शुक्रवार, 10 फ़रवरी 2023

प्रेमचंद

 मुंशी प्रेमचंद 1935 के नवंबर महीने में दिल्ली आए। वे बंबई से वापस बनारस लौटते हुए दिल्ली में रुक गए थे। उनके मेजबान ‘रिसाला जामिया’ पत्रिका के संपादक अकील साहब थे। उन दिनों जामिया मिलिया इस्लामिया यूनिवर्सिटी करोल बाग में थी। उसे अलीगढ़ से दिल्ली शिफ्ट हुए कुछ समय ही हुआ था। प्रेमचंद और अकील साहब मित्र थे। जामिया में प्रेमचंद से मिलने वालों की कतार लग गई। इसी दौरान एक बैठकी में अकील साहब ने प्रेमचंद से यहां रहते हुए एक कहानी लिखने का आग्रह किया। ये बातें दिन में हो रही थीं। प्रेमचंद ने अपने मित्र को निराश नहीं किया। उन्होंने उसी रात को जामिया परिसर में अपनी कालजयी कहानी ‘कफन’ लिखी। वो उर्दू में लिखी गई थी। कफन का अगले दिन जामिया में पाठ भी हुआ। उसे कई लोगों ने सुना। ये कहानी त्रैमासिक पत्रिका ‘रिसाला जामिया’ के दिसंबर,1935 के अंक में छपी थी। ये अंक अब भी जामिया मिलिया इस्लामिया की लाइब्रेरी में है। ‘कफन’ को प्रेमचंद की अंतिम कहानी माना जाता है। 1936 में उनकी मृत्यु हो गई।


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नौकरी में ओहदे की ओर ध्यान मत देना, यह तो पीर का मज़ार है। निगाह चढ़ावे और चादर पर रखनी चाहिए। ऐसा काम ढूँढना जहाँ कुछ ऊपरी आय हो। मासिक वेतन तो पूर्णमासी का चाँद है, जो एक दिन दिखाई देता है और घटते-घटते लुप्त हो जाता है, ऊपरी आय बहता हुआ स्रोत है, जिससे सदैव प्यास बुझती है। वेतन मनुष्य देता है, इसी से उसमें वृद्धि नहीं होती। ऊपरी आमदनी ईश्वर देता है, इसी से उसकी बरकत होती है।


- प्रेमचंद


[ स्रोत : 'नमक का दारोगा' कहानी से ]

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