बुधवार, 8 फ़रवरी 2023

अहमद फ़राज़

 हम तो यूँ ख़ुश थे कि इक तार गरेबान में है 

क्या ख़बर थी कि बहार इस के भी अरमान में है 


एक ज़र्ब और भी ऐ ज़िंदगी-ए-तेशा-ब-दस्त 

साँस लेने की सकत अब भी मिरी जान में है 


मैं तुझे खो के भी ज़िंदा हूँ ये देखा तू ने 

किस क़दर हौसला हारे हुए इंसान में है 


फ़ासले क़ुर्ब के शो'लों को हवा देते हैं 

में तिरे शहर से दूर और तू मिरे ध्यान में है 


सर-ए-दीवार फ़रोज़ाँ है अभी एक चराग़ 

ऐ नसीम-ए-सहरी कुछ तिरे इम्कान में है 


दिल धड़कने की सदा आती है गाहे-गाहे 

जैसे अब भी तिरी आवाज़ मिरे कान में है 


ख़िल्क़त-ए-शहर के हर ज़ुल्म के बा-वस्फ़ 'फ़राज़' 

हाए वो हाथ कि अपने ही गरेबान में है 


अहमद फ़राज़

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