बुधवार, 9 फ़रवरी 2022

कभी फुरसत मिले तो फ़ातेहा पढने चले आना.../ आलोक यात्री

 निदा फ़ाज़ली की मोहक मधुर यादों की विनम्र श्रद्धांजलि 🙏🏿


  छठी बरसी पर 'निदा' फ़ाज़ली यानी मुक़तदा हसन फ़ाज़ली साहब शिद्दत से याद आए। 'निदा' फ़ाज़ली किसी तार्रुफ़ के मोहताज नहीं हैं। वह मशहूर शायर और गीतकार होने के साथ-साथ एक नेक, उदारहृदय और आदतन खुशमिजाज शख्स थे। जब वह मशहूर हो रहे थे तो हम जवान हो रहे थे और साथ ही अदब का ककहरा भी पढ़ रहे थे। अदब का ककहरा पढ़ाने वालों में जनाब डॉ. कुंअर बेचैन, डॉ. ज़की तारिक और जनाब सरवर हसन ख़ान सरवर साहब पहली कतार में थे। दूसरी कतार में थीं मेरी उस्ताद मरहूम शायरा मीनाक्षी (वर्मा) जी।   

  यह वह दौर था जब हम यानि के मैं, नेहा वैद, रवि अरोड़ा, अक्षयवरनाथ श्रीवास्तव, दलजीत सचदेव, हेमंत आदि कॉलेज के फाइनल ईयर्स में थे। मीनाक्षी जी को मैं हिंदी पढ़ाता था और वह मुझे अंग्रेजी। अब मैं उनसे कितनी अंग्रेजी सीख पाया या उनके हिंदी के ज्ञान में कितनी वृद्धि कर पाया, कहना कठिन है।‌ हां इतना ज़रूर हुआ कि वह मुझे हिंदी में ख़त लिखने लगीं थीं। लेकिन मैं बतौर उनका स्टूडेंट अंग्रेजी में ख़त लिखने में पारंगत न हो सका।

  कहना न होगा कि मेरी सोहबत में अंग्रेजी की प्रकांड ज्ञाता मीनाक्षी जी हिंदी साहित्य की डगर से होते हुए उर्दू के मार्ग पर चल पड़ीं।‌ उन्हें उर्दू सिखाने की ज़िम्मेदारी निभाई ज़की भाई ने। मीनाक्षी जी जल्द ही उर्दू में भी पारंगत हो गईं और बाकायदा शेर कहने लगीं। शेर और नज़्म से होते हुए उनका दखल ग़ज़ल में भी हो गया। बाद में उनका एक मज़मुआ भी आया 'बंधी ख़ुशबू' उन्वान से।

  तो मै बात कर रहा था निदा फ़ाज़ली साहब की...। कॉलेज के फाइनल इयर्स के दौरान ही ग़ाज़ियाबाद में अदब की दुनिया में कई नए अध्याय जुड़ रहे थे। कॉलेज स्तर पर जहां कविता व वाद-विवाद प्रतियोगिताएं आयोजित होने लगीं थीं, वही विश्व विद्यालय स्तर पर भी विविध आयोजन होने लगे थे।‌ छात्रों के प्रोत्साहन के लिए मोदी कला भारती जैसी वार्षिक प्रतिष्ठित साहित्यिक स्पर्धा आयोजित होती थीं। पीडब्ल्यूए और इप्टा जैसे संगठन भी यहां अपनी उपस्थिति दर्ज़ करने लगे थे। लोक परिषद और अदबी संगम जैसी संस्थाओं की गतिविधियां भी अपनी गति से चल रहीं थीं। लेकिन कोई सांस्कृतिक केंद्र ऐसा नहीं था जहां साहित्यिक गतिविधियों को मूर्त रूप दिया जा सके।‌ 

  ऐसे में चौधरी थिएटर के निर्माण के साथ गीता गोष्ठी कक्ष भी अस्तित्व में आया और‌ ग़ाज़ियाबाद के अदबी सफ़र को पंख लग गए। गीता गोष्ठी कक्ष के निर्माता श्री हरियंत चौधरी जी ने साहित्य को पोषित करने से कभी गुरेज नहीं किया। बल्कि उनकी अगुवाई में अदबी संगम के परचम तले एक से एक लाज़वाब मुशायरे हुए। जिनमें देश विदेश के कई नामी-गिरामी शायरों ने शिरकत की। कैफ़ी आज़मी, नीरज, बशीर बदर,  केदारनाथ अग्रवाल और निदा फ़ाज़ली आदि उन हस्तियों में रहे जिन्होंने गणतंत्र दिवस के मुशायरे व कवि सम्मेलन के बाद भी गीता गोष्ठी कक्ष में महफ़िलें आबाद कीं। इन आयोजनों में हिन्दी के प्रवक्ता ब्रजनाथ गर्म जी की सक्रियता और समर्पण काबिल ए तारीफ था। ग़ाज़ियाबाद की भूमि को साहित्यिक तौर पर उर्वरक बनाने में उनके योगदान को कभी विस्मृत नहीं किया जा सकता।

  निदा फ़ाज़ली साहब भी उन अदीबों में से थे जो ज़की भाई के बुलावे पर ग़ाज़ियाबाद तशरीफ़ लाए थे। उनके ग़ाज़ियाबाद प्रवास के दौरान मुझे भी उनसे कई मुलाकातों का सौभाग्य प्राप्त हुआ। वह हम लोगों के साथ रिक्शे में भी कई जगह घूमे। यहां तक की फुटपाथी पान और चाय के खोखे पर बेहिचक रुक कर पान और चाय का आनंद लेने में भी उन्हें कोई गुरेज नहीं था। उनके ग़ाज़ियाबाद प्रवास के दौरान यह कतई नहीं लगा कि इतनी बड़ी शख्शियत हमारे बीच है। प्रवास के दौरान एक दिन वह ज़की भाई के साथ मीनाक्षी वर्मा जी के घर जा पहुंचे। जहां उन्होंने कई घंटे गुज़ारे। इतने करीब से उन्हें देखना, सुनना और निहारना अपने आप में एक अनुभव ही था। जिसके तिलिस्म से मैं आज भी आज़ाद नहीं हुआ हूं। उस दिन के बाद तो वह मेरे पसंदीदा शायर हो गए। उनके तमाम मजमुए तलाश कर पढ़े जाते।

  'बीच की दीवारें' (शायद) शीर्षक का उनका एक उपन्यास भी हाथ लगा। तब तक वह शोहरत की बुंलदियां छू रहे थे। नज़्म, शेर, ग़ज़ल, दोहे में महारत हासिल कर चुके निदा फ़ाज़ली ने उपन्यास भी बेमिसाल लिखा। निदा फ़ाज़ली ऐसे शायर हैं जिसने अपने अपने युग की ज़बान में दुनिया से बात की। निदा फाज़ली के कई शे'र और दोहे हमारी बोलचाल के मुहावरे बन चुके हैं। ये एक ऐसी विशेषता है जो उन्हीं का हिस्सा है। मसलन 

      वह सूफी का कौल हो या पण्डित का ज्ञान

      जितनी बीते आप पर, उतना ही सच मान।

  निदा फ़ाज़ली उर्दू और हिन्दी के एक ऐसे अदीब, शायर, गीतकार, संवाद लेखक और पत्रकार थे जिन्होंने उर्दू शायरी को एक ऐसा लब-ओ-लहजा और शैली दी जिसे उर्दू अदब के अभिजात्य वर्ग ने पहले तवज्जो नहीं दी। लेकिन उनके कहे का जादू जब सिर चढ़ कर बोला तो वह दुनिया के चहेते शायर बन गए। उनकी शायरी में उर्दू का एक नया शे’री मुहावरा वजूद में आया। जिसने नई पीढ़ी को आकर्षित और प्रभावितर किया। उनकी अभिव्यक्ति में संतों की बानी जैसी सादगी, एक क़लंदराना अंदाज़ और लोक गीतों जैसी मिठास है। उन्होंने अमीर ख़ुसरो, मीर, रहीम और नज़ीर अकबराबादी की भूली-बिसरी काव्य परंपरा से दुबारा रिश्ता जोड़ने की कोशिश करते हुए न केवल उस रिवायत को पुनः स्थापित किया बल्कि उसमें वर्तमान काल की भाषाई प्रतिभा जोड़ कर उर्दू के गद्य साहित्य में भी नई संभावनाओं को जन्म दिया

  अपनी शायरी के बारे में निदा का कहना था "मेरी शायरी न सिर्फ अदब और उसके पाठकों के रिश्ते को ज़रूरी मानती है बल्कि उसके सामाजिक सरोकार को अपना मयार भी बनाती है। मेरी शायरी बंद कमरों से बाहर निकल कर चलती फिरती ज़िंदगी का साथ निभाती है। उन हलक़ों में जाने से भी नहीं हिचकिचाती जहां रोशनी भी मुश्किल से पहुंच पाती है। मैं अपनी ज़बान तलाश करने सड़कों पर, गलियों में, जहां शरीफ़ लोग जाने से कतराते हैं, वहां जा कर अपनी ज़बान लेता हूं। जैसे मीर, कबीर और रहीम की ज़बानें। मेरी ज़बान न चेहरे पर दाढ़ी बढ़ाती है और न पेशानी पर तिलक लगाती है।"

  निदा की शायरी हमेशा सैद्धांतिक हठधर्मिता और दावेदारी से पाक रही। उन्होंने प्रतीकों के द्वारा ऐसी आकृति गढ़ी कि पाठक को उसे समझने के लिए कोई ज़ेहनी वरज़िश नहीं करनी पड़ती। उनके काव्य पात्र ऊधम मचाते हुए शरारती बच्चे, अपने रास्ते चलती कोई सांवली सी लड़की, रोता हुआ कोई बच्चा, घर में काम करने वाली बाई जैसे लोग हैं। निदा के यहां मां का किरदार बहुत अहम है। जिसे वह कभी नहीं भूल पाते। मसलन... 

      बेसन की सोंधी रोटी पर खट्टी चटनी जैसी मां     

      याद आती है चौका बासन, चिमटा, फुंकनी   

      जैसी मां


  उनसे मुलाक़ात का दूसरा अवसर हाथ आते-आते निकल गया। पेशे से पेंटर रहे भाई‌ प्रवीण गुप्ता जी, ज़की भाई और मेरे बीच अगस्त 2015 में प्रवीण भाई के दफ्तर में यह तय पाया गया कि ग़ाज़ियाबाद में 'एक शाम निदा के नाम' कार्यक्रम किया जाए। उन्हें दावतनामा देने में भाई सुबोध शर्मा और भाई अनिल दरवेश जी ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। यह दुर्भाग्य ही है कि आज निदा फ़ाज़ली, प्रवीण गुप्ता, अनिल दरवेश और सुबोध शर्मा चारों ही हमारे बीच नहीं हैं। यह कार्यक्रम हुआ भी। लेकिन उसकी कथा फिर सही...। होटल मेला प्लाजा में उन्हें देर तक सुना गया। आज वह हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनकी ग़ज़लें उनकी शख़्सियत का आईना हैं, जो आज भी उनके होने का एहसास कराती हैं।

  कल बरसी पर वह शिद्दत से याद आए। ज़की भाई से फोन पर संवाद के दौरान उन्हें देर तक याद किया गया। वह ज़ेहन के किसी कौने में आज भी महफूज़ हैं, ग़ाज़ियाबाद की सड़कों पर पायजामा, कुर्ते, चप्पल पहने हमारे साथ पैदल फिरते, चाय की चुस्की पान का मज़ा लेते से...।

 निदा फ़ाज़ली साहब को उन्हीं की एक नज़्म श्रद्धांजलि स्वरूप समर्पित है


तुम्हारी कब्र पर मैं

फ़ातेहा पढ़ने नही आया,

मुझे मालूम था, तुम मर नही सकते

तुम्हारी मौत की सच्ची खबर

जिसने उड़ाई थी, वो झूठा था,

वो तुम कब थे?

कोई सूखा हुआ पत्ता, हवा मे गिर के टूटा था।

मेरी आंखें

तुम्हारी मंज़रो मे कैद हैं अब तक

मैं जो भी देखता हूं, सोचता हूं

वो, वही है

जो तुम्हारी नेकनामी और बदनामी की दुनिया थी

कहीं कुछ भी नहीं बदला,

तुम्हारे हाथ मेरी उंगलियों में सांस लेते हैं,

मैं लिखने के लिये जब भी कागज कलम उठाता हूं,

तुम्हें बैठा हुआ मैं अपनी कुर्सी में पाता हूं |

बदन में मेरे जितना भी लहू है,

वो तुम्हारी लगजिशों, नाकामियों के साथ बहता है,

मेरी आवाज में छुपकर तुम्हारा जेहन रहता है,

मेरी बीमारियों में तुम मेरी लाचारियों में तुम।

तुम्हारी कब्र पर जिसने तुम्हारा नाम लिखा है,

वो झूठा है, वो झूठा है, वो झूठा है...

तुम्हारी कब्र में मैं दफन, तुम मुझमें जिन्दा हो,

कभी फुरसत मिले तो फ़ातेहा पढने चले आना...


आलोक यात्री 



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