मैंने कागज-कलम को समेटते हुए एक तरफ किया। उठने को हुआ तो पांव झिनझिनाहट से झन्ना उठे थे। एक पल के लिए तो ऐसा लगा जैसे खड़ा ही नहीं हो सकूंगा। धीरे-धीरे संभलकर उठा। बायां पांव फर्श पर रखना कष्टप्रद। जैसे इसमें जान ही नहीं बची हो! पांव को आहिस्ता- आहिस्ता हरकत में लाने का क्रम शुरू किया। कुछ अंतराल के बाद रक्तसंचार सामान्य हो सका। घड़ी पर नजर डाली तो चार बजकर बारह मिनट हो रहे थे। लिखने का काम पांच घंटे से भी ज्यादा चला था। यानी पूरी रात। ऐसे में पांव भला क्यों नहीं सुन्न होते! मुझे अपनी लापरवाही पर थोड़ा खेद हुआ लेकिन दूसरे ही क्षण यह गहन संतोष भी कि यात्रा के दौरान होटल के इस कमरे में एक ही बैठक में इतना लंबा काम कर सका।
खिड़की के पास आकर हिलते झिल्लीदार परदे को हटाकर पल्ला खोला। फटता हुआ अंधेरा और उसे रौंदती भोर की हवा। बाहर का पुराना परिचित इलाका एकबारगी नया-नया सा लगा। मैंने दूर-दूर तक टिमटिमाती रोशनियों के बीच अपनी जानी-पहचानी जगहें टटोलनी शुरू की। उधर निचले इलाके में विद्या भाई का प्रतिमान प्रेस होगा, इधर आगे टैगोर हिल और उस तरफ रांची रेडियो स्टेशन व बस स्टैण्ड! कहां पहले शुद्ध कस्बा लगने वाला यह इलाका और अब कहां दिल्ली के करोलबाग जैसी इसकी यह नई लूक! यह सचमुच ऐसा हो भी गया है या मेरा कोई भ्रम है! कहीं ऐसा तो नहीं कि मेरा यह अहसास दशक भर बाद इस क्षे़त्र को थोड़ा और विकसित रूप में देखने के कारण हो या अलग झारखंड राज्य की राजधानी के रूप में इससे पहली बार मुखातिब होने के किसी जाने-अनजाने मनावैज्ञानिक दबाव के चलते! मैं कुछ तय नहीं कर सका।
इच्छा हुई कि बाहर निकलकर मार्निंग वाक जैसा कुछ कर लिया जाये। छोटा-सा पुराना होटल, कोई तामझाम नहीं। गेट पर ही सोया बूढ़ा नाइट गार्ड एक आवाज में उठ बैठा। गेट खोलते हुए घर के बुजुर्ग की तरह हिदायती अंदाज में बुदबुदाया- अभी सबेर नहीं हुआ है, अंधरिया में कहां टहलने जायेंगे? ...अच्छा, ठीक है स्टैण्ड तरफ चले जाइये, उधर कोई दिक्कत नहीं है!
कमरे में था तो जगह का नाम याद नहीं आ रहा था। करीब पहुंचा तो जबान पर एकबारगी रेंग गया- रातू रोड बस स्टैण्ड। सड़क पर ही दूर से दो-तीन बसें खड़ी दिखीं। एक स्टार्ट थी। खलासी चिल्ला रहा था- कुड़ू, मांडर, चंदवा, लातेहार, डाल्टनगंज! जल्दी... जल्दी... जल्दी आइये! आइये... आइये... आइये! साढ़े चार का टैम है!
अपने बचपन-कैशोर्य व किसी हद तक युवा काल के दिनों की थाती यादों से जुड़े स्थानों के नाम इस तरह सुनना गजब प्रीतिकर लगा। मन तृप्त हो गया। जैसे कोई पुराना भूला-बिसरा प्यारा स्वाद अचानक जीभ पर उतर आया हो! खिंचाव, प्रगाढ़ता व जुदाई के भावों से छलछलायी भावुकता की अजीब मिली-जुली तरल अनुभूति हृदय में छलछलाने लगी। खाली-खाली रातू रोड पर चलते हुए पांव जैसे नर्म-कोमल स्मृतियों की हरी दूब पर पड़ रहे थे।
स्टैण्ड के गेट के कोने में एक गुमटी दिखी। चिनगारी फेंकता सुलगता चूल्हा, उठता धुंआ। आसपास खड़े दो- चार लोग। चाय की केतली व कांच के ग्लासों के रखने-उठाने की पहचानी-सी खन्-खन् ध्वनियां। करीब पहुंचते हुए लगा जैसे युगों-युगों से अपनी ही जुदा जड़ों की ओर लौट रहा हूं! यहां चप्पे-चप्पे पर बिछी टिमटिमाती यादें अचानक एकबारगी जैसे आंखों के सामने आकर साकार रेंगने लग गयी हों! कॉलेजी दिनों की कितनी ही कहकहों-भरी शामें और विचार-घर्षणों की कितनी ही पैदल टहलती अधमुंदी सुबहें। एक लम्बा बीता कालखण्ड जैसे औचक सामने आकर खड़ा मुस्कुरा रहा हो! रोम-रोम पर रेंगती स्मृतियां।
करीब पहुंचते ही दुकानदार ने लप-से गिलास यों पकड़ा दिया गोया आने से पहले चाय निकालकर मेरी ही प्रतीक्षा कर रहा हो। स्टैण्ड के परिसर में अंधेरे में बसें कतार से खड़ी दिखीं। उनका समय सम्भ्वतः बाद में हो, उनके आसपास कोई चहल-पहल नहीं। एक कम क्षमता का बल्ब अपर्याप्त रोशनी से अपना दायित्व ढोता दिखा। इतने बड़े स्टैण्ड को इस एक कमजोर बल्ब के भरोसे किस हिसाब से छोड़ा गया है!
पहली ही चुस्की ली थी कि लगा बगल कोई निकट चला आ रहा है। सचमुच एक सज्ज न, मुझी से मुखातिब होते-से। चेहरा गमछा से ढंका, हाथ में भारी-सा कोई सामान। वे चेहरा उघारते हुए सामने होकर करीब आ गये। मुझे चुपचाप गौर से घूरते हुए। मैं सिहर गया, लेकिन नीम अंधेरे में चेहरा पहचाना-सा लगा। यानी यह व्यक्ति अपना ही कोई पुराना परिचित मित्र-बंधु है! तब तक एक जमाने से गुम चिरपरिचित आवाज गूंजी- “...के हो... हरिकिशोर? तूंऽ ? इहांऽ ? कहां सेऽ ? “
आवाज से मैंने भी तुरंत उसे पहचान लिया। तो, यह अवधकिशोर है! उसके बारे में हाल के दिनों की जानकारी का स्मरण होते मैं पल भर के लिए एकबारगी सहम-सा गया। तो क्या उसके बारे में जो कुछ सुना गया है, वह सब सही भी हो सकता है! इस लिहाज से नजर डालने पर उसका बेतरतीब दाढ़ी से भरा कठोर चेहरा, भारी आवाज, बरसाती गरमी में भी गमछे से चेहरा ढंकने जैसा अंदाज... सब संदिग्ध लगा। इसका मतलब कि उसके बारे में सुनी बातें हवा-हवाई नहीं हैं! अब क्या किया जाये! कहीं इसके साथ यह मुलाकात परेशानी का कोई सबब न बन जाये!
“..काऽ हो, हमरा नाऽ पहिचानलऽ काऽ? “ मन में आ रहे ऐसे सारे भाव उसकी एक ही हांक पर हवा हो गये।
“ ...कौन! तुम अवध हो न? “ मैं संभला।
वह अपना नाम सुन थोड़ा असहज हुआ। अपने दायें हाथ में झूलते भारी झोले को दूसरे हाथ में पकड़ते हुए अगल-बगल की उपस्थितियों का मुआयना करने लगा। बोला, “ ..हां यार! एक जमाने के बाद भेंट हो रही है! लगता है स्कूल के दिनों के बाद सीधे अब! अरे, कहां हो, क्या कर रहे हो? कहां से आ रहे हो, कहां जा रहे हो? डाल्टनगंज चल रहे हो काऽ? “
“...नहीं! बनारस से एक दिन के लिए ऑफिस के काम से कल सबेरे आया था, आज रात में लौट जाना है! वहीं एक अखबार में हूं। तुमको तो पता ही है मेरी रूचि लिखने-पढ़ने में थी, कॉलेज में पहुंचते-पहुंचते अखबारों में मेरी रिपोर्टें छपने लगी थीं। एक बार तो तुमसे तुम्हारे ननिहाल में भेंट भी हुई थी। मैं पुलिस गोलीकाण्ड के बाद वहां कवरेज में गया था! “
“..हां, भाई! “ उसे जैसे वह मिलना भक्क -से याद आ गया हो, स्व र पुलक से भर गया, “ ..हां-हां ...” लेकिन दूसरे ही पल आवाज स्याकह हो आई, “ ...स्कूली दिनों के बाद तुमसे वही ननिहाल में अंतिम भेंट है। खैर, तुम्हारे बारे में मुझे सब पता चलता रहा है। तुम्हारी किताबें भी मंगाकर मैंने पढ़ी है दोस्त! “
मैंने महसूस किया कि अतीत कुछ ज्यादा ही चढ़ा आ रहा था लिहाजा वस्तुनिष्ठी होने का उपक्रम शुरू किया, “..तुम्हारा क्या प्रोग्राम है? “
वह अपेक्षाकृत धीमी आवाज में बोला, “..हम तो शाम के बाद कभी भी पलामू निकल जायेंगे, चलो, यहीं कहीं आसपास बैठ कर बतियाते हैं! “
मैंने हाथ को आगे करते हुए गिलास दिखाया, “..चाय तो मैंने ले ही रखी है, तुम भी एक पी लो फिर उधर भी आराम से साथ-साथ पी लेंगे! “
वह चारों ओर नजरें फेरते हुए बोला, “..नहीं! मैं चाय-प्रेमी नहीं हूं। कभी-कभी यों ही पी लेता हूं। यहां ज्यादा समय बीता दोगे तो फिर उधर बैठकर बतियाने का मौका नहीं मिलेगा। मुझे जल्दी ही यहां से निकलना जो है! “
मैंने चाय को जल्दी-जल्दी खत्म किया और पैसा चुकाकर उसके साथ पीछे लौट पड़ा। उसके साथ चलते हुए स्कूली दिनों की पुरानी मटरगश्तीउ की यादें जीवंत होने लगी। वह कह रहा था, “..अब से कुछ दिनों पहले डिप्रेशन का एक दौर आया तो लगा कि अब बीते हुए अच्छे दिन फिर कभी शायद ही देखने को मिलें! लेकिन तुमको अचानक यहां पाकर लग रहा है जैसे स्कूली जमाने का बीता हुआ पूरा समय वापस आकर सामने खड़ा हो गया है। एकदम साकार, साक्षात! कितना अजीब है! तुम्हारे पास होने भर से यह लग रहा है जैसे हम आज भी वही नावाटोली मिडिल स्कूल के बच्चे हों और साथ-साथ मैदान में खेलने निकल पड़े हों! “
उसका अंतिम वाक्य सुन मन रोमांचित हो उठा- तो क्या यह सब करते हुए आज भी मन-मिजाज से वह एक संवेदनशील कवि बचा हुआ है! खून-खराबे और मारकाट की तमाम ताजा सक्रियताओं के बीच भी क्या कोमल अनुभूतियां ग्रहण करने वाला कोई हृदय सकुशल बचा रह सकता है! दूसरे ही पल मन में यह कसक भी उठी कि एक संभावनाशील प्रतिभा का यह कैसा भटकाव हो चुका है!
मेरे आश्वूस्त करने के बाद वह मेरे कमरे पर चलने को राजी हो गया। पौ फट चुका था। आंखों में नींद चुभ रही थी या लगातार पांच घंटे से ज्यादा बैठकर लिखने की थकान, यह पता नहीं चल पा रहा था। उसे साथ लेकर होटल की ओर बढ़ते हुए एक खास तरह का खतरा निरंतर महसूस होता रहा। बिस्तर सरीखे बंधे भारी झोले को वह कभी इस तो कभी उस हाथ में बदलता चल रहा था।
कमरे में घुसते ही उसने झटके के साथ दरवाजे को बंद किया व धब्ब-से झोले को जमीन पर छोड़ दिया। टन्न् की रुंधी-सी भारी आवाज! मेरा संदेह पक्का हो गया, झोले में हथियार ही होंगे। जोरदार भय का एक झटका फिर महसूस हुआ। ऐसा तो हो ही सकता है कि उसकी टोह में पुलिस या खुफिया वाले पहले से लगे हों। किसी खुफिया सूचना पर या उसे घुसते देख पुलिस वाले यदि सचमुच पीछा करते हुए यहां तक आ ही धमकें, तो! ऐसे में तो भारी झंझट में फंसने से मुझे भला कौन बचा सकता है! सिहरन हुई। मेरा घर-परिवार है, बाल-बच्चे हैं! एक मन किया उसे जल्दी से चाय-वाय पिलाकर विदा ही कर दूं लेकिन...।
“ ...अरे यार, वहां तुम से मिलने की खुशी में चाय का स्वाद-अंदाज कुछ पता ही नहीं चला “ बोलते हुए मुझे स्ववयं पर आश्च-र्य होता रहा कि उससे जल्दीं पिंड छुड़ाने की आवश्यलकता महसूस करते हुए भी कैसे मैं यह प्रस्तायव दे रहा हूं, लेकिन जिह्वा जैसे दिमाग को झटककर हृदय से जुड़ चुकी थी, “ ...यहां एक लड़का है, लाकर थोड़ी ही देर में पिला देगा, आर्डर दे देते हैं! “
उसने जोरदार प्रतिवाद किया किंतु अपने स्कूली दिनों की पुरानी परिचित व्यंग्यात्मक शैली में ही, “.. यहां जान पर पड़ी है, तुमको चाय की तलब पर तलब लग रही है। लगता है सचमुच तुमको एकदम कुछ नहीं पता कि मैं कैसा गधापन कर चुका हूं व अपनी जिंदगी की गाड़ी को ले जाकर कहां फंसा चुका हूं! “
मैंने तो सुन ही रखा था कि वह अब पहली श्रेणी का हार्डकोर नक्सली है और कई बड़ी वारदातों के मामलों में वांछित ऐसा अभियुक्त कि जिस पर भारी-भरकम इनाम तक घोषित हैं! इसके बावजूद उसका यह पुराना स्कूली दिनों का ही आत्मव्यंजात्मक भाव देखकर मुझे थोड़ा आश्चर्य हुआ। स्वभाव की यह निजी चुलबुली मौलिकता क्या ऐसे विकट वैचारिक बदलाव की आंधी को भी नकारती हुई बची रह जाती है ? मैंने अनजान बनते हुए उसकी बात को जैसे अस्वीाकृत किया, “..अरे यार, तुम क्या बन गये हो, मैं क्या रह गया हूं इसमें कुछ आकर्षण नहीं। हमलोग आखिर अपने बचपन के रिश्ते के कारण ही तो इतने जोरदार ढंग से अभी मिले व खिंचे-खिंचे यहां तक इस तरह चले आये! “
“...तुम्हें नहीं पता मैं चैतरफा मुसीबतों में फंसा हुआ हूं...” उसका स्वर ही नहीं चेहरा भी चिंता से तर-ब-तर लेकिन आंखों में चमकता-सा धारदार चौकन्नांपन, “..पुलिस और हजार दुश्मन मेरे पीछे पड़े हैं। घर-परिवार सब बिखर गया है। बाबूजी लंबी बीमारी झेलकर मर गये। अंतिम समय में मैं उनके पास तक नहीं पहुंच सका। उनका अंतिम संस्कार भी नहीं देख पाया। डाल्टनगंज का घर गिर-पड़ कर बिला चुका है। माटी और खपड़े का एक धंसता हुआ कमरा किसी तरह झुका-टेढ़ा टिका हुआ है जिसमें अकेली अशक्त बूढ़ी मां प्रतिकूल समय से लोहा ले रही है! “
उसका यह विह्वल अंदाज एकबारगी मेरे लिए चौंकाने वाला था। किसी हद तक क्रोधित करने वाला भी। कहां लंबे समय से मन में खिंची एक हार्डकोर की उसकी छवि और कहां सामने बैठकर अश्रुधार पर डगमगाती नैया में लड़खड़ाता यह एक लुंजपुज-सा आदमी! मैं अनजाने ही भभक पड़ा, “...तो किसने कहा था तुम्हें यह क्रांति करने के लिए? क्यों ऐसा शौक पाल बैठे? “
वह सख्त हो गया। एक स्पार्क के साथ जैसे बल्ब अग्निरश्मि से भर उठा हो, “...तुम्हें किसने कहा कि मैंने शौक से हथियार उठाया है? कौन होगा जो अपने ही घर-परिवार को जानबूझकर बर्बादी की आग में झोंक देना चाहेगा? बीए करने के बाद नौकरी के लिए दर-दर भटकता रहा। एक सरकारी नौकरी में सारी बनी-बनाई बात रिश्वरत न देने के कारण बिगड़ गयी! कंपीटिशन में हमसे नीचे आने वाला लड़का चालीस हजार देकर नौकरी पा गया। मैं यह रकम न दे सका, सो टापता रह गया। गुस्से में मैंने मुकदमा किया तो बाद में ऑफिस वाले व जिन्हें नौकरी मिली थी, उन सबने एकजुट हो मुझे पुलिस से मिलकर झूठे क्रिमिनल केस में फंसा दिया। मैं पहुंच गया जेल। तुम्हें नहीं पता कि मैं क्या बनना चाहता था और क्या बनकर रह गया!... “
“...मुझे यह पता था ...” मैंने स्वयं पर काबू पाने की कोशिश करते हुए किंतु ठोस प्रतिकार के स्वरर में कहा, “ ...कि कभी मिलने पर तुम ऐसी ही डाकू वाली फिल्मों सरीखी कोई कहानी सुना दोगे। “
“...मेरे भाई...” वह थोड़ा झेंप गया, “..तुम ऐसा कहकर मजाक मत उड़ाओ! स्साले फिल्मी अंदाज में लोगों को फंसा ही देते हैं तो कहानी भी ऐसी ही बनेगी न! “
“..मैं दशकों से पलामू से कटा हूं इसका मतलब यह नहीं कि मुझे एकदम कुछ नहीं पता.. “ मैंने उसकी बात को काटते हुए उस पर नजर जमाई, “..कुछ-कुछ मुझे भी पता है कि तुम रास्ते से भटक गये हो। जीवन और समाज की मुख्यधारा से कट गए हो। हथियार उठाकर समाज को बदल देने के लिए निकल पड़े हो। भैया, यह इसी मिट्टी का ऐतिहासिक अनुभव है, इस मुल्क को आजादी तक बगैर हथियार उठाये मिली है। तुम्हीं बताओ, क्या मिला तुम लोगों को इतने वर्षों खाक छानने व कत्लेआम मचाने के बाद? “
वह जैसे गुब्बारे की तरह फट पड़ा हो, “ ..क्या बात करते हो! आजादी कैसे मिली या कैसे नहीं, मैं तुम से इस पर बहस नहीं करना चाहता। कहना सिर्फ यही चाहता हूं कि तुम्हें पलामू जैसे क्षेत्र की ताजा जमीनी स्थिति शायद नहीं पता! स्थिति पूरी तरह बदल गयी है, भाई! एकदम जोड़-घटाकर हिसाब पक्का कर लो। अब तक जो कुछ भी एक्शन हुआ है उसके कतरा-कतरा का रिजल्ट आया है। बदलाव तो आमूलचूल हुआ है! जिन लोगों ने गांवों पर सैकड़ों साल से कब्जा जमा रखा था और गरीब जनता का खून पीना अपना हक मानकर चलते थे, उनमें आज अपने ही गांव में पैर रखने की हिम्मत नहीं बची है... ऐसे सामंतों में से किसी ने बाल-बच्चों समेत गढ़वा टाउन पकड़ लिया है तो कोई डाल्टनगंज शहर में जहां-तहां जैसे-तैसे शरण लिये हुए समय काट रहा है! उनकी आज यह औकात नहीं रह गयी है कि अपने ही गांव में आकर इत्मीनान से रात गुजार सकें! एक जमाने में जो जमींदार अपनी हवेली में बाघ पालते थे, गरीबों को अपनी अजगरी लपेट में कसकर बंधुआगिरी कराते थे, आज वे खुद गीदड़ हो गये हैं! अव्वल तो ऐसे पचास फीसदी दबंग अब तक साफ कर दिये जा चुके हैं, इनमें बचे वही हैं जो गांव-गिरांव छोड़कर शहर भाग गये। तुम वहां जाकर इस बात की जमीनी तस्दीक कर सकते हो। यह सच है कि आज ज्यादातर गरीब-पिछड़े इलाके शोषक-साहूकार व सामंतों से बाकायदा मुक्त हो चुके हैं। गांव-गांव में कब्जा की हुई तमाम सैकड़ों एकड़ जमीनें अब मुक्त हैं! क्या यही शुरुआत कुछ कम है? तुम तो उस समय भी इलाका-इलाका घूमकर बदहाल जनजीवन पर मार्मिक रिपोर्टें लिखते फिरते थे। मुझे याद है उस समय तुम लोग गांवों में गरीब जनता के शोषण, उन पर सामंती जुल्म की स्टोरियां निकालते थे कि कैसे फलां इलाके का मउवार आदमखोर है, फलां इलाके का सामंत हरिजनों पर जुल्म कर रहा है... आदि-आदि। उन्हीं इलाकों के बारे में अखबारों में आजकल क्या छप रहा है, यूपी में बैठकर तुम्हें शायद नहीं पता। सारा हिसाब चुक्तां हो रहा है। अब वही बदलाव बाकी है जो अगर संभव हो सका तो पूरी व्यवस्था का चेहरा बदला हुआ देख सकोगे! “...
चुप्पी ओढ़े-ओढ़े मैंने महसूस किया- शुरू में व्यक्ति बनकर बात करता हुआ वह जब अपने घर-परिवार की बर्बादी पर आंसू बहाता रहा तो कैसा मुसीबतों का मारा और बदहाल-बेहाल लगता रहा किंतु ज्योंही इस परिधि से बाहर निकलकर सोचने-बोलने लगा, उसकी आवाज में गजब तेज उष्मा का जैसे अजस्र स्रोत फूट पड़ा हो!
स्पंदित होता मौन जैसे मेरे मन से कह रहा था- सुबह की कोमल किरणें छू रहा दीपक मिट चली बाती को देखकर बेशक अपना कलेजा चाक होने से नहीं बचा पाता किंतु आततायी अंधकार को नष्टछ करने और रोशनी फैलाने के महान संकल्प के साकार होने का सुख पाने वाला भी तो वही इकलौता होता है!...
वह लपककर आगे आया। हाथ बढ़ाकर मेरी कलाई सीधी की और घड़ी देखी। तुरंत हड़बड़ा खड़ा हुआ व अपना झोला उठा लिया, “..मुझे अब चलना चाहिए... हो सके तो कभी दो-चार दिनों का समय निकालकर आओ पलामू! मेरी दिली इच्छा है कि तुम जैसे वे लोग जो भारी मन से कभी गांवों की बदहाली की रिपोर्टें बटोरते फिरते थे, यहां आयें व अपनी आंखों ताजा परिदृश्य देख अपना कलेजा ठंडा करें! “
गतिपूर्वक बाहर निकलकर उसने झटके के साथ दरवाजा सटा दिया। उसकी अनुपस्थिति देर तक उपस्थित रही।
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