रियों के गाँव ‘शिलंग’ में बसे. चंद राजाओं ने उन्हें पूर्वी सीमा की देखरेख करने का दायित्व सौंपा और वे वहीं अपनी गढ़ी बनाकर रहने लगे. मौनी को कुमाऊँ के पश्चिमी क्षेत्र का महत्वपूर्ण गढ़पति बनाया गया जिन्हें दायित्व सौंप कर राजा निश्चिंत रहता था. कहावत ही है, ‘‘पूर्वो को धौनी, पश्चिमो को मौनी’’ अर्थात् चंद राज्य के पूर्व का खंभा धौनी और पश्चिम का मौनी है....
धौनी
लोगों की एक पुरखिन भागा धौन्यानि (‘धौनी’ का स्त्रीलिंग) के नाम से कुमाऊँ की कुछ लोक गाथाओं में चर्चित है.
उसके वीरतापूर्ण कृत्यों और शारीरिक बल से संबंधित गाथाओं को धान इत्यादि की गुड़ाई
के समय ‘गुड़ौल’ गीतों में लोगों
को उत्साहित करने के लिए गाया जाता था. धौन के वर्तमान बस अड्डे के पास चार-पाँच
कुंतल भारी ग्रेनाइट की चपटी और एक आयताकार शिला पत्थरों के एक चबूतरे पर स्थापित
है. इस पर प्रायः घसियारिनें अपनी दराती घिस कर उनकी धार तेज किया करती हैं. इसे ‘भागा धौन्यानिको उध्यूनो’ (भागा धौन्यानी
की दराती की धार तेज करने का पत्थर) कहा जाता है. कहते हैं कि वह इतनी शक्तिशाली
थी कि इतने भारी ‘उध्यूने’ को,
जो उसके लिए एक मामूली पत्थर का टुकड़ा मात्र था, अपनी घाघरी (लहंगे) के फेटे में लपेट कर घास काटने जाया करती थी.
एक
और ‘भाग’ के अनुसार,
धौनी लोगों के पूर्वज धौन के बाद गुमदेश के ही एक और गाँव नाङिना में
आ गए. उस समय वर्तमान शिलंग गाँव में बैड़वाल (राजपूत) रहते थे. उनके गाँव में कोई
व्यक्ति मरा था. धौनी भी उसे देखने गए. उन्हें देखकर बेड़वाल भयभीत हो गए. बैड़वालों
के भागने का कारण यह बताया जाता है कि धौनियों ने बेड़वालों से नौ बेल कद्दू उगाने
भर की जगह देने को कहा. बैड़वाल राजी थे किंतु कद्दू की बेलें इतनी बढ़ती गईं कि
उनकी काफी जमीन उनसे घिर गई. वचन से बँधे बैड़वालों ने गाँव छोड़ने का निश्चय किया.
उन्होंने अपने खेतों की जुताई करके उनमें कन्न (धान की भूसी) बो दी, ताकि धौनी लोग उनके स्थान के परित्याग के निश्चय से बेखबर रहें.
बैड़वाल गंगोल पट्टी में चले आए और आज तक वहीं हैं. धौनियों ने जब देखा कि काफी समय
हो गया है, बैड़वालों के खेत तो जुते हैं पर उगता हुआ कुछ
नहीं प्रतीत होता तो उन्होंने उनके रीते घरों की तलाशी ली. उनके घरों में जो बचा-खुचा
धान का बीज मिला उसे बो दिया गया. इसलिए आज भी किसी को धोखे में रखने के लिए कोई
युक्ति की जाती है या किसी काम में टालमटोल की जाती है तो लोग कहते हैं, ‘बैड़वालैकि कन्न ब्यवाई’ यानी बैड़वाल की
तरह धान के बीज के बदले भूसी बोकर भ्रमित करने जैसा काम. बैड़वाल स्वयं तो धौनियों
को भ्रमित नहीं कर सके, किंतु अपनी मूर्खता या दुर्बलता के
कारण अपनी मूल भूमि से हाथ धो बैठे....
सिलङ
के धौनियों की नुकीली पहाड़ी पर एक छोटे-से परकोटे से घिरी बस्ती के खंडहर ‘बुङा’ नामक स्थान पर आज भी विद्यमान है.
परकोटे की साधारण पत्थरों से चुनी दीवार के घेरे के भीतर पुराने मकानों के खंडहरों
वाली पुरानी बस्ती बीरान पड़ी है. ये लोग अपना गाँव पहाड़ की चोटी पर बनाते थे और
गाँव के आसपास सुरक्षा के लिए खाई खोद देते थे.... गाँव का मार्ग सँकरा होता है
ताकि शत्रु को आने में और भागने में कठिनाई हो. यह किलेबंदी बाहरी आक्रमण को रोकने
के लिए की जाती थी. गुमदेश के सबसे बड़े भूस्वामी धौनी लोग ही हैं. उनकी सारी भूमि
काफी ढालू और ऊबड़-खाबड़ पहाड़ी ढालों पर कटे सीढ़ीदार खेतों वाली है, जिसमें सिंचाई के साधन उपलब्ध नहीं हैं. इन ढलानों के निचले भूभागों
में थोड़ी सिंचाई वाले खेत भी हैं, पर उनकी संख्या नगण्य ही है. भूमि में
कंकड़-पत्थरों की अधिकता होने के बावजूद इस भूमि में थोड़ी वर्षा हो जाने पर भी धान
की एक विशेष प्रजाति ‘जौल्या’ (जो
यहाँ खूब पसंद किया जाता है) जो असिंचित खेतों में भी बखूबी अच्छी पैदावार देता है,
बोया जाता है. इसके अतिरिक्त यहाँ माष (उड़द) खूब पैदा किया जाता है.
पशुपालन भी सहायक उद्योग है. कहते हैं, लोग जौल्या का
भात, माष की दाल और उसमें गाढ़ा घी डालकर मजे से छककर
मस्त रहते हैं. रबी की फसल में गेहूँ, जौ, मसूर भी हो जाते हैं. जब भूमि में जनसंख्या का दबाव कम था, कहते हैं तब गुमदेश अन्न के मामले में आत्मनिर्भर था.’’
ʘʘʘʘʘ
एक
धौनी ने अपनी बेटी फुंगर (चंपावत से करीब तीन किलोमीटर दूर का गाँव) के बोरा से
ब्याह दी. फुंगर का बोरा अपनी ससुराल शिलंग में प्रायः आया करता था और जब भी
ससुराल आता, अपनी पत्नी को ताने देता रहता,
‘गरखा जै ऊनो, करड़ा चूंल खै ऊनो, पुरानो करकिल्लो खै ऊनो’ (यानी ‘गरखा’ (ठीक-ठाक भरण-पोषण करने वाली जमीन) हो
आऊंगा, लाल चावल का भात खा आऊंगा और पुराने करबिल्ले
का साग खा आऊंगा.) ऐसा कहकर वह अपनी पत्नी को जतलाना चाहता था कि तुम्हारे मायके
वालों का खाना-पीना बहुत घटिया किस्म का होता है. रोज-रोज के इन तानों से उसकी
पत्नी तंग आ चुकी थी. उसने अपने मायके वालों को संदेश भिजवाया कि ‘अगर ‘आप लोगों’ ने
मेरे पति को उसकी हरकतों के लिए मुँहतोड़ जवाब नहीं दिया तो मैं चमलदेव के झूले से
लटक कर आत्महत्या कर दूंगी.’ इस पर दोनों कुलों में शत्रुता हो गई.
फुंगर के बोरा को जब पता चला कि धौनी लोग उसकी हरकतों से चिढ़े हुए हैं, वह अपने दल-बल के साथ धौनियों की ‘धाड़’
(लूटपाट) करने के इरादे से चढ़ आया. धौनियों के चारों धड़े बोरा का
सामना करने के लिए तैयार हुए. सबसे आगे शिलङ के धौनी, उसके
बाद बसकूंनी, नौ ढुंङा और चैप्ता के धौनी लोग एकत्र
होकर ओल्का फरश्याँ नामक स्थान पर आ गए. इनकी सहायता के लिए किमसौन का दाङ (दल) भी
आ पहुँचा. यहाँ पर बोरा को पराजित कर उसके सिर के बाल मूँड दिए गए और उसे बंदी बना
लिया गया. छह मास तक वह बंदी रहा. उसके बाद उसकी पत्नी ने संदेश भिजवाया कि ‘यह धाड़ तो ‘साले-भिना’ (साला-जीजा)
का मजाक था. अब सिर के बाल उग गए होंगे, वापस चले आओ.’
बोरा वापस तो चला आया पर वह अपमान का बदला लेना नहीं भूला. उसने
धौनियों के लिए माल (तराई-भाबर) से आने वाला नमक रोक दिया. नमक न मिलने से धौनी
लोग परेशान हो गए. धौनियों ने पुनः अपने योद्धा तैयार किए और बेलखेत (लध्यों और
क्वेराला गाड़ का संगम स्थल) में बोरा के योद्धाओं को पुनः पराजित कर दिया.
बोरा
धौनियों के हाथ से हुई दूसरी पराजय से बहुत लज्जित हो गया. उसने धौनियों में आपस
में फूट डालने के लिए नया हथकंडा अपनाया. उसने उन्हीं में से एक नेधा नामक धौनी को
उकसाया. किंवदंती के अनुसार नेधा राजा गरुड़ ज्ञानचंद (1374-1419 ई.) का समकालीन था. बोरा ने नेधा को फोड़ लिया. नेधा धौनी अपनी ही
बिरादरी की औरतों की बेइज्जती करने लगा. उसके उत्पात असह्य हो गए. नेधा खुरसिङ
नामक स्थान पर रहता था. धौनियों के दो भाई राय सिंह और जमन सिंह चंपावत में राजा
की सेवा में रहते थे. उन्होंने नेधा धौनी की राजा से शिकायत की और नेधा से लोहा
लेने के लिए रातों-रात किला बनाया. नेधा और अन्य धौनियों के मध्य लड़ाई का मुहूर्त
ब्राह्मणों ने सायंकाल का ठहराया क्योंकि यह समय नेधा के सोने का था. जब नेधा अपने
धर के दुमंजिले में निश्चिंत सो रहा था, उसने निसनी
(लकड़ी की एकल बल्ली पर पैर टिकाने के लिए बने खाँचों वाली कामचलाऊ सीढ़ी, जिसे कुमाउंनी में ‘खुटकौण’ भी
कहते हैं) उठाई नहीं थी. वह सीढ़ी हटाना भूल गया था. उसके शत्रु निसनी से ऊपर की
मंजिल में चढ़ गए. नेधा के घुटनों के नीचे के दोनों पैर काट दिए गए. फिर भी उसने
नीचे छलांग लगा दी. अब वह असहाय था. उसका वध कर दिया गया. उसका परिवार काट डाला
गया. साथ में उसका खुरपाली निवासी ब्राह्मण भी सपरिवार मारा गया. इस प्रकार
धौनियों ने बोहरा की ‘धाड़ फरकाई’ (लूटमार
का बदला चुकाना) कर दी. नेधा के खानदान के बचे-खुचे लोग अब पाली पछाऊं में बस गए
बताए जाते हैं.
महाभारतकालीन ‘गुमदेश’: दानपुर
के दानवों का अतीत
गुमदेश
में मानव सभ्यता के विकास का इतिहास उतना ही प्राचीन है, जितना
कत्यूर घाटी, जागेश्वर, ढिकुली
(रामनगर) और चैखुटिया-बैराठ (अल्मोड़ा) का है. अभी गुमदेश के पुरातात्विक अवशेषों
की पड़ताल होना बाकी है, किंतु यह एक जीवित सच्चाई है कि
प्राचीनता की दृष्टि से शिलङ-चमलदेव, जो गुमदेव का
प्रमुख स्थल है, भारतीय इतिहास और परंपरा के अनेक अवशेष
स्वयं में समेटे हुए है. चमलदेव अर्थात् चैमू के देवालय के रूप में इसकी ख्याति
होने के कारण यह लोकदेवता ‘चमदेवल’ कहलाता
है. यहाँ आठवीं-नवीं शताब्दी का बना प्राचीन शिव मंदिर है, जो
संभवतः उससे भी पहले बने चतुर्मुख (चैमुँह-चैमू) के स्थान पर बनाया गया होगा. यह
एक विशाल चबूतरे पर मजबूती से स्थानीय परतदार बालुज शिलाओं से बना है. शिलाएँ कुछ
पीलापन लिए हैं और तराशने में कुछ कोमल हैं. मंदिर पूरी तरह कुमाऊँ-गढ़वाल की
कत्यूरी शिखर शैली में बना है. मंदिर के शीर्ष पर गजसिंह की मूर्ति बना है. यह शैव
मंदिर है. कुछ खंडित वैष्णव प्रतिमाएँ भी मंदिर में रखी हैं, जो यहाँ पर पहले विद्यमान देवकुल के ध्वस्त मंदिर से उठाकर रखी गई
होंगी. इस स्थान से आधा फर्लांग के लगभग शिलङ गाँव के एक छोटा-सा अत्यंत कलात्मक
अभिप्रायों से युक्त मंदिर है. इसके भीतर एक सुंदर 9ग4 इंच की काले पत्थर पर विष्णु की प्रतिमा है. मूल प्रतिमा का कहीं
पता नहीं है. इसके प्रांगण में तीन ‘बिरखम’ (योद्धाओं के द्वारा स्थापित खंबे के आकार की भारी-भरकम शिलाएँ) जो,
स्थानीय निवासियों के अनुसार 40-50
पूर्व (1930-40 के आसपास), वहाँ
से डेढ़ किमी नीचे ‘बिरखम की गैर’ (वीरखंभों
की घाटी) से उखाड़ कर लाए गए थे. बिखम लगभग पाँच फीट ऊँचे हैं जिनमें से दो मैं लघु
लेख हैं. एक में शाके 1318 (सन् 1396
ई.) श्री ज्ञानचंद राजा देव का नाम स्पष्ट है, अंतिम
पंक्तियों के अक्षर अस्पष्ट हैं. कदाचित् राजा द्वारा भूमिदान को स्पष्ट करता हो.
दूसरे बिरखमक का लेख काफी टूट गया है. मंदिर की बाहरी और भीतरी भित्तियों को अनेक
प्रकार से अलंकृत किया गया है.
शिलङ
गाँव के उत्तर-पश्चिमी ढलान पर, लगभग दो-ढाई फर्लांग की दूरी पर,
‘मड़’ नामक गाँव है, जो
गुमदेश का प्रसिद्ध गाँव है. वर्तमान में चैंमू देवता के भंडार-डोला रखने के स्थान
और चैंमू के पुजारियों के गाँव के रूप में इसकी विशेष ख्यति है. रामनवमी को यहीं
से चैंमू का डोला उठता है. इस पूरे क्षेत्र के इतिहास की दृष्टि से यहाँ प्रचान
स्मारकों का अमूल्य भंडार है. प्राचीन काल में यहाँ कई मंदिर रहे होंगे, जिनमें दो तो स्पष्ट रूप से अभी भी हैं. मूल मंदिर के ध्वस्त होने के
पश्चात् उसकी शिलाओं को तोड़फोड़ कर उल्टे-सीधे, एक
के ऊपर एक रखकर उसके मौलिक स्वरूप को लुप्त कर दिया गया है. गर्भगृह में महिषासुर
मर्दिनी की साढ़े तीन फिट ऊँची प्रतिमा रखी है, उसके
पादपीठ के समीप चार-पाँच छोटी-छोटी मषिासुर मर्दिनी की मूर्तियाँ हैं. इसके
अतिरिक्त विशिष्ट कलात्मक मूर्तियों में शेषशायी विष्णु की छोटी-बड़ी मिलाकर तीन
प्रतिमाएँ हैं. एक बूटधारी औदीच्यवेशीय सूर्य की छोटी प्रतिमा, एक स्थानक विष्णु प्रतिमा हैं जो दोनों अक्षत हैं.
गुमदेश
के शिलङ में प्राचीन स्थापत्य, वास्तुकला के जो नमूने हैं, इस बात के स्पष्ट संकेत हैं कि आगे के पर्वतीय क्षेत्र के कई
महत्वपूर्ण मार्ग के मध्य में ये स्थान पड़ते होंगे, अन्यथा
इनके निर्माण का कोई औचित्य नहीं लगता. शिलङ से पश्चिमी-नेपाली क्षेत्र में काली
नदी को छोटी-छोटी नावों में पार करके आवाजाही निरंतर रहती है. चमलदेव के प्श्चात्
तल्ला वल्दिया पट्टी के आठगाँव में स्थित नकलेसर और मसौली में उसी के समकालीन
नवीं-दसवीं शताब्दी के वैष्णव मंदिरों के समूहों के अवशेष मौजूद हैं. उसी घाटी में
सीधे आगे निकलकर महर पट्टी के भीतर तपस्यूड़ा और कासनी में भी उसी युग की सभ्यता और
संस्कृति के घ्वंसावशेषों की कड़ियाँ मौजूद हैं. चंदों से पूर्व वर्तमान वर्तमान
पश्चिमी नेपाल के प्राचीन भूभागों सहित समस्त मध्यवर्ती हिमालय किसी एक राजनीतिक
इकाई से शासित था. यह मार्ग कालीपार और वार के मध्य जोड़ने वाली कड़ी का काम करता
होगा. प्राचीन काल के एक अत्यंत महत्वपूर्ण ऐतिहासिक मार्ग में चमलदेव तथा यहाँ
स्थित मंदिरों की केंद्रीय स्थिति रही होगी. वर्तमान पश्चिमी नेपाल तथा इस ओर के
भारतीय क्षेत्रों से जोड़ने वाले इन मार्गों से यातायात, व्यापार,
धर्मयात्राएँ और सांस्कृतिक आदान-प्रदान से हमेशा चहल-पहल रहती होगी.
सूखीढाँक
से पूर्वोत्तर दिशा के अंतिम छोर पर लगभग दस किलोमीटर की दूरी पर निंगाली नामक जगह
में पिछली सदी में अलग-अलग स्थानों में आकर भैंसपालकों के बसने से एक गाँव बन गया
है. थोड़ी-बहुत खेती-पाती के साथ प्शुओं, मुख्यतः भैंसों
का पालन इस गाँव के लोगों का व्यवसाय है. इतिहासकार डॉ. राम सिंह ने इस क्षेत्र के
एक प्रगतिशील सामाजिक कार्यकर्ता एवं विचारक स्व. कर्म सिंह भंडारी के हवाले से
कहा है कि गुमदेश कई अज्ञातनामा, नितांत आदिम अवस्था में जीवन-यापन करने
वाली जातियों का इलाका है. वहाँ एक ‘कमयून’ गाँव है जहाँ कुछ कमयून या कुमाईं जाति के लोग रहते हैं, जिनका दावा है कि वे कुमाऊँ के सबसे प्राचीन निवासी हैं. निंगाली
गाँव के ठीक पूर्वी शिखर पर पूर्णागिरी शैल पर देवी का प्राचीन मंदिर है.
निंगाली
गाँव के उत्तर की ओर के टीले को ‘हस्तिनापुरैकि धार’ (हस्तिनापुर का शिखर) कहा जाता है और उसी से सटी दूसरी शाखा को ‘दिल्ली को डिंड़ो’ (दिल्ली की पहाड़ी) नाम दिया गया है.कुमाऊँ
में प्रचलित पांडवों की विस्तृत जागर-गाथा के अनुसार सफेद हिरन (सेतो गिंडो) का यह
विश्राम और पानी पीने का स्थान था, जिसकी पांडवों को अपने अश्वमेध यज्ञ के
समापन के निमित्तआवश्यकता थी. हस्तिनापुर की इस ‘धार’
(पर्वत-स्कंध) में ही पांडवों से जुड़ी लोक-गाथाओं के सभी प्रसंगों का
उल्लेख है. इसका कारण यह है कि यहाँ से कुछ दूर प्राचीन ब्रह्मदेव मंडी के आसपास
के स्थलों में प्राचीन ईंटों से बनी वेदियों के अंश और इसी प्रकार के कुछ अंश
प्राचीनता के संकेतों के रूप में मिलते हैं. (छठी सदी के चीनी यात्री ह्वेनत्सांग
ने अपने यात्रा-पथ में ‘ब्रह्मपुर’ का
उल्लेख किया ह, जो यही क्षेत्र है.)
देवीधूरा का पाषाण युद्ध और पृथ्वी की प्रतीक बाराहीदेवी का मंदिर
काली
कुमाऊँ योद्धाओं का क्षेत्र है, अतः यहाँ की सभी परंपराएँ शक्ति (ताकत)
से जुड़ी हुई हैं. दानवों की भूमि होने के कारण संभवतः न्याय पक्ष के लिए सहज ही
अपने प्राण उत्सर्ग करने की प्रवृत्ति यहाँ के लोगों के संस्कार में है. यहाँ का
पाषाण युद्ध (बग्वाल) पूरे प्रदेश में विख्यात है जिसे अब प्रदेश में सांस्कृतिक
उत्सव के रूप में मनाया जाता है, हालांकि, सभी
अन्य स्थानों की तरह, इसका मूल स्वरूप नष्ट हो गया है.
लोहाघाट,
हल्द्वानी, नैनीताल और अल्मोड़ा को जाने वाले
राष्ट्रीय राजमार्ग में पश्चिम दिशा की ओर लोहाघाट से सिर्फ 45 किलोमीटर की दूरी पर कुमाऊँ का अत्यंत प्रतिष्ठित एवं सुप्रसिद्ध
बाराही देवी का शक्तिपीठ देवीधूरा के नाम से प्रसिद्ध है. यह स्थान समुद्र सतह से 7000 फीट की ऊँचाई वाले धरातलीय उभार पर स्थित है. गर्सलेख से देवीधूरा
की ओर निरंतर धरातल उठता जाता है और देवीधूरा तक उसकी आकृति विशाल कछुए की पीठ की
भाँति मंद ढाल वाले खुले पठार के रूप में बदल जाती है. देवीधूरा की उत्तल वेदिका
में हल्की सफेदी के बीच-बीच में काले टिप्पों वाले छींट की चादर ओढ़े हुए-से बालुज
विशाल शिलाखंड यत्र-तत्र कहीं समूह में तो कहीं एक-दो संख्या में बिखरे पड़े हैं.
यद्यपि आसपास की सभी पहाड़ियों, उपत्यकाओं, घाटियों
में इनकी भरमार है फिर भी यहाँ पर ये अधिक वृहदाकार और ठोस हैं जो करोड़ों वर्षों
से पूर्व के धरातलीय अपरदन या महान् हिमयुगीन ग्लेशियरों की मोटी चादर के भीतर ढके
अवसाद के रूप में अब तक विद्यमान हैं. यह सारा क्षेत्र विस्तृत चरागाहों का रहा
होगा, जिसमें भैंस-पालकों के ग्रीष्म और वर्षाकालीन
अस्थायी निवास भी रहे होंगे. इन्हीं पशुपालक चरवाहों की आवाजाही से इस स्थान को
दैवी स्वरूप दिया गया होगा. यहाँ पर प्राप्त पुरातात्विक अवशेषों से सभ्यता के
विभिन्न चरणों के विकास की एक धुँधली तस्वीर देखी जा सकती है. आज भी देवीधूरा के
कई स्थानों में खेत बनाते या नए मकान की नींव खोदते समय मनुष्य की हड्डियों या
कंकालों के अवशेष मिलते हैं. अंतरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त पुरातत्वविदों हेनवुड,
ह्वीलर, नौटियाल आदि ने इसकी विस्तार से सूचना
दी है. उनका कहना है कि पश्चिमी रामगंगा, गगास नदी की
घाटियों में मिलने वाले शवाधानों की शृंखला यहाँ तक फैली हुई थी.
बाराही
देवी का परिसर देवदार के सघन और विस्तृत कुंजों से भरा-पूरा होने के कारण ‘धूरा’ (ऊँची पहाड़ियों के समतल स्थानों के
सदाबहार वन) शब्द को सार्थक करता था. कुमाऊँ के सभी शाक्त पीठ चारों ओर घने और
प्राचीन देवदार वृक्षों के विस्तृत झुरमुटों के बिलकुल बीचों-बीच स्थित हैं. इससे
भी इस बात की पुष्टि होती है कि ये पीठ मूल रूप से यहाँ की आदिम जातियों के केंद्र
रहे होंगे जिनका बाद में आर्यों के द्वारा ब्राह्मणीकरण कर दिया गया. इस प्रक्रिया
में, सैकड़ों सालों के भौगोलिक एवं पर्यावरणीय
परिवर्तन के फलस्वरूप मूल स्वरूप तो बदला ही, उनसे
जुडे हुए मानव समूहों की परंपरागत छवि भी सुरक्षित नहीं रह पाई. यहाँ तक तो कोई
बात नहीं, दुर्भाग्य से उनके मूल चरित्र को विकृत कर दिया
गया, जैसा कि आर्यों ने उन जातियों के साथ किया,
जिन्होंने उनकी अधीनता स्वीकार नहीं की. ‘दानव’
भी ऐसी ही एक जाति थी. भारत का सांस्कृतिक इतिहास लिखते हुए डीडी
कोसांबी ने भी इस बात का समर्थन किया है: ‘‘ब्राह्मणों
ने धीरे-धीरे बची-खुची कबीलाई व श्रेणी जातियों में प्रवेश किया, जो आज तक चालू है.... कबीलाई देवताओं को ब्राह्मण धर्म के प्रतिष्ठित
देवताओं के समकक्ष मान लिया गया और जिन कबीलाई देवताओं को आत्मसात करना कठिन था,
उन्हें प्रतिष्ठित देवताओं के समकक्ष मान लिया गया और उन्हें
प्रतिष्ठित बनाने के लिए नए ब्राह्मण धर्मग्रंथों की रचना की गई.’’... ‘‘भारतीय मातृदेवी मंदिर प्रत्यक्ष प्रमाण हैं, स्थानीय
से परिवर्तित उन आदिम जनजातीय पूजा पद्धतियों के विकास का, जिनका
आगे चलकर ब्राह्मणीकरण हो गया.’’ (कोसांबी: मिथक और यथार्थ)
देवीधूरा
में देवी की बाराही अर्थात् पृथ्वीस्वरूपा मानकर पूजा की जाती है. इसे देवसेनानी
माना जाता है. मंदिर में देवी की प्रतिमा न होकर दो विशाल शिलाओं के आपस में
एक-दूसरे से प्राकृतिक रूप से सटे होने के कारण उनके मिलन स्थल पर स्वतः बने एक
त्रिभुजाकार द्वार को देवी की योनि का प्रतीक मानकर पूजा जाता है. इन दोनों शिलाओं
के बीच के खुले सँकरे मार्ग के एक ओर उन्हीं के आच्छादन में बैठकर पुजारी लोग
भक्तों से देवी के लिए भेंट, उपहार आदि प्राप्त करते हैं. ग्रेनाइट
की शिलाओं की यह प्राकृतिक बनावट ही मातृकुक्षि से बाहर निकलने का संकेत है. द्वार
मातृयोनि है. यह मार्ग इतना संकीर्ण है कि भीड़-भाड़ के दिनों में इससे एक ही ओर से
निकला जा सकता है. यह माना जाता है कि जिस प्रकार शिशु माँ के गर्भ से निकल कर
योनिद्वार से बाहर प्रकट होता है, उसी का यह प्रतीकात्मक स्वरूप है. इसे
बहुत पवित्र माना जाता है. बलि के लिए तैयार भैंसों को भी इसी प्रकार अंदर ले जाकर
योनिद्वार से निकाल कर तब उनका बलिदान किया जाता है. इसी प्रकार की अभिव्यक्ति
आसाम में कामरूप कामाक्षा मंदिर में की गई है. ग्रेनाइट के शिलाओं की बनावट
श्रीलंका कैंडी के पार्क में उपलब्ध शिलाओं से पूर्णतया मिलती है. आदिम मानव
प्रजनन से संबंधित अंगों के प्रतीकों की पूजा किया करता था. इस स्थल की प्राकृतिक
बनावट में देवी के स्वरूप की संकल्पना से देवीधूरा के आदिम युगीन मातृदेवी के मूल
स्थल होने में कोई संदेह नहीं रह जाता. यहाँ के पुजारी देवी के इस स्वरूप की
पुष्टि में देवी भागवत् के पुराण-स्कंध का यह पाठ प्रस्तुत करते हैं, जो साफ पहचाना जा सकता है कि परवर्ती पुरुष-प्रधान (आर्य) मानसिकता
की उपज है:
कामी भूमौ च रहसि वीर्यत्यागं करोति यः.
एतान्वोढुमशक्ताऽहं
क्लिष्टा च भवन्श्रुणु..
{(माँ बाराही कहती है कि) ‘मैं सारे भार को
सहन कर लूंगी लेकिन पृथ्वी पर वीर्यपात सहन नहीं करूंगी. अतः वीर्यपात धरती पर
स्वेच्छा से बिना योनि के न करें.’}
यहाँ
पर इस बात को बताना भी रोचक होगा कि मंदिर में बाराही की शक्ति (प्राकृतिक रूप से
बनी प्रतीकात्मक मातृयोनि) की पूजा की जाती है. संदूक में रखी गई मूर्ति को किसी
को देखने नहीं दिया जाता है. इसको न दिखाए जाने का कारण कदाचित् यह हो कि मूर्ति
में प्रदर्शित देवी मानव की आदिम अवस्था (संभोग) में हो. मूर्ति को बागड़
(क्षत्रिय) जाति का व्यक्ति नहलाता है. नहलाते समय उसकी आँखों में पट्टी बाँध दी
जाती है. वह अपने हाथों को पीछे करके मूर्ति को धोता है. वही देवी के आभूषणों की
भी सफाई करता है. उस समय मूर्ति और आभूषणों को पर्दे में रखा जाता है, ताकि किसी की दृष्टि उन पर न पड़े. लोगों में विश्वास है कि मूर्ति को
देखने की चेष्टा करने वाले की आँखें फूट जाती है. डॉ.. राम सिंह की तरह डीडी
कोसांबी भी इसे ‘मातृसत्तात्मक समाजों के अनुष्ठान तथा
पूजा-पद्धतियों को पितृसत्तात्मक सामाजिक संगठनों और पुरोहितों की मानसिकता का
दृढ़तर हो जाना मानते हैं: ‘‘ऐक्टीआ को उसी के कुत्तों ने फाड़कर
टुकड़े कर दिया क्योंकि उसने देवी को नंगा देख लिया था. ऐकाइसीज यह जानकर संत्रस्त
हो गया कि एक देवी (एफ्रडायटी) को रात भर प्रेम करने के बाद नंगी देख लिया था,
अतः उससे प्राणदान की याचना करने लगा. उर्वशी से पुरूरवा की याचना भी
ठीक ऐसी ही है. शतपथ में उसके बारे में जो आख्यान है, उसमें
सिर्फ मूल कारण को उलट दिया गया है. कहा गया है कि पुरूरवा ने निषेध-वृत्त इस तरह
तोड़ दिया कि उर्वशी को वह नंगा दिखाई दे गया. आदिम निषेध तो इसी बात को लेकर हो
सकता है कि वह देवी नंगी न देखी जाए.’’ (डीडी कोसांबी,
‘मिथक और यथार्थ’)
देवीधूरा
में प्रत्येक वर्ष श्रावण की पूर्णमासी को ‘बगवाल’
का प्रसिद्ध रोमांचक पत्थरों की मारामारी का प्रदर्शन होता है. इसकी
तैयारी श्रावण मास की शुक्ल एकादशी से आरंभ होती है. बगवाल में भाग लेने वालों के
घरों, वस्त्रों आदि की सफाई से लेकर बगवाल में भाग
लेने वाले व्यक्ति को अनेक प्रकार के कड़े धार्मिक नियमों का पालन करना होता है.
अनाजों में मडुवा, दालों में मसूर की दाल का प्रयोग
निषिद्ध है. अनेक प्रकार की सामाजिक बुराइयों के साथ-साथ मांसाहार, मदिरापान, धूम्रपान, किसी
भी दुकान में बैठकर चायपान इत्यादि दुर्व्यसनो का बगवाल संपन्न होने तक त्याग आवश्यक होता है,
क्योंकि अब इस देह पर बगवाली व्यक्ति का कोई अधिकार नहीं रह जाता,
वह तो देवी को समर्पित ‘द्योका’
(देवी का अनुचर) है. बगवाल के दिन अर्थात् पूर्णमासी को प्रत्येक
बगवाली, जिसकी माता जीवित है, माँ
का स्तनपान अवश्य करता है, चाहे बगवाली की अवस्था कितनी ही क्यों
न हो क्योंकि देवी बाराही मातृस्वरूपा है. बगवाल में उसके बालक को कुछ भी हो सकता
है, अतएव माता के स्तनपान से उसको बल मिलता है.
पूर्णिमा
के दिन द्योकों के झुंड-के-झुंड अपने-अपने टोली नायकों की अगुवाई में देवीधूरा को
पैदल चल पड़ते हैं. इसके लिए किसी प्रकार की सवारी नहीं ली जाती. बगवाल में भाग
लेने वाले प्रत्येक व्यक्ति के पास एक मजबूत लकड़ी का डंडा और बाँस या रिंगाल की
खपच्चियों से बनी छतरी के आकार की बड़ी-सी ढाल होती है, जो
बगवाल के समय पड़ने वाले पत्थरों से बचाने में सहायक होती है. बगवाली देवी के भक्त
अपने सिर को किसी मोटे कपड़े से अच्छी तरह लपेटे रहते हैं ताकि पत्थरों से सिर की
रक्षा की जा सके.
यह पाषाण युद्ध काली-कुमाऊँ के क्षत्रियों के चार खामों (घरानों) के बीच युद्ध की शक्ल में होता है. ये चार ‘खाम’ हैं - 1. चमियाल, 2. गहड़वाल, 3. लमकणियाँ और 4. लमगढ़िया. पूर्णिमा के दिन 12 बजे से लेकर 2 बजे तक मंदिर में पुरोहितों व पुजारियों द्वारा देवी की पूजा संपन्न की जाती है. मंदिर का प्रधान पुजारी मंदिर से शंखध्वनि करके बगवाल का उद्घोष कर देता है. इसके साथ ही मंदिर के पंडे-पुरोहित देवी से संबंधित पूजा के मंत्रों का जोर-जोर से उच्चारण करके वातावरण में अत्यधिक उत्तेजना भर देते हैं. शंखध्वनि कानों में पड़ते ही बगवाली देवी के भक्त अपने सामने पड़ने वाली दूसरी ओर की खामों पर पत्थरों की वर्षा आरंभ कर देते हैं. ये पत्थर सौ ग्राम से लेकर पाँच-छः सौ ग्राम तक भार के होते हैं. बगवालियों के लिए नियम है कि वे दूसरे पक्ष के किसी व्यक्ति को लक्ष्य करके पत्थर नहीं चलाएंगे और न शत्रु-मित्र किसी की पहचान रखेंगे. चोट लग जाने पर भी किसी के प्रति द्वेष भाव नहीं रखा जाता, उसे देवी की इच्छा मानकर स्वीकार कर लिया जाता है. देखते-देखते दोनों ओर से पत्थरों की अंधाधुंध वर्षा होने लगती है. बगवाल जब अपने चरम पर होती है, दोनों ओर से बगवाली फर्रों (ढालों) की आड़ लेकर प्रांगण के केंद्र की ओर बढ़ते हैं. जो केंद्र पर पहुँच जाता है, उसे विजयी मान लिया जाता है. दोनों पक्षों के खामों के लोग प्रतिपक्षी खाम वालों के फर्रे व लाठियाँ छीनने का प्रयास करते हैं. जिस पक्ष की लाठियाँ तथा फर्रे छीने जाते हैं उसे हारा हुआ माना जाता है. 15-20 मिनट के बगवाल के निमित्त निर्धारित समय के व्यतीत हो जाने पर मंदिर के पुजारी बगवालियों के बीच जाकर देवी का तांबे का छत्र सिर पर ओढ़े, एक हाथ से चँवर (गाय की पूंछछ) हिलाते हुए बगवाल की समाप्ति का संकेत करते हैं.
आज पाषाण युद्ध एक कर्मकांड बन चुका है हालांकि यह अपने मूल रूप में योद्धाओं के अपनी आराध्य देवी के प्रति अपनी निष्ठा और भावनाओं तथा अपने शक्ति-प्रदर्शन का सबसे अच्छा साधन रहा होगा.
काली
कुमाऊँ का शक्तिशाली दानव समाज और आज उसकी परिणति... एक लाचार, अशक्त और उपभोक्तावादी संपन्नों के हाथ का खिलौना बनकर रह गया!
दानवों के वंशजों की देवताओं के वंशजों के रूप में परिणति!... दानवों को देवता का
दर्जा दिया गया... उन देवताओं का, जो इस धरती में उस रूप में कभी थे ही
नहीं! धरती को अपनी मेहनत और खून-पसीने से सींचने वालों की चिंता न करके उन लोगों
की चिंता, जो मर चुके थे... या शायद कभी जीवित ही नहीं थे.
ये देवता स्वार्थी वर्तमान के ऐसे प्रतीक थे, जिनके
साथ अतीत को, अपने मृत पूर्वजों, उनकी सद्इच्छाओं को मिलाकर
वर्तमान के संघर्ष से पलायन का ऐसा घोल तैयार किया गया, जिसने भले ही मुट्ठी भर विलासी और अपने तक ही केंद्रित लोगों भला
किया हो, उससे वृहत्तर मानव-समाज का भला तो कभी नहीं हुआ.
कुल मिलाकर अतीत के ये मरे हुए लोग, जीवित व्यक्ति को
कलंकित करके उनके चेहरों को ऐसे मुखौटों से ढकने के स्वार्थी प्रतीक थे, जो कभी किसी के चेहरे की अनुहारि थे ही नहीं! जिस समाज को ये मुखौटे
पहनाए गए, उन्हों उनके चेहरे लहूलुहान ही किए, उन्हें कभी सुरक्षा नहीं दी. महानता का भ्रम फैलाते ये प्रतीक,
अकर्मण्य और स्वार्थी लोगों के मन में पैदा हुए अमानवीय भावावेश...
निर्दोष लोगों की अकारण मौत, अपने विश्वासों की रक्षा के लिए दूसरों
के आस्थाओं की हत्या!... यही तो संदेश दिया था हमारे समय के प्रख्यात
कथाकार-विचारक निर्मल वर्मा ने दो हजार वर्ष पहले मरे हुए अपने पुरखों को नए
भारतीय समाज के सामने पेश करके! एक भावुक और धर्मांध व्याख्यान... अपने
प्रतिद्वंद्वियों से प्रत्यक्ष में युद्ध न कर पाने की हताशा का बदला सैकड़ों
वर्षों के बाद उनकी पहचान को ही लहू-लुहान करके अपना प्रतिशोध लेने की रणनीति....
कैसा समाज बना गए हमारे आज़ाद राष्ट्र के
प्रथम प्रधानमंत्री, द्वितीय गृहमंत्री, नई संवेदना और आधुनिकता-बोध को हमारे समय का हिस्सा बनाने वाले
कथाकार और विचारक... क्या यह वही परिवेश है, जिसका
हमें इंतज़ार था!...
ʘʘʘʘʘ
निश्चय ही आज का दानपुर दानव-वंशी नहीं रहा, देववंशी हो चुका है. इस नए वैश्विक संसार में शहरी मुख्यधारा और गाँवों के बीच की भौगोलिक दूरी ही नहीं, सांस्कृतिक दूरी भी काफी हद तक खत्म हो चुकी है. सुविधाओं-साधनों का स्वरूप भी बदल चुका है. गाँव-गाँव में उच्च शिक्षा संस्थान खुल चुके हैं, टीवी, मोबाइल और इंटरनेट उन्मुक्त ढंग से प्रवेश कर चुके हैं, गाँव के जो लोग कभी आँखे फाड़े बाहर वालों को देखा करते थे, उनके बच्चे आज आगंतुकों की भाषा उनसे भी अधिक धाराप्रवाह बोलते हैं, अपने पर्यावरण और लोक-विश्वासों के बारे में अधिक विश्वास के साथ बातें करते हैं, भले ही अपने अधकचरे और चमकदार यूरोपीय किताबों में पढ़ी गई झूठी-सच्ची बातों के आधार पर. परंपरागत गाँव नष्ट होते जा रहे हैं, उनका कायांतरण यूरोपीय किस्म के कस्बों और ‘कंट्रीसाइड’ गाँवों में होता चला जा रहा है, हर किलोमीटर पर पंजाबी ढाबे खुल गए हैं जहाँ शुद्ध जल की भले कमी हो, बीयर और शराब पानी की तरह उपलब्ध है. गाँवों की नई पीढ़ी अपने ही परिवार की पुरानी पीढ़ी के लिए अजनवी बन चुकी है और यह पीढ़ी अपने गाँव-इलाके के बारे में सोचने के बजाय शहरों से अपनी कारों में ढोकर लाए गए ‘पहाड़ों’ को अपनी पैतृक धरती में रोपने में लगी हुई है.
और
यह बदलाव एकाएक नहीं आया... हालांकि यहाँ के मूल निवासियों को अचानक ही लगा. कभी
कोई काली कुमाऊँ का ‘महेंद्र सिंह धौनी’ नई दुनिया के ग्लैमर का सितारा बनकर उभरता है तो चारों ओर उम्मीद की
किरणें फैलने लगती हैं, मगर जब सारी दुनिया या खुद धौनी अपना
परिचय ‘झारखंड के सपूत’ के
रूप में देने लगता है तो स्थानीय लोगों के मन में एक लाचार गुस्सा और निराशा का
पर्दा एक नए तरह के घटाटोप के रूप में छा जाता है. मगर दूसरे ही पल जब वह अपनी
शादी अपनी ही जाति की लड़की से करने के लिए अपनी जड़ों में वापस आता है, लोगों में फिर से उम्मीद की किरणें अंकुरित होने लगती है, हालांकि यह खुशी भी उतनी ही लाचार और बेबस है क्योंकि महेंद्र सिंह
धौनी की अब सिर्फ काली कुमाऊँ को ही नहीं, झारखंड को ही
नहीं, हिंदुस्तान को ही नहीं, सबको
जरूरत है... लेकिन ‘आर्य’ के
रूप में नहीं, ‘दानव’ के
रूप में, जहाँ उसकी जड़ें हैं, उसकी
शक्ति का स्रोत है.
‘धौनी’ को लेकर इन नई अपेक्षाओं को हम समाज और प्रकृति का विस्तार कहें या ठहराव ? दुनिया
जितनी छोटी होती जाएगी, संपर्क और रिश्ते भी तो उसी अनुपात में बदलेंगे. मगर इसका मतलब यह तो नहीं है कि इतिहास और मिथक की धाराओं का अपने तात्कालिक स्वार्थों के लिए इस्तेमाल कर लिया जाय. ऐसे ही अंतर्विरोधों के बीच से तो पैदा हुई हिमालय के ‘गुमदेश’ को समझने की तथाकथित ‘नई’ दृष्टि, हिमालय के कथित ‘वैज्ञानिक’ इतिहासकार अंग्रेज प्रशासक एटकिंसन का ‘हिमालयन गजेटियर’, जिसने यहाँ के मूल निवासी ‘दानव’ को ‘डोम’ बना डाला. एटकिंसन तो यहाँ की परंपराओं और भाषा की जानकारी रखता नहीं था, उसे यह व्याख्या इसी क्षेत्र के अंग्रेज़ी पढ़े-लिखे व्यक्तियों ने दी होगी. संभवतः नए व्याख्याकारों को लगा होगा कि नई इतिहास-दृष्टि के हिसाब से ‘डोम’ शब्द अधिक परिचित और प्रामाणिक है, इसी उलझन ने ‘दानव’ को ’डोम’ बना डाला. अपनी पुस्तक में एटकिंसन ने चंपावत विकास खंड में स्थित दौंनकोट (दानव कोट) के बारे में लिखा, “Rawat Raja of Domkot” : “The capital was thus transferred to Domkot or Donkot…” E.T. Atkinson, The Himalayan Gazetteer, Vol. II Part II, page 498 &507, 1981” (‘राग-भाग काली कुमाऊँ: डा. राम सिंह, पृष्ठ 25 में उद्धृत) हालांकि डा. राम सिंह का मानना है कि यह घपला अंग्रेज़ी वर्तनी के उच्चारण के कारण और अक्षर की अस्पष्ट लिखावट के कारण हुआ होगा. ‘डी’ का उच्चारण ‘द’ भी हो सकता है और ‘ड’ भी, और ‘दौन’ का ‘एन’ ‘एम’ पढ़ा जा सकता है.
बावजूद
इसके, बड़ा सवाल यही है कि इस सारे क्रूर सांस्कृतिक
उलझाव को सुलझाया कैसे जाए ? कैसे अपने देवताओं को, पुरखों को, धरती पर उतारा जाय ताकि वे सचमुच हमारे पूर्वज, हमारे देवता बन सकें!... उन्हें हम कौन-सी पोशाक पहनाएँ ? अपने उन अजेय दानव योद्धाओं को... प्रकृति के संगीत में से सीधे उपजी
‘जौंया मुरली’ (जुड़वा
बाँसुरी) को पकड़े हुए गंधर्वों और किन्नरों को... मदनोत्सव पर नव-अंकुरित
अशोक-पुष्पों के चारों ओर पाँवों में महावर सजाकर थिरकने वाली यक्षिणियों और
नाग-किरात कन्याओं को... अपनी ही धरती से विस्थापित, अब
लौटने की उम्मीद में टकटकी लगाए अपने प्रकृति पुत्रों को!
उस
दिन नैनीताल के जीबी पंत चैराहे पर खड़ी वह आदमकद मूर्ति, जो
महाकाल के रुंड-मुंड के रूप में बदल गई थी, उसके
अलक, शिवालक, और
उन अलकों के बीच छिपी वह महानदी... क्या सचमुच दो हज़ार वर्षों के हमारे इतिहास में
मौजूद थे, जिसे हमने खो दिया? क्या
सचमुच खो दिया? क्या वे देवता सचमुच अभी मरे नहीं हैं,
जिन्हें हमारे समय के विचारक भावावेग के साथ याद कर रहे थे, जिन्हें वह ‘हमारे काश्मीरी भाई’ के रूप में संबोधित कर रहे थे. आज उस धरती पर जो नया ‘काश्मीर’ अंकुरित हो गया है, जो नया ‘भाई’ उस
धरती पर आ गया है, क्या वह हमारा भाई नहीं है ? भाई चाहे बड़ा हो या छोटा, दोनों को अपना ‘घर’ अपने ही बूते बसाना होता है क्योंकि
पैतृक भूमि पर दोनों का बराबर का हक होता है. उनसे पहले के ‘दानव’,
‘यक्ष’, ‘गंधर्व’, ‘किन्नर’,
किरात’, ‘नाग’, ‘असुर’,
भी तो उस धरती के सगे भाई ही थे!...
हमारे समय के विचारकों को यह तो सोचना ही पड़ेगा कि अगर वे देवता नहीं मरे होते तो क्या आज हमारे समय का इतिहास कुछ और होता ? अगर हमारे देश के प्रथम प्रधानमंत्री ‘काश्मारी पंडित’ नहीं होते, हमारे ‘पहाड़ी’ गृहमंत्री ने विस्थापितों के झुंड को अपने गृह-जनपद में वहाँ के मूल निवासियों को अपदस्त करके न भेजा होता तो क्या इन पहाड़ी जातियों का वर्तमान आज फर्क होता ? 1985 में लिखी गई कहानी ‘किम्पुरुष’ का ‘पुनश्च’ आज अट्ठाईस साल के बाद क्या अलग तरह से लिखा गया होता ?
बटरोही
जन्म
: 25 अप्रैल, 1946
अल्मोड़ा (उत्तराखंड) का एक गाँव
पहली
कहानी 1960 के दशक के आखिरी वर्षों में प्रकाशित
हाल
में अपने शहर के बहाने एक समूची सभ्यता के उपनिवेश बन जाने की त्रासदी पर
केन्द्रित आत्मकथात्मक उपन्यास 'गर्भगृह में नैनीताल' प्रकाशित
अब
तक चार कहानी संग्रह, पांच उपन्यास. तीन आलोचना पुस्तकें और कुछ बच्चों के लिए किताबें
प्रकाशित.
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