सचमुच वाणी कामधेनु है!
शब्द से कितने अर्थ दीप्त हो जाते हैं?
अर्थ मन की गहराइयों में प्रतिभासित होता है!
जैसे-जैसे अर्थ का अवगाहन करनेवाली बुद्धि शब्द के अन्तराल में प्रवेश करती जाती है,अनोंखे अर्थ प्रतिभासित होते जाते हैं।
शब्द के सूत्र को पकड कर चेतना की कितनी गहराई में कोई जा सकता है!!!
जहां सूर्य,चन्द्र,विद्युत-अग्नि का प्रकाश नहीं होता,
मन की उन गहन- गुहाओं में शब्द प्रकाशित होता है,
इसलिये वाक को चौथी ज्योति कहा गया है।
अंधेरे में भी शब्द भासित होता है।
✍🏻राजेंद्र रंजन चतुर्वेदी
भारत मेँ भाषा और शब्द के अध्ययन की परंपरा अत्यंत प्राचीन और समृद्ध है.
जब भारत मेँ एक सक्रिय, सचेतन और गतिशील समाज था, जब हमारे यहाँ ज्ञान, विज्ञान, दर्शन और कलाओँ के क्षेत्र मेँ नए से नए काम हो रहे थे, जब हमारे दस्तकार नई से नई सुंदर वस्तुएँ उत्पादित करने मेँ लगे थे, जब हमारे सार्थवाह हमारे उत्पादोँ को ले कर सारे संसार को हमारी वैचारिक और सांसारिक समृद्धि का समाचार पहुँचा रहे थे, तो महान वैयाकरण और भाष्यकार हमारी भाषा को सुसंस्कृत भी कर रहे थे.
कहा गया है कि बृहस्पति के समान गुरु भी इंद्र के समान शिष्य को हज़ारोँ वर्षों तक शब्द पारायण कराते कराते शब्द सागर का अंत नहीँ पा सके थे.
(शब्दवेध से)
विद्यालयों में संस्कृत क्यों पढ़ानी चाहिए ?
भारत के विभिन्न प्रान्तों में विद्यालयों में भाषा सम्बद्ध नीति समान नहीं है। कहीं दो भाषाएँ पढ़ाई जाती है तो कहीं तीन। 100 प्रतिशत भारतीयों की मातृभाषा कोई न कोई भारतीय भाषा है, जिनकी जननी संस्कृत है। बिना संस्कृत जाने आप भारतीय भाषाओं का पूरी तरह से आस्वाद नहीं उठा सकते। उदाहरण के रुप में ‘वन्दे मातरम्’ इस गान को लिया जाए। इसमें मूल बांग्ला शब्दों की तुलना में संस्कृत शब्द अधिक हैं। इस कारण अधिकतर जनता ‘वन्दे मातरम्’ को संस्कृत गीत मानती है। ‘जन-मन-गण’ इस गीत की स्थिति भी ऐसी ही है। क्या बिना संस्कृत जाने राष्ट्रगानों का अर्थ समझ में आ जायेगा?
भारत की सभी भाषाओं पर अंग्रेजी, फारसी, अरबी इत्यादि विदेशी भाषाओं का आक्रमण जारी है। वार्तापत्र, दूरदर्शन एवं दैनिक व्यवहार में मिली जुली भाषा का प्रयोग बढ़ता जा रहा है। ऐसी ही स्थिति रही तो भारत की किसी भी भाषा को शुद्ध बोलना अधिकांश लोगों के लिए असंभव हो जायेगा। इस संकट का एक कारण है मण्डी में आनेवाली विविध नूतन वस्तुओं के लिए नामों का भारतीय आविष्कार उपलब्ध न होना। इस कार्य को संस्कृत भाषा माध्यम से निश्चित पूरा किया जा सकता है। 1700 धातु 22 उपसर्ग और 20 प्रत्ययों के आधार पर संस्कृत में अनगिनत शब्दों का सृजन किया जा सकता है और भारतीय भाषाओं को बचाया जा सकता है। वर्तमान में 27 लाख 20 हजार शब्द संस्कृत भाषा में प्रयुक्त होते हैं। वें अर्थवाही हैं। उदाहरण के लिए हृदय शब्द को लीजिए। इसमें प्रथम धातु है हृ याने हरण करना, दूसरा है दा याने देना और तीसरा है य याने घुमाना। यह तीनों कार्य हृदय करता है।
संस्कृत भारत को जोड़ती है। यदि कोई व्यक्ति भारतभ्रमण पर निकलता है और दक्षिण भारत पहुँच जाता है तो उसे सामान्य शब्दों जैसे- पानी, खाना इत्यादि के प्रयोग की आवश्यकता पड़ती है। किन्तु दक्षिण भारत में पानी, खाना इन शब्दों को अल्प लोग ही समझ पाते हैं। उनकी अपनी भाषाओं में पानी के लिए तन्नी, वेल्लम्, नीरू जैसे शब्द हैं। किन्तु यदि आपने संस्कृत शब्द- जल, भोजन इत्यादि का प्रयोग किया तो सभी इन्हें समझ जायेंगे और आपको भूखे, प्यासे रहने की नौबत नहीं आयेगी। झारखण्ड के अधिक लोग अस्वस्थ हो जाने पर वेल्लोर का रूख करते हैं। उन्हें यह अनुभव निश्चित रूप से आता होगा। पूरा भारत अधिकांश संस्कृत शब्दों को समझता है, जैसे- चित्रम्, फलम्, चायपानम्, मधुरम् इत्यादि।
संस्कृत को बोलने के कारण सभी भारतीयों के मन में यह भाव अवश्य क्रौंधता है कि सभी भारतीय भाषाएँ संस्कृतोत्मव है। सभी भाषाओं में लगभग समान भावों की अभिव्यक्ति है। अत: तमिल् और कन्नड, कन्नड और मराठी, असमिया और बांग्ला ऐसे संघर्ष नहीं होते। भारत की एकात्मता दृढ़ होती।
भाषा केवल अभिव्यक्ति का माध्यम मात्रा नहीं है। वह संस्कारों की वाहक है। महाराष्ट्र में गुलाम दस्तगीर बिरासदार नाम के एक मुसलमान सज्जन है। धाराप्रवाह संस्कृत बोलते हैं तथा भाषण करते हैं। राज्य सरकार के द्वारा नियुक्त संस्कृत के प्रचारक हैं। सज्जन, सरल, नम्र और देशभक्त हैं। इसका कारण घर के संस्कार नहीं तो संस्कृत भाषा के संस्कार हैं। क्या संस्कृत बोलनेवाला व्यक्ति गाली दे सकता है? कभी नहीं।
इंग्लैंड देश में St. James School इस संस्था के तत्वावधान में कई विद्यालय चलते हैं। आश्चर्य यह है कि इस संस्थान के विद्यालयों में 6 वर्ष तक संस्कृत भाषा अनिवार्य रूप में पढ़ाई जाती है। उन विद्यालयों में पढ़ने और पढ़ानेवाले दोनों गोरे लोग हैं। उन्हें यह पूछने पर कि यहाँ संस्कृत क्यों पढ़ाई जाती है, वे कहते हैं –
1) Sanskrit stands at the root of very many eastern and western languages, including English and most other European languages, Classical or modern. Its study illuminates their grammer and etymology.
2) Innumerable English words can be shown to desire from forms still extant in Sanskrit.
3) Sanskrit literature embodies a comprehensive map of the human makeup, spiritual, emotional mental and physical. It presents a new way of understanding our relation to the rest of creation and lays out the laws productive of a happy life.
4) The word ‘Sanskrit’ means ‘Perfectly Constructed’. Study of its grammar brings order to the mind and clarifies the thinking.
आजकल बाबा रामदेवजी के कारण भारत के अधिकांश नागरिक यह जान गये हैं कि कपालभाती और भ्रामरी प्राणायाम का स्वास्थ्य पर कैसा अनुकूल प्रभाव पड़ता है। संस्कृत भाषा बोलते समय अधिक बार अ: इस स्वर का उपयोग करना पड़ता है। अ: का उच्चारण करते ही पेट की हवा बाहर छोड़नी पड़ती है और बिना किसी प्रयास के कपालभाती प्राणायाम हो जाता है। अं इस स्वर के उच्चारण में ‘मकार’ का उच्चारण सम्मिलित है। भ्रामरी प्राणायाम में मकार का ही उच्चारण होता है। अत: विद्यालयं, जीवनं, क्षेत्रं इत्यादि शब्दों के सतत उच्चारण से अनायास भ्रामरी प्राणायाम होता रहता है।
ऐसी ज्ञान, विज्ञान, कला जैसे समस्त शास्त्रों को अभिव्यक्त करनेवाली इस वैश्विक, संस्कारदायिनी और सटीक भाषा को क्या हमें भुला देना चाहिए? या उस संस्कृत माता के अमृतरूपी दूध को प्राशन कर सुसंस्कारित, सम्पन्न, विश्वकल्याणकारी समाज का निर्माण करना चाहिए?
जयतु संस्कृतम्! जयतु भारतम्!
-✍🏻श्रीश देवपुजारी
अ.भा. मन्त्री
संस्कृत भारती
कहा गया है- ‘संस्कृति: संस्कृताश्रिता‘ अर्थात् भारत की संस्कृति संस्कृत भाषा पर ही आश्रित या निर्भर है।
शब्द रचना की दृष्टि से यह सम् + कृ+ क्त से निर्मित है। यहाँ सम् उपसर्ग है जो समानता एवं विशेषता को व्यक्त करता है। कृ धातु करना अर्थ प्रदान करता है। क्त (क्+त) प्रत्यय भूतकाल हेतु प्रयुक्त होता है। इसका ‘क्‘ लोप होकर ‘त‘ शेष रहता है। संस्कृत-संधि के नियमानुसार सम् व कृ के मध्य स् का आगम हो जाता है। अतः संस्कृत का अर्थ हुआ – परिष्कृत किया हुआ अथवा स्वच्छ किया हुआ (वाण्येका समलङ्करोति पुरुषं या संस्कृता धार्यते– भर्तृहरि का नीति शतक उन्नीसवाँ श्लोक)। अन्य अर्थ सम्पादित, सुसज्जित, अभिमन्त्रित, अलङ्कृत व श्रेष्ठ होता है।
संस्कृति (सम्+कृ+ क्तिन) का अर्थ हुआ मनोविकास, पूर्णता, परिष्कार, सज्जता। प्रत्येक समाज व देश के नागरिकों के मनोभावों में समानता उस देश की संस्कृति कहलाती है। यथा – गुरुजनों का सम्मान, नारी का सम्मान हमारी संस्कृति है। एक उदाहरण अनेक बार दिया जाता है। जैसे – छींक आना प्रकृति है। अपने आसपास का ध्यान न रखते हुए छींकना विकृति है। सावधानीपूर्वक वस्त्र आदि से ध्वनि को कम करने हुए छींकना संस्कृति है।
संस्कार – (सम्+कृ+घञ्) का अर्थ शुद्ध अथवा परिष्कार करना। ये तीनों शब्द एक ही उपसर्ग+धातु से बनते हैं।
संस्कृत भाषाओं की जननी है। भाषा के जन्म व विकास को समझना चाहिए।
भाषा की प्रक्रिया – एक मानक भाषा के शब्दों में अशिक्षित जनों द्वारा अनभिज्ञतावश परिवर्तन किया जाता है। यह त्रुटि अथवा परिवर्तन मौखिक व लिखित दोनों प्रकार से होता है। जैसे, शाप के स्थान पर श्राप।
शिक्षितों के निर्देशों की अवहेलना कर ऐसे परिवर्तन होते रहते हैं। यह परिवर्तन दशकों तक चलता है। यह परिवर्तन मिल कर एक बोली का रूप धारण कर लेता है। बोली> लोकभाषा> विभाषा > भाषा के क्रम से यह परिवर्तन होता रहता है। भाषा की विषमता को दूर करने हेतु वैयाकरण व्याकरण की रचना कर उसका परिष्कार करता है। इस प्रकार एक नयी भाषा अस्तित्व में आती है।
जैसा कि ऊपर वर्तनी-परिवर्तन की वार्त्ता हुई। यह कैसे होता है? किसी प्राचीन आचार्य ने निरुक्त की परिभाषा देते हुए लिखा है-
वर्णागमो वर्णविपर्ययश्च द्वौ चापरौ वर्णविकारनाशौ।
धातोस्तदर्थातिशयेन योगस्तदूच्यते पञ्चविधं निरुक्तम्॥
अर्थात् निरुक्त के पांच प्रकार हैं :
वर्णागम – किसी वर्ण का आगमन। यथा, स्त्री उच्चारण के समय आरंभ में इ का आगमन हो जाता है (इस्त्री) , शाप (श्राप)। कारण अशिक्षा।
वर्ण-विपर्यय – शब्द के वर्ण परस्पर स्थान परिवर्तन कर लें। यथा, हिंस्र > सिंह। लखनऊ > नखलऊ।
वर्ण-विकार – वर्ण के उच्चारण स्थान में परिवर्तन। यथा, परशु में प महाप्राण होकर फरसा बन गया। पुत्र > पूत।
वर्णनाश – शब्द के किसी वर्ण का नाश होना। यथा, स्नेह > नेह। स् का नाश हो गया।
धातु का भिन्न अर्थ से योग जैसे उत्+हार > उद्+ हार> उद्+धार> उद्धार। अर्थात् उबारना (कष्ट से निकालना। यह बन गया उधार, जिसे लौटाना अनिवार्य है।
वर्तनी परिवर्तन का कारण क्या है?
* प्रयत्न लाघव अथवा मुखसुख। *क्षिप्र भाषण।
* अशिक्षा। * भावातिरेक। *आत्म प्रदर्शन।
* यादृच्छ शब्द। *मात्रा,सुर व बलाघात की त्रुटि। *कलात्मक स्वच्छन्दता। *लिपि दोष।* भौगोलिक परिस्थितियाँ आदि। संस्कृत का जन्म वैदिक काल की भाषा से हुआ है।
वैदिक भाषा से जनसाधारण इसी प्रकार कालक्रम में विकारों के कारण दूर होते चले गए। अतः उस नई भाषा की विषमता को दूर करने हेतु उसका व्याकरण के नियमों से परिष्कार कर उसे सम किया गया। उस सम की गई भाषा को संस्कृत नाम दिया गया। जैसे, वर्तमान में समझें तो हिंदी और मानक हिंदी। यही मानक हिंदी भविष्य में मानक नाम से प्रसिद्ध हो जाए तो हिंदी और मानक में कुछ तो अंतर आ ही जाएगा। इसी प्रकार तत्कालीन भाषा में वेदों का गठन हुआ; अत: वह वैदिक भाषा कहलाई और उसका मानक संस्करण संस्कृत। इन दोनों में कुछ अंतर ध्यातव्य है – वैदिक भाषा स्वराघात प्रधान थी, अतः उदात्त, अनुदात्त एवं स्वरित का ज्ञान आवश्यक था। उच्च स्वर उदात्त। नीचा स्वर अनुदात्त एवं सामान्य स्वर स्वरित कहलाता था। इसका अशुद्ध प्रयोग हानिकारक था। ‘इंद्रशत्रु‘ इसका प्रसिद्ध प्रमाण है – स्वर दोष के कारण अर्थ ‘इन्द्र जो शत्रु है’ के स्थान पर ‘इन्द्र जिसका शत्रु है’ हो गया और इन्द्र के नाश के उद्देश्य से प्रयुक्त मन्त्र द्वारा मन्त्र प्रयोग करने वाले इन्द्र के शत्रु का ही नाश हो गया!
इसके विपरीत संस्कृत बलाघात प्रधान भाषा है, अतः ह्रस्व और दीर्घ का ध्यान रखना आवश्यक है। प्लुत का प्रयोग दूर खड़े व्यक्ति के लिए होता था।
वैदिक में ‘लृ’ स्वर का प्रयोग प्रचुर मात्रा में हुआ है, संस्कृत में इसका अभाव है।
क्या संस्कृत जन भाषा थी?
जो कहते हैं कि संस्कृत कभी जनभाषा नहीं थी, उन्हें प्लुत के प्रयोग से जान लेना चाहिए कि यह पुकारने में ही प्रयुक्त होता है। प्लुत लिखित भाषा का अंग न कभी था, न कभी हो सकता है। दूर स्थित व्यक्ति को पुकारते समय जो स्वर का तान होता है, वही प्लुत है। यह सूत्र ‘दूराद्धूते च’ (अष्टाध्यायी ८/२/८४) यही सिद्ध कर रहा है कि पुकारने का काम जन भाषा में ही होता है।
इसके अतिरिक्त यास्क (निरुक्तकार) ने वैदिक हेतु ‘अन्वध्यायम्‘ तथा ‘दाशतयीषु‘ जैसे शब्दों का प्रयोग किया है, वहीं संस्कृत हेतु ‘भाषा’ का प्रयोग किया है। भाषा शब्द भाष् धातु से बना है, जिसका प्रयोग व्यक्त वाणी (व्यक्तायां वाचि) के लिए किया जाता है।
पाणिनि (सूत्रकाल) ने भी वैदिक के लिए ‘छंदस्‘ तथा संस्कृत के लिए ‘भाषा‘ का प्रयोग किया है।
वैयाकरण कात्यायन (वार्तिककार), पतञ्जलि (महाभाष्यकार) , राजशेखर (काव्यमीमांसा कार) ने भी अपनी रचनाओं में सिद्ध किया है कि संस्कृत पहले राजभाषा, फिर जनभाषा के रूप में प्रसिद्ध हुई।
स्रोत:- शब्दार्थ-वामन शिवराम आप्टे के संस्कृत हिन्दी कोष से साभार। शेष – भाषा विज्ञान (लेखक-कर्ण सिंह, प्रकाशन-१९७५) पर आधारित
✍🏻श्रीधर जोशी
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें