रविवार, 27 अगस्त 2023

निदा फ़ाज़ली की नजर में दुष्यंत कुमार



एक महान शायर निदा फाजली  द्वारा हिन्दी के पहले शायर गजलकार के तौर पर स्थापित और सर्वमान्य दुष्यंत कुमार की रचनाधर्मिता का मूल्यांकन


  

बुधवार, 10 अक्तूबर, 2007 को 04:09 GMT तक के समाचार

 

 

 

ग़ुस्से और नाराज़गी की आवाज़ थे दुष्यंत /  निदा फाजली 


  

बुधवार, 10 अक्तूबर, 2007 को 04:09 GMT तक के समाचार

 

 

 


 

 


दुष्यंत कुमार ने उसी आम आदमी की बात कही जिसकी बात कबीर और नज़ीर करते रहे। भारत में उत्तर प्रदेश हिंदी-उर्दू साहित्य की दृष्टि से बड़ा अमीर प्रांत है.


इसके हर नगर की मिट्टी में वह इतिहास सोया हुआ है, जिसको जाने बग़ैर न देश की सियासत को समझा जा सकता है और न इसकी संस्कृति विरासत को समझा जा सकता है.


राही मासूम रज़ा ने इसे 52 बेटों की माँ की उपमा से याद किया है. 52 कस्बों के इस प्रांत के एक नगर में कुछ दिन पहले मेरा जाने का इत्तिफाक़ हुआ था. शहरनुमा इस छोटी सी बस्ती बिजनौर में मुशायरा था. मुशायरे से पहले बस्ती में मुझे इधर-उधर धुमाया जा रहा था. मैं बातों में व्यस्त था-आँखें सुनने वालों के चेहरे पर थी और ज़मीन पर चल रहे थे पाँव.


रास्ता उत्तरप्रदेश के हर नगर की तरह मजनूँ के रेगिस्तान जैसा था जिस पर चलना आसान नहीं था. अचानक ठोकर लगी, पत्थर ने रोक कर चलते हुए क़दमों से मेरा नाम पूछा था. पैरों में जुबान नहीं थी...वे खामोश रहे. बस पत्थर मियाँ नाराज़ हो गए...मैं लड़खड़ा गया तो साथ वाले ने सहारा दिया और मुस्कुराते हुए कहा, "हुज़ूर यह बिजनौर है...यहाँ हर चीज़ क़ाबिले गौर है."


इस पत्थर की नाराज़गी पर मुझे अपना एक शेर याद आया,


पत्थरों की भी जुबाँ होती हैं दिल होते हैं

अपने घर के दरो-दीवार सजा कर देखो


सर सैयद अहमद खाँ के साथी शिब्ली नौमानी ने इस्लाम के पैगम्बर हज़रत मोहम्मद की आत्मकथा की पहली किताब, 'सीरतुन्नबी' के नाम से लिखी थी. इस किताब के चौथे संकलन में एक हदीस के हवाले से लिखा है, "हज़रत मोहम्मद ने एक शाम की यात्रा में एक पत्थर को देखकर फरमाया था-मैं इस पत्थर को पहचानता हूँ जो पैगम्बरी से पहले मुझे सलाम किया करता था."


बिजनौर के रास्ते के पत्थर ने मुझसे भी बात की थी. लेकिन मैं ठहरा एक साधारण इंसान. उसकी बात पर ध्यान नहीं दे पाया और उसने क्रोध में आकर मुझे ठोकर मार दी...ख़ैर मैंने उस पत्थर को मुआफ़ कर दिया क्योंकि वह उस नगर का पत्थर था जहाँ कभी मिर्ज़ा ग़ालिब के प्रख्यात आलोचक अब्दुर्रहमान बिजनौरी रहते थे.


ग़ालिब के संबंध में उनका एक वाक्य काफ़ी मशहूर हुआ, "भारत में दो ही महत्वपूर्ण पुस्तकें हैं, वेद मुकद्दस (पावन) और दूसरा दीवाने ग़ालिब." पता नहीं अब्दुर्रहमान बिजनौरी को वेदों की संख्या का ज्ञान था या नहीं. लेकिन एक पुस्तक की चार ग्रंथों से तुलना तर्क संगत नहीं लगती. फिर भी यह वाक्य बिजनौर के एक क़लमकार की कलम से निकला था और पूरे उर्दू-संसार में मशहूर हुआ.


ग़ज़ल का संसार


इस नगर के साथ दूसरा नाम जो याद आता है वह हिंदी ग़ज़लकार दुष्यंत कुमार का है.


दुष्यंत नाम के दर्शन पहली बार महान नाटककार कालीदास की नाट्य रचना 'शाकुंतलम' में होते हैं. उसमें यह नाम एक राजा का था, जो शकुंतला को अपने प्रेम की निशानी के रूप में एक अंगूठी देकर चला जाता है. और शकुंतला की जीवन यात्रा इसी अंगूठी के खोने और पाने के इर्द-गिर्द धूमती रहती है, उज्जैन नगरी के राजा दुष्यंत के सदियों बाद बिजनौर की धरती ने एक और दुष्यंत कुमार को जन्म दिया.


इस बार वह राजा नहीं थे, त्यागी थे. दुष्यंत कुमार त्यागी. इस दुष्यंत कुमार त्यागी के पास न राजा का अधिकार था, न अंगूठी का उपहार और न ही पहली नज़र में होने वाला प्यार था. 20वीं सदी के दुष्यंत को कालीदास के युग की विरासत में से बहुत कुछ त्यागना पड़ा. इस नए जन्म में वह आम आदमी थे. आम आदमी का समाज उनका समाज था. आम आदमी की लड़ाई में शामिल होना उनका रिवाज़ था. आम आदमी की तरह उनकी मंजिल भी सड़क, पानी और अनाज था.


इस आम आदमी का रूप उनके शेरों में कुछ इस तरह है-


हो गई है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए

अब हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए


इस नुमाइश में मिला वह चीथड़े पहने हुए

मैंने पूछा कौन, तो बोला कि हिंदुस्तान हूँ.


यहाँ तक आते-आते सूख जाती है कई नदियाँ

हमें मालूम है पानी कहाँ ठहरा हुआ होगा


कहाँ तो तय था चिराग़ाँ हरेक घर के लिए

कहाँ चिराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए


ये सारे शेर उन ग़ज़लों के हैं जो उनकी ग़ज़लों के संग्रह ‘साए में धूप’ में है.


यह पुस्तक उनके जीवन (जन्म-1933, मृत्यु-1975) की आख़िरी पुस्तक है. इन ग़ज़लों तक आते-आते वह नई कविता, नाटक और उपन्यासों की कई कृतियों से गुज़र चुके थे. इन कृतियों में 'एक कंठ विषपायी', 'सूर्य का स्वागत', 'आवाज़ों के घेरे', 'जलते हुए वन का बसंत', 'छोटे-छोटे सवाल' और दूसरी गद्य तथा कविता की किताबें शामिल हैं.


हैदराबाद के लोकप्रिय प्रगतिशील शायर मख़दूम मुहउद्दीन ने कहा था, "शायर को ग़ज़ल उम्र के कम से कम 40 साल पूरे करके शुरू करनी चाहिए." मख़दूम ने इशारे में ग़ज़ल विधा के संबंध में बहुत अहम बात कही है. इसके द्वारा उन्होंने ग़ज़ल में ख़याल की खपत, इस खपत में शब्दों की बुनत और इस बुनत में ध्वनियों की चलत को आईना दिखाया गया है. ग़ज़ल विचार भी है और अभिव्यक्ति का मैयार भी.


 

 दुष्यंत की नज़र उनके युग की नई पीढ़ी के ग़ुस्से और नाराज़गी से सजी बनी है. यह ग़ुस्सा और नाराज़गी उस अन्याय और राजनीति के कुकर्मो के ख़िलाफ़ नए तेवरों की आवाज़ थी, जो समाज में मध्यवर्गीय झूठेपन की जगह पिछड़े वर्ग की मेहनत और दया की नुमानंदगी करती है

 


दुष्यंत साहित्य में बहुत कुछ कर के और जीवन की बड़ी धूप-छाँव से गुज़र के ग़ज़ल विधा की ओर आए थे. दुष्यंत जिस समय ग़ज़ल संसार में दाखिल हुए उस समय भोपाल प्रगतिशील शायरों-ताज भोपाली और कैफ भोपाली की ग़ज़लों से जगमगा रहा था, इनके साथ हिंदी में जो आम आदमी अज्ञेय के ड्राइंगरूम से और मुक्तिबोध की काव्यभाषा से बाहर कर दिया गया था. बड़ी खामोशी से नागार्जुन और धूमिल की 'संसद से सड़क तक' की कविताओं में मुस्कुरा रहा था. इसी जमाने में फ़िल्मों में एक नए नाराज़ हीरो का आम आदमी के रूप में उदय हो रहा था.


दुष्यंत की ग़ज़ल के इर्द-गिर्द के समाज को जिन आँखों से देखा और दिखाया जा रहा था वह वही आदमी था जो पहले कबीर, नज़ीर और तुकाराम के यहाँ नज़र आया था, जिसने नागार्जुन और धूमिल के शब्दों को धारदार बनाया था. उसी ने दुष्यंत की ग़ज़ल को चमकाया था.


दुष्यंत की नज़र उनके युग की नई पीढ़ी के ग़ुस्से और नाराज़गी से सजी बनी है. यह ग़ुस्सा और नाराज़गी उस अन्याय और राजनीति के कुकर्मो के ख़िलाफ़ नए तेवरों की आवाज़ थी, जो समाज में मध्यवर्गीय झूठेपन की जगह पिछड़े वर्ग की मेहनत और दया की नुमानंदगी करती है.


विषय की तब्दीली के कारण, उनकी ग़ज़ल के क्राफ्ट में भी तब्दीली नज़र आती जो कहीं-कहीं लाउड भी महसूस होती है. लेकिन इस तब्दीली ने उनके ग़ज़ल को नए मिज़ाज के क़रीब भी किया है.


दुष्यंत ने केवल देश के आम आदमी से ही हाथ नहीं मिलाया उस आदमी की भाषा को भी अपनाया और उसी के द्वारा अपने दौर का दुख-दर्द गाया...


जिएँ तो अपने बगीचे में गुलमोहर के तले

मरें तो ग़ैर की गलियों में गुलमोहर के लिए

 

 

 

 निदा फ़ाज़ली

शायर और लेखक

 

 

 

दुष्यंत कुमार

दुष्यंत कुमार ने उसी आम आदमी की बात कही जिसकी बात कबीर और नज़ीर करते रहे

भारत में उत्तर प्रदेश हिंदी-उर्दू साहित्य की दृष्टि से बड़ा अमीर प्रांत है.


इसके हर नगर की मिट्टी में वह इतिहास सोया हुआ है, जिसको जाने बग़ैर न देश की सियासत को समझा जा सकता है और न इसकी संस्कृति विरासत को समझा जा सकता है.


राही मासूम रज़ा ने इसे 52 बेटों की माँ की उपमा से याद किया है. 52 कस्बों के इस प्रांत के एक नगर में कुछ दिन पहले मेरा जाने का इत्तिफाक़ हुआ था. शहरनुमा इस छोटी सी बस्ती बिजनौर में मुशायरा था. मुशायरे से पहले बस्ती में मुझे इधर-उधर धुमाया जा रहा था. मैं बातों में व्यस्त था-आँखें सुनने वालों के चेहरे पर थी और ज़मीन पर चल रहे थे पाँव.


रास्ता उत्तरप्रदेश के हर नगर की तरह मजनूँ के रेगिस्तान जैसा था जिस पर चलना आसान नहीं था. अचानक ठोकर लगी, पत्थर ने रोक कर चलते हुए क़दमों से मेरा नाम पूछा था. पैरों में जुबान नहीं थी...वे खामोश रहे. बस पत्थर मियाँ नाराज़ हो गए...मैं लड़खड़ा गया तो साथ वाले ने सहारा दिया और मुस्कुराते हुए कहा, "हुज़ूर यह बिजनौर है...यहाँ हर चीज़ क़ाबिले गौर है."


इस पत्थर की नाराज़गी पर मुझे अपना एक शेर याद आया,


पत्थरों की भी जुबाँ होती हैं दिल होते हैं

अपने घर के दरो-दीवार सजा कर देखो


सर सैयद अहमद खाँ के साथी शिब्ली नौमानी ने इस्लाम के पैगम्बर हज़रत मोहम्मद की आत्मकथा की पहली किताब, 'सीरतुन्नबी' के नाम से लिखी थी. इस किताब के चौथे संकलन में एक हदीस के हवाले से लिखा है, "हज़रत मोहम्मद ने एक शाम की यात्रा में एक पत्थर को देखकर फरमाया था-मैं इस पत्थर को पहचानता हूँ जो पैगम्बरी से पहले मुझे सलाम किया करता था."


बिजनौर के रास्ते के पत्थर ने मुझसे भी बात की थी. लेकिन मैं ठहरा एक साधारण इंसान. उसकी बात पर ध्यान नहीं दे पाया और उसने क्रोध में आकर मुझे ठोकर मार दी...ख़ैर मैंने उस पत्थर को मुआफ़ कर दिया क्योंकि वह उस नगर का पत्थर था जहाँ कभी मिर्ज़ा ग़ालिब के प्रख्यात आलोचक अब्दुर्रहमान बिजनौरी रहते थे.


ग़ालिब के संबंध में उनका एक वाक्य काफ़ी मशहूर हुआ, "भारत में दो ही महत्वपूर्ण पुस्तकें हैं, वेद मुकद्दस (पावन) और दूसरा दीवाने ग़ालिब." पता नहीं अब्दुर्रहमान बिजनौरी को वेदों की संख्या का ज्ञान था या नहीं. लेकिन एक पुस्तक की चार ग्रंथों से तुलना तर्क संगत नहीं लगती. फिर भी यह वाक्य बिजनौर के एक क़लमकार की कलम से निकला था और पूरे उर्दू-संसार में मशहूर हुआ.


ग़ज़ल का संसार


इस नगर के साथ दूसरा नाम जो याद आता है वह हिंदी ग़ज़लकार दुष्यंत कुमार का है.


दुष्यंत नाम के दर्शन पहली बार महान नाटककार कालीदास की नाट्य रचना 'शाकुंतलम' में होते हैं. उसमें यह नाम एक राजा का था, जो शकुंतला को अपने प्रेम की निशानी के रूप में एक अंगूठी देकर चला जाता है. और शकुंतला की जीवन यात्रा इसी अंगूठी के खोने और पाने के इर्द-गिर्द धूमती रहती है, उज्जैन नगरी के राजा दुष्यंत के सदियों बाद बिजनौर की धरती ने एक और दुष्यंत कुमार को जन्म दिया.


इस बार वह राजा नहीं थे, त्यागी थे. दुष्यंत कुमार त्यागी. इस दुष्यंत कुमार त्यागी के पास न राजा का अधिकार था, न अंगूठी का उपहार और न ही पहली नज़र में होने वाला प्यार था. 20वीं सदी के दुष्यंत को कालीदास के युग की विरासत में से बहुत कुछ त्यागना पड़ा. इस नए जन्म में वह आम आदमी थे. आम आदमी का समाज उनका समाज था. आम आदमी की लड़ाई में शामिल होना उनका रिवाज़ था. आम आदमी की तरह उनकी मंजिल भी सड़क, पानी और अनाज था.


इस आम आदमी का रूप उनके शेरों में कुछ इस तरह है-


हो गई है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए

अब हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए


इस नुमाइश में मिला वह चीथड़े पहने हुए

मैंने पूछा कौन, तो बोला कि हिंदुस्तान हूँ.


यहाँ तक आते-आते सूख जाती है कई नदियाँ

हमें मालूम है पानी कहाँ ठहरा हुआ होगा


कहाँ तो तय था चिराग़ाँ हरेक घर के लिए

कहाँ चिराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए


ये सारे शेर उन ग़ज़लों के हैं जो उनकी ग़ज़लों के संग्रह ‘साए में धूप’ में है.


यह पुस्तक उनके जीवन (जन्म-1933, मृत्यु-1975) की आख़िरी पुस्तक है. इन ग़ज़लों तक आते-आते वह नई कविता, नाटक और उपन्यासों की कई कृतियों से गुज़र चुके थे. इन कृतियों में 'एक कंठ विषपायी', 'सूर्य का स्वागत', 'आवाज़ों के घेरे', 'जलते हुए वन का बसंत', 'छोटे-छोटे सवाल' और दूसरी गद्य तथा कविता की किताबें शामिल हैं.


हैदराबाद के लोकप्रिय प्रगतिशील शायर मख़दूम मुहउद्दीन ने कहा था, "शायर को ग़ज़ल उम्र के कम से कम 40 साल पूरे करके शुरू करनी चाहिए." मख़दूम ने इशारे में ग़ज़ल विधा के संबंध में बहुत अहम बात कही है. इसके द्वारा उन्होंने ग़ज़ल में ख़याल की खपत, इस खपत में शब्दों की बुनत और इस बुनत में ध्वनियों की चलत को आईना दिखाया गया है. ग़ज़ल विचार भी है और अभिव्यक्ति का मैयार भी.


 

 दुष्यंत की नज़र उनके युग की नई पीढ़ी के ग़ुस्से और नाराज़गी से सजी बनी है. यह ग़ुस्सा और नाराज़गी उस अन्याय और राजनीति के कुकर्मो के ख़िलाफ़ नए तेवरों की आवाज़ थी, जो समाज में मध्यवर्गीय झूठेपन की जगह पिछड़े वर्ग की मेहनत और दया की नुमानंदगी करती है

 


दुष्यंत साहित्य में बहुत कुछ कर के और जीवन की बड़ी धूप-छाँव से गुज़र के ग़ज़ल विधा की ओर आए थे. दुष्यंत जिस समय ग़ज़ल संसार में दाखिल हुए उस समय भोपाल प्रगतिशील शायरों-ताज भोपाली और कैफ भोपाली की ग़ज़लों से जगमगा रहा था, इनके साथ हिंदी में जो आम आदमी अज्ञेय के ड्राइंगरूम से और मुक्तिबोध की काव्यभाषा से बाहर कर दिया गया था. बड़ी खामोशी से नागार्जुन और धूमिल की 'संसद से सड़क तक' की कविताओं में मुस्कुरा रहा था. इसी जमाने में फ़िल्मों में एक नए नाराज़ हीरो का आम आदमी के रूप में उदय हो रहा था.


दुष्यंत की ग़ज़ल के इर्द-गिर्द के समाज को जिन आँखों से देखा और दिखाया जा रहा था वह वही आदमी था जो पहले कबीर, नज़ीर और तुकाराम के यहाँ नज़र आया था, जिसने नागार्जुन और धूमिल के शब्दों को धारदार बनाया था. उसी ने दुष्यंत की ग़ज़ल को चमकाया था.


दुष्यंत की नज़र उनके युग की नई पीढ़ी के ग़ुस्से और नाराज़गी से सजी बनी है. यह ग़ुस्सा और नाराज़गी उस अन्याय और राजनीति के कुकर्मो के ख़िलाफ़ नए तेवरों की आवाज़ थी, जो समाज में मध्यवर्गीय झूठेपन की जगह पिछड़े वर्ग की मेहनत और दया की नुमानंदगी करती है.


विषय की तब्दीली के कारण, उनकी ग़ज़ल के क्राफ्ट में भी तब्दीली नज़र आती जो कहीं-कहीं लाउड भी महसूस होती है. लेकिन इस तब्दीली ने उनके ग़ज़ल को नए मिज़ाज के क़रीब भी किया है.


दुष्यंत ने केवल देश के आम आदमी से ही हाथ नहीं मिलाया उस आदमी की भाषा को भी अपनाया और उसी के द्वारा अपने दौर का दुख-दर्द गाया...


जिएँ तो अपने बगीचे में गुलमोहर के तले

मरें तो ग़ैर की गलियों में गुलमोहर के लिए

   


बुधवार, 10 अक्तूबर, 2007 को 04:09 GMT तक के समाचार

 

 

 

ग़ुस्से और नाराज़गी की आवाज़ थे दुष्यंत

 

 

 निदा फ़ाज़ली

शायर और लेखक

 

 

 

दुष्यंत कुमार

दुष्यंत कुमार ने उसी आम आदमी की बात कही जिसकी बात कबीर और नज़ीर करते रहे

भारत में उत्तर प्रदेश हिंदी-उर्दू साहित्य की दृष्टि से बड़ा अमीर प्रांत है.


इसके हर नगर की मिट्टी में वह इतिहास सोया हुआ है, जिसको जाने बग़ैर न देश की सियासत को समझा जा सकता है और न इसकी संस्कृति विरासत को समझा जा सकता है.


राही मासूम रज़ा ने इसे 52 बेटों की माँ की उपमा से याद किया है. 52 कस्बों के इस प्रांत के एक नगर में कुछ दिन पहले मेरा जाने का इत्तिफाक़ हुआ था. शहरनुमा इस छोटी सी बस्ती बिजनौर में मुशायरा था. मुशायरे से पहले बस्ती में मुझे इधर-उधर धुमाया जा रहा था. मैं बातों में व्यस्त था-आँखें सुनने वालों के चेहरे पर थी और ज़मीन पर चल रहे थे पाँव.


रास्ता उत्तरप्रदेश के हर नगर की तरह मजनूँ के रेगिस्तान जैसा था जिस पर चलना आसान नहीं था. अचानक ठोकर लगी, पत्थर ने रोक कर चलते हुए क़दमों से मेरा नाम पूछा था. पैरों में जुबान नहीं थी...वे खामोश रहे. बस पत्थर मियाँ नाराज़ हो गए...मैं लड़खड़ा गया तो साथ वाले ने सहारा दिया और मुस्कुराते हुए कहा, "हुज़ूर यह बिजनौर है...यहाँ हर चीज़ क़ाबिले गौर है."


इस पत्थर की नाराज़गी पर मुझे अपना एक शेर याद आया,


पत्थरों की भी जुबाँ होती हैं दिल होते हैं

अपने घर के दरो-दीवार सजा कर देखो


सर सैयद अहमद खाँ के साथी शिब्ली नौमानी ने इस्लाम के पैगम्बर हज़रत मोहम्मद की आत्मकथा की पहली किताब, 'सीरतुन्नबी' के नाम से लिखी थी. इस किताब के चौथे संकलन में एक हदीस के हवाले से लिखा है, "हज़रत मोहम्मद ने एक शाम की यात्रा में एक पत्थर को देखकर फरमाया था-मैं इस पत्थर को पहचानता हूँ जो पैगम्बरी से पहले मुझे सलाम किया करता था."


बिजनौर के रास्ते के पत्थर ने मुझसे भी बात की थी. लेकिन मैं ठहरा एक साधारण इंसान. उसकी बात पर ध्यान नहीं दे पाया और उसने क्रोध में आकर मुझे ठोकर मार दी...ख़ैर मैंने उस पत्थर को मुआफ़ कर दिया क्योंकि वह उस नगर का पत्थर था जहाँ कभी मिर्ज़ा ग़ालिब के प्रख्यात आलोचक अब्दुर्रहमान बिजनौरी रहते थे.


ग़ालिब के संबंध में उनका एक वाक्य काफ़ी मशहूर हुआ, "भारत में दो ही महत्वपूर्ण पुस्तकें हैं, वेद मुकद्दस (पावन) और दूसरा दीवाने ग़ालिब." पता नहीं अब्दुर्रहमान बिजनौरी को वेदों की संख्या का ज्ञान था या नहीं. लेकिन एक पुस्तक की चार ग्रंथों से तुलना तर्क संगत नहीं लगती. फिर भी यह वाक्य बिजनौर के एक क़लमकार की कलम से निकला था और पूरे उर्दू-संसार में मशहूर हुआ.


ग़ज़ल का संसार


इस नगर के साथ दूसरा नाम जो याद आता है वह हिंदी ग़ज़लकार दुष्यंत कुमार का है.


दुष्यंत नाम के दर्शन पहली बार महान नाटककार कालीदास की नाट्य रचना 'शाकुंतलम' में होते हैं. उसमें यह नाम एक राजा का था, जो शकुंतला को अपने प्रेम की निशानी के रूप में एक अंगूठी देकर चला जाता है. और शकुंतला की जीवन यात्रा इसी अंगूठी के खोने और पाने के इर्द-गिर्द धूमती रहती है, उज्जैन नगरी के राजा दुष्यंत के सदियों बाद बिजनौर की धरती ने एक और दुष्यंत कुमार को जन्म दिया.


इस बार वह राजा नहीं थे, त्यागी थे. दुष्यंत कुमार त्यागी. इस दुष्यंत कुमार त्यागी के पास न राजा का अधिकार था, न अंगूठी का उपहार और न ही पहली नज़र में होने वाला प्यार था. 20वीं सदी के दुष्यंत को कालीदास के युग की विरासत में से बहुत कुछ त्यागना पड़ा. इस नए जन्म में वह आम आदमी थे. आम आदमी का समाज उनका समाज था. आम आदमी की लड़ाई में शामिल होना उनका रिवाज़ था. आम आदमी की तरह उनकी मंजिल भी सड़क, पानी और अनाज था.


इस आम आदमी का रूप उनके शेरों में कुछ इस तरह है-


हो गई है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए

अब हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए


इस नुमाइश में मिला वह चीथड़े पहने हुए

मैंने पूछा कौन, तो बोला कि हिंदुस्तान हूँ.


यहाँ तक आते-आते सूख जाती है कई नदियाँ

हमें मालूम है पानी कहाँ ठहरा हुआ होगा


कहाँ तो तय था चिराग़ाँ हरेक घर के लिए

कहाँ चिराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए


ये सारे शेर उन ग़ज़लों के हैं जो उनकी ग़ज़लों के संग्रह ‘साए में धूप’ में है.


यह पुस्तक उनके जीवन (जन्म-1933, मृत्यु-1975) की आख़िरी पुस्तक है. इन ग़ज़लों तक आते-आते वह नई कविता, नाटक और उपन्यासों की कई कृतियों से गुज़र चुके थे. इन कृतियों में 'एक कंठ विषपायी', 'सूर्य का स्वागत', 'आवाज़ों के घेरे', 'जलते हुए वन का बसंत', 'छोटे-छोटे सवाल' और दूसरी गद्य तथा कविता की किताबें शामिल हैं.


हैदराबाद के लोकप्रिय प्रगतिशील शायर मख़दूम मुहउद्दीन ने कहा था, "शायर को ग़ज़ल उम्र के कम से कम 40 साल पूरे करके शुरू करनी चाहिए." मख़दूम ने इशारे में ग़ज़ल विधा के संबंध में बहुत अहम बात कही है. इसके द्वारा उन्होंने ग़ज़ल में ख़याल की खपत, इस खपत में शब्दों की बुनत और इस बुनत में ध्वनियों की चलत को आईना दिखाया गया है. ग़ज़ल विचार भी है और अभिव्यक्ति का मैयार भी.


 

 दुष्यंत की नज़र उनके युग की नई पीढ़ी के ग़ुस्से और नाराज़गी से सजी बनी है. यह ग़ुस्सा और नाराज़गी उस अन्याय और राजनीति के कुकर्मो के ख़िलाफ़ नए तेवरों की आवाज़ थी, जो समाज में मध्यवर्गीय झूठेपन की जगह पिछड़े वर्ग की मेहनत और दया की नुमानंदगी करती है

 


दुष्यंत साहित्य में बहुत कुछ कर के और जीवन की बड़ी धूप-छाँव से गुज़र के ग़ज़ल विधा की ओर आए थे. दुष्यंत जिस समय ग़ज़ल संसार में दाखिल हुए उस समय भोपाल प्रगतिशील शायरों-ताज भोपाली और कैफ भोपाली की ग़ज़लों से जगमगा रहा था, इनके साथ हिंदी में जो आम आदमी अज्ञेय के ड्राइंगरूम से और मुक्तिबोध की काव्यभाषा से बाहर कर दिया गया था. बड़ी खामोशी से नागार्जुन और धूमिल की 'संसद से सड़क तक' की कविताओं में मुस्कुरा रहा था. इसी जमाने में फ़िल्मों में एक नए नाराज़ हीरो का आम आदमी के रूप में उदय हो रहा था.


दुष्यंत की ग़ज़ल के इर्द-गिर्द के समाज को जिन आँखों से देखा और दिखाया जा रहा था वह वही आदमी था जो पहले कबीर, नज़ीर और तुकाराम के यहाँ नज़र आया था, जिसने नागार्जुन और धूमिल के शब्दों को धारदार बनाया था. उसी ने दुष्यंत की ग़ज़ल को चमकाया था.


दुष्यंत की नज़र उनके युग की नई पीढ़ी के ग़ुस्से और नाराज़गी से सजी बनी है. यह ग़ुस्सा और नाराज़गी उस अन्याय और राजनीति के कुकर्मो के ख़िलाफ़ नए तेवरों की आवाज़ थी, जो समाज में मध्यवर्गीय झूठेपन की जगह पिछड़े वर्ग की मेहनत और दया की नुमानंदगी करती है.


विषय की तब्दीली के कारण, उनकी ग़ज़ल के क्राफ्ट में भी तब्दीली नज़र आती जो कहीं-कहीं लाउड भी महसूस होती है. लेकिन इस तब्दीली ने उनके ग़ज़ल को नए मिज़ाज के क़रीब भी किया है.


दुष्यंत ने केवल देश के आम आदमी से ही हाथ नहीं मिलाया उस आदमी की भाषा को भी अपनाया और उसी के द्वारा अपने दौर का दुख-दर्द गाया...


जिएँ तो अपने बगीचे में गुलमोहर के तले

मरें तो ग़ैर की गलियों में गुलमोहर के लिए

   


बुधवार, 10 अक्तूबर, 2007 को 04:09 GMT तक के समाचार

 

 

 

ग़ुस्से और नाराज़गी की आवाज़ थे दुष्यंत

 

 

 निदा फ़ाज़ली

शायर और लेखक

 

 

 

दुष्यंत कुमार

दुष्यंत कुमार ने उसी आम आदमी की बात कही जिसकी बात कबीर और नज़ीर करते रहे

भारत में उत्तर प्रदेश हिंदी-उर्दू साहित्य की दृष्टि से बड़ा अमीर प्रांत है.


इसके हर नगर की मिट्टी में वह इतिहास सोया हुआ है, जिसको जाने बग़ैर न देश की सियासत को समझा जा सकता है और न इसकी संस्कृति विरासत को समझा जा सकता है.


राही मासूम रज़ा ने इसे 52 बेटों की माँ की उपमा से याद किया है. 52 कस्बों के इस प्रांत के एक नगर में कुछ दिन पहले मेरा जाने का इत्तिफाक़ हुआ था. शहरनुमा इस छोटी सी बस्ती बिजनौर में मुशायरा था. मुशायरे से पहले बस्ती में मुझे इधर-उधर धुमाया जा रहा था. मैं बातों में व्यस्त था-आँखें सुनने वालों के चेहरे पर थी और ज़मीन पर चल रहे थे पाँव.


रास्ता उत्तरप्रदेश के हर नगर की तरह मजनूँ के रेगिस्तान जैसा था जिस पर चलना आसान नहीं था. अचानक ठोकर लगी, पत्थर ने रोक कर चलते हुए क़दमों से मेरा नाम पूछा था. पैरों में जुबान नहीं थी...वे खामोश रहे. बस पत्थर मियाँ नाराज़ हो गए...मैं लड़खड़ा गया तो साथ वाले ने सहारा दिया और मुस्कुराते हुए कहा, "हुज़ूर यह बिजनौर है...यहाँ हर चीज़ क़ाबिले गौर है."


इस पत्थर की नाराज़गी पर मुझे अपना एक शेर याद आया,


पत्थरों की भी जुबाँ होती हैं दिल होते हैं

अपने घर के दरो-दीवार सजा कर देखो


सर सैयद अहमद खाँ के साथी शिब्ली नौमानी ने इस्लाम के पैगम्बर हज़रत मोहम्मद की आत्मकथा की पहली किताब, 'सीरतुन्नबी' के नाम से लिखी थी. इस किताब के चौथे संकलन में एक हदीस के हवाले से लिखा है, "हज़रत मोहम्मद ने एक शाम की यात्रा में एक पत्थर को देखकर फरमाया था-मैं इस पत्थर को पहचानता हूँ जो पैगम्बरी से पहले मुझे सलाम किया करता था."


बिजनौर के रास्ते के पत्थर ने मुझसे भी बात की थी. लेकिन मैं ठहरा एक साधारण इंसान. उसकी बात पर ध्यान नहीं दे पाया और उसने क्रोध में आकर मुझे ठोकर मार दी...ख़ैर मैंने उस पत्थर को मुआफ़ कर दिया क्योंकि वह उस नगर का पत्थर था जहाँ कभी मिर्ज़ा ग़ालिब के प्रख्यात आलोचक अब्दुर्रहमान बिजनौरी रहते थे.


ग़ालिब के संबंध में उनका एक वाक्य काफ़ी मशहूर हुआ, "भारत में दो ही महत्वपूर्ण पुस्तकें हैं, वेद मुकद्दस (पावन) और दूसरा दीवाने ग़ालिब." पता नहीं अब्दुर्रहमान बिजनौरी को वेदों की संख्या का ज्ञान था या नहीं. लेकिन एक पुस्तक की चार ग्रंथों से तुलना तर्क संगत नहीं लगती. फिर भी यह वाक्य बिजनौर के एक क़लमकार की कलम से निकला था और पूरे उर्दू-संसार में मशहूर हुआ.


ग़ज़ल का संसार


इस नगर के साथ दूसरा नाम जो याद आता है वह हिंदी ग़ज़लकार दुष्यंत कुमार का है.


दुष्यंत नाम के दर्शन पहली बार महान नाटककार कालीदास की नाट्य रचना 'शाकुंतलम' में होते हैं. उसमें यह नाम एक राजा का था, जो शकुंतला को अपने प्रेम की निशानी के रूप में एक अंगूठी देकर चला जाता है. और शकुंतला की जीवन यात्रा इसी अंगूठी के खोने और पाने के इर्द-गिर्द धूमती रहती है, उज्जैन नगरी के राजा दुष्यंत के सदियों बाद बिजनौर की धरती ने एक और दुष्यंत कुमार को जन्म दिया.


इस बार वह राजा नहीं थे, त्यागी थे. दुष्यंत कुमार त्यागी. इस दुष्यंत कुमार त्यागी के पास न राजा का अधिकार था, न अंगूठी का उपहार और न ही पहली नज़र में होने वाला प्यार था. 20वीं सदी के दुष्यंत को कालीदास के युग की विरासत में से बहुत कुछ त्यागना पड़ा. इस नए जन्म में वह आम आदमी थे. आम आदमी का समाज उनका समाज था. आम आदमी की लड़ाई में शामिल होना उनका रिवाज़ था. आम आदमी की तरह उनकी मंजिल भी सड़क, पानी और अनाज था.


इस आम आदमी का रूप उनके शेरों में कुछ इस तरह है-


हो गई है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए

अब हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए


इस नुमाइश में मिला वह चीथड़े पहने हुए

मैंने पूछा कौन, तो बोला कि हिंदुस्तान हूँ.


यहाँ तक आते-आते सूख जाती है कई नदियाँ

हमें मालूम है पानी कहाँ ठहरा हुआ होगा


कहाँ तो तय था चिराग़ाँ हरेक घर के लिए

कहाँ चिराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए


ये सारे शेर उन ग़ज़लों के हैं जो उनकी ग़ज़लों के संग्रह ‘साए में धूप’ में है.


यह पुस्तक उनके जीवन (जन्म-1933, मृत्यु-1975) की आख़िरी पुस्तक है. इन ग़ज़लों तक आते-आते वह नई कविता, नाटक और उपन्यासों की कई कृतियों से गुज़र चुके थे. इन कृतियों में 'एक कंठ विषपायी', 'सूर्य का स्वागत', 'आवाज़ों के घेरे', 'जलते हुए वन का बसंत', 'छोटे-छोटे सवाल' और दूसरी गद्य तथा कविता की किताबें शामिल हैं.


हैदराबाद के लोकप्रिय प्रगतिशील शायर मख़दूम मुहउद्दीन ने कहा था, "शायर 


को ग़ज़ल उम्र के कम से कम 40 साल पूरे करके शुरू करनी चाहिए." मख़दूम ने इशारे में ग़ज़ल विधा के संबंध में बहुत अहम बात कही है. इसके द्वारा उन्होंने ग़ज़ल में ख़याल की खपत, इस खपत में शब्दों की बुनत और इस बुनत में ध्वनियों की चलत को आईना दिखाया गया है. ग़ज़ल विचार भी है और अभिव्यक्ति का मैयार भी.


 

 दुष्यंत की नज़र उनके युग की नई पीढ़ी के ग़ुस्से और नाराज़गी से सजी बनी है. यह ग़ुस्सा और नाराज़गी उस अन्याय और राजनीति के कुकर्मो के ख़िलाफ़ नए तेवरों की आवाज़ थी, जो समाज में मध्यवर्गीय झूठेपन की जगह पिछड़े वर्ग की मेहनत और दया की नुमानंदगी करती है

 


दुष्यंत साहित्य में बहुत कुछ कर के और जीवन की बड़ी धूप-छाँव से गुज़र के ग़ज़ल विधा की ओर आए थे. दुष्यंत जिस समय ग़ज़ल संसार में दाखिल हुए उस समय भोपाल प्रगतिशील शायरों-ताज भोपाली और कैफ भोपाली की ग़ज़लों से जगमगा रहा था, इनके साथ हिंदी में जो आम आदमी अज्ञेय के ड्राइंगरूम से और मुक्तिबोध की काव्यभाषा से बाहर कर दिया गया था. बड़ी खामोशी से नागार्जुन और धूमिल की 'संसद से सड़क तक' की कविताओं में मुस्कुरा रहा था. इसी जमाने में फ़िल्मों में एक नए नाराज़ हीरो का आम आदमी के रूप में उदय हो रहा था.


दुष्यंत की ग़ज़ल के इर्द-गिर्द के समाज को जिन आँखों से देखा और दिखाया जा रहा था वह वही आदमी था जो पहले कबीर, नज़ीर और तुकाराम के यहाँ नज़र आया था, जिसने नागार्जुन और धूमिल के शब्दों को धारदार बनाया था. उसी ने दुष्यंत की ग़ज़ल को चमकाया था.


दुष्यंत की नज़र उनके युग की नई पीढ़ी के ग़ुस्से और नाराज़गी से सजी बनी है. यह ग़ुस्सा और नाराज़गी उस अन्याय और राजनीति के कुकर्मो के ख़िलाफ़ नए तेवरों की आवाज़ थी, जो समाज में मध्यवर्गीय झूठेपन की जगह पिछड़े वर्ग की मेहनत और दया की नुमानंदगी करती है.


विषय की तब्दीली के कारण, उनकी ग़ज़ल के क्राफ्ट में भी तब्दीली नज़र आती जो कहीं-कहीं लाउड भी महसूस होती है. लेकिन इस तब्दीली ने उनके ग़ज़ल को नए मिज़ाज के क़रीब भी किया है.


दुष्यंत ने केवल देश के आम आदमी से ही हाथ नहीं मिलाया उस आदमी की भाषा को भी अपनाया और उसी के द्वारा अपने दौर का दुख-दर्द गाया...


जिएँ तो अपने बगीचे में गुलमोहर के तले

मरें तो ग़ैर की गलियों में गुलमोहर के लिए

बुधवार, 23 अगस्त 2023

पंछी बोला चार पहर:

 पंछी बोला चार पहर:       (लोक-कथा)


पुराने समय की बात है। एक राजा था। वह बड़ा समझदार था और हर नई बात को जानने को इच्छुक रहता था। उसके महल के आंगनमें एक बकौली का पेड़ था। रात को रोज नियम से एक पक्षी उस पेड़ पर आकर बैठता और रात के चारों पहरों के लिए अलग-अलग चार तरह की बातें कहा करता। पहले पहर में कहता :


“किस मुख दूध पिलाऊं,

किस मुख दूध पिलाऊं”


दूसरा पहर लगते बोलता :

“ऐसा कहूं न दीख,

ऐसा कहूं न दीख !”


जब तीसरा पहर आता तो कहने लगता :

“अब हम करबू का,

अब हम करबू का ?”


जब चौथा पहर शुरू होता तो वह कहता :

“सब बम्मन मर जायें,

सब बम्मन मर जायें !”


राजा रोज रात को जागकर पक्षी के मुख से चारों पहरों की चार अलग-अलग बातें सुनता। सोचता, पक्षी क्या कहता ?पर उसकी समझ में कुछ न आता। राजा की चिन्ता बढ़ती गई। जब वह उसका अर्थ निकालने में असफल रहा तो हारकर उसने अपने पुरोहित को बुलाया। उसे सब हाल सुनाया और उससे पक्षी के प्रशनों का उत्तर पूछा। पुरोहित भी एक साथ उत्तर नहीं दे सका। उसने कुछ समय की मुलत मांगी और चिंतित होकर घर चला आया। उसके सिर में राजा की पूछी गई चारों बातें बराबर चक्कर काटती रहीं। वह बहुतेरा सोचता, पर उसे कोई जवाब न सूझता। अपने पति को हैरान देखकर ब्राह्रणी ने पूछा, “तुम इतने परेशान क्यों दीखते हो ? मुझे बताओ, बात क्या है ?”


ब्राह्मणी ने कहा, “क्या बताऊं ! एक बड़ी ही कठिन समस्या मेरे सामने आ खड़ी हुई है। राजा के महल का जो आंगन है, वहां रोज रात को एक पक्षी आता है और चारों पहरों मे नितय नियम से चार आलग-अलग बातें कहता है। राजा पक्षी की उन बातों का मतलब नहीं समझा तो उसने मुझसे उनका मतलब पूछा। पर पक्षी की पहेलियां मेरी समझ में भी नहीं आतीं। राजा को जाकर क्या जवाब दूं, बस इसी उधेड़-बुन में हूं।”


ब्राह्मणी बोली, “पक्षी कहता क्या है? जरा मुझे भी सुनाओ।”


ब्राह्मणी ने चारों पहरों की चारों बातें कह सुनायीं। सुनकर ब्राह्मणी बोली। “वाह, यह कौन कठिन बात है! इसका उत्तर तो मैं दे सकती हूं। चिंता मत करो। जाओ, राजा से जाकर कह दो कि पक्षी की बातों का मतलब मैं बताऊंगी।”


ब्राह्मण राजा के महल में गया और बोला, “महाराज, आप जो पक्षी के प्रश्नों के उत्तर जानना चाहते हैं, उनको मेरी स्त्री बता सकती है।”


पुरोहित की बात सुनकर राजा ने उसकी स्त्री को बुलाने के लिए पालकी भेजी। ब्राह्मणी आ गई। राजा-रानी ने उसे आदर से बिठाया। रात हुई तो पहले पहर पक्षी बोला:

“किस मुख दूध पिलाऊं,

किस मुख दूध पिलाऊं ?”

राजा ने कहा, “पंडितानी, सुन रही हो, पक्षी क्या बोलता है?”

वह बोली, “हां, महाराज ! सुन रहीं हूं। वह अधकट बात कहता है।”

राजा ने पूछा, “अधकट बात कैसी ?”

पंडितानी ने उत्तर दिया, “राजन्, सुनो, पूरी बात इस प्रकार है-

लंका में रावण भयो बीस भुजा दश शीश,

माता ओ की जा कहे, किस मुख दूध पिलाऊं।

किस मुख दूध पिलाऊं ?”

लंका में रावण ने जन्म लिया है, उसकी बीस भुजाएं हैं और दश शीश हैं। उसकी माता कहती है कि उसे उसके कौन-से मुख से दूध पिलाऊं?”

राज बोला, “बहुत ठीक ! बहुत ठीक ! तुमने सही अर्थ लगा लिया।”

दूसरा पहर हुआ तो पक्षी कहने लगा :

ऐसो कहूं न दीख,

ऐसो कहूं न दीख।

राजा बोला, ‘पंडितानी, इसका क्या अर्थ है ?”

पडितानी ने समझाया, “महाराज ! सुनो, पक्षी बोलता है :

“घर जम्ब नव दीप

बिना चिंता को आदमी,

ऐसो कहूं न दीख,

ऐसो कहूं न दीख !”


चारों दिशा, सारी पृथ्वी, नवखण्ड, सभी छान डालो, पर बिना चिंता का आदमी नहीं मिलेगा। मनुष्य को कोई-न-कोई चिंता हर समय लगी ही रहती है। कहिये, महाराज! सच है या नहीं ?”


राजा बोला, “तुम ठीक कहती हो।”

तीसरा पहर लगा तो पक्षी ने रोज की तरह अपी बात को दोहराया :

“अब हम करबू का,

अब हम करबू का ?”

ब्राह्मणी राजा से बोली, “महाराज, इसका मर्म भी मैं आपको बतला देती हूं। सुनिये:

पांच वर्ष की कन्या साठे दई ब्याह,

बैठी करम बिसूरती, अब हम करबू का,

अब हम करबू का।


पांच वर्ष की कन्या को साठ वर्ष के बूढ़े के गले बांध दो तो बेचारी अपना करम पीट कर यही कहेगी-‘अब हम करबू का, अब हम करबू का ?” सही है न, महाराज !”


राजा बोला, “पंडितानी, तुम्हारी यह बात भी सही लगी।”

चौथा पहर हुआ तो पक्षी ने चोंच खोली :

“सब बम्मन मर जायें,

सब बम्मन मर जायें !”

तभी राज ने ब्राह्मणी से कहा, “सुनो, पंडितानी, पक्षी जो कुछ कह रहा है, क्या वह उचित है ?”

ब्रहाणी मुस्कायी और कहने लगी, “महाराज ! मैंने पहले ही कहा है कि पक्षी अधकट बात कहता है। वह तो ऐसे सब ब्राह्मणों के मरने की बात कहता है :

विश्वा संगत जो करें सुरा मांस जो खायें,

बिना सपरे भोजन करें, वै सब बम्मन मर जायें

वै सब बम्मन मर जायें।



प्रस्तुति - रेणु दत्ता /आशा सिन्हा


जो ब्राह्मणी वेश्या की संगति करते हैं, सुरा ओर मांस का सेवन करते हैं और बिना स्नान किये भोजन करते हैं, ऐसे सब ब्राह्मणों का मर जाना ही उचित है। जब बोलिये, पक्षी का कहना ठीक है या नहीं ?”

राजा ने कहा, “तुम्हारी चारों बातें बावन तोला, पाव रत्ती ठीक लगीं। तुम्हारी बुद्धि धन्य है !”

राजा-रानी ने उसको बढ़िया कपड़े और गहने देकर मान-सम्मान से विदा किया। अब पुरोहित का आदर भी राजदरबार में पहले से अधिक बढ़ गया।



जादोपटिया चित्रकला

 

जादोपटिया चित्रकला

भारत में संथाल जनजाति द्वारा बनाई गई चित्रकारी



प्रस्तुति - राकेश / रागिनी 

जादोपटिया या जादुपटुआ चित्रकला, भारत में संताल और भूमिज जनजाति की एक लोक चित्रकला है, जो इस समाज के इतिहास और दर्शन को पूर्णतः अभिव्यक्त करने की क्षमता रखती है।[1] यह चित्रकला पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबादबीरभूमबांकुड़ाहुगलीबर्दमान और मिदनापुर जिलों तथा झारखंड-बिहार के सीमावर्ती क्षेत्रों में लोकप्रिय थी। इस चित्रकला को प्रदर्शित करने वाले को जादुपटुआ या जादू-पट कहा जाता है।

जदुपटुआ का शाब्दिक अर्थ है "जादुई चित्रकार"। जादुपटुआ संताल और भूमिज जनजातीय संस्कृति के लिए महत्वपूर्ण मिथकों और कहानियों को चित्रित करने वाली कहानी-पुस्तकें चित्रित करते हैं।[2][3] इसके अतिरिक्त, जब संथाल या भूमिज समुदाय में किसी व्यक्ति की मृत्यु होती है, तो एक जादुपटुआ महिलाओं, पुरुषों और बच्चों के चित्रों (जिनमें से प्रत्येक की आंखों में एक पुतली नहीं होती है) के ढेर के साथ मृतक परिवार के पास जाता है। जादुपटुआ मृतक के लिए उपयुक्त एक छवि का चयन करता है और पुतली में अनुष्ठानिक रूप से रंग डालता है। इस प्रकार मृत व्यक्ति की आत्मा को परलोक में अंधे की तरह भटकने से बचाया जाता है, इसे शैली को चक्षुदान पाट कहा जाता है।[4] कला इतिहासकार, मिल्ड्रेड आर्चर ने चक्षुदान पाट शैली के अलावा जाटुपटिया चित्रकला के सात अलग-अलग विषयों की पहचान की है, जिनमें मौत का साम्राज्य, बाहा पोरोब, सृजन की कहानी, ठाकुर जिउ, सत्य पीर और जात्रा शामिल हैं।

जादुपटुआ चित्रकला

जादुपटुआ द्वारा स्क्रॉल पर जादोपटिया चित्रकला चित्रित किए जाते हैं, जो गांव-गांव घूमते हुए स्क्रॉल दिखाते हैं और सृजन, मृत्यु और जीवन की पारंपरिक कहानियों गाते हुए अपना जीवनयापन करते हैं। स्क्रॉल में बीस या अधिक कहानी पैनल होते हैं जो लंबवत रूप से व्यवस्थित होते हैं, जो कहानी के गाए जाने पर अनियंत्रित किए जाते हैं। पुराने स्क्रॉल कपड़े पर चित्रित किए जाते थे।[5]

जादुपटुआ द्वारा उपयोग किए जाने वाले ब्रश बकरी के बालों के गुच्छे होते थे, जो एक छोटी सी छड़ी या साही की कलम से बंधे होते थे। पहले चित्र वनस्पति पदार्थ या खनिजों से बने प्राकृतिक रंगों से बनाए जाते थे, जैसे काले रंग के लिए कालिख, लाल रंग के लिए सिंदूर और गहरे लाल भूरे रंग के लिए नदी के किनारे की लाल मिट्टी का इस्तेमाल करते थे।

साहित्य के माध्यम से कौशल विकास ( दक्षिण भारत के साहित्य के आलोक में )

 14 दिसंबर, 2024 केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा के हैदराबाद केंद्र केंद्रीय हिंदी संस्थान हैदराबाद  साहित्य के माध्यम से मूलभूत कौशल विकास (दक...