मंगलवार, 15 फ़रवरी 2022

प्रेम का अनुभव / ओशो

 तुमने क्या कभी देखा, जब तुम्हारा किसी से प्रेम हो जाता है तो चित्त ठहरने लगता है। किसी स्त्री के तुम प्रेम में पड़ गए, फिर तुम लाख कामों में उलझे रहते हो, उसकी याद भीतर बहती रहती है— —सतत धारा की भांति। बाजार में हो— —और उसकी याद भीतर। दुकान पर हो— —और उसकी याद भीतर। काम कर रहे हो— —और उसकी याद भीतर। रात सोते हो, उसका सपना भीतर चलता है। दिन उसकी स्मृति। कुछ भी करते रहते हो, उसकी याद बहती रहती है। एक सातत्य हो जाता है स्मृति का। एक मृंखला बंध जाती है।


तुम्हारे जीवन में बस प्रेम का ही एक अनुभव है, जब तुम्हारे चित्त की चंचलता थोड़ी कम होती है। इसी अनुभव से सीखो। यही प्रेम बहुत विराट होकर गुरु के साथ जुड़ जाए तो चित्त अचंचल हो जाता है।


साहब येहि विधि ना मिलै चित्त चंचल भाई।


माला तिलक उरमाइके नाच अरु गावै।


फिर तुम कितनी ही माला घुमाओ, कितना ही तिलक लगाओ, कितने ही नाचो और गाओ— —अगर प्रेम नहीं लग गया है तो सब थोथा—थोथा है, सब ऊपर—ऊपर है, सब औपचारिक है, क्रियाकांड है। और तुम भेद समझ लेना। क्योंकि क्रियाकांड बहुत प्रचलित है। मंदिर में जाते हो तो फूल चढ़ा देते हो। जरा सोचना, हृदय चढ़ता है या नहीं? मंदिर के सामने से निकले, हाथ जोड़ लेते हो। प्राण जुड़ते हैं या नहीं? नहीं तो उपचार छोड़ दो। उपचार का धोखा मत रखो। उपचार पाखंड है। अगर प्राण न जुड़ते हों तो हाथ मत जोड़ो। और अगर हृदय न चढ़ता हो तो प१३२.::द)ल मत चढ़ाओ। क्या सार होगा हृदय का फूल चढ़े तो ही चढ़े। फिर बाहर का फूल भी उपयोगी हो जाता है। हृदय से जोड़ बन जाए तो कुछ ऐसा नहीं है कि धनी धरमदास कह रहे हैं कि नाचना और गाना मत। धनी धरमदास खुद खूब नाचे और गाए। उन्हीं का गीत तो हम सुन रहे हैं। यह नहीं कह रहे हैं कि नाचना और गाना मत। यही कह रहे हैं कि नाच और गाने में तुम होना, बस नाच ही गाना न हो। ओठों पर ही न हो गीत, रोएं—रोएं में समाया हो। पुकार ऊपर ही ऊपर शब्दों की न हो।


ऐसी नमाज से गुजर, ऐसे इमाम से गुजर


बेसरूर— — जिसमें नशा ही नहीं है, आंखें मदमाती नहीं हैं…! मंदिर चले गए, तुम्हारी आंख में कोई नशा नहीं दिखाई पड़ता। तुम मंदिर से लौटकर डगमगाते नहीं दिखते। शराबी बेहतर है। लड़खड़ाता तो है! तुम लड़खड़ाते ही नहीं हो! इतनी बड़ी मधुशाला में गए और ऐसे ही चले आए! होश संभाले के संभाले! बेहोशी जरा भी लगी नहीं।


तेरा इमाम बेहजर, तेरी नमाज बेसरूर


ऐसी नमाज से गुजर, ऐसे इमाम से गुजर


छोड़ो ऐसी नमाज! छोड़ो ऐसा क्रियाकांड। ऐसी प्रार्थना, जो तुम्हें न शे से नहीं भर देती, जो तुम्हें नचा नहीं देती, जो तुम्हें आनंद — मग्न नहीं कर देती, जो तुम्हारे भीतर मधु श गला के द्वार नहीं खोल देती — — छोड़ो!


जाहिदे कमनिहाद ने रस्म समझ लिया तो क्या


कसदे कयाम और है रस्मे— कयाम से गुजर


एक तो रस्म है— — उपचार। और एक असलियत है— — भाव। तुम किसी से कहते हो, ” मुझे तुमसे प्रेम है ” और भीतर कोई प्रेम नहीं हैं— — तो यह रस्मे— कयाम है। बस एक उपचार निभा रहे हो। कहना चाहिए सो कह रहे हो। फिर तुम्हारा किसी से प्रेम है और शायद तुम कहते भी नहीं, कहने की शायद जरूरत भी नहीं पड़ती, बिना शब्दों के प्रकट हो जाता है। तुम्हारे आने का ढंग कहता है। तुम्हारे देखने का ढंग कहता है। तुम्हारा हाथ हाथ में लेने का ढंग कहता है। तुम्हारी आंखें कहती हैं। तुम्हारा नशा कहता है। और अगर तब तुम कहो भी कि मुझे तुमसे प्रेम है तो उसमें अर्थ होता है। अर्थ प्राणों से आता है। अर्थ शब्दों में कभी नहीं होता। शब्द तो चली हुई कारतूस जैसे भी हो सकते हैं। भीतर बारूद होनी चाहिए।


जाहिदे कमनिहाद ने रस्म समझ लिया तो क्या?


और लोग रस्म समझ कर बैठ गए हैं, निभा रहे हैं। मंदिर जाना चाहिए सो जाते हैं। गणेश— उत्सव आ गया, सो गणेश जी की पूजा करते हैं। न गणेश जी से कुछ लेना है, न पूजा से कोई प्रयोजन है। सदा होता रहा तो करते हैं। बाप—दादे करते रहे हैं तो हम भी करते हैं। एक लकीर है, सो उसको पीटते हैं। मस्जिद जाना है तो मस्जिद जाते हैं। रविवार का दिन है तो चर्च जाते हैं। रविवारीय धर्म से उतरो, पार हटो! रविवारीय धर्म से गुजरो। रस्मे—कयाम से ऐसी नमाज से गुजर, तेरी नमाज बेसरूर!……. नशा चाहिए!


ओशो

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

साहित्य के माध्यम से कौशल विकास ( दक्षिण भारत के साहित्य के आलोक में )

 14 दिसंबर, 2024 केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा के हैदराबाद केंद्र केंद्रीय हिंदी संस्थान हैदराबाद  साहित्य के माध्यम से मूलभूत कौशल विकास (दक...