शुक्रवार, 11 फ़रवरी 2022

आह को चाहिए इक उम्र असर होने तक./ आलोक यात्री


🖇️ आह को चाहिए इक उम्र असर होने तक...


हुआ यूं के ...

 पिताश्री ने घंटी बजाई

रात के करीब सवा दस बजे

उनकी घंटी की आवाज़ पर आसपास मौजूद सभी लोग दौड़ पड़ते हैं

दौड़ मैं भी पड़ता लेकिन... "बारादरी" में उलझा हूं

लौट कर पत्नी ने बताया "आप को बुला रहे हैं..."

कहीं किसी मिसरा ए उला

मिसरा ए सानी में उलझे हुए थे

कुछ गेसू थे..., कुछ बाल थे..., कुछ जुल्फ़ थीं

सुलझाने के लिए...

अक्सर यही होता है

मेरे साथ भी होगा शायद...

उम्र के इस पड़ाव पर

जब याददाश्त साथ नहीं देगी

मुझे लगा कि असद मियां के साथ भटक रहे हैं कहीं

मामला वही निकला... चचा ग़ालिब के साथ ही मुब्तिला थे...

आह को चाहिए इक उम्र असर होने तक... पर अटके थे

जितना याद था, ग़ालिब साहब का उतना दीवान उन्हें सुनाया

मज़ा आ गया... बाप हो तो ऐसा... बिन पिए भी कहे...


आह को चाहिए एक उम्र असर होने तक 

कौन जीता है तेरे ज़ुल्फ़ के सर होने तक


आशिक़ी सब्र तलब और तमन्ना बेताब 

दिल का क्या रंग करूं खून-ए-जिगर होने तक 


हम ने माना के तग़ाफुल न करोगे लेकिन 

खाक हो जाएंगे हम तुम को खबर होने तक


ग़म-ए-हस्ती का 'असद' किससे हो कुज़-मर्ग-ए-इलाज 

शमा हर रंग में जलती है सहर होने तक


... लेकिन मेरा लिखा / पढ़ा उन तक पहुंचता नहीं


लगता है

यही कहते हैं

"अपनी धुन में रहता हूं..."

8 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी लिखी रचना  ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" रविवार 13 फरवरी 2022 को साझा की गयी है....
    पाँच लिंकों का आनन्द पर
    आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  2. रचना अच्छी है
    कहीं कहीं चन्द्रबिंद का नहीं होना विचारणीय है

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  3. आल्हा अंदाज।
    अभिनव प्रस्तुति ।
    हृदय स्पर्शी रचना।

    जवाब देंहटाएं

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