गुरुवार, 3 फ़रवरी 2022

रचनाकार को एक सीमा तक ऐक्टिविस्ट होना ही चाहिए ! से रा यात्री

 


कथाकार, उपन्यासकार से.रा. यात्री से कमलेश भट्ट कमल की बातचीत


( आजकल के जून, 2008 अंक में प्रकाशित )


से.रा. यात्री हिंदी साहित्य के उस अलमस्त और फक्कड़ तबियत के लेखक का नाम है, जिसकी सृजन-यात्रा अबाध गति से चार दशक पूरे कर चुकी है। इस अवधि में उनके पैंतीस उपन्यास, बीस कहानी संग्रह, दो व्यंग्य संग्रह व संस्मरणों की एक पुस्तक प्रकाशित हो चुकी है। इसके अतिरिक्त वे जड़ों से उखड़े हुए लोगों पर विभिन्न कथाकारों की लिखी कहानियों के संकलन का विस्थापित नाम से संपादन भी कर चुके हैं। उनकी पहली कहानी 'गर्द और गुबार' सन 1963 में कमलेश्वर द्वारा संपादित नई कहानियां में प्रकाशित हुई थी। उनका पहला उपन्यास दराजों में बंद दस्तावेज 1970 में प्रकाशित हुआ था। पहला कहानी संग्रह दूसरे चेहरे भी इलाहाबाद से ही 1971 में प्रकाशित किया गया था।दराजों में बंद दस्तावेज यात्री जी ने 1959 में दिल्ली में बेरोजगारी से जूझते हुए लिखा था ।


हिंदी की चर्चित और महत्वपूर्ण साहित्यिक पत्रिका वर्तमान साहित्य के संपादन का कार्य उन्होंने काफी लंबे समय तक किया। इस दौरान उन्होंने समकालीन युवा और युवतर लेखन को काफी गहराई से देखा। प्रस्तुत हैं उनसे हुई बातचीत के अंशः


प्रश्न : साहित्य में मर्यादा, शालीनता आदि की सीमाएं बहुत बार, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर टूटती रहती हैं। इन्हें लेकर काफी वाद-विवाद भी साहित्य में चलता रहता है। इस स्थिति पर आप क्या सोचते हैं?


असल में जो सामाजिकता के बीच में किन्हीं सामूहिक स्थितियों में जाने वाली चीज या वक्तव्य है, उसके लिए अवश्य ही भाषा और मर्यादा की रक्षा होनी चाहिए। होता यह है कि कई बार लोग आवेश में ऐसी बातें कह जाते हैं जो अवसरानुकूल नहीं होती हैं। साहित्यकार, विचारक या विद्वान के मुंह से निकली हुई बात बहुत दूर तक और देर तक ध्वनित होती है। इसलिए सामाजिक शिष्टाचार की भाषिक मर्यादाओं का पालन होना चाहिए। जो सामान्य जीवन जीने वाले व्यक्ति होते हैं, वे सोचते हैं कि जो समाज का प्रतिनिधित्व करते हैं- चाहे वे विद्वान के रूप में हों, लेखक के रूप में हों, कवि के रूप में हों या विचारक और राजनेता के रूप में हों- उनका आचरण अशोभनीय नहीं होना चाहिए। अतः वे उनसे किसी अशोभनीय आचरण या भदेस भाषा और व्यवहार की उम्मीद नहीं करते हैं। लेकिन जब कभी आदर्श की जो टूटन होती है उसका दुष्प्रभाव सीधे समाज तक आता है और तब सामान्य व्यक्ति भी ऐसे अपकृत्य से अपने आप को जस्टीफाई करने लगता है...और यह स्थिति समाज के लिए घातक बन जाती है।


कई बार यह कह दिया जाता है कि 'साहित्यकार स्वयं में कोई विशिष्ट प्राणी नहीं होता।' लेकिन मुझे लगता है कि यदि वह विशिष्ट नहीं होगा तो सामान्य जन को देने के लिए उसके पास कुछ नहीं होगा!?


देखिए, मैं यह तो मानता हूं कि साहित्यकार हर समय एक विशिष्ट प्राणी नहीं है। लेकिन यह भी एक आंशिक सत्य है कि जब वह सामान्य भौतिक दायित्वों से घिरा होता है तो वह निश्चित रूप से वह व्यक्ति नहीं होता है, जो साहित्य रचते हुए या कलाधर्म का निर्वाह करते हुए होता है। किंतु जब वह अपने कलाधर्म का निर्वाह करता है तो वह सामान्य जन से अलग हो जाता है। उसके सृजन के क्षण भौतिक जीवन के सोच के क्षणों से नितांत भिन्नता वाले होते हैं। यदि ऐसा न हो तो किसी महान रचना का सृजन ही संभव नहीं हो सकता। यह विशिष्टता है जो सामान्य जन में नहीं हो सकती। किसी रचनाकार का सामाजिक बोध सामाजिक स्थितियों में भी बहुत साधारण लोगों से अलग होता है। इसको यों समझ लीजिए, जिस समय शैलेश मटियानी किसी होटल या ढाबे में प्लेट-प्याले धो रहे होते हैं तो वह एक पहाड़ी छोकरे या नौकर का जीवन जी रहे होते हैं। लेकिन जो उनका मानस होता है वह किसी सामान्य नौकर से बिल्कुल अलग होता है। क्योंकि तब उसका सारा अनुभव रचनाकार के रचना-प्रकोष्ठ में चला जाता है।


साहित्यकार प्रायः उपेक्षा का शिकार दिखाई देता है। इसमें उसका खुद का योगदान कितना होता है और कितना समाज का ?


मैं समझता हूं कि दोनों ही तरफ से न्यूनता है। देखिए, कोई समाज जो अपने साहित्यकारों, कलाकारों, विचारकों या समाज को दिशा देने वालों को नहीं पहचानता है, सम्मान नहीं देता है, वह एक अभागा समाज है। इसका दूसरा पक्ष भी काफी महत्वपूर्ण और प्रबल है कि ऐसे लोगों की समाज के साथ सक्रिय सहभागिता बनी रहे ताकि वे उनकी उस भूमिका से परिचित होते रहें, जो सामाजिकों के हित से जुड़ी हुई हो। यों समझ लीजिए कि जैसे हमारे समाज में एक धोबी या कुम्हार है, एक नाई है, एक गायक या अभिनेता है-समाज उसके कार्य क्षेत्र को भली प्रकार पहचानता है और उससे जुड़ जाता है। उसी तरह से साहित्यकार को स्वयं भी प्रयासरत रहना चाहिए कि समाज यह निरंतर जानता रहे कि रचनाकार समाज के हित के लिए क्या-क्या सोच रहा है, क्या-क्या कर रहा है। इसके अभाव में समाज को साहित्यकार की अपेक्षा निरंतर कम होती चली जाती है और समाज को जिसकी आवश्यकता ही नहीं महसूस होगी, उसे उपेक्षा नहीं तो और क्या मिलेगा?


यहां अहम सवाल साहित्य की सोद्देश्यपरकता से भी जुड़ता है। साहित्य और समाज के आपसी रिश्ते से भी जुड़ता है।


यदि हमारे साहित्य की धमक हमारे परिवेश को नहीं हो पा रही है तो हमारे लेखन पर सहज ही प्रश्नचिह्न लग जाता है। मुझे इसमें कहीं न कहीं लेखक की वंचना अधिक नजर आती है। बिना समाज की भीतरी गहराइयों को जाने, बिना उसके विविध संकटों को समझे, मैं अपने लेखन का कोई उपजीव्य नहीं जुटा सकता। यदि मैं सारा कुछ- औजार, हथियार, कथ्य- समाज से ग्रहण करने के बाद उसे अपनी सहज अहेतुक मित्रता भी नहीं दे सकता, एक संवादात्मक स्थिति उसे नहीं दे सकता, सामाजिकों से जुड़ने का संकेत नहीं दे सकता तो यह रचनाकार की प्रवंचना ही है। या मैं यह भी कह सकता हूं कि मैं उनको छलने की प्रक्रिया में रचनारत हूं।...रचनाकार का संवाद सामाजिकों के साथ उनके स्तर पर ही हो, उनसे ऊंचा दिखकर या रहकर न हो । अब देखिए, जब देवानंद को दादा साहब फाल्के एवार्ड मिला तो लाखों लाख लोगों को लगा कि यह हमारे बीच का अभिनेता है और पिछले पचास सालों से अभिनय कर रहा है। लेकिन वहीं साहित्य एकेडमी एवार्ड किसको मिला, इससे समाज के लोगों को कोई सरोकार ही नहीं है।


साहित्यकारों के अपने परिवेश तक पहुंचने के क्या तरीके हो सकते हैं?


जैसे बिजली-पानी का संकट शहर में होता है या किसी और तरह का संकट होता है तो क्यों नहीं साहित्यकार दूसरे सामान्य जनों की तरह उसके विरोध प्रदर्शन में भाग लेता है? वहां से तो उसे तरह-तरह के अनुभव भी मिल सकते हैं! यदि रचनाकार की समाज में भागीदारी नहीं है तो रचनाधर्मिता एक 'डेड लैटर' की तरह हो जाती है। यह संवादहीनता ही परिवेश के साथ भागीदारी के प्रति हमारी सारी सोच को खोलकर रख देती है।


आपका आशय रचनाकार के एक्टिविस्ट होने से है?


रचनाकार को एक सीमा तक ऐक्टिविस्ट होना ही चाहिए। समाज के प्रति उसकी सहभागिता एक हद तक अपरिहार्य तत्व है। गणेश शंकर विद्यार्थी को देखिए? वे तरह-तरह की राजनीतिक व्यस्तता के बीच भी दंगों में जाकर उसे शांत कराने की सक्रिय भागीदारी निभाते हैं...और वहां गोली का शिकार बन जाते हैं। जिस तरह राजनीति साधारण आदमी से कट गई है, वही स्थिति साहित्यकार के साथ भी है। आज आपको एक भी अखबार, एक भी संपादक जनता का प्रतिनिधि नहीं मिलेगा। सारे संपादक, सारे अखबार बाजार के लिए हैं। मैं पहले के लगभग दर्जन भर ऐसे संपादक गिना सकता हूं जिन्होंने जनता के साथ कभी छल नहीं किया। रामानंद चटर्जी, विष्णु पराड़कर, गणेश शंकर विद्यार्थी, महावीर प्रसाद द्विवेदी-ये सारे वे लोग थे जिन्होंने बिल्कुल ‘ग्रास रूट' तक के आदमी के लिए, अहेतुक भाव से संघर्ष किया।


इस दृष्टि से तो आजादी के बाद का लेखन सुरक्षित क्षेत्र में रहकर किया जाने वाला लेखन ही कहलाएगा?


बिल्कुल यही स्थिति है। यह सारा का सारा लेखन सुरक्षा के गहरे कवच में रहकर किया गया लेखन है। इसीलिए इसका संवाद समाज के साथ दिनोंदिन कम होता जा रहा है।... पूरा का पूरा मीडिया जगत बाजारोन्मुख है, उसका साधारण जन से किसी किस्म का सहज जुड़ाव नहीं है। वह अपने हिसाब से चल रहा है ! समाज अपनी तकलीफों-दुखों में जी रहा है। पूरे मीडिया से सामान्य जन बेदखल है। लगभग उसी स्तर पर मीडिया से जुड़ा जो भी बौद्धिक और वैचारिक जगत है, उसकी भी समाज के साधारण जन से वैसी ही विरक्ति है। सारे लोग बाजार के लिए सक्रिय दिखाई दे रहे हैं। अब आप सोचिए कि प्रेमचंद को कोई सम्मान मिलता तो उस टिप्पणी और प्रतिक्रिया व्यक्त करने के लिए लाख पचास हजार तो निकल ही आते। अब जबकि दो-दो, ढाई-ढाई लाख के पुरस्कार मिलते हैं, उन पर कोई बात करने वाला नहीं होता! अर्थात ऐसे लोग समाज से कटे हुए, अपनी दुनिया में लीन लोग हैं जिन्हें विदेश यात्रा, राज्य सभा / विधान परिषदों की सदस्यता, कमेटियों की अध्यक्षता- अर्थात उपलब्धियों की एक लंबी कतार है, जिसको लेकर रचनाकार लालायित रहते हैं। ...एक जमाने में प्रगतिशीलता के पैगंबर आज सुविधा भोग के दलदल में आकंठ डूबे हुए हैं। शायद इसीलिए मुक्तिबोध जिससे मिलते थे उससे कहते थे-पार्टनर तुम्हारी, पालिटिक्स क्या है?


इन स्थितियों में आप किसी बड़े रचनात्मक अनुष्ठान की क्या संभावना देखते हैं?


बात यह है कि अपनी भाषा के गौरव को स्वीकार करने और स्थापित करने से पूर्व यह संभव नहीं लगता। न ही किसी बड़ी सार्थक रचना की संभावना नजर आती है। यह स्थिति केवल हिंदी भाषा तक ही सीमित नहीं है। इसमें सारी भारतीय भाषाओं का लंगड़ापन नजर आता है। मेरा आशय यह कि 40 वर्ष की आयु के आस-पास हमारे यहां रेणु, केदारनाथ अग्रवाल, दिनकर जैसा कोई बड़ा रचनाकार नजर ही नहीं आता। कोई बड़ी रचना सामाजिक स्वास्थ्य और सौष्ठव से जन्म लेती है। बीमार सामाजिकता से आप किसी महान बौद्धिक कृति या कालजयी रचना के सृजन की अपेक्षा नहीं कर सकते। अंततः बड़ी रचना अपरिहार्य रूप से, बड़े सरोकारों से जुड़ी होगी। जिस समाज के रचनाकारों का बहुविध सरोकारों से कोई गहरा जुड़ाव ही न हो, वहां कोई बड़ी रचनाशीलता आप किसी शून्य से निर्मित होते हुए नहीं देख सकते ।


कला के अन्य माध्यमों की तुलना में साहित्य के समाज के ऊपर पड़ने वाले प्रभावों को लेकर आप कितना आश्वस्त हैं ?


मुझे लगता है कि लोकप्रिय विधाओं में, साहित्य की अपेक्षा, अभिव्यक्ति की 'डायरेक्टनेस' लोगों को स्वतः इतना बांध लेती है कि उन्हें हथकंडे अपनाने की जरूरत ही नहीं पड़ती है । सिनेमा भी अभिव्यक्ति का साधन है। वह बहुत प्रत्यक्ष है। यह ठीक है कि वहां काम करने वाला आदमी अपने निर्णय स्वयं नहीं करता है, उसकी कलागत अभिव्यक्ति को स्वरूप देने के लिए कई फील्ड के लोग हैं, लेकिन आखिर में जो संवाद है-दर्शक या जनता के साथ, वह सीधा है। कला जितनी प्रत्यक्ष होती है, संप्रेषण के लिए उतनी ही शक्ति लगानी पड़ती है। लेकिन साहित्य में यह संप्रेषण सीधा न होकर अप्रत्यक्ष रूप से है। इसलिए उसके प्रभाव पर आने वाली प्रतिक्रियाएं इतनी सीधी नहीं हैं। आज आप एक उपन्यास लिखते हैं तो उसकी प्रतिक्रिया लंबे समय तक ध्वनित होती रहती है। सामूहिक प्रभाव बहुत देर में सामने आता है, हालांकि प्रत्यक्ष कलाओं की तुलना में वह घनीभूत होता है और बहुत देर तक रहता है। अतः साहित्य का प्रभाव अधिक सुदृढ़ है और इसीलिए साहित्य में बहुत सारा कुछ वक्त तय करता है।


हिंदी साहित्य में क्या प्रत्यक्ष संवाद की संभावनाएं नहीं बन सकतीं ?


मराठी में तो ये परंपराएं हैं। 'कथा-कथन' को विशेष रूप से देखा जा सकता है, जिसमें लोगों की भीड़ में कहानियों का पाठ होता है। इसलिए मराठी का साहित्यकार बहुत जल्दी स्थापित हो जाता है। अन्य भाषाओं में यह स्थिति नहीं है। साहित्य का निकष भी यदि पाठक के सामने प्रत्यक्ष प्रस्तुतीकरण के रूप में आ जाए तो लेखक का कद, उसकी सामर्थ्य, उसकी सफलता/विफलता बहुत जल्दी स्थापित हो सकती है। लेकिन हिंदी के रचनाकार और उसके पाठक के बीच में इतनी दूरी है कि उसे पाटने का हमारे सामने अभी कोई कारगर उपाय नहीं है। हिंदी के किसी बड़े से बड़े लेखक की तुलना में हिंदी का द्वितीय श्रेणी का मंचीय कवि कहीं अधिक लोकप्रिय है, क्योंकि उसका संवाद डायरेक्ट होता है। है


लेकिन डायरेक्ट संवाद और रचनात्मकता का संबंध हमेशा स्तरीय और उपयोगी ही हो, ऐसा तो नहीं होता-जैसा हमारे कवि सम्मेलनों में हो रहा है?


रचनाशीलता के तो कई स्तर हैं लेकिन उनमें जो चीजें गहरे आकलन, अन्वेषण या सोच से जुड़ी हैं या कोई भी कला जो बहुत गंभीर संदर्भों से जुड़ी होगी-उसमें उस तरह की लोकप्रियता कभी प्राप्त नहीं हो पाती। हमारा हिंदी का गंभीर साहित्य और इसी तरह शास्त्रीय संगीत भीड़ को उस तरह प्रभावित नहीं कर पाता है।


फिर 'कथा कथन' जैसी स्थितियां हिंदी में कैसे आ सकती हैं? कैसे लाई जा सकती हैं ?


आपको इसके लिए भी पाठकों को एक संस्कार देना पड़ेगा। फिर धीरे-धीरे स्थितियां बदलेंगी। आप टी.वी. पर सास-बहू के झगड़े और अवैध संबंध परोसकर चिंतनपरक चीजों का संस्कार नहीं दे सकते। 


समांतर सिनेमा की विफलता के कारण, कहीं यही सब तो नहीं हैं? क्योंकि व्यावसायिक सिनेमा ऐसे संस्कारों के लिए गुंजाइश ही नहीं छोड़ता?


बिल्कुल यही बात है। जो व्यावसायिकता की व्यापक भीड़ है, उतनी संख्या में गंभीर प्रयास करने वाले भी हों तो यह स्थिति बदल सकती है। आज जिस तरह से बाजार की स्थितियां बहुत व्यापक हो गई हैं, उनमें अच्छे प्रयत्नों को स्थापित करने के लिए भी विज्ञापन एक आवश्यकता बन चुका है। अतः आज यदि अच्छे प्रयास, चाहे वे साहित्य, कला या अन्य किसी क्षेत्र के हों-उनका सम्यक प्रचार-प्रसार होगा तभी वे बाजार में टिक सकेंगे। यदि हम साहित्य को एक व्यावसायिक सफलता का स्वरूप दे दें तो इसमें हर्ज क्या है !


लेकिन हमारे यहां प्रकाशकों के स्तर पर पुस्तकों का व्यावसायिक विज्ञापन प्रायः होता ही नहीं है। तो फिर व्यावसायिक सफलता का स्वरूप कैसे मिल सकता है?


यही तो विडंबना है। न तो प्रकाशक अपने स्तर पर किताबों को लोकप्रिय बनाने का प्रयास करता है और न ही रचनाकार के स्तर पर ऐसा हो पाता है। हां, प्रकाशकों की दौड़ यह अवश्य रहती है कि पुस्तक किसी तरह से पाठ्यक्रमों में शामिल हो जाए। बाजार में मिट्टी से लेकर मिठाई तक के उत्पादक को पता रहता है कि उसका उपभोक्ता कौन है, कहां रहता है। लेकिन मात्र साहित्य ही एक ऐसी चीज है जहां न तो निर्माता के सामने ग्राहक का कोई चेहरा है और न ही प्रस्तुतकर्ता को पता रहता है। तो यह एक अजीब स्थिति है साहित्य के साथ।


कहा यह जा सकता है कि बाजार की जो स्थितियां हैं वे साहित्य की सफलता-विफलता या रचनाकार की स्थापना का निर्धारण कर रही हैं?


बिल्कुल यही स्थिति है। पिछले दस-पंद्रह वर्षों में आपने देखा होगा कि जिन किताबों के बारे में विवाद पैदा हुए हैं या विवाद पैदा किए गए हैं वे गर्म पकौड़ी की तरह बिकी हैं-रश्दी, नॉयपाल, अरुधंती राय की किताबें या हैरी पॉटर इसी बिना पर बिकी हैं। इन किताबों की ऐसी जबर्दस्त मार्केटिंग की गई कि लोग इन्हें खरीदने को उत्सुक हो उठे या ये खरीददारों के लिए स्टेटस सिंबल बना दी गई। यहां कीमतों का भी कोई मतलब नहीं रहा है।


इस कड़ी में तस्लीमा नसरीन की 'क' सबसे ताजा उदाहरण है जहां शारीरिक संबंधों की चर्चा की गई है। ऐसी पुस्तकें समाज के लिए कितनी उपयोगी हैं ?


क, (द्विखंडिता) जैसी किताबें बाजार के लिए तो उपयोगी हैं। लेकिन समाज के लिए कितनी उपयोगी हैं, इस पर तत्काल ठीक-ठीक नहीं कहा जा सकता। क्योंकि गुणवत्ता के स्थापित होने में तो समय लगता है। विवादित चीजें भी अंततः गुणवत्ता के बल पर ही ठहर पाती हैं- चाहे लेडी चैटरलीज लवर (डी.एच.लारेंस), नाना (एमिल जोला) हो या इस तरह की कुछ और किताबें । होता यह है कि उछाली गई चीजें बहुत जल्दी बाजार का उद्देश्य पूरा करके गायब हो जाती हैं। लेकिन साहित्य के लिए केवल प्रचार-प्रसार वाली व्यावसायिकता ही काफी है। आपाधापी और शोर-शराबे वाली व्यावसायिकता उसके लिए जरूरी नहीं है।


इस दिशा में रचनाकारों का खुद का क्या योगदान हो सकता है?


रचनाकार के व्यक्तित्व का एक जो स्वरूप है, उसका बहुत प्रभाव पड़ता है। वह उससे पाठक समुदाय को प्रभावित तो कर ही सकता है। बंगाल में तो जब महत्वपूर्ण रचनाकार अपनी पुस्तकों को हस्ताक्षर करके बेचता है तो लोग लाइन लगाकर खरीद लेते हैं। लेकिन रचनाकार स्वयं को इतना बड़ा बनाए तो! पत्र-पत्रिकाओं और पुस्तक प्रकाशकों को भी इस बारे में सोचना चाहिए। वे खुद अपने रचनाकार को कितना बड़ा बनाकर प्रस्तुत करने का प्रयास करते हैं, यह बहुत महत्वपूर्ण हो सकता है। लेकिन यह भी हुआ है कि प्रकाशकों ने तृतीय श्रेणी के रचनाकारों को बड़ा बनाकर खड़ा किया, लेकिन वे खारिज हो गए! क्योंकि खारिज हो जाना उनकी नियति थी।... और फिर रचना भी हमारी संतान जैसी है। हम यदि रचना को हर तरफ से प्रकाशमान करने का प्रयास करेंगे तो वह उजागर होगी। रचनाओं को उनका सम्मानजनक स्थान मिलना चाहिए। यह उन्हें रेखांकित और स्थापित करने के लिए आवश्यक है। साथ ही उन्हें एक सीमित विज्ञापन और प्रचार की भी आवश्यकता है।


आपका बहुत समय विद्यालयों में अध्यापन में गुजरा है। आपको लगता है कि कालेज और विश्वविद्यालय-स्तर पर साहित्य के लिए कोई उर्वर मानसिकता का विकास हो रहा है?


मुझे नहीं लगता कि ऐसा हो रहा है! विश्वविद्यालयी शिक्षा, भारतीय परिप्रेक्ष्य में, बहुत अधूरी शिक्षा व्यवस्था है। यहां ज्ञान का सीधा संबंध आस्था और जिज्ञासा से नहीं है। विद्यार्थी का जो मनोजगत है और उसकी जो पूरी दैहिक क्षमता है, उसमें कभी कोई संतुलन हमारी इस शिक्षा व्यवस्था ने उपलब्ध ही नहीं कराया! क्योंकि जिज्ञासु का जो स्वरूप है, जो क्षमताएं हैं और उन क्षमताओं की जो व्याप्तियां हैं, उन्हें जानने का मार्ग विद्यार्थी और शिक्षक के बीच में गहरी संपृक्ति की अपेक्षा रखता है। जबकि व्यावहारिकता में ऐसा है ही नहीं। यही कारण है कि हमारा जो सर्वोत्तम है, एक जीवित मेधा के रूप में उसका शिखर विकास कभी हो ही नहीं सका। एक जिज्ञासु के रूप में हमें शिक्षक से अपना संपूर्ण प्राप्त हो सकने की संभावनाएं प्रायः क्षीण रही हैं।... आधुनिक शिक्षा की शैलीगत परंपराओं ने शिक्षार्थी को अपने शिक्षक की मेधा का संपूर्ण प्राप्त करने का मार्ग कभी सहज नहीं बनने दिया। कहने का आशय यह कि इस व्यवस्था में अध्यापक व छात्र की अंतरंगता उस तरह बन ही नहीं पाती जो अभीष्ट होती है। मैं स्वयं भी अपने छात्रों को अपने व्यक्तित्व का जो कुछ देना चाह रहा था, उसका बहुत छोटा अंश ही उन्हें दे पाया।


साहित्य के संदर्भ में इस शिक्षा व्यवस्था के योगदान का संदर्भ तो अनुत्तरित ही रह गया!?


हां, साहित्य सृजन और रचनात्मकता के संदर्भ में जिस तरह का प्रोत्साहन पहले विद्यार्थियों को प्राप्त हो जाया करता था, वह लगभग जीर्ण-क्षीर्ण स्थिति में पहुंच गया है। इससे रचनात्मक प्रतिभा वाले विद्यार्थियों के लिए और भी कठिनाई हो गई है। अब तो रचनाकार को अपने रुझान के अनुसार एकल कौशल और वैयक्तिक संघर्षों पर ही निर्भर करना पड़ता है। अब विद्यालयों में ऐसे शिक्षक नहीं बचे हैं जो अपनी रचनात्मकता से विद्यार्थियों को कोई प्रश्रय या दिशा-निर्देश दे सकें। कोढ़ में खाज यह कि अच्छी पत्रिकाएं और जुझारू संपादक न होने के कारण रचना और रचनाकार दोनों उपेक्षित हो जाते हैं।... मैं समझता हूं कि एक बहुज्ञ संपादक जिस तरह का प्रोत्साहन दे सकता है, रचनाकार को परिवर्धित करके उन्हें उत्कृष्ट बना सकता है-उसकी गुंजाइश नहीं बची है। यही कारण है कि छठे-सातवें दशक तक स्थापित हो जाने वाली विभूतियों के बाद उतने पुख्ता और शिखर व्यक्तित्व स्थापित नहीं हो पा रहे हैं! साहित्य में चालीस वर्षों पहले सुने गए रचनाकारों के नाम-वही के वही-आज भी दुहराए जा रहे हैं और उसके बाद आने वाली दो पीढ़ियां, जिनके रचनाकारों को अब तक स्थापित हो जाना चाहिए था, आकलन के अभाव में अपना कोई स्वरूप निर्धारित नहीं कर पाईं।


इस संदर्भ में आलोचना की भूमिका बड़ी महत्वपूर्ण होती है। क्या टिप्पणी करना चाहेंगे आप समकालीन आलोचना पर?


चालीस वर्षों में विधाओं और रचनाकारों के समग्र आकलन का अभाव निरंतर बढ़ता चला गया है। आज हिंदी में किसी भी साहित्यिक विधा में व्यापकता और संपूर्ण परिदृश्य को दृष्टि में रखने वाला एक भी आलोचक अपनी रचना-दृष्टि से कोई भी शिखर-व्यक्तित्व स्थापित नहीं कर पाया है। रचना के स्थान पर केवल टुकड़ों में और व्यक्तिपरक आकलन को स्थापित करने का प्रयत्न ही सर्वोपरि दिखाई देता है। यदि इन स्थितियों में कोई अपेक्षित परिवर्तन नहीं आया तो हिंदी साहित्य अपनी कितनी ही महत्वपूर्ण रचनाओं और विभिन्न विधाओं में साहित्यिक व्यक्तित्वों की स्थापना में घोर असफल होकर ही रह जाएगा!


आलोचना की इस विफलता के क्या कारण नजर आते हैं ?


साहित्य का समग्रता में आकलन करने वाले किसी बड़े रचनाधर्मी अन्वेषक का अभाव ही इसका प्रमुख कारण रहा है। नगेंद्र के बाद नामवर सिंह के अलावा आलोचना में हमारे पास कोई बड़ा व्यक्तित्व नहीं है। आलोचना-कर्म का दायित्वपूर्ण ढंग से निर्वाह करने के लिए एक सम्यकता और शोध-दृष्टि का अभाव भी इसका कारण हो सकता है। हमारे पास आलोचना के प्रखर व्यक्तित्व तो हैं जैसे-मैनेजर पांडेय, मधुरेश, विश्वनाथ त्रिपाठी, विजय मोहन सिंह, खगेंद्र ठाकुर आदि, लेकिन इनमें से कोई भी पूरी समग्रता के साथ समर्पण भाव से साहित्य की किसी भी विधा के प्रति आलोचनारत नहीं हो पाया है।


हो यह रहा है कि हमारे विद्वान साहित्यिक सम्मेलनों, सेमिनारों और इसी तरह के मंचों पर अपनी शक्ति का उपयोग कर रहे हैं। लेखन के प्रति यह मानसिक शैथिल्य महत्वपूर्ण रचनाओं को समझने-समझाने तथा स्थापित करने का अवसर उपलब्ध ही नहीं होने देता। जो काम लेखन से किया जाना चाहिए, वह सिर्फ भाषणबाजी में नष्ट किया जा रहा है। संभवतः इसका कारण व्यापक अध्ययनशीलता की संभावना से वंचित होने में भी देखा जा सकता है। आलोचना का दायित्व पुनर्पाठ और पुनः अध्ययन तथा जांच-पड़ताल की संभावना से जुड़ा हुआ है लेकिन ऐसा हो नहीं रहा है। यह प्रकारांतर से आलोचकों का रचना से पलायनवाद भी कहा जा सकता है।


आपको लगता है कि आपका सही मूल्यांकन किया गया है?


मेरा कोई मूल्यांकन नहीं हुआ है और न ही इसका मुझे कोई खेद है! जैसे लोग आज मूल्यांकन करने वाले हैं, उनके व्यक्तित्व में मुझे आस्था नहीं है। यदि वे मेरा मूल्यांकन कर भी देते तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता। यदि हजारी प्रसाद द्विवेदी या रामचंद्र शुक्ल जैसा व्यक्तित्व होता तो मूल्यांकन न हो पाने की तकलीफ अवश्य होती ।


इन दिनों पठन-पाठन और लेखन दोनों में आपकी रुचि कहानी, उपन्यास की तुलना में संस्मरण, आत्मकथा, यात्रा वृत्तांतों आदि में बढ़ी है। इस विचलन के पीछे क्या है?


यह विचलन नहीं, बल्कि सृजन का ही एक आयाम है। आपको याद होगा, प्रेमचंद ने एक जगह कहा है कि अगला लेखन आत्मलेखन, जीवनी और संस्मरणों का होगा। मुझे लगता है कि लेखक की सर्जनात्मकता के जो बहुआयाम हैं, उनमें कहीं न कहीं ऐसा भी होता है कि वह जीवन के अनुभवों और यथार्थ को बिना किसी लाग-लपेट और कल्पना की चाशनी के, सीधे-सीधे ही व्यक्त करना चाहता है। क्योंकि बहुत लंबे समय के बाद एक खास उम्र में आकर कल्पना की उड़ान भरने या - सप्रयास चीजों को गढ़ने में रुचि नहीं रह जाती है या कम हो जाती है। यही क्यों, आप देख रहे हैं कि इन दिनों प्रायः उपन्यास और कहानियां भी एक तरह से, अपने ही बीच के लोगों की जीवनचर्या से जुड़ी हुई आ रही हैं। यह क्या है! यह यथार्थ को बहुत क्लिष्ट कल्पनाओं के माध्यम से न पकड़कर सीधे-सीधे अभिव्यक्त करना ही तो हुआ।


..फिर पाठकों की भी यह इच्छा होती है कि रचनाकार के अनुभवों को सीधे-सीधे जाना जाए। यह भी होता है कि जिस तरह की बोल्डनेस ... इन विधाओं में आ पाती है, वैसी कल्पना-जगत में संभव नहीं हो पाती है और लेखक कई बार इस तरह की बोल्डनेस को पकड़ना चाहते हैं ।


इस तरह की रचनाओं को किस हद तक क्रिएटिव मानते हैं ?


ये रचनाएं नाटक, कहानी, उपन्यास, कविता या डायरी आदि का मिला-जुला स्वरूप होती हैं। मेरी अपनी पुस्तक लौटना एक वाकिफ उम्र का भी ऐसी ही है। मेरा उपन्यास बैरंग खत तो खालिस संस्मरणों पर ही आधारित है, जिसमें एकाध को छोड़कर पात्रों के नाम तक नहीं बदले गए हैं। ऐसी रचनाओं को लिखने में आसानी होती है क्योंकि कल्पना की आवश्यकता ही नहीं पड़ती है। ये सारी चीजें आपके अंदर पहले से ही अन्वेषित होती हैं। ... जैसे-जैसे आपके अंदर का अनुभव बढ़ता जाता है, आपको बाहरी मिलावट की आवश्यकता ही नहीं रह जाती है। कबीर ने तो कहा भी है-'तू कहता कागद की लेखी, मैं कहता आंखिन की देखी!'


वर्तमान साहित्य जैसी अत्यंत महत्वपूर्ण कथा-पत्रिका का आपने कोई सत्रह वर्षों तक संपादन-कार्य देखा है। जाहिर है, इस के दौरान आपने युवा और युवतर पीढ़ी के कथा लेखन को भी काफी नजदीक से देखा है। इस लेखन की प्रवृत्तियों पर आप क्या कुछ कहना चाहेंगे?


कथा लेखन में आज की जो नई पीढ़ी आई है उसमें डायरेक्टनेस बहुत है। ... उसमें विद्रोह तथा वैश्विक पतनशील प्रवृत्तियों का उभार भी बहुत है। कमी सिर्फ यह है कि अनुभव की सघनता को क्लासिक एप्रोच देने के लिए जिस धैर्य की आवश्यकता होती है, उसका थोड़ा-सा अभाव है! ... दूसरे, नए लेखकों को चर्चा के लिए प्रायः प्लेटफार्म नहीं हैं। सारे रचनाकार एक अंधी दौड़ के दौर में हैं। उनमें कौन कहां तक पहुंचेगा, कुछ नहीं कहा जा सकता है!


आप क्या कुछ सोचकर साहित्य-क्षेत्र में आए थे? क्या वह सब कुछ उसी तरह हो पाया?


मैं साहित्य में कुछ सोचकर आया नहीं था। मैं तो कोई दस वर्षों तक प्रेमगीत लिखता था, जो आकाशवाणी आदि से भी प्रसारित होते रहते थे। सन 60 के बाद मैंने पढ़ा बहुत था और तब मुझे लगा कि प्रेमगीतों के माध्यम से मैं कोई बड़ी बात या अधिक लोगों की बात या बहुत व्यापक समुदाय के संघर्ष से जुड़ने वाली बात नहीं कह सकता था। तब हिंदी में ग़ज़ल की ऐसी चर्चा, ऐसी स्थिति नहीं थी; नहीं तो शायद मैं भी ग़ज़लें ही लिखता।...


इसलिए मुझे लगा कि कहानी एक बड़ा माध्यम है तो मैंने कहानियां लिखनी शुरू कर दीं। फिर लगा कि बात को और भी विस्तार से कहने के लिए उपन्यास जरूरी है। इस तरह से दो सौ-ढाई सौ कहानियां व तीस-चालीस उपन्यास लिख डाले। ...फिर मुझे लगा कि मेरी सभी रचनाओं में सामाजिक गलाजत पर एक व्यंग्यात्मक टिप्पणी है, तो व्यंग्य भी लिखना शुरू कर दिया और दो व्यंग्य-संग्रह-दुनिया मेरे आगे और किस्सा एक खरगोश का आ गए। फिर मुझे लगा कि मेरे पास जीवन के इतने सारे अनुभव हैं तो उन्हें कलमबंद करने के लिए संस्मरण लिखने शुरू कर दिए। मेरे संस्मरण प्रायः आम आदमियों और स्थितियों पर हैं। हां, मैंने भीष्म साहनी, विष्णु प्रभाकर, उपेंद्रनाथ अश्क, राजेंद्र यादव, राजेंद्र सिंह बेदी, धर्मवीर भारती आदि पर भी संस्मरण लिखे हैं जो अभी तक पुस्तक रूप में नहीं आ पाए हैं।


क्या कुछ नया लिखने की योजना है?


जिंदगी से मुझे जो भी कुछ मिला, उसके बारे में एक दृष्टिकोण तो यह है कि मुझे कुछ भी नहीं मिला और दूसरा यह कि जो मुझे मिला, क्या मैं उसके लायक था-उसको 'डिजर्व' करता था। इस द्वंद्व को मैं 'क्या खोया क्या पाया' शीर्षक से उपन्यास के रूप में लिखना चाहता हूं।


 इतनी बड़ी साहित्यिक यात्रा में क्या कुछ ऐसा भी था जिसे आप लिखना चाहते थे, लेकिन लिख नहीं पाए?


यह बहुत अच्छा सवाल किया। शुरू में हर बात लिखने लायक लगती थी, इसलिए मैं लगातार उपन्यास, और कहानियां लिखता गया। तब मैं हर बात, हर अनुभव में एक उपन्यास, एक कहानी तलाशता रहता था। लंबे वक्त और अनुभव से गुजरने के बाद लगने लगा है कि तमाम बातें तो बहुत साधारण हैं। क्योंकि तब आपके अंदर एक दार्शनिक आकर बैठने लगता है। यह दार्शनिक संवेदना को मंद करने लगता है। इसलिए ऐसी घटनाओं और चीजों से कहानियों की तलाश अब नहीं कर पाता। लेकिन जब किसी घटना का पात्र स्वयं होता हूं तो संवेदना जाग्रत होती है, लेकिन तब मैं कहानी या उपन्यास के बजाय डायरी या संस्मरण लिखता हूं।


जीवन को किस रूप में परिभाषित करना चाहेंगे आप?


मुझे तो लगता है कि जीवन जीते चले जाने की चीज है, जो दिनचर्या का दुहराव मात्र है। शेष कुछ आपके हाथ मे नहीं है। लेकिन मेरा मानना है कि जीवन सार्थकता को तलाश करते हुए जिया जाना चाहिए। दूसरे शब्दों में यही रचनात्मकता है और इसी से आप वृहत समुदाय से जुड़ते हैं।



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