सोमवार, 9 नवंबर 2015

एक साम्यहीन साम्यवादी --- भुवनेश्वर






पात्र
सुंदर : मजदूर
पार्वती : सुंदर की बहू
गोविंद : सुंदर का साथी, मजदूर
मिस्टर मिश्रा : मजदूर नेता
मिस्टर कपूर : मिस्टर मिश्रा के सहयोगी
मनोहरस्वरूप अग्रवाल : मिल मालिक
वृद्ध मजदूर
घर का नौकर
(कानपुर के पार्श्‍व भाग में लज्जा से मुँह छिपाए कुलियों के निवास स्थान। नगर का विद्युत प्रकाश यहाँ तक न पहुँच सका; पर सभ्यता का प्रकाश पहुँच गया है। साँझ की धुँधलाहट में तेल और मिलों की कालौंच की सहायता से बाल सँवारे लंबे-लंबे कॉलरों की कमीजें पहने स्वयं अपने फरिश्तों के समान मिल के मजदूर हँसी-ठिठोली कर रहे हैं।
उसी ज्वलन्त नगर के प्रेत के समान एक भाग में एक छोटी-सी दो द्वारों की एक कोठरी, जिसमें सामान के नाम एक टूटा काठ का बक्स, एक टूटी और एक अर्द्ध टूटी चारपाई। कुछ धुएँ के रंग की हाँड़ियाँ, मनुष्य के नाम एक स्वयं अपने से ईर्ष्‍यालु हाड़-चाम का मजदूर। प्रकाश के नाम की एक बीस-बाईस वर्ष की युवती, मलिन वस्त्रों में इस प्रकार दीखती है जैसे, आँसुओं की निहारिका में नेत्र)
मजदूर : तुझे मेरी क्या पड़ी पार्वती, तेरे पैरों पर न जाने कितने सिर रगड़ते हैं। कोई भी तुझे पटरानी बनाने को तैयार है।
पार्वती : (अधउठाई हाँड़ी को छोड़ कर) तुम्हें हर घड़ी यही सवार रहती है!
मजदूर : मेरी तो जान मुसीबत में है!
पार्वती : क्या मुसीबत है?
मजदूर : (उत्तेजित हो कर) यही सब छोटे-बड़े, आजा-अदना तेरे पीछे पड़े रहते हैं।
पार्वती : (रोष में) तो मैं यह कब चाहती हूँ?
मजदूर : तो क्या अब लड़ेगी, मैं कब कहता हूँ, तू चाहती है?
हरामखोर!
(उठ कर जाना चाहता है; पर सहसा एक दूसरा मांस और वैमनस्य से बना मजदूर आता है, उसकी दृष्टि में संभावना की मात्रा अधिक और विश्वास की बड़ी कमी प्रतीत होती है। वह आते ही पार्वती की ओर अर्थपूर्ण दृष्टि से देखना चाहता है; पर विचित्र भाव उसकी आकृति पर अंकित हो जाते हैं, जो उसके पति को देख कर और भी विकृत हो उठते हैं।)
नया मजदूर : सुंदर, तेरे तो मिजाज आसमानी घोड़े पर सवार रहते हैं, जमादार का मुँहलगा हो रहा है न!
सुंदर : मैं ताड़ी पीने न जाऊँगा, तुमसे कहे देता हूँ।
नया मजदूर : अमें ताड़ी की ऐसी-तैसी, बात भी करोगे कि ऐसे ही रस्सी तुड़ाओगे!
(सुंदर भेदपूर्ण दृष्टि से पार्वती की ओर देखता है। दो क्षण गंभीर नीरवता रहती है)
नया मजदूर : सुना, साहब छुट्टी ले कर जा रहा है।
सुंदर : हूँ।
नया मजदूर : अगर पुराना साहब आ जाए, तो अपने मजे हो जाएँ।
सुंदर : हाँ, तब तो मुझे वह फोरमैन बना ही देगा, क्यों रे गोविंद!
गोविंद : (झेंप कर) न बना देगा तो क्या, इस तरह रोज जरीमाना तो न देना होगा। अब की इस महीने में पाँच रुपये कट गए, चार मिले, दो भैरों को दे दिए, अब दो रुपये से कैसे काम चलेगा, बतलाओ?
सुंदर : मुझसे क्या पूछते हो, मैं आज ही तीन रुपये उस हलवाई से उधार लाया हूँ-आज खाने को साग भी नहीं था।
गोविंद : आखिर इसका होगा क्या?
सुंदर : अबे, सब किस्मत के खेल हैं! हमारी तकदीर खोटी है, तो किसी को क्या दोष देना। अभी देखो, गंगा के लड़के ही को देखो, गंगा ने किस मुसीबत से उसे पढ़ाया, अभी कल तक यहाँ उसका बाप मेरे साथ ताड़ी पिया करता था; पर आज वह बड़ा आदमी है।
गोविंद : यह तो सब कुछ है, क्या हम आदमी नहीं हैं? हमारे भी तो हाथ-पाँव हैं। हमारे भी तो बीबी-बच्चे हैं, हम भी तो आराम से रहना चाहते हैं, हम भी तो बीमार-ऊमार होते हैं। ईश्वर ने सबको खाने को तो दिया है, यह क्या है कि रईस हजारों रुपया नाच-मुजरे, मेले-तमाशे में उड़ा दें, दस रुपये के पान खा कर थूक दें, और हम पेट भर खाने को भी न पावें। हमें भी तो अपने बच्चे इतने प्यारे हैं, जितने उन्हें। उनके लड़के अलल्ले-तलल्ले करें, घी-दूध में नहाएँ और हमारे बच्चे पेट भर खाना भी न पा सकें, लज्जा छिपाने के लिए कपड़े भी न मिले!
सुंदर : बस-बस, क्या कांग्रेसी बन गया है?
गोविंद : कांग्रेसी का क्या, तुम क्या यह नहीं जानते हो? जब तुम्हारा लड़का मरा, कौन-से वैद-हकीम आए थे, कौन-सी तुमने उसकी दवा-दारू, करवाई थी, बेचारा सिसक-सिसक कर मर गया और उस दिन बड़े बाबू की लड़की को ही देखो, मामूली जूड़ी थी, डॉक्टरों से घर भर दिया। क्या तम लड़का कहीं से उठा लाए थे, कि तुम्हारी आत्मा नहीं कलपती?
(सुंदर एक दीर्घ नि:श्वास लेता है और पार्वती की ओर यह कल्पना करके देखता है कि वह रो रही है।)
पार्वती : तुम लोगों को कुछ धंधा नहीं है? बेकार की बातें किया करते हो!
गोविंद : इसे ठलुआव समझती है, जरा अपने दिल पर हाथ रख!
पार्वती : तो क्या करूँ, सिर टकरा दूँ? मरते हुए की टाँग कौन पकड़ लेता है।
गोविंद : (उत्साहित हो कर) यह बात नहीं, सुंदर की बहू, मजूरी करते-करते तो हम मरे जाते हैं...!
सुंदर : (हँस कर) भालू तो हो रहे हो!
गोविंद : (कुछ झेंप कर) तीन मन का क्या, सोलह बरस में अपने से दुगुने को कुछ नहीं समझता था। चार मन की गाय अकेले यूँ उठा ली थी, साहब कहने लगा- 'वेल, टुम मर जाटा, टो हम क्या करटा' ससुरे ने दो रुपया फैन किया।
सुंदर : हाँ, तो फिर।
गोविंद : तुम्हें ठिठोली सूझ रही है, यहाँ रोआँ-रोआँ जल रहा है। न-जाने तुम कैसे बिसासघाती आदमी हो!
सुंदर : (गंभीर हो कर) तो मैं क्या करूँ? साहब कुछ सौ-सौ रुपये तो दे ही न देगा। और वह क्यों दे, जब हमारे ही भाई आठ और सात में जाने को तैयार हैं। मुझे भी नौ ही मिलते हैं, राजी मत जानो लाला गोविंद...।
गोविंद : सौ तुम माँगते होगे, मैं तो खाने भर को माँगता हूँ।
पार्वती : क्यों माँगते हो, तुम्हारा कुछ इजारा है, भागो यहाँ से, धूरी साझ किल-किल मचा रखी है!
गोविंद : तू और बटलोई की तरह उबल रही है!
पार्वती : उबलूँ न तो क्या, बातें करने के सिवा कुछ और होता है? क्यों नहीं खेती करते, क्यों नहीं हल जोतते? लाट साहबी कैसे करो, ताड़-दारू कैसे पियो, मूलगंज कैसे जाओ। चल दिए बड़ी-बड़ी बातें करने!
गोविंद : देख सुंदर की बहू! तू इन बातों को क्या समझे, खेती में क्या धरा है, छाती फाड़ कर धरती से अन्न पैदा करो; पर खाने तक को तो मिलता नहीं। परसाल चाचा के चार बीघे गेहूँ हुए; पर अबकी बीज तक उधार लिया! कितना लगान पड़ता है और फिर उन पर नजराना, मिटौनी और महाजन...
सुंदर : सच कहना गोविंद, कितनी पी है?
गोविंद : (रोष में) लो मैं जाता हूँ! समझे न बूझे, कठौती तरे जूझे।
सुंदर : (कृत्रिम रोष के साथ) जा, तू बड़ा लायक है!
पार्वती : सुने जाइए! हम सब आपका कहा मानेंगे, ओ लपटन साहब!
(पाँच मिनट की नीरवता के पश्चात् बाहर से कोई भर्राई हुई आवाज में पुकारता है-)
'सुंदर ओ बे सुंदर!'
सुंदर : हाँ, गुरू, निकल आओ!
(चेहरे से 40 का; पर शरीर से 60 वर्ष के एक बूढ़े का प्रवेश। देखने से पहली विशेषता उसमें यह जान पड़ती है कि बीती हुई को पूर्णतया भुला देने में वह दक्ष है और भविष्य की चिंता उसे कभी चिन्तित नहीं करती)
वृद्ध : अबे, दिन भर घर ही में पड़ा रहता है? जोरू का...
(पार्वती को देख कर चुप हो जाता है)
पार्वती : निकल मेरे घर से खूसट!
सुंदर : अभी गोविंद इधर से गया है!
वृद्ध : कौन गोविंद, मेरा गोविंद? वह तो लीडर हो रहा है, आज तीन दिन से उन वकील साहब की बड़ी बातें सुनता है और रात-दिन वाही-तबाहियों की तरह बकता रहता है।
सुंदर : कौन वकील साहब? वही जो परेड पर रहते हैं, लड़कौधे से?
वृद्ध : वही चिबिल्ला, न जाने क्या कहता है। कहता है-हम सब बराबर हैं, भाई-भाई हैं, यह सब इनकी चालें हैं, भइया हमने जमाना देखा है। भाई-भाई हैं, तो ब्याह दें अपनी बहन मेरे लड़के के साथ।
पार्वती : अपने साथ क्यों नहीं कहता बुड्ढे?
वृद्ध : कहते हैं एका करो, एक करो, एका क्या खाक करें! तुम तो एका कर लो-तुम ऐसी बातें करो और तुम्हारे भाई खून चूसने को तैयार!
पार्वती : तुमने अच्छी जान चाटी है-बढ़ाओ अपनी सवारी यहाँ से, उठो!
सुंदर : क्या है री!
वृद्ध : है क्या, पागल है, सिर फिर गया है (धीरे से, सुंदर को जैसे संसार का भेद बता रहा हो) वकील साहब की ताक-झाँक है!
सुंदर : हूँ!
वृद्ध : चलो घूम आएँ।
पार्वती : हाँ-हाँ जाओ, आग लगे इस ताड़ी में!
सुंदर : (आग्नेय नेत्रों से) बहुत जी न जला, ताड़ी की नानी!

दूसरा दृश्य
(दिन वही , समय आठ बजे रात्रि)
(परेड पर कॉमरेड उमानाथ मिश्र का भव्य; पर साधारणतया सज्जित बँगला। उसके सिंहद्वार पर एक स्वस्तिक चिन्ह बना है, जो एक बीते हुए स्वप्न की भाँति पूर्वजों के धार्मिक विश्वास का द्योतक है। भीतरी प्रवेश द्वार पर 'हँसिया और हथौड़ी' का खूनी चिन्ह अंकित है; पर वर्तमान दशा में यह कुछ गोचर नहीं होता। एक कमरे में घर के मिश्र जी बाहर के कॉमरेड मिश्रा रिपोर्टों, ड्राफ्टों और अखबारों में फँसे बैठे हैं। मिस्टर मिश्रा की आयु 30 वर्ष के दाहिनी ओर। राजनीतिक विचार सहिष्णुता के बार्इं ओर। खद्दर के कायल नहीं; कांग्रेस को 'महात्मा गाँधी एंड को. लिमिटेड' माननेवाले। रुपये से जहाँ तक उसे कमाने का प्रश्न है निर्लिप्त। नाम और काम दोनों के लोलुप)
मिस्टर मिश्रा : (धीमे स्वर में) मिस्टर कपूर!
(एक गोरे, गंभीर चुस्त और चालाक आँखों में अविश्वास की आभा लिये एक अधेड़ मनुष्य का प्रवेश)
मिस्टर मिश्रा : (एक क्षण उनकी ओर देख कर) देखिए, उस मेनिफेस्टो को टाइप होते ही मिस्टर रंगनाथन के पास कवर एड्रेस से भेज दीजिए और देखिए, कुली-बाजार में बड़ी-बड़ी दुकानों पर जा कर उन कुलियों के नाम नोट कर लीजिए, जिन पर पाँच या पाँच रुपए से ज्यादा कर्जा है। समझे आप, फिर बाद को...
मिस्टर कपूर : (कुछ चिढ़ कर) जी हाँ आज शाम को चला जाऊँगा।
मिस्‍टर मिश्रा : और सारे जरूरी और ऐसे-वैसे कागजात मेज पर ही रखिएगा, छिपा कर नहीं, शायद आज तलाशी आवे। रिपोर्ट सब गैरेज की अलमारी में डाल दीजिए।
(सहसा कार्ल मार्क्‍स के आशीर्वाद के स्‍वर में उनके तैलचित्र के नीचे की घंटी बजती है। मिस्‍टर कपूर और उनके मालिक दोनों चौंक उठते हैं और बाहर की ओर देखते हैं। दो क्षण में ब्‍येरा आ कर एक कार्ड देता है। मिस्टर मिश्रा उसे दूर से ही देख कर सन्‍तोष की एक श्‍वास लेते हैं, पर अपने आन्‍तरिक भाव को भरसक छिपा कर आगन्‍तुक को लिवा लाने को इंगित करते हैं)
मिस्टर कपूर : जुगलकिशोर मिल का बखेड़ा तै हो गया?
मिस्‍टर मिश्रा : तै कैसे हो? पूँजीपतियों के तो दाँत तले हराम दब गया है! रुपए की बहुतायत होने से उसकी असली कीमत उन्‍हें कैसे मालूम हो। 18 घंटे 16 साल के बच्चे से काम लेते हैं। मेरे पीछे गुंडे लगवा दिए हैं, सेठ हैं, रायबहादुर हैं, धर्म के ठेकेदार हैं, फैसला कैसे हो?
(अंतिम वाक्य के समाप्त होते ही सफेद सूट और सफेद हैट लगाए, व्यवसाय की बुद्धिमत्ता और जटिल आकृति के मि. मनोहरस्वरूप अग्रवाल का प्रवेश। मि. मश्रा बड़े रुखे मन से उनका स्वागत करते हैं और उससे अधिक रूखे भाव से मि० कपूर से कहते हैं)
मिस्टर मिश्रा : तो फिर आप जाइए। शाम को वहाँ जाना न भूलिएगा।
मि. अग्रवाल : (मि. कपूर की ओर देख कर) मि. मिश्रा क्या अपने ऑफिस में हैं?
मिस्टर मिश्रा : (स्तंभित हो कर) क्या है जनाब, कहिए? मैंने आपको नहीं पहचाना। मिस्टर मिश्रा तो मैं ही हूँ, शायद...
मि. अग्रवाल : (अविचलित भाव से) मुझे अत्यंत खेद है, मैंने आपकी कुछ और ही कल्पना कर रखी थी।
मिस्टर मिश्रा : (अप्रतिभ हो कर) मुझे खेद है।
मि. अग्रवाल : खैर, मैं जुगुलकिशोर मिल्स का प्रमुख पार्टनर हूँ, मेरा धर्म है-रुपया, मेरा ध्येय है-संसार में अपने को निरापद और सुखी बनाना।
मिस्टर मिश्रा : मुझे बड़ा खेद है, मेरे जीवन में भावुकता का तनिक भी स्थान नहीं है।
मि. अग्रवाल : सच! पर साम्यवाद तो एक वैज्ञानिक या अवैज्ञानिक भावुकता ही है।
मिस्टर मिश्रा : आपको यह ज्ञात होना चाहिए कि जो कुछ भी आप कह रहे हैं, उसका अर्थ आप तनिक भी नहीं समझते।
मि. अग्रवाल : (जैसे भविष्यवाणी कर रहे हों) ठीक है। आप बड़े चतुर हैं। आपने मेरे जीवन का एक भेद जान लिया; पर क्या आप समझते हैं; रुपया कमाने के लिए उसके अर्थ समझने की भी आवश्यकता है?
मिस्टर मिश्रा : (घबरा कर) मिस्टर...
मि. अग्रवाल : (कृत्रिमता से) मनोहरस्वरूप अग्रवाल करोड़पती!...
मिस्टर मिश्रा : मैं आपसे मतलब की बात करना चाहता हूँ।
मि. अग्रवाल : मैं राई को राई कहता हूँ और पर्वत को पर्वत। मेरे-आपके मध्य कोई मतलब की बात अस्वाभाविक है, मैं एक करोड़पती हूँ, आप एक कवि हैं।
मिस्टर मिश्रा : (चकित हो कर) मैं कवि!
मि. अग्रवाल : हाँ कवि। एक साम्यवादी या तो एक पर्वत को राई में देखने वाला कवि है, या मुँहचढ़ा बालक!
मिस्टर मिश्रा : (व्यस्त होने की चेष्टा करके) मि. अग्रवाल, मुझे आजकल समयाकाल है...
मि. अग्रवाल : अहा, अकाल! आप एक ट्रेड यूनियन बनाइए!
मिस्टर मिश्रा : मि. अग्रवाल, आप तो विचित्र पुरुष हैं! क्या आप यहाँ मेरा उपहास करने आए हैं? मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि मैं तनिक भी अप्रतिभ न हूँगा। आप कटु-से-कटु बातें कह सकते हैं। मेरे सिद्धांत मेरे जीवन के अंग हैं; नहीं, नहीं, वे एक आवश्यक अवयव हैं... मैंने शब्दों के माध्यम में विचार नहीं किया है, मैंने एक समस्या को दूसरी समस्या से हल नहीं किया है।
मि. अग्रवाल : (व्यंग्य स्वर से) हाँ, यह ओजस्विनी कविता है!
मिस्टर मिश्रा : मि. अग्रवाल!
मि. अग्रवाल : अच्छा-अच्छा, आप कहिए।
मिस्टर मिश्रा : (दो क्षण रुक कर) मैं समाज का संगठन केवल एक शुद्ध आर्थिक रीति से चाहता हूँ।
मिस्टर कपूर : (जोश में) 'संसार के श्रमजीवियों' एक हो जाओ!'
मि. अग्रवाल : (उसी जोश से) संसार के जुआरियों, एक हो जाओ! संसार के शराबियों, एक हो जाओ! संसार के सूदखोरों, एक हो जाओ!
मिस्टर मिश्रा : होपलेस (बेकार)।
मि. अग्रवाल : मि० मिश्रा ऐसी कोई बात नहीं है, हम लोग केवल आपका वाक्य पूरा कर रहे थे।
मिस्टर मिश्रा : (उत्तेजित हो कर) क्या आप समझते हें कि चोर आर्थक दृष्टि से एक विलग वर्ग हैं।
मि. अग्रवाल : अवश्य चोर तो एक आर्थिक जीव हैं। जीव-शक्ति को निरंतर विकसित हो कर लोकोत्तर होना है और इसलिए मनुष्य के बराबर नहीं है।
मिस्टर मिश्रा : खैर, अगर यह भी मान लें...
मि. अग्रवाल : अहा! यह कविता है-अगर हम यह कल्पना कर लें!
मिस्टर मिश्रा : (कठोर स्वर में) मुझे मालूम हो गया, मैं आपकी मिल में हड़ताल करवा रहा हूँ, आप इसके लिए मुझे...
मि. अग्रवाल : नहीं-नहीं मि. मिश्रा, मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ, हम लोग मिल कल बंद कर सकते हैं और बड़े-बड़े जुएखाने या शराबखाने खोल सकते हैं और तब फिर यह (मि. कपूर की ओर इंगित करके) चिल्लाएँगे, संसार के जुआरियों, एक हो जाओ!
मिस्टर मिश्रा : (बरबस) आप पागल हैं।
मि. अग्रवाल : इस छत के नीचे सभी पागल हैं।
मिस्टर मिश्रा : (हताश हो कर) आप मुझसे क्या चाहते हैं?
मि. अग्रवाल : (औपन्यासिक ढंग से) तो आप क्या चाहते हैं?
मिस्टर मिश्रा : (अत्यधिक उत्तेजना से) पूँजीपतियों का नाश! संसार को यह बतलाना कि एक श्रमजीवी की असली मजूरी उसकी मेहनत का फल है। कोई टैक्स नहीं, कोई लगान नहीं, कोई टिकट नहीं!
मि. अग्रवाल : (गंभीर स्वर में) सुनता हूँ, ऐसी कविता अमेरिका के किसी कवि ने की है, भला-सा नाम है-वाल्ट...
मिस्टर मिश्रा : (लाल-लाल हो कर) आप यहाँ से निकल जाइए!

तीसरा दृश्य
(पूर्व परिचित कुलियों की बस्ती जैसे किसी ने अभिमंत्रित कर निर्जीव कर दी हो। मकानों के आगे या विचित्र जगह मजूर बैठे विष के समान ताड़ी पी रहे हैं, बच्चे कभी डर से, कभी माता की झुंझलाहट से और कभी एक अज्ञात आशंका से रो देते हैं। वह स्वर ऐसा ही तीव्र है जैसे चीलों का दोपहर की नीरवता में कीकना। भावी के समान आशंका की दृढ़ता सबके मुख पर अंकित है। मध्याह्न के प्रखर आतप में जैसे विश्व मूर्षप्राय हो रहा हो। सुंदर के द्वार पर)
एक मजदूर : (सूर्य की किरणों से अपने नेत्र को बचा कर) यह फल होता है! ढोल से खाल भी गई।
दूसरा : क्या बकते हो, आ कर सिर न रगड़े, तो मेरा नाम...
(दूर से गोविंद उत्तेजित-सा आ रहा है)
एक : यह सब उसी की कारस्तानी है, उसी ने तुझे तोते की तरह रटाया है। वही वकील!
गोविंद : पास आ कर (मेरे मौला बुला ले मदीने' की लय में) - यारों वतन हमारा है, औ, हम वतन के हैं - दुनिया के मजदूरों एक हो जाओ।
पहला : अबे झक्की, बातून, इस मशीन की तरह बात करने से क्या होगा, हम सब एक हैं, बता एक हो कर हम क्या कर सकते हैं?
दूसरा : सुनते हैं मिल में अभी भर्ती पूरी नहीं हुई।
गोविंद : (एक ग्रामोफोन के समान) दुनिया के मजूरो, एक हो जाओ!
तीसरा : चुप भी रह भाई...
पहला : (निराश हो कर) सिवा इसके कि हम शहर में जा कर लूट-मार मचा दें, हम और क्या कर सकते हैं!
गोविंद : भाइयो, तकलीफ सहो...
दूसरा : क्यों सहें, इसका फल क्या होगा?
गोविंद : संसार के मजदूरो एक हो जाओ!
पहला : संसार में तो सभी मजूर हैं, रे, गोविंद रुपये की जरूरत तो सबको मजूर बनाए हुए है, तू कैसे कहता है-जहान के मजूर एक नहीं हैं; लेकिन एक हो कर हम क्या करें?
(एक नया मजूरा आता है, लोग मृत्यु के दूत के समान उसका स्वागत करते हैं)
पहला : क्यों रे, क्या खबर लाया, कुछ कहेगा भी!
नया मजदूर : नए मजूर आठ रुपये ही में भर्ती हो रहे हैं; लेकिन हड़ताल करने को नहीं तैयार हैं।
दूसरा : भर्ती पूरी हो गई?
नया : (अभिशाप के स्वर में) हाँ, कल ही सुनते हैं। मनोहर बाबू भाड़ा दे कर इन कुलियों को बाहर से लाए हैं, देखा, गुरू बातें कर रहे हैं, शायद कोई नई खबर लाएँ।
पहला : और वह वकील साहब?
नया : वह कह रहे हैं कि मैंने भूल की, अभी मौकामहल नहीं था।
दूसरा : छि:!
(इसी बीच सुंदर भी आ जाता है। उसके क्लांत और झुलसे हुए मुख पर क्रोध और शोक की उदासीनता। मटमैली और उसके हिंसक आँखों में दृढ़ता और वाणी में कृत्रिम प्रफुल्लता है)
सुंदर : भाई मेरा तो काम हो गया, मैं जा रहा हूँ। मैं परेड पर नौकर हो गया। वकील साहब ने पार्वती से कहा-तुम बाल-बच्चों को ले कर यहीं रहो, 10) का महीना और दोनों की खुराक। और क्या!
(लोग उसकी मुद्रा देख कर चकित हो जाते हैं। कुछ उसकी ओर आश्चर्य, कुछ भेदपूर्ण और कुछ सहानुभूति से देखते हैं और एक-एक करके चले जाते हैं।)
सुंदर : (बैठते हुए) पार्वती जरा-सा पानी ले आ।
पार्वती : भीतर न चलो, धूप से तो चले आ रहे हो।
सुंदर : नहीं पार्वती, धूप से चलने के बाद छाया नहीं...
पार्वती : (कुछ हिचकिचाहट के साथ) तुम कैसे हो रहे हो?
सुंदर : कैसा भी नहीं, अभी परेड से आ रहा हूँ।
(पार्वती जैसे प्रेत से डर गई हो)
बाबू ने कहा कि दस रुपये महीने की नौकरी दी और खाना और रहने को जगह। आज शाम से हमारा नया जनम होगा।
पार्वती : (कठिनता से) अगर तुम्हारा जी न पतियाता हो, तो न चलो।
सुंदर : पागल हुई है, न चलूँगा, तो क्या भूखों मरूँगा।
(दो क्षण गंभीर नीरवता रहती है; पर उस नीरवता में ही दोनों एक-दूसरे का अर्थ समझ लेते हैं)
सुंदर : औरत की जात-या तो मजा उड़ाती है, या न उड़ाने के लिए पछताती है।
(पार्वती सिर नीचा किए, पैर के नाखून से जमीन खोद रही है)
सुंदर : मैं नहीं चाहता कि तू भी पछताए। खाली इसलिए कि तूने मुझसे शादी की।
पार्वती : (मन दृढ़ कर) तो क्या तुम्हारा-हमारा कोई ताल्लुक नहीं?
सुंदर : (हँस कर) तेरे साथ 8 बरस से कर रहा हूँ, इस झोपड़ी में 28 बरस रहा हूँ; पर आज यह झोंपड़ी कैसी जल्दी छूटी जा रही है!
पार्वती : मैं नहीं समझी।
सुंदर : मैं समझ गया, तू नहीं समझी (उत्तेजित हो कर) अगर मैं ना समझता, तो खून हो जाता, मेरे गले में रस्सी होती...
पार्वती : (डर के) फिर !
सुंदर : फिर क्या, मेरी सब समझ में आ गया, मैं और वकील साहब बराबर हैं, मेरे पास रुपया नहीं है, जिंदा रहने के लिए उनके रुपये की मुझे जरूरत है, मेरी जोरू...
पार्वती : (त्रस्त) बस-बस, मैं तुम्हारे हाथ जोड़ती हूँ।

चौथा दृश्य
(एक सप्ताह के बाद)
(मि. मिश्रा का वही कमरा, जो अज्ञात यौवना के समान स्वयं अपने परिवर्तन पर चकित है। कार्ल मार्क्स के चित्र की जगह कृष्ण के एक रसीले चित्र ने ले ली है। ड्राफ्टों, रिपोर्टों का स्थान अंग्रेजी के उपन्यासों ने। इस परिवर्तन में यदि तनिक भी अस्वाभाविकता की छाप हो, तो आप मि. मिश्रा को देख लें, जो एक रेशमी सूट को हिन्दुस्तानी ढंग से पहने, बालों में बीच में माँग काढ़े अभी-अभी आ कर बैठे हैं)
मि. मिश्रा : (अंदर की ओर झाँक कर) मि. कपूर! (उत्तर की अपेक्षा न करके) सौलमन कंपनी को लिख दीजिए कि जिस ब्रइक का उन्होंने कल टाइल दिया था, वह आज डिलेवर कर दे।
(इसके पश्चात् 5 मिनट। मि. मिश्रा बैठे-बैठे गुनगुना रहे हैं और उनके ठीक पीछे में मि. कपूर आते हैं)
मि. कपूर : कंपनी के एजेंट आए हैं, आप उन्हें रुपया दे कर कंट्राक्ट साइन करवा लीजिए। कार तो यहीं उनकी सिटी गैरेज में है।
मि. मिश्रा : अच्छा... उसे लिख कर टाइप कीजिए।
(मि. मिश्रा कुछ देर बाद अलस भाव से आ कर कोने की ओर जाते हैं। पर जैसे उन्होंने अपना ही प्रेत देख लिया हो, डर कर पीछे हटते हैं। दूसरे क्षण वह आगे से टूटे हुए सेफ को एक गूढ़ रहस्य के समान देखते हैं। सहसा वह उसमें से एक पुराना अ़खबार का कागज उठा लेते हैं, जिस पर सबल और विश्वासयुक्त टेढ़े-मेढ़े अक्षरों में लिखा है - 'सुंदर'। पीछे पार्वती जुंहाई के चाँद के समान बेल-बूटों की साड़ी पहने एक तश्तरी में कुछ फल लिये मुस्कराती खड़ी है! मिस्टर मिश्रा उसकी ओर मुड़ कर देखते हें। वह उनकी इस विचित्र मुद्रा को देख कर चकित होती है। मि. मिश्रा बाहर बरामदे में जा कर फोन को कान में लगा कर बिला घंटी बजाए कहते हैं)
'हेलो-हेलो! कोतवाली, पुलिस, मि. हिनट!'
(पार्वती उनकी ओर और संसार की ओर विस्मय से देख रही है। दबे पाँव चोर या चोर की छाया के समान मिस्टर मिश्रा के विश्वस्त नौकर का प्रवेश। वह पार्वती की ओर अर्थपूर्ण दृष्टि से देखता है)
नौकर : सुंदर को न जाने क्या हो गया, वह सबेरे तड़के ही चला गया। आपसे कही-सुनी माफ करा गया है

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