पूरा नाम | विद्यावती 'कोकिल' |
जन्म | 26 जुलाई, 1914 |
जन्म भूमि | हसनपुर, मुरादाबाद, उत्तर प्रदेश |
कर्म भूमि | भारत |
कर्म-क्षेत्र | काव्य लेखन |
मुख्य रचनाएँ | 'सुहागिन', 'माँ', 'सुहाग गीत', 'पुनर्मिलन', 'फ्रेम बिना तस्वीर', 'अमर ज्योति' तथा 'सप्तक' आदि। |
भाषा | हिन्दी |
प्रसिद्धि | कवियित्री |
नागरिकता | भारतीय |
अन्य जानकारी | विद्यावती 'कोकिल' की 'सप्तक' नामक रचना एक विस्तृत भूमिका के साथ अरविन्द की सात कविताओं का मूल युक्त हिन्दी अनुवाद है, जो 1959 में सामने आया। इनका 'अमर ज्योति' नामक महाकाव्य अभी अप्रकाशित है। |
इन्हें भी देखें | कवि सूची, साहित्यकार सूची |
जीवन परिचय
विद्यावती 'कोकिल' का जन्म 26 जुलाई, सन 1914 ई. में हसनपुर, मुरादाबाद (उत्तर प्रदेश) में हुआ था। इनके जीवन का अधिकांश समय प्रयाग (वर्तमान इलाहाबाद) में बीता। इनका परिवार पुराना आर्य समाजी तथा देश-भक्त रहा है। स्कूल-कॉलेज काल से ही इनकी काव्य-साधना प्रारम्भ हो गई थी। अखिल भारत के काव्य-मंचों एवं आकाशवाणी केन्द्रों से फैलती हुई इनकी सहज-मधुर काव्य-स्वरलहरी इनके 'कोकिल' उपनाम को सार्थक करती रही है। 'भारतीय स्वतंत्रता संग्राम' में इन्होंने कारावास यात्रा भी की। अनेक सेवा-संस्थाएँ तथा जनायोजन इनके सहयोग से सम्पन्न होते रहे। इन्होंने पाण्डीचेरी के 'अरविन्द आश्रम' में भी समय व्यतीत किया और अरविन्द दर्शन को कवि-सहज अनुभूतियों प्रदान कीं।काव्य रचना
सन 1940 ई. में विद्यावती 'कोकिल' की प्रारम्भिक रचनाओं का प्रथम काव्य-संकलन प्रणय, प्रगति एवं जीवनानुभूति के हृदयग्राही गीतों के संग्रह-रूप में प्रकाशित हुआ था। सन 1942 ई. में 'माँ' नाम से इनका द्वितीय काव्य-संग्रह सामने आया। सम्पूर्ण विश्व को प्रजनन की एक महाक्रिया मानकर मातृत्व की विकासोन्मुख अभिव्यक्ति एवं लोरियों के माध्यम द्वारा 'माँ' में जीव के एक सतत विकास की कथा का द्योतन इस रचना का लक्ष्य है।सन 1952 में इनकी 'सुहागिन' नाम की तृतीय कृति प्रकाश में आयी। इस संकलन के 'अब घर नहीं रहा, मन्दिर है' और 'तुझे देश-परदेश भला क्या?' आदि गीत जहाँ एक ओर सुहाग का एक विशद एवं महान रूप उपस्थित करते हैं, वहीं स्वर के आलोक में परम-तत्त्व के साथ तादात्म्य और अंतर्मिलन का मर्मस्पर्शी स्वरूप भी उद्धाटित करते हैं। इस कृति ने विद्यावती 'कोकिल' जी के गीतकार को महिमान्वित किया है। गीतों की विभोरता, तन्मयता एवं सहज अनुभूतिशीलता आज के नारी-मनोविज्ञान, सामाजिक यथार्थ एवं मानवीय आकांक्षा को भजनों की पावनता प्रदान करती दिखाई देती हैं। शब्द, स्वर एवं प्रभाव जल और लहरी की तरह अभिन्न हो चुके हैं। भाषा अत्यंत सरल, सहज देशज प्रभावों से मधुर और प्रवाहपूर्ण होती है। इन गीतों में धरती के यथार्थ और आकाश के आदर्श का मणि-कांचन संयोग उपस्थित हुआ है, इसलिए विद्वानों ने 'सुहागिन' में जीवन के तत्त्वों की गहन परीक्षा, सत्य की खोज, साम्य की अंवेषणा एवं वेदना की मधुरता के साथ विकास की स्वस्थ आकांक्षा और जीवन जागरूकता का भी दर्शन किया है।
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